मंगलवार, 22 जुलाई 2025

बौद्धिक बेईमानी क्या है?

जब कोई व्यक्ति या समूह या वर्ग जानबूझकर किसी झूठ का "बौद्धिकीकरण" करता है, तो उसे  ही "बौद्धिक बेईमानी' कहते हैं। बौद्धिकता के संदर्भ में 'जानबूझकर' ऐसे काम को करना जो नहीं करना चाहिए, यानि स्पष्ट मंशा से समाज विरोधी बौद्धिक उपागम करना, यानि दिखाना कुछ और एवं करना उसके विरुद्ध, इसे ही बेईमानी समझा जाता है। "बौद्धिकीकरण" का तात्पर्य किसी अति सामान्य, सरल, सहज एवं साधारण तथ्य, विचार, भावना या व्यवहार को इस तरह समाज के समक्ष प्रस्तुत किया जाना, मानों ये सब उत्कृष्ट, उच्च्ततर, असाधारण और अति विशिष्ट हो।

लेकिन "बौद्धिकीकरण " करने में सिर्फ बौद्धिक बेईमान ही नहीं होते, अपितु बहुत से रिटायर्ड लोग भी होते हैं, जो अपने शेष जीवन के समय काटने के लिए बौद्धिकता का व्यायाम करते हुए होते हैं। चूंकि ऐसे रिटायर्ड लोग अपनी किताबों की बंधी बधाई दुनिया से बाहर देख समझ नहीं सकते, इसीलिए ये लोग बौद्धिक बेईमान नहीं हो पाते। दरअसल ये रिटायर्ड लोग समाज में कुछ भी नवाचार नहीं कर पाते, इसीलिए समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के भ्रम में ही समस्त जीवन गुजार देते हैं।

मैं यहाँ थोड़ा विषयान्तर हो गया था। समाज का बौद्धिक बेईमान वर्ग बौद्धिकता के उपकरणों के सहारे एक समानान्तर आभासी (मायावी) दुनिया बनाता है, जिसमें उस वर्ग की बौद्धिकता तथाकथित विशिष्टता, सर्वोच्चता, भिन्नता और दिव्यता पर आधारित होता है। इस दिव्यता का आधार जन्म से और पूर्व जन्म के लक्षणों से निर्धारित माना जाता है, जिसे आधुनिक विज्ञान कतई नही मानता है। अधिसंख्य बौद्धिकों की अधिकतम ऊर्जा हमारे अस्तित्व की प्रकृति और नियति को बेहतर बनाने में नहीं लगाया जाता। इनका ध्यान हमारे जीवन के पार की दुनिया में ही लगा रहता है, और यही बौद्धिक बेईमानी है। ऐसा अधिकतर जानबूझकर ही किया जाता है। मानवेत्तर शक्तियों और स्थितियों के विश्लेषण एवं अध्ययन पर समय, उर्जा, वैचारिकी और संसाधन लगाना और ऐसा ही दूसरों को करने के लिए प्रेरित करना, भी "बौद्धिक बेईमानी" है।

यदि कोई वास्तविक बौद्धिक वास्तविक जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए वैचारिक रुप में  जूझता होता है, तब बौद्धिक बेईमान ऐसे बौद्धिकों के चिंतन एवं प्रयास को मूर्खतापूर्ण बताकर भ्रम पैदा कर दे रहे हैं। ये बौद्धिक बेईमान सदैव ही जीवन मृत्यु के रहस्यों, जन्म जन्मान्तर की प्रक्रियाओं और अलौकिक अस्तित्व के चिंतन में सारे विश्व को डुबोए रखना चाहते हैं, जिस आभासी दुनिया में वे दिव्य माने जाते हैं। ये बेईमान जीवन की वास्तविकताओं से संबंधित मुद्दों को नीरस, उबाऊ, रहस्यपूर्ण और कपोल कल्पित बता कर जीवन की वास्तविकताओं को ही नकारता हुआ होता है।

बौद्धिकता का सार (Essence) यानि बौद्धिकता की दुनिया के केन्द्र में अवश्य ही जीवन, समाज और व्यवस्था (सत्ता) होता है, इसके बाहर का विमर्श बौद्धिक बेईमानी ही है। जीवन का कोई भी परिणाम अपनी द्वैत अवस्था का परिणाम होता है, और यह द्वैत अवस्था विचार और कर्म का होता है। अर्थात जीवन का कोई भी परिणाम बौद्धिकता और व्यवहारिकता (कर्म) का संयुक्त उत्पाद होता है। इन दोनों में किसी के भी शून्य होने पर परिणाम शून्यता में आ जाता है। बौद्धिक बेईमान सामान्य लोगों की बौद्धिकता को शून्य कर देते हैं और इसीलिए कर्म करने के बाद भी उनके जीवन का वास्तविक परिणाम शून्य हो जाता है। हर बौद्धिकता का एक भौतिक सामाजिक आधार होता है। यह भी सही है कि सभी बौद्धिकताओं का जन्म उस समय की ठोस भौतिकतावादी स्थितियों में ही होती है।

बौद्धिकता व्यवस्था या सत्ता पर नियंत्रण और नियमन की समझ देता है, इसीलिए चतुर लोग या वर्ग  बौद्धिकता पर नियंत्रण के लिए दूसरे वर्गों के साथ बौद्धिक बेईमानी करता है। सत्ता या व्यवस्था को सबसे बड़ा खतरा "स्वतंत्र दिमाग " से होता है। सत्ता वर्ग द्वारा निर्मित एवं निर्धारित अवधारणाओं से सत्ता वर्ग को कोई खतरा नहीं होता, इसीलिए इन अवधारणाओं के विरोध करते दिखने वाले नेताओं से सत्ता वर्ग विचलित नही होता। दरअसल ये कुछ अवधारणाएं विरोध करने के लिए ही रचित होती है, क्योंकि इसके विरोध से ही वह वर्ग अपनी ऊर्जा लेती है और समाज में स्थान बनाता है। सतही समझ रखने वाले तथाकथित बौद्धिक इनका गला फाड़ विरोध करते हैं। इनके द्वारा रचित अवधारणाओं के भौतिक विरोध से वे और मजबूत होते हैं। अक्सर डिग्रीधारी बौद्धिक भी बौद्धिक शून्यता में ही होते हैं।

बौद्धिक बेईमान वर्ग अपनी सर्वोच्चता, विशिष्टता, एवं भिन्नता को स्थापित करने और उसे बनाए रखने के लिए सदैव दिव्यता को आधार बनाते हैं। इतिहास को मोड़ना, यानि बदलना इतिहास को अपने पक्ष में करने का प्रयास होता है। इतिहास को मोड़ कर ऐतिहासिकता के आधार पर सर्वोच्चता, विशिष्टता, एवं भिन्नता को स्थापित करने और उसे बनाए रखने के प्रयास किया जाता है। व्यवस्था और सत्ता पर पूर्ण और दीर्घकालिक स्थायी नियंत्रण के लिए राजनीतिक एवं सामाजिक नियंत्रण आवश्यक होता है, और यह सांस्कृतिक एवं वैचारिक नियंत्रण से आता है। इसे ही ऐन्टोनियो ग्राम्शी "सांस्कृतिक वर्चस्ववाद" (Cultural Hegemony) कहते हैं।  इसीलिए माओ त्से तुंग ने चीन को बनाने के लिए " सांस्कृतिक क्रांति" (Cultural Revolution) किया था। लेकिन बौद्धिक बेईमान अपने स्वार्थ के लिए बौद्धिक बेईमानी का उपयोग अपने समाज और राष्ट्र को  बरबाद करने के लिए करते हैं।

बौद्धिकता का संबंध एकांत और निर्जन जीवन के लिए नहीं होता है, बल्कि तत्कालीन युग की समस्याओं के समाधान के लिए वैचारिक समाधान का देने का एक प्रयास होता है। सभी का एकांत चिंतन समाज के लिए ही होता हैवस्तुतः कोई भी बौद्धिकता जीवन और व्यवस्था से निरपेक्ष नहीं होगा, और यदि कोई भी बौद्धिकता वास्तविक जीवन और व्यवस्था से परे है, तो वह अवश्य ही बौद्धिक बेईमानी है। आज के वैज्ञानिक युग में 'निर्माणवाद' की अवधारणा ध्वस्त हो गयी है, और 'विकासवाद' के सिद्धांत ने उसे प्रतिस्थापित कर दिया है।

बौद्धिक बेईमानों की बौद्धिकता सदैव सामाजिक श्रेष्ठता, उच्चता, प्रभुत्व और विशेषाधिकारों को अनन्त काल तक स्थायी बनाने की होती है और इसे ईश्वरीय न्याय के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। बौद्धिक बेईमान बदलाव से डरता है, समानता के अवसर से भागता है और इसीलिए आभासी दुनिया में सामान्य लोगों को रखना चाहता है।

जबतक प्रकृति और समाज के स्वभाव, प्रतिरुप, और क्रियाविधियों को भौ भौतिक (आर्थिक) साधनों और शक्तियों के संबंधों के नजरिये से नहीं देखा और समझा जाएगा, बौद्धिक बेईमानों की गति को कोई रोक भी नहीं सकता।


आचार्य प्रवर निरंजन जी
अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान

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