बुधवार, 18 जनवरी 2023

बहुमत आबादी की 'शक्ति और सत्ता' की राजनीति

(Politics of Mass in 'Power n Authority')

राजनीति दरअसल शक्ति और सत्ता का खेल है| राजनीति मानव समाज में शक्ति के हिस्सेदारी की नीति है, और इसीलिए सभी राजनीतिक संस्थाएँ, संगठन, समूह एवं व्यवस्थायें एक समाज में शक्ति के हिस्सेदारी की सुनिश्चितता को नियंत्रित, नियमित, एवं सञ्चालित करने में व्यस्त हैं| वह समाज चाहे वैश्विक हो, क्षेत्रीय हो, राष्ट्रीय हो, या कोई कार्यालय हो, कोई जाति समूह हो या कोई वर्ग समूह हो, शक्ति के हिस्सेदारी में ही अपनी ऊर्जा का महत्तम भाग खर्च करता है| यानि अपनी रचनात्मकता एवं सकारात्मकता पर कोई ध्यान नहीं दे पाता है| तो आइए समझते हैं कि शक्ति क्या होता है? और इस शक्ति का सत्ता से क्या सम्बन्ध होता है? और राजनीति से इसका कैसा सम्बन्ध है?

किसी की शक्ति (Power) उसकी वह योग्यता है, जिसके द्वारा वह अपनी इच्छा को दूसरों के विरोध के बावजूद भी पूरी कर सकता है| यानि सामाजिक एवं राजनीतिक शक्ति एक वस्तुनिष्ट और निष्पक्ष नहीं होकर एक सापेक्षिक योग्यता है, जो सदैव दूसरों के साथ तुलनीय होता है| लेकिन यह शक्ति क्वांटम में होती है, यानि निरन्तरता (continuity) में नहीं होती है| मतलब जब शक्ति किसी एक ही व्यक्ति, या समूह, या देश के पास होगी, तब शक्ति दूसरों के पास नहीं होगी| तो शक्ति किसी व्यक्ति, परिवार, समुदाय, संस्था, देश या राष्ट्र के पास होती है| उस शक्ति का स्वरुप भिन्न भिन्न होता है, लेकिन एक स्वरुप में यह किसी एक के ही पास होती है और उसका अनुपालन करने वालों के पास यह नहीं होती है| अर्थात ऐसे शक्ति की इच्छा का अनुपालन दुसरे अवश्य ही करते हैं| लेकिन एक शक्ति से सत्ता का क्या सम्बन्ध होता है, इसे भी भली भांति समझना जरुरी है?

एक सत्ता (Authority) एक व्यवस्थित माध्यम होता है, जिसके द्वारा शक्ति का उपयोग किया जाता है| इस तरह वह शक्ति विधिमान्य (Legal) मानी जाती है, और इसीलिए वैध (Legitimate) भी हो जाती है| अर्थात सत्ता एक शक्ति को सही एवं न्यायसंगत होने का आवरण चढ़ा देती है| यानि तब उस शक्ति को सही तथा न्यायसंगत मान लेना होता है| चूँकि सत्ता रूपी माध्यम को अपनी शक्ति को कार्यान्वित करने के लिए एक वैध संरचनात्मक तंत्र (Structural System) या ढांचा (Frame work) चाहिए होता है, इसलिए एक शक्ति ‘सत्ता’ के रूप में संस्थागत (Institutionalized) हो जाता है| इस तरह वह शक्ति सर्वजन आबादी के लिए अनुपालनीय हो जाता हैहै। इस शक्ति को सभी स्वीकार करते हैं, क्योंकि यह ‘सत्ता’ के माध्यम से अभिव्यक्त होती है| तब उस शक्ति के नियंत्रण को उचित एवं न्यायपूर्ण माना जाता है| तब इसी कारण सभी व्यक्ति, समूह, वर्ग, समाज, राज्य एवं राष्ट्र सत्ता चाहते हैं, ताकि शक्ति पर वैध (Legitimate) नियंत्रण पाया जा सके|

स्पष्ट है कि शक्ति अर्थात वैध शक्ति के लिए सत्ता चाहिए| चूँकि लोकतंत्र में राज्य की सम्प्रभुता ‘लोगो’ में निहित होती है, और लोग एक संख्या हैं, इसीलिए लोकतंत्र में शक्ति यानि सत्ता लोगों की संख्या का खेल हो जाता है| लेकिन जहाँ के लोग ‘आस्थावान’ (भक्त) होते हैं, यानि तर्कहीन, विवेकहीन, एवं अज्ञानी होते हैं, वहाँ बुद्धिमान व्यक्ति या समूह ही अपनी अल्पसंख्या के बावजूद सत्ता पर काबिज हो जाता है अर्थात शक्ति को अपनी इच्छानुसार संचालित करता रहता है| मतलब यह कि किसी की तथाकथित बुद्धिमानी भी उसके सापेक्ष व्यक्ति या समूह की तर्कहीनता, विवेकहीनता एवं अज्ञानता के कारण ही दिखती है| यानि तब संख्या का खेल भ्रामक हो जाता है| तर्क, विवेक एवं ज्ञान को ही संयुक्त रूप में ‘वैज्ञानिकता’ कहते हैं, और इस मानसिकता (Mentality) को वैज्ञानिक मिज़ाज /मानसिकता (Scientific Temper) कहते हैं|

जब बात लोकतंत्र की आती है, तो यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि क्या लोकतंत्र और प्रजातंत्र एक ही हैं, या भिन्न भिन्न हैं? भारत के संविधान में शब्द ‘लोकतंत्र’ है, ‘प्रजातंत्र’ नहीं है, हालाँकि दोनों का अंग्रेजी एक ही ‘Democracy’ है| ऐसा इसलिए है कि भारत की संप्रभुता यहाँ के लोगो में है, लेकिन प्रजातन्त्र में उस सत्ता की सम्प्रभुता उस ‘राजा’ के सापेक्ष में होती है, जिसकी प्रजा वहाँ के लोग होते हैं| स्पष्ट है कि भारत के लोग किसी की भी प्रजा नहीं है, और इसीलिए यहाँ प्रजातंत्र नहीं, अपितु लोकतंत्र है| ब्रिटेन में प्रजातंत्र है, लेकिन भारत में लोकतंत्र है|

भारत में सामाजिक समूह ‘जाति’, ‘धर्म’, ‘पंथ’, क्षेत्र’, ‘भाषा’ एवं इनके वृहत परिसंघ (Confederation) समूह के रूप में हैं, इसीलिए इस लोकतंत्र में शक्ति का खेल और सत्ता के माध्यम कई स्वरूपों में संचालित होते है, नियंत्रित होते है एवं नियमित होते है| इस शक्ति के खेल में ‘जाति’ एवं ‘धर्म’ सबसे प्रमुख हैं| भारत में सभी जातियों का उदय सामाजिक एवं आर्थिक समूह/ वर्ग के रूप में सामन्तवाद की ऐतिहासिक शक्तियों एवं उनकी अंतर्क्रियाओं के कारण मध्यकाल में हुआ है| इस काल के पहले जाति एवं वर्ण का कोई भी प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य नहीं है, भले ही इसकी प्राचीनता स्थापित करने के लिए ‘आर्य आक्रमण’ एवं ‘मूलनिवासी’ की कहानी गढ़ दी गयी| आज भारत में धर्म और जाति रूपी सामाजिक समूहों को प्राथमिक आधार बनाकर सभी समूह/  दल शक्ति संतुलन का खेल खेलना चाहते है, जिसके कई विद्रूप स्वरुप भी देखने को मिल रहे हैं| जाति एवं धर्म का जो भी ऐतिहासिक, वैज्ञानिक एवं वास्तविक प्रकृति और स्वभाव हो, परन्तु इसकी राजनीति यानि शक्ति एवं सता का खेल समाज एवं देश को बहुत हानि पहुँचा रहा है|

कई राजनीतिक एवं सामाजिक नेतृत्व इन जातीय एवं धार्मिक भावनाओं का अपने राजनीतिक एवं सामाजिक हित में अपनी तरह से उपयोग कर रहे हैं, तो उनके विरोधी भी उसी का उपयोग कर उसी के आधार पर ‘जनमत’ को अपने पक्ष में ‘हाँक’ (पशु की तरह) ले जा रहे हैं| यहाँ तक तो कोई आपत्ति नहीं भी की जा सकती है, लेकिन इसके बाद शक्ति एवं सता का उपयोग कुछ ख़ास आर्थिक या सामाजिक वर्गों के ही हित में करना और बहुमत के अहित में करना बहुत गलत है| ऐसी शक्तियाँ आज बहुत सफल मान ली जा सकती है, परन्तु भविष्य की सभी पीढियाँ ऐसी शक्तियों को घृणा के साथ याद करेंगी| ऐसा इसलिए कि भविष्य की पीढियाँ सम्पूर्ण भारत को एक वैश्विक शक्ति एवं नेतृत्व के रूप में देखना चाहती हैं, सिर्फ किसी खास आर्थिक या सामाजिक समूह को ही शीर्ष पर नहीं देखना चाहती|

वैसे तमाम जातीय समूह शक्ति के संतुलन के खेल में पिछड़ जाते हैं, लेकिन धार्मिक समूह के रूप में शक्ति के संतुलन में अभी जीत मिल जा रही है, हालाँकि ऐसे खेल कभी भी भसक (भर भरा कर ध्वस्त होना) सकते हैं| अर्थात धर्म भी शक्ति के खेल में सक्रिय भागीदारी करता है| अपने किसी भी तथाकथित अच्छे उद्देश्य के होते हुए भी किसी भी विपक्षी दल को मुख्य शक्ति यानि सत्ता को पछाड़ने में सफलता नहीं मिल रही है, आगे भी सफलता की संभावना धूमिल ही दिखती है|

इसका स्पष्ट कारण है कि

बहुमत आबादी मुख्य शक्ति या सता को पछाड़ने के लिए

उसकी हर गतिविधि, घटना, निर्णय एवं कार्यान्वयन के विरोध में

तथाकथित विद्वतापूर्ण एवं सक्रिय विरोध करती हैं,

परन्तु

चुनाव के समय यानि प्रतिनिधि सभा में उम्मीदवारों के निर्वाचन के समय

उसकी ‘जाति’ एवं ‘धर्म’ को देखकर ही मत (Vote) करेंगे|

अर्थात

ये तथाकथित बहुमत आबादी के लोग अपनी प्रखर विद्वता, जोश एवं सक्रियता का बखूबी प्रदर्शन

लगातार चार वर्ष ग्यारह महीने पचीस दिन करेंगे और

फिर मत (Vote) जाति या /और धर्म के नाम पर उसी को ही देंगे, 

जिसका प्रखर विरोध अपनी विद्वता, जोश एवं सक्रियता के बखूबी प्रदर्शन के साथ 

लगातार चार वर्ष ग्यारह महीने पचीस दिन तक किया था|

ऐसी स्थिति को पाने के लिए मुख्य शक्ति यानि सता को यह ध्यान रखना होता है, कि उस ख़ास क्षेत्र के उम्मीदवार की जाति या धर्म वहां के बहुमत आबादी को अपने पक्ष में कर सके| फिर निर्वाचन के तुरंत बाद इन तथाकथित बहुमत बौद्धिकों का प्रखर बुद्धिमता दिखाने का खेल अगले चुनाव के लिए शुरू हो जायगा|

ध्यान दिया जाय, आप भी देखेंगे कि इन बहुमत आबादी वाले तथाकथित प्रखर विद्वता झाड़ने वाले लगभग सभी नेतृत्वकर्ता अपने जातीय एवं धार्मिक नेतृत्व में ही सर्व गुण देखेंगे| नतीजा यह होता है कि इस तरह ये लोग मुख्य शक्ति एवं सत्ता के विरोध में अपने बहुमत को खंडित कर देते हैं, और जिसका सबसे ज्यादा विरोध करते हैं, उसी को जीत दिला देते हैं| चुनाव के बाद फिर विद्वता दिखाने का चक्र शुरू हो जाता है| शक्ति एवं सत्ता का खेल ऐसे ही चलता रहता है| इसमें जो अल्पसंख्यक बौद्धिक लोग होते हैं, वे हर बार की तरह बार बार सफल होते हैं| शिक्षा का भी इसीलिए शक्ति से और सत्ता से गहरा सम्बन्ध है| इसी कारण अल्पसंख्यांक बौद्धिक लोगों द्वारा नियंत्रित शक्ति यानि सत्ता बहुमत आबादी को तर्कपूर्ण वैज्ञानिक शिक्षा से ही दूर रखना चाहता है|

दरअसल बौद्धिक लोग वो होते हैं, जिन्हें सामाजिक एवं व्यैक्तिक मनोविज्ञान (Psychology) की गहरी समझ होती है| यदि आप Institute of Propaganda Analysis (गूगल पर उपलब्ध है) के अध्ययन का अवलोकन करेंगे, तो आपको भी शक्ति एवं सता के खेल का गहन मनोवैज्ञानिक पक्ष समझने को मिलेगा|

आचार्य  निरंजन सिन्हा 

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