एक धर्म क्या करता है, कि
कोई
भी अपने धर्म के सामने
अपनी
गरीबी, बेरोजगारी, विवशता, अशिक्षा, बिमारी, भ्रष्टाचार आदि आदि को
कोई
महत्व नहीं देता है?
और जब वह
पाता है कि उसके धर्म के तथाकथित संरक्षण में या तथाकथित संकट के लिए उसका ईश्वर
अपने लिए कुछ नहीं कर पाता, तब एक आस्थावान धार्मिक व्यक्ति अपने सर्वशक्तिशाली ईश्वर
को तथाकथित संकट से निकालने के लिए अपनी जान को भी न्योछाबर करने को उद्दत (तत्पर)
हो जाता है? ऐसा लगता है कि उस धर्म
के अनुयायी को अपने ईश्वर की असीम शक्ति और क्षमता पर भी भरोसा ही नहीं रह जाता,
और वह अपने धर्म को बचाने के लिए वह खुद ही कूद जाता है, मानो उस व्यक्ति के सामने
उसके श्रद्धेय ईश्वर की कोई औकात ही नहीं है? ऐसा क्यों होता है? एक धर्म को हमसे क्या उम्मीद होती है? इन धर्मों के मुलभुत
आधार क्या है, जिस पर कोई भी धर्म टिका हुआ होता है? तो, आइए, हमलोग इन
सभी सवालों का सम्यक विश्लेषण कर इसके सभी पहलुओं को समझें|
किसी भी
धर्म की क्रियाविधि का सार यानि
किसी भी
धर्म का मूल तत्व एक ही है –
एक विश्वास (Belief) और एक आस्था (Faith)|
ध्यान रहे कि एक विश्वास एक आस्था से भिन्न
होता है और दोनों का अर्थ एवं उद्देश्य भी अलग अलग होता है| एक विश्वास किसी की
जानकारी और उसके ज्ञान की अवस्था तथा स्तर से तय होता है, और इसीलिए उसका विश्वास अपने
ज्ञान के प्रति ही होता है, जबकि एक आस्था किसी दुसरे व्यक्ति (प्राकृतिक या
अप्राकृतिक) की शक्ति के प्रति होता है| किसी के प्रति आस्था क्या होता है? यह
किसी के प्रति सम्मान से उत्पन्न होता है| यानि आस्था किसी के कृतज्ञता से उत्पन्न
सम्मान है, और इसीलिए किसी की आस्था पर प्रश्न उसकी भावना पर आघात होता है| कुछ
लोग आस्था को डरे हुए लोगों की अवस्था मानते हैं| स्पष्ट है कि कोई भी अपनी आस्था
के प्रति उत्पन्न किसी भी प्रश्न का उत्तर अपने ‘प्रतिगामी
क्रिया’ (Reflex Action) से देता है| आप भी जानते
हैं कि एक ‘प्रतिगामी क्रिया’ मे उसका मस्तिष्क भाग नहीं लेता है, अर्थात यह पशुवत
प्रक्रिया भी मान ली जाती है| एक विश्वास में चूँकि एक जानकारी होती है, ज्ञान
होता है, इसीलिए एक विश्वास में ‘प्रश्न’ पूछने की गुंजाइश रहती है, जबकि एक आस्था
में चूँकि भावनात्मक सम्मान यानि श्रद्धा होता है, इसलिए इसमें किसी शंका की कोई
गुंजाइश ही नहीं होती और इसीलिए एक आस्था से सम्बन्धित कोई प्रश्न नहीं पूछा जा
सकता है| आस्था में ह्रदय (Heart) से मानना
होता है, जबकि विश्वास में दिमाग (Brain) से मानना होता है| आस्था में प्रमाण (Proof)
की कोई जरुरत नहीं है, जबकि विश्वास में प्रमाण की जरुरत हो जाती है| इस
तरह स्पष्ट है कि किसी की किसी के प्रति ‘आस्था’
उसके ‘विश्वास’ पर आधारित होता है, उसके विश्वास पर टिका होता है|
अर्थात किसी की
आस्था को तोड़ने यानि नष्ट करने एक ही सरल एवं साधारण उपाय है कि
उसकी
‘आस्था’ को नहीं,
अपितु
उसके ‘आस्था’ के आधार स्तम्भ ‘विश्वास’ के तत्वों को ही नष्ट किया जाय
यानि
उस विश्वास को ही खंडित किया जाय|
यदि एक पवित्र
धर्म में मध्यकालीन सामन्तवादी नजरिया एवं धूर्ततापूर्ण उद्देश्य से उसमे सामाजिक
बुराइयाँ एवं व्यापार (Business) घुसा हुआ है, तो एक धर्म के इन तत्वों को एवं
उसकी क्रियाविधि को समझना जरुरी है और इसके अंतर को भी समझना है| अत: हमें किसी की आस्था
के बारे में अपने विचार व्यक्त नहीं करना चाहिए, परन्तु हम किसी के विश्वास पर
विमर्श कर सकते है और उस विमर्श मे किसी को भी शामिल कर सकते हैं| इसलिए एक
आस्था में उस ईश्वर या उस सम्मानीय व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व यानि कृतत्व के
ब्योरे के प्रति समर्पण होता है और उस व्यक्तित्व या कृतत्व पर कोई विरोधी बात या
प्रश्न मान्य नहीं है यानि स्वीकार्य नहीं है| लेकिन एक विश्वास उस धर्म के मूल तत्वों
के बारे होता है, जिस पर शंका या प्रश्न किया जा सकता है| सभी धर्मों का मूल तत्व
सिर्फ पांच ही है, और इनमे से कोई भी तत्व किसी भी धर्म मे गायब नहीं हो सकता|
एक धर्म का मूल
तत्व सिर्फ पांच ही है, जिसे ईश्वर (God), आत्मा (Soul), पुनर्जन्म (Re Birth), कर्मवाद (Effect
of Deed) और नित्यवाद (Eternalism) के नाम से जाना जाता है| ‘स्वर्ग नरक’ या ऐसी कोई
भी अवधारणा या कोई धार्मिक कहानी इन्हीं के इर्द गिर्द चक्कर लगाता रहता है| हम
किसी की आस्था से सम्बन्धित किसी भी धार्मिक व्यक्तित्व या उनके कृतत्व के बारे
में चर्चा नहीं करेगे, लेकिन उपरोक्त पाँचों तत्वों को तर्क एवं विज्ञान के स्तर
पर जांच सकते हैं और उसकी वास्तविकता जानने के लिए उसकी आवश्यक समीक्षा कर सकते
है| इससे किसी की आस्था पर कोई चर्चा ही नहीं होती, सिर्फ वैज्ञानिकता की बात होती
है| वैज्ञानिकता का अर्थ – उसका सम्यक
विश्लेषण, उसका सम्यक जाँच, और उसका तार्किक एवं विवेकपूर्ण निष्कर्ष निकलना होता है|
पहले ईश्वर की
वैज्ञानिकता समझते हैं| वैज्ञानिक स्टीफन हाकिन्स ने भी स्पष्ट किया है
कि ब्रह्माण्ड की शुरुआत के पहले ‘समय’ (Time) ही नहीं था, तो स्पष्ट है कि कोई
तथाकथित ईश्वर भी उसके पहले नहीं था, और इसीलिए नित्य ईश्वर एक झूठ है| भौतिकी
वैज्ञानिको ने तो ‘हिग्स बोसॉन’ (Higgs Boson) कण
का नामकरण ही ‘गाड पार्टीकल’ (God
Particle) रख दिया है, अर्थात ‘हिग्स बोसॉन’ कण ही ईश्वर है|
हालाँकि चार्ल्स डार्विन के अपने ‘उद्विकास
सिद्धांत’ (Evolution Theory) के द्वारा ‘ईश्वर’ की महत्ता एवं चर्चा को एक बकवास
साबित कर दिया था| इस कारण आज पश्चिमी विकसित देशों में धार्मिक स्थल उपेक्षित हो
गये हैं, जबकि अन्य पिछड़े हुए देश अपनी धार्मिक सांस्कृतिक उलझन में ही उलझे हुए
हैं| यह स्पष्ट है कि ईश्वर की अवधारणा की उत्पत्ति भले ही आदिम युग में अज्ञानता
के कारण हुई और अस्तित्व में आई, परन्तु इसको पर्याप्त मजबूती मध्यकाल में सामन्तवाद की अनिवार्यताओं
के कारण ही मिली| इस ईश्वर की आवश्यकता ‘आत्मा’, ‘पुनर्जन्म’ एवं ‘कर्मवाद’ की
अंतर्क्रिया (Interaction) को स्थापित एवं संचालित करने के प्राधिकार (Authority) के
रूप में हुई, अन्यथा ईश्वर की कोई आवश्यकता ही नहीं है|
‘नित्यवाद’
(Eternity) का सिद्धांत सिर्फ ईश्वर और आत्मा की नित्यता को स्थापित करने के लिए है। इस काल्पनिक नित्यता के अलावे ब्रह्माण्ड
में समय एवं आकाश सहित सभी चीजें एवं गतिविधियाँ अनित्य है| ‘बिग बैंड’ (Big Band) सिद्धांत के अनुसार
ब्रह्माण्ड का प्रसार होता जा रहा है, अर्थात ब्रह्माण्ड में कोई भी चीज या घटना
स्थिर नहीं है, यानि कोई भी चीज एवं घटना नित्य नहीं है, हर समय अपनी स्थिति एवं
स्वभाव को बदलता रहता है| अल्बर्ट आइन्स्टीन ने
‘समय’ को चौथा विमा (Dimension) बता कर सभी तथाकथित ‘नित्य’ को ‘अनित्य’ साबित
कर दिया, क्योंकि समय सदैव बदलता रहता है और इसीलिए सभी कुछ समय के सापेक्ष बदलता
रहता है| किसी की भी दशा एवं दिशा नित्य नहीं है, अत:
विश्व के हर पीड़ित एवं वंचित व्यक्ति एवं समाज अपनी विविशता को नित्य नहीं माने
और उस दशा एवं दिशा में अवश्य बदल जाने का विश्वास
रखे और इसके लिए सम्यक प्रयास भी करे|
‘आत्मा’ (Soul)
का सिद्धांत भी एक बौद्धिक
घालमेल का मामला है| आप भी जानते हैं कि ‘आत्म’ (Self) होता है,
जिसे ‘मन’ (Mind) भी कहा जाता है और
इसे ‘चेतना’ (Consciousness) भी कहा जाता है| चेतना
को अंग्रेजी में ‘Spirit’ भी कहा जाता
है| षडयंत्रकारी बौद्धिक लोग इसी ‘आत्म’ को
‘आत्मा’ लिखकर और अंग्रेजी के Spirit का हिंदी अनुवाद ‘आत्मा’ कर लोगों को बेवकूफ
बना रहे हैं| वैज्ञानिक भी ‘आत्म’ यानि ‘मन’ यानि ‘चेतना’ को
वैज्ञानिक सत्य मानते हैं, और ‘आत्मा’ की किसी भी अवधारणा को सत्य नहीं मानते हैं|
‘आत्म’ यानि ‘मन’ यानि ‘चेतना’ किसी के शरीर के अस्तित्व तक अपना अस्तित्व बनाए
रखता है, जबकि ‘आत्मा’ की निरंतरता उसके शरीर के नष्ट हो जाने के बाद भी बना रहता
माना जाता है| तथाकथित ‘आत्मा’ की कोई वैज्ञानिक सत्यता नहीं है, और यह ‘आत्मा’ की अवधारणा सिर्फ ‘पुनर्जन्म’ को स्थापित करने
के उद्देश्य से बनाया गया है|
पुनर्जन्म
का सिद्धांत वस्तुओं और
जीवों के लिए भिन्न भिन्न है| वस्तुओं का पुनर्जन्म हो सकता है, क्योंकि
वस्तुओं में मन यानि चेतना नहीं होता है और उसकी भौतिक संरचना को कभी भी निर्धारित
विधि से प्राप्त किया जा सकता है| परन्तु चेतना युक्त
जीवन यानि मन वाला कोई भी जीवन का पुनर्जन्म कदापि नहीं हो सकता है| यह मन या
चेतना यानि आत्म (आत्मा नहीं) क्या है? यह
‘मन’ यानि ‘चेतना’ किसी भी जीव या
व्यक्ति विशेष में एक विशिष्ट “उर्जा आव्यूह” (Energy Matrix) का अस्तित्व
है, जो उसके शरीर
से संपोषित (Cherished/ Nourished) होता
रहता है और उसके अनुभव, ज्ञान, एवं समय के साथ विकसित होता रहता
है, लेकिन यह
उसके मष्तिष्क (Brain) की क्रिया प्रणाली (Mechanism) से
अभिव्यक्त होता है,और अपने संपर्क
में आए अन्य ऊर्जा से अनुक्रिया (Actions) एवं
प्रतिक्रिया (Reaction) करता
रहता है| परन्तु ‘आत्मा’ की
काल्पनिक अवधारणा ही किसी चेतनयुक्त जीवन को पुनर्जन्म देने का आधार बनता है|
‘कर्मवाद’ का सिद्धांत समय के साथ बदल
गया| यही ‘आत्मा’ एवं ‘पुनर्जन्म’ की कथा ही मिलकर ‘कर्मवाद’ के सिद्धांत को स्थापित
करता है और मजबूती देता है, जो जन्म आधारित यथास्थितिवाद (आज की स्थिति को ऐसे ही
बनाए रखना) को निरंतरता देने का कार्य करता है| ‘कर्मवाद’ का सिद्धांत यह कहता
है कि ‘जो भी जैसा कर्म (काम) करेगा, उसका फल
ईश्वर अवश्य ही देगा’| यह सिद्धांत बौद्धिक परम्परा में भी था, जिसमे
कर्म एवं उसका फल इसी जन्म में यानि सब कुछ एक ही जन्म में होता है| इसीलिए यह
सिद्धांत तार्किक एवं वैज्ञानिक था और इसीलिए यह आकर्षक भी था| परन्तु सामन्तकाल में इस सिद्धांत में इस जन्म में किए गए
कर्म के फल यानि परिणाम को अगले जन्म में सुनिश्चित किया गया| इसी के लिए ‘पुनर्जन्म’ का सिद्धांत लाया गया| इस जन्म के कर्म के फल यानि परिणाम को अगले जन्म में
प्रेषित किया जाना था, इसलिए किसी के शरीर के नष्ट हो जाने के बाद भी तथाकथित
निरंतरता को तार्किक ढंग से स्थापित करने के लिए ही ‘आत्मा’ की अवधारणा की
आवश्यकता हुई|
यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि कोई जीवन यानि जीव मरना नहीं चाहता, और मानव भी एक जीवन है और
इसीलिए एक मानव भी मरना नहीं चाहता| इसलिए जीवन की तथाकथित
निरंतरता का आश्वासन किसी भी मानव को सुकून देता है| यह स्पष्ट है जीवन की निरंतरता किसी के शरीर
के नष्ट हो जाने से अर्थात उसके चेतनता के नष्ट हो जाने के बाद किसी भी रूप में
सम्भव नहीं है, परन्तु इस मनोवैज्ञानिक भय का उपयोग सामन्तवादियों ने अपने हित में
बखूबी किया| इस तरह इन अवधारणाओं (Concepts) ने और इन प्रक्रियाओं (Process) की
क्रियाविधि (Mechanism) की व्याख्या ने अशिक्षित व्यक्तियों को ‘जीवन की अनन्त
विस्तार’ की अवधारणा में अखंड विश्वास दिलाया| यह सब अज्ञानियों के लिए एक सुखद अनुभव एवं अहसास दिलाता है, जिसे कोई भी अज्ञानी इसके काल्पनिक अवधारणा के होते हुए भी इसे खोना
नहीं चाहता| परिणामत: इतने अंतहीन लम्बे जीवन का
एक वर्तमान एवं छोटा कष्टकारक जीवन को भोग लेना आसान होता है, बशर्ते कोई तथाकथित
ईश्वर एवं उसकी व्यवस्था एक सुखद भविष्य का आश्वासन देना वाला हो यानि उसका धर्म
बना रहे यानि उसका धर्म तथाकथित सुरक्षित रहे| इसलिए
इस वर्तमान जीवन में कोई भी अपने धर्म के इस आश्वासन के सामने अपनी गरीबी,
बेरोजगारी, विवशता, अशिक्षा, बिमारी, भ्रष्टाचार आदि आदि को कोई महत्व नहीं देता
है| इसे हर सामाजिक वैज्ञानिक यानि चिन्तक को
समझना चाहिए|
एक धर्म
अपने मौलिक प्रक्रम में अपने
अनुयायियों को यह विश्वास दिलाता है, कि उसका यह जीवन अवधि एक लम्बे एवं अनन्त जीवन
की तुलना में नगण्य है और इसीलिए इस जन्म के इस तथाकथित कष्ट एवं परेशानी का कोई
विशेष मतलब भी नहीं है| उसे अपने अगले जीवन और
उसके सुखमय भाग में विश्वास ही उसे गरीबी, बेरोजगारी, विवशता, अशिक्षा, बिमारी,
भ्रष्टाचार आदि आदि को तुच्छ मानने और उसे नगण्य समझने को प्रेरित एवं बाध्य करता
है| उसे अपने ईश्वर में असीम आस्था होती है कि उसके श्रेद्धय ईश्वर सब
चीजों को व्यवस्थित रखेंगे और उसे अवश्य ही उसका न्यायिक हिस्सा मिलेगा, अर्थात उसका
अन्य जीवन सुखमय बीतेगा और इसलिए इस जीवन का कोई भी कष्ट आसानी से सहा जा सकता है| क्या ऐसे लोगो के धार्मिक नेतृत्व को उसके तथाकथित शक्तिशाली
ईश्वर की वैज्ञानिक झूठ के बारे पूरा पता होता है? हाँ, उसे यह सब कुछ पता होता है
और इसीलिए वह धन ईश्वर से नहीं माँगता है, अपितु उस ईश्वर के नाम पर उनके
अनुयायियों से ही मांगता है| यहाँ उसके धार्मिक नेतृत्व को अपने ईश्वर
की असीम शक्ति एवं क्षमता पर विश्वास ही नहीं रहता और वह नेतृत्व अपने अनुयायियों
को धर्म की रक्षा के नाम पर भड़काता है और उकसाता है|
एक ही धर्म के भिन्न भिन्न अर्थ क्यों है और वह
क्या है? एक आदर्श धर्म और परम्परागत धर्म क्या है? ऐसे मौलिक रूप में धर्म का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति एवं समाज का
वह विशेष गुण है, जो प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए और
उसके सम्यक विकास के लिए सभी से अपेक्षित है| इस रूप में हर धर्म का
स्वभाव वैश्विक रूप में एक ही होगा, क्योंकि सभी मानव सभी क्षेत्रों में मौलिक रूप
में एक ही है| धर्म यानि पालि में धम्म की यह अवधारणा प्राचीन काल की यानि बुद्धि
के विकास के काल की रही है|
धर्म की
वर्तमान अवधारणा मध्य काल में
सामन्तवाद के उदय एवं विकास के साथ साथ अपने क्षेत्रीय भौगोलिक, सामाजिक,
सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं आर्थिक
आवश्यकताओं के अनुरूप ढलता गया| सभी परम्परागत वर्तमान धर्म इसी काल में अपनी
भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक
एवं आर्थिक आवश्यकताओं के अनुरूप भिन्न भिन्न स्वरुप ले लिया| लेकिन किसी
भी धर्म को आदरणीय और गौरवमयी होने के लिए उसे पुरातन एवं सनातन साबित किया जाना
बहुत जरुरी हो जाता है| इसीलिए इस मध्य काल में विकसित
सभी धर्मों को अपने भौगोलिक क्षेत्र में पूर्व से स्थापित गणमान्य सामाजिक एवं
सांस्कृतिक व्यक्तित्व में समाहित कर देना एक अनिवार्य बाध्यता हो गई थी|
यह सभी वर्तमान परम्परागत धर्मों के
लिए सही है| जिन समाजों यानि संस्कृतियों ने इस सामन्तवादी सांस्कृतिक ढाँचा को
यानि वर्तमान धार्मिक ढाँचे को ध्वस्त कर दिया, वही समाज आज वास्तव में आधुनिक एवं
विकसित है| बाकि के सभी समाज एवं संस्कृतियाँ, जो आज भी विकसित एवं आधुनिक होने के
लिए प्रयासरत है, अपनी मध्यकालीन सामन्तवादी सांस्कृतिक एवं सामाजिक उलझन में उलझा
हुआ है| और इसलिए उसके विकसित होने के सभी प्रयास महज एक नाटक बना हुआ है|
आज विश्व के
जितनी भी संस्कृतियाँ सभी मायनों में पिछड़ी हुई है, सभी धर्म की इन्हीं सामन्तवादी
उलझनों में उलझा हुआ है| ऐसे में कुछ देश अपनी बड़ी आबादी की उपभोग क्षमता यानि
बाजारू उपयोग (यानि खा पचा लेने) की क्षमता के कारण वैश्विक स्तर पर पूछी जाती है| परन्तु ऐसे
देशों के नेतृत्व एवं उनके उनुयायियों को उस देश की वैश्विक पूछ में उनके नेतृत्व
में ही कमाल दिखता है, जबकि यह पहचान एवं पूछ उसकी आबादी की “खा
एवं पचा लेने की विशाल क्षमता” के कारण होता
है| ऐसे देश अपनी सम्पूर्ण आबादी के दसवें भाग की आबादी से कम आबादी के
देशों के समक्ष भी बहुत से मामलों में पिछलग्गू बने रहने को बाध्य होते हैं, लेकिन उन्हें अपने पिछड़ेपन की मौलिक अवरोध का आभास ही नहीं
होता|
अत: जिस भी समाज या संस्कृति को विकास पाना है,
प्रगतिशील बनना है, और आधुनिक एवं वैज्ञानिक मानसिकता विकसित करनी है, उसे इन
काल्पनिक एवं अवैज्ञानिक तथ्यों को नष्ट करना होगा| परन्तु इसके लिए किसी की आस्था
को खंडित करने से बचना चाहिए, लेकिन इन आस्था के आधार के इन स्तंभों को खंडित करना
चाहिए यानि ईश्वर (God), आत्मा (Soul), पुनर्जन्म (Re Birth), कर्मवाद (Effect
of Deed) और नित्यवाद (Eternalism) की अवधारणा, सिद्धांत एवं इन पर आधारित
क्रियाविधि को ही खंडित करना चाहिए| चूँकि आस्था में किसी
के प्रति श्रद्धा होता है, सम्मान होता है, कृतज्ञता होता है, और इसलिए इसके खंडन
से उसे भावनात्मक आघात लगता है, इससे हर किसी समझदार व्यक्ति को सावधान रहना
चाहिए| परन्तु किसी के विश्वास को
वैज्ञानिक एवं तार्किक आधार पर परिमार्जित (Modify) करने में, संशोधित (Rectify) करने
में, शुद्धिकरण (Purify) करने में किसी को भी आपति नहीं होती है, क्योंकि हर कोई
समझदार है और विकसित एवं प्रगतिशील होना चाहता है|
आइए,
हमलोग अपने सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिमार्जन, संशोधन एवं शुद्धिकरण की क्रियाविधि
का तरीका बदले, विचार बदले और अपने समाज एवं संस्कृति को एक वैज्ञानिक एवं तार्किक
आधार दें| इससे हम अपने
भविष्य को बेहतर अवसर दे सकते हैं|
आचार्य
निरंजन सिन्हा
बहुत शानदार, रेलेवेंट, लम्बी एवं सम्यक विवेचना किये हैं सर। पोस्ट बड़ा होने के कारण इसे बहुत बारीकी एवं पेशेंस से पढ़ने की आवश्यकता है।
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