(Tremendous
Power of Cultural Nationalism)
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की
शक्तियां जबरदस्त होती है और इसीलिए राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम
पर जबरदस्त नाटक किया जाता है, या किया जा सकता है। आप जानते हैं कि राष्ट्रवाद का धमाका
स्वयं शक्तिशाली होता है, और उसने कई राष्ट्रीय राज्यों को उदित किया है और कई
साम्राज्यों को विघटित भी किया है। इस शक्तिशाली राष्ट्रवाद में संस्कृति को
मिलाने पर वह बहुत समृद्ध एवं प्रभावशाली हो जाता है। अतः सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
एक ऐसा सख्त और प्रभावशाली ढाल है, जिसके आड़ में कोई उसी देश की मूल संस्कृति को और उसी
राष्ट्रीय समाज, यानि उसी राष्ट्र को भी बर्बाद कर सकता है और उस राष्ट्रीय
राज्य का कोई सदस्य उफ़ भी नहीं करेगा। ‘संस्कृति’ ‘राष्ट्रवाद’ का सबसे
महत्वपूर्ण शर्त है। और स्वयं यह संस्कृति सबसे व्यापक एवं विस्तृत अवधारणा है, कि
कोई भी इसे अपने सुविधा और आवश्यकता के अनुरूप ही इसे व्याख्यापित और अवधारित कर
सकते हैं, या करते हैं।
संस्कृति और राष्ट्रवाद, दो ऐसा प्रभावशाली और लुभावना अवधारणा (Concept)
है, कि इसके नाम पर आप कुछ भी धृष्टता या दुष्टता आसानी से,
आराम से और सहजता से कर सकते हैं।
संस्कृति और राष्ट्रवाद समाज के अनन्त अचेतन की गहराईयों तक सम्पर्क में रहती है,
हालांकि राष्ट्रवाद की अवधारणा कोई
दो-तीन शताब्दी ही पुरानी है और यह एक कल्पित वास्तविकता मात्र है। जब संस्कृति और
राष्ट्रवाद इतने प्रभावशाली और लुभावना अवधारणा है, तो आपको मात्र संस्कृति और राष्ट्रवाद की
अवधारणा को अपनी सुविधानुसार व्याख्यापित कर देना है,
या अपनी सुविधानुसार अवधारित (Conceptualization)
कर देना है और उसमें अपने लाभ या स्वार्थ के तत्वों को सावधानीपूर्वक चुपचाप शामिल
कर लेना है। हमें इसकी उपादेयता को इतिहास के उदाहरण से समझना चाहिए और इसकी
संभाव्य गत्यात्मकता (Feasible Dynamism) को भी समझना चाहिए।
कुछ लोग सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से दक्षिणपंथ और वामपंथ को भी जोड़ कर यानि
दक्षिणपंथ और वामपंथ के संदर्भ में अपनी विद्वता को रेखांकित करने का प्रयास करते
हैं। लेकिन दक्षिणपंथ और वामपंथ में कोई विभाजन रेखा नहीं होती है,
सिवाय इसके 'क्रियान्वयन की गति'
में अन्तर के। दोनों ही पंथों का अंतिम
लक्ष्य मानवता की समृद्धि और सम्यक विकास बताया जाता है। दरअसल दक्षिणपंथ और
वामपंथ की अवधारणा फ्रांस की क्रांति के बाद वहां के विधायी सदन में बैठने वाले
विधायक समूह के स्थल दिशा की सापेक्षता से उपजा था। अध्यक्ष के आसन के बाएं हाथ की ओर जो विधायक
समूह बैठ रहे थे, वे क्रांतिकारी बदलाव के समर्थक थे और इसलिए ये वामपंथी
हुए| शेष अन्य सामान्य सदस्य कार्यक्रमों और योजनाओं को क्रियान्वित करने में उतावलापन के पक्ष में नहीं थे, दक्षिणपंथी
हुए। क्रांतिकारी बदलाव कुछ और अलग नहीं होता है, सिवाय क्रियान्वयन की गति की तीव्रता के।
क्रांति का अर्थ होता है, बहुत
कम समय में बहुत अधिक परिवर्तन, यानि बदलाव की तेज़ गति। इस बदलाव की गति को प्रभावित करने वाले
कारकों में उनकी सहभागिता, तरीके, या नजरिया में अन्तर हो सकता है।
यदि हम राष्ट्र की अवधारणा और संस्कृति की अवधारणा को
समुचित ढंग से नहीं समझा है, तो “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” को भी समुचित ढंग से नहीं समझ
पाएंगे। इसीलिए सबसे पहले सरल, साधारण और सहज तरीके से इन अवधारणाओं को समझ लेते हैं। राष्ट्र
की अवधारणा समझने के लिए जोसेफ स्टालिन
के द्वारा दिया गया अवधारणा या परिभाषा ही पर्याप्त है,
जो सरल भी है,
सहज भी है, आधुनिक भी है और वैज्ञानिक भी है। "मार्क्सवाद
और राष्ट्रीय प्रश्न' (पुस्तक) में जोसेफ स्टालिन ने राष्ट्र को एक ऐतिहासिक
एकापन का स्थिर समुदाय बताया है,
जिसका
एक सामान्य चरित्र होता है। स्पष्ट है कि एक
राष्ट्र किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में आर्थिक जीवन और मनोवैज्ञानिक संरचना में
एक स्थिर समुदाय है, और अपने ऐतिहासिक एकापन (भले ही काल्पनिक हो) को मानता है।
भारत के संदर्भ में राष्ट्र की भौगोलिक
स्थिति एवं संरचना विशिष्ट है तथा अन्य से
अलग भी है। उत्तर में हिमालय एवं संबंधित पर्वत श्रेणियां और दक्षिण में सागर से
घिरा प्रायद्वीप, इसे शेष विश्व से अलग पहचान देती है। इसकी उष्णकटिबंधीय
एवं मानसूनी जलवायु भी सम्पूर्ण भारतीय जीवन को एक सामूहिक लय और प्रतिबद्धता
भी देती है। भारत की सभी मुख्य भाषाओं का उद्विकास भी प्राकृत और पालि से
हुई है, और इसकी ही
संस्कारित स्वरुप संस्कृत (संस्कृत का अर्थ ही संस्कारित हुआ) आज़ भी भारत के
व्यापक क्षेत्र में मौजूद है। इस तरह इनमें भाषाई एक्य भी है। भारत की बौद्धिक
विकास और बौद्धिक संपदा के ऐतिहासिक अस्तित्व के कारण ही यह भौगोलिक क्षेत्र 'आभा
रत' (आभा से रत, इससे 'आ' विलुप्त हो गया और शेष "भा रत" रह गया) मानी जाती रही है। ये सब भारतीय राष्ट्र के मौलिक तत्व हैं,
जो भारत को एक राष्ट्र निर्माण के लिए ऐतिहासिक एकापन स्थापित कर प्रेरित करता
रहा है। और इसी राष्ट्र को सशक्त, समृद्ध, विकसित
और अग्रणी बनाने के लिए आवश्यक संबंधित विचारधारा को ही राष्ट्रवाद कहते हैं। राष्ट्रवाद और राष्ट्र एक "कल्पित
वास्तविकता" (Imaginary Realties) है, जो मानसिक दृष्टि से काल्पनिक होते हुए भी वास्तविकताओं का
निर्माण करता है। यह भावनात्मक रूप से उन लोगों में अपनत्व पैदा कर देता है,
जो कभी मिले भी
नहीं हो। इस तरह
राष्ट्रवाद एक गौरवशाली और आदर्श प्रेरणा बन जाता है।
अब हमें संस्कृति को भी समझ लेना चाहिए कि यह इतना
महत्वपूर्ण और प्रेरक क्यों होता है? यदि किसी समाज की संस्कृति उस समाज में व्याप्त ऐतिहासिक
गहराईयों की भावनाओं , विचारों, व्यवहारों और कार्यों की समेकित एवं संचित अभिव्यक्ति होती
है, या ऐसा मानी
जाती है, तो संस्कृति ही उस समाज को चेतन एवं अचेतन स्तर से संचालित,
नियंत्रित,
और नियमित करता रहता है। किसी भी समाज की
संस्कृति उसके अबतक के इतिहास की समझ का समेकित परिणाम होता है। इसे दूसरे शब्दों
में कहा जाए, तो यह उस समाज का ऐतिहासिक बोध होता है,
जिसे वह समझता है। इसे आप "इतिहास
बोध" (Perception of History) की उपज भी कह सकते हैं। संस्कृति के अनुरूप व्यवहार, विचार
और भावना को व्यक्त करना या अभिव्यक्त करना ही संस्कार माना जाता है। लेकिन जब किसी का इतिहास बोध ही उसके
संस्कृति को निर्देशित और नियमित करता है, तो हम इतिहास को नियंत्रित या बदल कर
उसके सांस्कृतिक बोध को ही नियंत्रित कर सकते हैं। इस तरह संस्कृति भी बदल जाता है। वैसे इतिहास इतिहासकार की आवश्यकता के
अनुसार सदैव बदलता रहता है और इसलिए सांस्कृतिक अवबोध को भी बदल जाना पड़ता है। इस
तरह संस्कृति के उद्भव को समझा जा सकता है, लेकिन इसकी क्रियाविधि और उपयोगिता को भी समझना जरूरी है।
स्पष्ट है कि संस्कृति
समाज जनित समाज का मानसिक पर्यावरण है,
जो
समाज के साफ्टवेयर की तरह अदृश्य क्रियाविधि द्वारा समाज को संचालित, नियंत्रित, नियमित और शासित करता रहता है। इस तरह
संस्कृति हमारे जीवन को, हमारी अभिवृति को, हमारे विचार करने की बौद्धिकता को,
और हमारी प्रतिबद्धता को संचालित करने की
हमारी अन्त:स्थ प्रकृति है। संस्कृति की भौतकीय
अभिव्यक्ति ही कला कहलाती है, जो विभिन्न स्वरूपों और अवस्थाओं में अवलोकित किया जाता है।
अतः संस्कृति किसी भी समाज को एक ऐतिहासिक विरासत
के रूप में प्राप्त होता है। इसीलिए किसी भी समाज की संस्कृति उसकी
भौगोलिक परिस्थितियों के सापेक्ष होती है, उसकी बौद्धिक संपदा एवं स्तर के अनुरूप होती है,
उसकी वैज्ञानिकता और आधुनिकता की स्थिति
के अनुसार विशिष्ट होती है| और संस्कृति इन्हीं बदलते परिप्रेक्ष्य के अनुकूलन के
अनुरूप संशोधित एवं सम्वर्धित भी होती रहती है। इस तरह संस्कृति अपनी परिस्थितियों और अभिव्यक्ति के कारकों
के बदलने से बदलती भी रहती है।
एक राष्ट्र भी अपनी संस्कृति को विरासत को रुप में देखता है,
और इसलिए किसी देश की सांस्कृतिक विन्यास
और स्वरुप उस देश की राष्ट्रीय विरासत माना जाता है। इस संस्कृति में उस राष्ट्र
को अब तक प्राप्त, विकसित एवं सम्वर्धित सभी सांस्कृतिक सामाजिक पक्ष एवं
स्वरूप समाहित हो जाता है। संस्कृति के संचयी प्रवृत्ति के होने के बावजूद
इसमें गत्यात्मकता होती है और इसीलिए संस्कृति हमेशा नवाचारी बनी रहती है। अर्थात संस्कृति अपनी जड़ों के वजूद को स्थिर रखते हुए भी बदलते
पारितंत्र के अनुकूल अनुकूलित होकर लहराती रहती है, और
वही संस्कृति जीवन्त भी रहती है। मतलब आप किसी संस्कृति को जड़, यानि अचल, यानि गतिहीन नहीं रख सकते। गत्यात्मकता और अनुकूलनशीलता
संस्कृति की मौलिक प्रकृति और प्रवृत्ति होती है। इस तरह संस्कृति एक बहती जलधारा
है, ठहरे हुए जल में
तो सड़ांध पैदा हो जाता है। इसीलिए संस्कृति को
सम्वर्धित, संशोधित और विकसित होते भी
रहना चाहिए।
वैसे यह स्पष्ट है कि राष्ट्रवाद का सबसे मजबूत आधार,
या एकमात्र आधार संस्कृति ही होता है,
लेकिन राष्ट्रवाद में विशेषण 'सांस्कृतिक' लगा देने मात्र से इसका
भावनात्मक अर्थ बदल जाता है। अब आप राष्ट्र और राष्ट्रवाद को परिभाषित करने में
संस्कृति पर ही केन्द्रित रह सकते हैं। राष्ट्रवाद वैसे ही मध्यम वर्गीय लोगों के
लिए आकर्षक और लुभावना अवधारणा है, और इसमें सांस्कृतिक विशेषण लगा देने से इसका महत्व और बढ़
जाता है। तब हमें सिर्फ अपने आवश्यक संस्कृति को पुरातन और ऐतिहासिक साबित करना
होता है। कोई भी वर्तमान संस्कृति यथास्थितिवादी
होता है, क्योंकि संस्कृति में एक जबरदस्त आवेग (Momentum) होता है, जिसे हम सांस्कृतिक आवेग (Cultural Momentum) भी कह सकते हैं। यानि कोई समाज सांस्कृतिक जड़ता (Cultural Inertia) में जड़ (Fix) होता है। तब वर्तमान संस्कृति को पुरातन और ऐतिहासिक
के साथ साथ सनातन यानि इसकी निरन्तरता साबित करना होता है। इसी आधार पर कोई
संस्कृति गौरवशाली होता है, या हो जाता है और इसीलिए ऐसी संस्कृति सभी के लिए अनुकरणीय भी हो
जाता है। तब इस संस्कृति का अनुकरण करना ही संस्कार होता है,
या हो जाता है। यदि यह संस्कृति राष्ट्रीय साबित किया
गया है, या राष्ट्रीय
स्वरूप में प्रदर्शित किया गया है, तो उसका अनुसरण नहीं करना राष्ट्रवाद का और राष्ट्र का
विरोध समझा जाएगा।
इसीलिए प्रचलित संस्कृति के कुछ लाभार्थी समूह ने अपनी सामंती
संस्कृति को ही प्राचीनतम एवं सनातन साबित करने के लिए पुराने ग्रंथों को ही पुनर्व्याख्यायित
कर दिया है, अपने लाभों के
अनुरूप सम्पादित कर दिया है, भाषा भी बदल दिया है और उन प्राचीन मूल ग्रंथों को नष्ट भी कर
दिया है। ध्यान रहे कि सभी सामंती संस्कृति की उत्पत्ति ही मध्य काल में हुआ,
भले ही कोई प्राचीनता का दावा बिना
पुरातात्विक आधार के ही करता रहे। मतलब यह है कि बहुत
से प्राचीनतम संस्कृति का दावा करने वाली संस्कृति, यदि
असमानतावादी है तो, निश्चिंतया वह मध्य युगीन
उत्पन्न है। प्राचीनतम
संस्कृति का "प्राथमिक प्रामाणिक
साक्ष्य" यदि उपलब्ध नहीं है, तो वह संस्कृति मध्य युगीन उत्पन्न है,
चाहे कोई कैसा भी दावा करें। लगभग सभी
साहित्यिक साक्ष्य' प्राथमिक प्रामाणिक साक्ष्य' नहीं है। ये साहित्यिक साक्ष्य 'द्वितीयक
प्रामाणिक साक्ष्य'
भी नहीं है,
क्योंकि वे किसी पुरातात्विक या ऐतिहासिक
साक्ष्यों पर आधारित नहीं होकर मात्र मिथकीय कहानियां ही है।
इसीलिए किसी राष्ट्रीय संस्कृति को किसी
अन्य नाम ( इतिहास के नवबोल संरचना – New Speak
Structure of History के अनुसार) की संस्कृति का पर्याय बना दिया जाता है
और फिर उस काल्पनिक संस्कृति को ही राष्ट्रीय संस्कृति बता दिया जाता है,
या साबित कर
दिया जाता है। फिर इस
काल्पनिक संस्कृति का ही गुणगान ऐतिहासिक, पुरातन और सनातन के रूप में किया जाता है। इस तरह एक
काल्पनिक संस्कृति को ही स्थापित कर दिया जाता है और यह काल्पनिक संस्कृति ही
राष्ट्रवादी साबित हो जाती है। ऐसी स्थिति में अब इस काल्पनिक संस्कृति में कोई
भी संशोधन या विमर्श या कोई प्रश्न करना भी ऐतिहासिक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर
सवाल खड़ा करना मान लिया जाएगा, या मान लिया जाता है।
यहां काल्पनिक संस्कृति कहना भी एक आपत्तिजनक हरकत मान लिया जा
सकता है, लेकिन यदि आप इस
तथाकथित ऐतिहासिक संस्कृति की ऐतिहासिकता और पुरातनता के समर्थन में कोई समकालीन
पुरातात्विक साक्ष्य खोजना चाहेंगे, तो आपको मनोवैज्ञानिक साक्ष्य के अलावा कोई तार्किक एवं
सुनिश्चित साक्ष्य नहीं मिलेंगे। यदि आप इसके समर्थन में कोई साहित्यिक साक्ष्य को
देखना चाहेंगे, तो आपको उस काल का कोई समकालीन साहित्यिक साक्ष्य नहीं
मिलेंगे, और कोई समकालीन
उपलब्ध विदेशी साहित्य में भी उदाहरण या प्रसंग नहीं मिलेंगे। इन तथाकथित ऐतिहासिक विरासत की संस्कृति के समर्थन में जो
भी साहित्यिक साक्ष्य मिलेंगे, वे सभी मध्ययुगीन सम्पादित
या रचित साहित्य ही होंगे। इसका सबसे
प्रमुख प्रमाण उनका मात्र कागजों पर ही मिलना है,
जो निश्चितया
कागज़ के आविष्कार होने और उस क्षेत्र में आयातित होने और उसके प्रचलित होने के
बाद के समय का ही हो सकता है, उसके पहले के समय का नहीं।
जब आप किसी मिथकीय
कहानियों को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जोड़ देते हैं, वे
मिथकीय कहानियां भी संस्कृति की तरह पुरातन एवं सनातन हो जाती है और ये मिथकीय
कहानियां हमारी विरासत भी हो जाती है। जब इन मिथकीय कहानियों के पात्र आदमी ही है, यानि होमो सेपियंस सेपियंस ही है,
तो स्पष्ट है ऐसी कहानियां होमो सेपियंस
की उत्पत्ति के बाद के ही होने चाहिए। अन्यथा इसकी उत्पत्ति के पूर्व की ऐसी
कहानियां वास्तविक हो ही नहीं सकती, यानि ऐतिहासिक मानी ही नहीं जा सकती है। जो जीवन वृत्त यानि
जो कहानियां किसी व्यक्ति पर आधारित है और वह वास्तविक मानी जाती है,
तो उन कहानियों को किसी भी इतिहास की
पुस्तकों में दर्ज होना चाहिए, अन्यथा वे मात्र कोरी कहानियां ही है। ध्यान रहे कि आधुनिक
मानवों का अस्तित्व ही, मानववैज्ञानिकों के अनुसार, कोई एक लाख वर्ष पूर्व ही आया
है, उसके पहले की किसी भी ‘संस्कृति का इतिहास’ ‘इतिहास की पुस्तकों’ में दर्ज नहीं
है|
राष्ट्रवाद का दुरुपयोग भी
किया जा सकता है, या किया जाता है। इसीलिए
राष्ट्रवाद के विवादास्पद स्थिति के कारण प्रत्येक देश/ राष्ट्र को मानवतावादी
दृष्टिकोण की ओर बढ़ना चाहिए। राष्ट्रवाद एक हथौड़े की तरह एक उपकरण है,
जिसका उपयोग
निर्माण में भी किया जा सकता है और किसी विध्वंस में भी किया जा सकता है। मानवतावाद सदैव सृजनात्मक ही होगा। अब तो आधुनिकीकरण
भी राष्ट्रवाद को उसकी पहचान से वंचित कर रहा है। राष्ट्रवाद का दायरा सबसे विशाल होता है,
जो जाति, प्रजाति, धर्म, भाषा, आदि से भी ऊपर होता है,
लेकिन इससे उपर मानवतावाद है,
जिसके उपर और कोई वाद नहीं हो सकता है। प्रकृतिवाद या भविष्यवाद का भी केन्द्रीय विंदु भी मानव ही
है, कोई जाति, प्रजाति, धर्म, क्षेत्र
या भाषा नहीं हो सकता है। यदि वैश्वीकरण
की प्रक्रिया राष्ट्रवाद को जबरदस्त चुनौती दे रही है,
तो राष्ट्रवाद का इस युग में उपयोग और
प्रयोग करना एक प्रतिगामी क़दम कहा जाएगा। कुछ व्यक्तिगत (सीमित छोटे समुदाय सहित)
स्वार्थों के लिए राष्ट्रवाद का उत्साहवर्धक समर्थन देना भी उस समाज या राष्ट्र के
समुचित विकास के लिए घातक हो सकता है।
जब आप संस्कृतिवाद और
राष्ट्रवाद की जबरदस्त शक्तियों को समझ गए,
तो
आप संस्कृतिवाद और राष्ट्रवाद के मूल और मौलिक तत्वों की ओर नजर घुमाइए, इनकी
क्रियाविधि को समझिए। फिर "इतिहास की नवबोल संरचना" (New Speak Structure of History) को समझते हुए अपनी सुविधानुसार अपने
अवधारणाओं और परिभाषाओं को इस संस्कृतिवाद और राष्ट्रवाद की स्थापित अवधारणाओं और
परिभाषाओं के अनुरूप व्याख्यापित कर प्रतिस्थापित कर दीजीए। आप निश्चिंत रहिए, कि
सामान्य जनता या डिग्रीधारी तथाकथित बौद्धिक लोग आपके इस बारीक बौद्धिक विस्थापन
या प्रतिस्थापन को नहीं समझ पाएंगे| सतहों पर फिसलने वाले इन लोगों को गहराईयों में
उतरना नहीं आता है। और आप सांस्कृतिक
राष्ट्रवाद की जबरदस्त शक्तियों का सफल उपयोग या प्रयोग (या दुरूपयोग) करते रहिए।
आप इस आलेख को अच्छी तरह से समझने के लिए
अंतिम पारा को स्थिर होकर अवलोकन करें और फिर इसके मनन मंथन के बाद ही किसी निष्कर्ष पर
पहुंचे।
आचार्य निरंजन सिन्हा
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