सड़क
के किनारे मजमा लगा हुआ था; मैं भी माजरा समझने वहां चला गया। वहां तमाशा हो रहा था और लोग उसे देख
आनंदित हो रहे थे। मैंने विचार किया। समझा कि लोगों को आनंदित करने के
लिए तमाशा करना जरुरी होता है। तमाशा सिर्फ सड़क किनारे
नहीं होता, शासन व्यवस्था में भी आवश्यक हो जाता है। शासन व्यवस्था के
महत्त्वपूर्ण खम्भा है- विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और सम्वाद्पालिका।
सम्वाद्पालिका (संवाद करने का तंत्र) को
ही सामान्य जन परम्परागत मीडिया कहते हैं। सम्वाद्पालिका के तमाशे इतने विवादास्पद होते हैं कि उनके बारे में चर्चा
करना भी अनावश्यक होगा| वैसे भी संवाद एवं संचार पर जिनका
नियंत्रण होता है, वे किसी दुसरे की सुनते भी नहीं हैं|उनमें एक बहुत खास विशेषता होती है कि वे अपने को सर्व ज्ञानी और सर्वोच्च
ज्ञानी भी समझते हैं।
विधायिका एक भवन तक ही सीमित होता
है। यह विधान यानि नियम बनाने तक ही सीमित होता है और इसमें जनता की प्रत्यक्ष की
भागीदारी भी नहीं होती है। और इसलिए विधायिका के तमाशे, यदि होता है भी तो उसकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता है|
मेरा
आज़ का विषय है- न्याय का तमाशा। पहले न्याय के प्रकार को समझा जाय। न्याय को
कितने स्वरुपों में वर्गीकृत किया जा सकता है? मैंने न्याय को चार स्वरुपों में वर्गीकृत किया है - नैतिक न्याय, प्राकृतिक न्याय, धार्मिक न्याय, और वैधानिक न्याय, जो क्रमश नैतिक विधि, प्राकृतिक विधि, धार्मिक (साम्प्रदायिक) विधि एवं वैधानिक विधि पर आधारित है| प्रशासनिक न्याय को वैधानिक न्याय में
समाहित किया जाता है, क्योंकि इसका स्वरुप, चरित्र और आधार सामान्यत एक ही होता है, यानि एक
समान होता है। कोई भी न्याय किसी विधि या विधान पर निर्भर करता है| अर्थात न्याय का आधार विधान होता है| यह एक अलग
विषय है कि नैतिक विधान कब धार्मिक विधान बन जाता है, या
वैधानिक विधान कब धार्मिक विधान बन जाता है?
प्राकृतिक
विधान ही सहज, सरल एवं वैज्ञानिक होता है और इसीलिए सभी वैधानिक विधान की स्वाभाविक
प्रवृति होती है कि वह प्राकृतिक विधान के निकट हो, या
प्राकृतिक विधान के समकक्ष ही हो| जीवन के किसी भी क्षेत्र में प्राकृतिक विधान वह विधान है, जो किसी व्यक्ति, समाज या क्षेत्र के संतुलित
और महत्तम हितों के सम्यक विकास के लिए इनके प्राकृतिक एवं स्वाभाविक गुणों के
आधार पर समुचित अवसर देता है| अर्थात प्राकृतिक
विधान सम्पूर्ण मानवता के व्यापक हितों के लिए सभी सदस्यों के प्राकृतिक एवं
स्वाभाविक क्षमताओं एवं दक्षताओं का व्यापक उपयोग करता है| इस तरह प्राकृतिक विधान किसी व्यक्ति के जन्म, वंश, लिंग, आस्था, क्षेत्र, समुदाय या अन्य सामाजिक विभाजनकारी मान्यताओं के आधार पर भेदभाव नहीं करता
है|
मैं
यहाँ प्रशासनिक न्याय एवं वैधानिक न्याय के तमाशों पर केन्द्रित करना चाहता हूँ| प्रशासन वाले भी खूब
तमाशा करते हैं| डमरू
से शब्द निकलते हैं – भ्रष्टाचार बर्दास्त नहीं, हर हाल में बर्दास्त
नहीं| कुछ लोग इसे "जीरो टोलरेंस" भी कह देते हैं, जो डमरू के डुगडुगी में बांसुरी के मधुर स्वर के समान एक विशेष और अलग
आकर्षण पैदा कर देता है| इस जीरो टॉलरेंस नीति के अन्तर्गत भ्रष्टाचार के विरुद्ध सुनवाई भी भ्रष्ट एवं निरंकुश अधिकारी ही करेंगे| जो प्रताड़ित हैं, प्राकृतिक न्याय की प्रक्रिया में
उनको भ्रष्टाचार जांचने में शामिल नहीं किया जाता है| जो
भ्रष्टाचार करेगा, वही भ्रष्टाचार के लगे आरोपों की
जाँच भी करेगा; सिर्फ व्यक्ति बदलेगा या व्यक्ति भी वही
रहेगा, पर तंत्र तो निश्चित ही वही रहेगा। जांच तंत्र प्रशासनिक ही रहेगा। इस प्रक्रिया
को, या इस तंत्र को, या इस विधि को यदि
तमाशा कहा जाय, तो गलत कैसे है? क्यों
नहीं इसे स्थापित प्राकृतिक न्यायिक प्रक्रियाओं के विरुद्ध नहीं माना जाय?
एक
साधारण उदहारण से समझा जाय| यदि किसी को इंदिरा आवास से सम्बंधित
भ्रष्टाचार की शिकायत है| बात कार्यपालिका के सर्वोच्च
सरकार के दरबार तक जाती है| इसे लोकतांत्रिक भाषा में
जनता का दरबार यानि जनता दरबार भी कहा जाता है| सर्वोच्च
दरबार तक बात जाने से पहले कई स्तर के दरबार हैं, पर
निदान नीचे नहीं मिलने पर ही लोग ऊपर के दरबार तक जाते हैं| ऐसी घटनाएं बार बार घटती रहती है, जिसका एक मात्र और
एकमात्र कारण है कि सर्वोच्च दरबार के ठीक नीचे वाले दरबार की उदासीनता और
लापरवाही के विरुद्ध कभी भी समुचित एवं ठोस करवाई नहीं की जाती है| सीधे शब्दों में कहें, तो विभागीय अध्यक्ष के नीचे
के जनपदों या जिलों के प्रमुखों पर कभी जवाबदेही नहीं निभाने पर भी कोई करवाई नहीं
होती| ये उच्चस्थ लोग अपनी नाकामियों की जवाबदेही को
नीचे फेंक देते हैं और उपलब्धियों को ऊपर ही लोक (ले लेना) लेते हैं| एक बार इन नाकामियों के
लिए जवाबदेह वरीय अधिकारी दण्डित हो जाए, तो वे न्यायिक प्रक्रियाओं के लम्बे उलझन
में खुद को सुधार लेंगे और अपने के नीचे तंत्र को दुरुस्त भी रखने का सबक लेंगे| ऐसा नहीं होना यानि उच्चस्थ पदाधिकारियों को
दंडित नहीं करना भी एक तमाशा या नौटंकी ही है। ऐसा बार बार दुहराया जाता है और
अपने में अपेक्षित सुधार किए बिना कारवाई नीचे वाले पर करके न्याय करने का तमाशा
समाप्त कर दिया जाता है| फिर दूसरा तमाशा शुरू हो जाता है| कभी कभी नीचे
वाला नाकाम कर्मी भी वरीय के इतने नजदीकी होते हैं कि इन भ्रष्टाचार के तथाकथित
उन्मूलन के तमाशे के शिकार किसी और कमजोर को बना दिया जाता है| एक बार भी वरीय अधिकारी को दण्डित करने का निर्णय हो जाए, तो सुधार की प्रक्रिया स्वभावत प्रारंभ हो जाए|
इसी
तरह का तमाशा न्यायिक प्रशासन में होता है| क्यों
एक ही तरह के मामलें न्यायालयों में बार बार आते हैं? एक ही व्यक्ति, संस्था, या एक ही विभाग के विरुद्ध एक ही तरह
के मामले में न्याय निर्णय के लिए बार बार क्यों एक ही न्यायलय में आते रहते हैं? इसका स्पष्ट अर्थ होता है कि
उस व्यक्ति, संस्था या विभाग ने पूर्व के न्याय निर्णयों से कोई सबक नहीं लिया है| ऐसा इसलिए होता है कि
संस्थान प्रमुख को छोड़ कर अन्य नीचे के कर्मी पर जवाबदेही तय कर दी जाती है,
जो वास्तविक दोषी नहीं होता है| एक ही
तरह के एवं एक ही व्यक्ति या संस्थान के विरुद्ध मामलों का बार बार न्यायालय में
आना न्यायपालिका का बहुमूल्य समय की बर्बादी ही है| एक
बार भी उच्च स्तरीय अधिकारी के विरुद्ध दंडात्मक निर्णय लिया जाय, तो कोई कारण नहीं होगा कि वे अपने आप को नहीं सुधार लेंगे| चूँकि वरीय अधिकारी दण्डित
नहीं होते हैं, इसीलिए न्याय का तमाशा जारी रहता है|
भारत
में सभी प्रशासनिक प्रमुख अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी होते हैं और इनमें सबसे
प्रमुख भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी होते हैं, जो आई ए एस कहलाते हैं| कभी भी प्रशासनिक न्याय या वैधानिक न्याय में इन अधिकारियों को दण्डित
करते हुए नहीं देखा जाता है, कुछ विशेष अपवादों को छोड़
कर| इसलिए सामान्य लोग कहते रहते हैं कि अस्थायी हमेशा स्थायी से डरता
रहता है और स्थायी को दण्डित करने से सभी बचते रहते हैं| न्यायपालिका के उच्चतर या उच्चतम स्तर के भी
संस्थान भी इन भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को दण्डित करने से बचते रहते
हैं; निम्न
न्यायालय तो कभी भी प्रशासनिक मामलों में इन अधिकारियों को दण्डित नहीं ही करते
हैं| इसका एक प्रमुख कारण यह होता है कि इन मामलों को
निम्न कर्मी के ही विरुद्ध बनाते हैं और ये वरीय पदाधिकारी अपने को बचाते रहते हैं| इस तरह न्याय का तमाशा बदस्तूर जारी रहता है| सरकार
की वाहवाही बरक़रार रहती है और लोग तमाशा से अनादित होते रहते हैं| न्याय का तमाशा जारी रहेगा और हमलोग मजा लेने का अहसास से आनंदित होते
रहेंगे| धन्यवाद|
निरंजन सिन्हा
बहुत शानदार और highly relevant सर। पर, न्यायपालिका के न्यायिक चरित्र पर फोकस नहीं किए सर। और अंग्रेजो द्वारा किसी खास वर्ग में न्यायिक चरित्र न रहने के कारण उन्हें जज न बनाने का निर्णय था।
जवाब देंहटाएंपर आज ये उसी के कब्जे में है, जिसके कारण इस तंत्र का ही न्यायिक चरित्र खतरे में है। अतः, सबसे पहले सर्वजनवर्गीय द्वारा इसमें ही बड़ा सुधार की आवश्यकता है। फिर सभी तंत्र सुधर जायेंगे।