सोमवार, 7 दिसंबर 2020

व्यक्ति और संस्था का अन्त: कैसे?

 

व्यक्ति और संस्था का अन्त: कैसे?

एक व्यक्ति का अन्त कैसे होता है और उसका हमारे एवं उसके जीवन का क्या प्रभाव पड़ता है? एक संस्था का अन्त कैसे होता है और उसका हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? इसके सम्यक मूल्यांकन के बहुआयामी प्रभाव है और इसलिए ही बहुत महत्वपूर्ण भी है। एक भारतीय उदाहरण: गौतम बुद्ध एक व्यक्ति के रूप में पैदा हुए और एक संस्था के रूप में रुपांतरित हो अपने शरीर का त्याग किया। एक व्यक्ति का एक संस्था में रुपांतरण का सफर कैसे संभव होता है और कैसे तय होता है; इसे जानना और समझना एक रोचक विषय है। इस रुपांतरण के विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण आपके सहयोग से करने का प्रयास करुंगा।

व्यक्ति और संस्था क्या होता है? दोनों में अन्तर क्या है? व्यक्ति पृथ्वी का एक जैविक शारीरिक स्वरुप में बुद्धिमता में सबसे समझदार जीव है। व्यक्ति को एक समाज के एक इकाई के रूप में भी परिभाषित किया जाता है। जबकि संस्था एक काल्पनिक वास्तविकता है जो किसी ख़ास एवं विशिष्ट उद्देश्य के लिए ही लोगों का भावनात्मक एकत्व है। एक संस्था के खास एवं विशिष्ट उद्देश्य को ही उस संस्था का दर्शन कहा जाता है। अतः एक संस्था का दर्शन यह बताता है कि उस संस्था का उद्देश्य क्या है और उसकी प्राप्ति की क्रियाविधि क्या होगा अर्थात उसे कैसे संभव बनाया जाएगा। यही दर्शन बुद्ध को एक व्यक्तिगत जीवन और एक संस्था  में अन्तर कर देता है। यही दर्शन एक शारीरिक जीवन को अमरत्व प्रदान करता है। इस तरह एक दर्शन में संस्था का लक्ष्य या उद्देश्य के साथ साथ उसे प्राप्त करने की क्रिया विधि भी समाहित हो जाता है।

कुछ दर्शन पुरातन, स्थायी और स्पष्ट होते हैं और इसीलिए उसकी समझ भी सामान्यतः सभी को होती है परन्तु कुछ दर्शन लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध भी होता है और इसीलिए उसके मूल स्वरुप को प्रारंभिक अवस्था में छुपाने की अनिवार्य आवश्यकता भी हो जाती है। मूल उद्देश्य को छिपाने के लिए सबसे आसान और सहज तरीका धर्म का आवरण या स्वरुप होता है क्योंकि एक मध्यमवर्गीय समाज धर्म, राजनीति एवं नैतिकता के मामलों में निर्णय दिमाग से नहीं लेकर दिल से लेता है। अर्थात एक मध्यमवर्गीय समाज इन मामलों में अपना निर्णय भावनात्मक रूप से लेता है और सामान्यत तथ्यात्मक, तार्किक एवं विश्लेषणात्मक नहीं हो पाता है। निम्नवर्गीय लोगों को इस स्तर पर नहीं तो सोचने का समझ होता है और न ही समय होता है। ये लोग अपने दिशानिर्देश के लिए मध्यमवर्ग पर ही आश्रित रहते हैं। मध्यमवर्गीय समाज लोक प्रचलित संवादपालिकाओं पर ही स्वभावत: निर्भर करता है और इसिलिए इन संवादपालिकाओं के मूल एवं धूर्त मंशा को नहीं समझ पाता है। ऐसे लोग सूचना के स्रोत, मूल उद्देश्य एवं निष्कर्ष को नहीं समझ पाते हैं। इस तरह ये लोग अपने ही हितों के विरुद्ध भी सक्रिय और तत्पर रहते हैं और समाज एवं राष्ट्र के विरुद्ध कार्य कर जाते हैं। ऐसा नहीं है कि उस तंत्र के सभी लोग सारे उद्देश्य को जानते और समझते ही हैं; वे भी उस भेडतंत्र का एक हिस्सा बन कर ही कार्य करते रहते हैं। उन्हें दिखाया और समझाया कुछ और जाता है तथा मूल उद्देश्य की ओर ध्यान जाने ही नहीं दिया जाता है| कार्यक्रम और प्रक्रिया इस तरह संयोजित होता है कि मूल उद्देश्य ही कुछ और दीखता है और कुछ ख़ास हितों को छुपा जाता है| अधिकतर डिग्रीधारी अपने डिग्री के कारण अपने को शिक्षित और समझदार भी समझे बैठे रहते हैं| इसलिए ही शिक्षा में वैज्ञानिक मानसिकता एवं तर्क, विवेक,और विश्लेषण की महत्ता स्थापित है|

एक व्यक्ति को लगता है कि अमुक व्यक्ति ही उसके कष्ट का दोषी है और इसलिए ही उसकी समझ वहीं तक सीमित हो जाती है और वह उसके पीछे के दर्शन को नहीं समझ पाता है। बहुत बार या अक्सर ऐसा होता है कि किसी कष्ट के पीछे कोई दर्शन नहीं होता और उसका निर्देशित कष्ट उसी सत्तासीन व्यक्ति के जीवन के साथ समाप्त भी हो जाता है। बहुत बार उस दर्शन के मुख्य कार्यकर्त्ता को भी मूल उद्देश्य का भी पता नहीं होता (क्योंकि मूल उद्देश्य को ढक दिया गया होता है) और वह मुख्य उपकरण की भूमिका मात्र में ही रहता है।

एक संस्था के कई अंग होता है, कई शाखाएं होती है, व्यापक प्रसार एवं कार्य क्षेत्र होता है, और समर्पित कार्यकर्ताओं की फौज रहता है। परन्तु यदि उसका दर्शन शून्य हो जाए या दर्शन में बदलाव आ जाए तो सबकुछ बदल जाता है। एक संस्था और उसके अंग एवं संगठन इसी तरह तरह समाप्त हो सकता है; दूसरा कोई विकल्प नहीं है। एक विचारधारा को  दूसरा विचारधारा ही समाप्त कर सकता है, दूसरा कोई फौज या तंत्र नहीं। बाकी सभी तरीके मानवीय संसाधनों, भौतिक संसाधनों एवं समय की बरबादी के सिवा कुछ नहीं है।

यदि एक दर्शन सर्व कल्याणकारी नहीं है तो उसका हश्र हिटलर के नाज़ीवाद की तरह ही राष्ट्र के लिए अहितकर ही होगा| किसी व्यक्ति के जीवन के बाद भी यदि किसी दर्शन को जीवित रहना और सम्मानित स्थान पाना है तो उसे सर्व कल्याणकारी एवं मानवतावादी अवश्य होना होगा| जो दर्शन समाज के या किसी राष्ट्र के कुछ ख़ास वर्गों के हित तक ही यदि सीमित है तो वह सम्पूर्ण मानवतावाद के विरुद्ध है और वह आधुनिक युग में सनातन हो ही नहीं सकता है; भले ही कुछ अवधि तक विस्तारित हो जाए| यदि कोई दर्शन मानवतावादी नहीं है और उस राष्ट्र या किसी कौम का सैन्यीकरण का कोई सार्थक महत्त्व नहीं है| यदि किसी प्रसिद्ध व्यक्ति को लगता है कि उसकी कृतियाँ उसे अमरतत्व प्रदान कर देगी तो उसे यह अवश्य देखना चाहिए कि क्या उसने कोई दर्शन स्थापित किया है और क्या वह दर्शन सर्वकल्याणकारी और मानवतावादी है?  यदि दोनों तत्व नहीं है तो उसकी कृति उसी के साथ ख़त्म होगी| इसी कारण बड़े- बड़े अमीरों को याद नहीं किया जाता है|

अब इतिहास की परिभाषा में प्रकृति, मानव एवं संस्थाओं के सन्दर्भ में सामाजिक रूपांतरण के क्रमबद्ध ब्यौरा को ही शामिल किया जाता है| अब इतिहास की परिभाषा एवं भूमिका भी बदल रहा है| लोगों को अपनी सोच पर भी सोच रखना होगा|

निरंजन सिन्हा

व्यवस्था विश्लेषक एवं चिन्तक |

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