बुधवार, 30 दिसंबर 2020

संघ, संगठन, एवं संस्थान की प्रकृति और क्रियाविधि (Nature n Mechanism of Association, Organisation, and Institution)

आप संघ (Association) चलाते हैं, संगठन (Organisation) चलाते हैं, संस्था (Institution) एवं संस्थान (Institute) चलाते हैं; क्या आपने कभी इसकी प्रकृति और इसकी क्रियाविधि को समझाने का प्रयास किया है?  आज हम आपके सहयोग से इसे समझने का एक प्रयास करेंगे| ऐसा इसलिए जरुरी है क्योंकि आप इसे सफलतापूर्वक एवं दक्षतापूर्वक चलाकर यथाशीघ्र लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं| आप अपने प्रतिद्वन्दी संघ, संगठन, संस्था, एवं संस्थान को परास्त करना या समाप्त होते भी देखना चाहते हैं| आप अपने संघ, संगठन, संस्था एवं संस्थान का प्रभाव फैलाना चाहते हैं तो इस आलेख को पूरा अवश्य पढ़ें| इससे आपको इनकी प्रकृति एवं इसकी क्रियाविधि समझने में सहूलियत होगी और आप अपने उद्देश्य में सफल होंगे|

एक संघ व्यवस्थित संगठन के साथ समय काल में एक संस्थान भी बन जाता है| इन संज्ञा नामों के व्यक्तिवाचक (Proper Noun) या समूहवाचक (Collective Noun) शब्दों को इनके भाववाचक (Abstract Noun) प्रभाव समझ लेना भी एक बड़ी त्रुटि होगी जैसे यदि किसी संस्थान का नाम संघहै तो इस संस्थानको संघसमझ लेने की भूल नहीं किया जाय या यदि किसी संगठन का नाम संस्था या संस्थान है तो इसे संस्थान समझने की भूल भी नहीं किया जाय| इसे समझना इसलिए जरुरी है कि आप अपनी रणनीति या क्रियाविधि को अपेक्षित ढंग से संचालित कर उद्देश्य को प्राप्त कर सकें|

कुछ लोग या कुछ संगठन या संघ किसी दुसरे संघ, या संगठन, या संस्थान का प्रभाव कम करना चाहता है या उस प्रभाव को ही समाप्त करना चाहता है, पर प्रयास का कोई अन्तर नहीं पड़ता| अन्तर पडेगा भी नहीं| क्योंकि वे संघ, समाज, अंग, संगठन, संस्था, एवं संस्थान को समझ ही नहीं पाते और अपनी उर्जा, समय, एवं संसाधन बरबाद करते रहते हैं और कोई गंभीर परिणाम नहीं निकलता| यदि आप समाज या अंग या संगठन पर प्रहार करते रहते हैं तो कोई परिणाम नहीं निकलेगा और संघर्ष एवं विद्वेष ही बढेगा| इन समाजों की, इन अंगों की, इन संघों की या इन संगठनों की नियंत्रण या सञ्चालन प्रणाली इनमें नहीं होता, अपितु इसके बाहर इनसे जुडी संस्थानों में होता है जो इसको नियंत्रित एवं संचालित करता है| इस तरह ये अंग या संघ या संगठन कभी नष्ट नहीं होते, भले ही आपको नष्ट होता हुआ या लगता हुआ दिखे| फिर ऐसी कोशिश क्यों? ऐसी कोशिश इसलिए की जाती है क्योंकि आप इसे समझते नहीं हैं| लेकिन सदैव ऐसा नहीं होता, कुछ लोग जानबूझ कर भी ऐसा करते रहते है| उन्हें ऐसा करने के लिए भी दुसरे विपरीत संगठनों एवं संघो से धन एवं लाभ मिलता रहता है| ये विरोध करते दीखते संघ, संगठन या संस्थान सही उद्देश्य वाले संघों, संगठनों, एवं संस्थाओं के उद्देश्य पूर्ति में मानव सम्पदा, धन सम्पदा एवं समय सम्पदा को दुसरे दिशा में मोड़ कर बरबाद करते हैं और धन देने वालें संघो एवं संस्थाओं को आगे बढ़ने देते हैं| मैं एक गंभीर बात कर रहा हूँ, कृपया आप थोडा ठहर कर समझें|

आपको अन्य किसी भी संघ, समाज, अंग, संस्था, संगठन, एवं संस्थान को  प्रभावहीन करना है तो उसके नियंत्री  संस्थान के उद्देश्य समझें| संस्थान का दिखावटी उद्देश्य और वास्तविक उद्देश्य यदि अलग अलग होता है (जो अक्सर होता ही है) तो उसका अन्तर समझें; अन्यथा चालाक एवं पुरातन संस्थान के प्रकृति एवं स्वरुप को आप सरलता से समझ नहीं पायेंगे| उसका उद्देश्य ही उसका आदर्श है| इन संस्थाओं की व्यावहारिक क्रिया कलापों के सूक्ष्म एवं तीक्ष्ण अवलोकन से आप इन संस्थाओं के वास्तविक आदर्श को देख या समझ सकते हैं|  जब आप आदर्श समझ जाते हैं ती इस दिशा में आप अपने मंजिल के पास पहुँच जाते हैं| यदि इन संस्थानों का आदर्श, जिन्हें ये प्राप्त करना चाहते हैं, तथ्यहीन, काल्पनिक, अमानवीय, अवैज्ञानिक एवं साक्ष्यहीन है तो इन आदर्शों को समाप्त करना या इनके प्रभाव को न्यून करना संभव है| चूँकि आप सत्य के साथ है, तो विश्व आपके साथ है| दुनिया कोई देश, चीन या भारत, भी विश्व आबादी का पंद्रह प्रतिशत ही होता है और शेष विश्व पचासी प्रतिशत है| यदि आप दुनिया को सही बात समझा देंगे और दुनिया आपकी बात को सही, साक्ष्य सहित, वैज्ञानिक एवं मानवीय मान लेती है तो आप जीत गए| अत: आप संस्थानों का आदर्श समझिये और उन गलत आदर्शों के जड़ पर प्रहार कर नष्ट कर दीजिये| दूसरा कोई उपाय समाज का समय, संसाधन एवं मानव का दुरूपयोग है (वैसे मैं आपको किसी भी काम से रोक नहीं रहा हूँ) और अपने गतिविधियों से विरोधियों का ही समर्थन दे रहे हैं; भले आपको लगता है कि आप विरोधियों को कबाड़ या उखाड़ रहे हैं, यह आपका भ्रम है| इसे भी आप दुबारा पढ़ें| इस देश को , इस समाज को, एवं इस मानवता को जो नुकसान हो रहा है; उसका मुख्य कारण अज्ञानता का स्तर है जो समाज के, संघ के, अंग के, संगठन के, संस्था के या संस्थान के शीर्ष पर बैठे लोगों में व्याप्त भी है,  जो हो सकता है इनके जीवन काल में नहीं दिखे, पर इसे इतिहास जरुर लिखेगा| ये शीर्ष पर बैठे लोग यदि समझना चाहे तो समझ सकते हैं और मानव एवं समाज का बृहत्तर कल्याण कर इतिहास के सुखद अध्याय में अपना नाम लिखवा सकते हैं|

चूँकि संस्थान एक नियमों या विधानों का एक जटिल संरचना या स्वरुप (Complex Structure or Pattern) है और इसीलिए विधान निर्माताओं (Legislature) का मुख्य विषय या केद्र यही संस्थान है यानि यही मूल्य या आदर्श होता है जिसे बदलना (Change) या संशोधित (Correction) या परिवर्धित (Modification) या रूपांतरित (Transformation) किए जाने की आवश्यकता होता है| इसी कारण राजनितिक संगठन या नियम बनाने वाली संस्था या संगठन या संघ या प्रवर्तन संगठन (Enforcement Organ) संस्थाओं में ही हस्तक्षेप करती हैं|

ब्रिटिश विद्वान् प्रोफेसर ज्यॉफ्री मार्टिन होड्गसन (Geoffrey Martin Hodgson) संस्थानवाद (Institutionalism) के स्थापित प्राध्यापक हैं| इन्होंने कहा कि संस्थानें सामाजिक जीवन का उपकरण, सामग्री,या दक्षता (Institutions are the stuff of social life) है| संस्थान सामाजिक प्रचलित नियमों एवं स्थापनाओं का एक तंत्र है जो सामाजिक अन्तर्क्रियाओं का संरचना बनाता है जैसे भाषा, मुद्रा या धन, कानून आदि| संस्थान को एक तरीका कहा जा सकता है जो सामाजिक जीवन का संरचना बनाता है और हमारी प्राथमिकताओं, आशाओं (Expectations) एवं अवधारणाओं (Concepts) को निर्धारित करता है| ये स्थायी उम्मीदों का सृजन करते हैं| सामान्यत: संस्थान लगातार अपने विचारों, आशाओं, एवं क्रियाओं के द्वारा समाज पर प्रभाव पैदा कर मानवीय गतिविधियों को निर्धारित एवं नियंत्रित करता है| इस तरह संस्थान हमें किसी कार्य को करने या किसी कार्य को नहीं करने के लिए प्रेरित करती है| इस तरह संस्थान नियमों एवं नीतियों का एक प्रभावशाली तंत्र है|

अब मैं आपको इन संगठनों के स्वरुप (Form), बनावट (Structure), प्रकृति (Nature), उद्देश्य (Aim), प्रकार्य (Functions) एवं आदर्श (Ideals) और इसकी क्रियाविधि (Mechanics) को थोडा विस्तार से समझाने का प्रयास करता हूँ|

समाज (Society) किसे कहते हैं? यह लोगो का एक संगठन है जिनका एक समान उदेश्य (Aim) या एक समान रूचि (Interest) होता है| इस तरह समाज एक संगठन है और इसे संघ, संस्था या संस्थान का प्रतिस्थानी नहीं समझा जाना चाहिए| यह मानव प्रकृति का स्वाभाविक उदविकास (Evolution) की अवस्था है और यह बिना प्रयास के ही स्थापित है क्योंकि यह होमो सेपियंस सेपियंस की एक अनिवार्य शर्त रही है| संघ या संगति (Association) लोगो का एक अधिकारिक जुडाव या समूह है जिनका समान पेशा (Profession) या उद्देश्य या रूचि हो| संस्था एक संगठन या परिसर (Campus) या भवन है जो किसी खास तरह के काम के लिए स्थापित है जैसे अनुसन्धान या शैक्षणिक संस्था| संस्थान या संस्थापन या प्रतिस्थापन (Institution) एक सामाजिक सांस्कृतिक स्थायित्व का किसी खास उद्देश्य या विचारधारा का स्वरुप है जिसमे अपरिवर्तित स्थायित्व (Unchangeable Stable) होता है| इस कारण संस्थान समाज में एक महत्वपूर्ण भूमिका रखती है जैसे परिवार, विवाह, संसद, धार्मिक संस्थान आदि|

संघ यदि एक संगठित समूह है तो संस्थान किसी चीज को किसी खास विचारधारा से करने या देखने का संगठित तरीका है| किसी खास उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए लोगो का कोई खास समूह जब संगठित होता है तो संघ अस्तित्व में आता है लेकिन संस्थान किसी विचार या व्यवहार को नियंत्रित या संचालित करने के उद्देश्य से स्थापित होता है या स्थायित्व में आता है| किसी संगठन के नाम में यदि संघलिखा है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह संघ (Association) ही होगा, वह संस्थान भी हो सकता है| आदमी अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए संघ बनाता है और जब उसके लिए विधान, नियमन, नियम एवं प्रक्रिया के साथ दीर्घकालीन आदर्श तय कर देता है तो वह समय के साथ स्वाभाविक रूप से संस्थान बन जाता है| संघ में स्थायित्व एवं निरंतरता का अभाव होता है जबकि संस्थान में स्थायित्व (Stability) एवं निरंतरता (Continuity) होता है| संघ जहाँ संगठन का मानवीय एवं जनांकीय (Demographic) पक्ष है, वहीं संस्थान सामाजिक व्यवहार का निश्चित प्रतिमान (pattern, mode) है या सामाजिक विचार का कोई आदर्श है| संघ संगठन का मूर्त स्वरुप है और संस्थान संगठन का अमूर्त स्वरुप रखता है| संस्थान का कोई निश्चित प्रतिरूप या आकृति या स्वरुप नहीं होता है, सिर्फ किसी खास कार्य या व्यवहार या विचार या आदर्श का प्रक्रिया होता है| संघ यदि लोगो की सदस्यता से सम्बंधित है तो संस्थान आदर्श को स्थापित करने का प्रतिमान या रीति या विधि (Mode) या तरीका है| आदमी संघ का निर्माण करता है परन्तु कार्य संस्थान के द्वारा करता है और इस तरह संस्थान ही संघ को जीवन्त बनाता है या संघ को जीवन देता है| संघ एक तरह से यानि औपचारिक तरीके से संस्थान को नियंत्रित करता है परन्तु संस्थान अनौपचारिक रूप से संघ को नियंत्रित करता है| संघ का वैधानिक अस्तित्व (Legal Status) होता है जबकि संस्थान का कोई वैधानिक अस्तित्व नहीं होता है| बुद्ध का ‘संघ’ (Sangh) एक संघ (Association) का उदहारण है जबकि बुद्ध का दर्शन (Teaching / Philosophy) एक संस्थान (Institution) है जो एक आदर्श को संचालित करता है और आज तक निरंतरता (Continuity) बनाए हुए है|

संगठन लोगो का एक व्यवस्थित एवं संगठित संकलन (Collection) यानि संग्रह है जिसका एक समान लक्ष्य या पहचान (Identity) हो और किसी बाहरी व्यवस्था या तंत्र (System) से जुड़ा हुआ हो| जबकि संस्थान किसी समाज या समुदाय का एक उच्च स्तरीय एवं अभिन्न सत्व (Entity) या सत्ता को निरुपित करता है| एक संगठन किसी एक समान लक्ष्य के लिए लोगो का जुडाव या जमावड़ा या संयोजन (Assemblage) है जबकि एक संस्थान  एक ग्रहणशील (Receptive) संगठन है जो सामाजिक आवश्यकताओं एवं दबावों (Needs n Pressure) के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आता है| एक संस्थान एक बड़े जनसमूह में मूल्य वर्धन (Value Addition) के लिए कई प्रकार्य (Functions) एवं गतिविधियाँ करता रहता है| इस तरह एक संस्थान समाज में परिवर्तन को उत्साहित (Induce) करता है या शुरुआत (Initiate) करता है या प्रतिबंधित (Resist) करता है या निरुत्साहित (Inhibits) करता है जैसा वह संस्थान समुचित (Appropriate) समझता है; यह अलग बात है कि एक शिकारी (Hunter) का आदर्श एक शिकार (Prey) के आदर्श से अलग होता है और इसीलिए उनकी क्रिया विधि भी भिन्न भिन्न हो जाती है| इस तरह एक शिकारी या एक शिकार को लगता है कि उनका सोच यानि विचार समाज के लिए सकारात्मक एवं रचनात्मक ही है और वह सही में मानवतावादी एवं राष्ट्रवादी समझता है (जो सही नहीं है)| एक मानव समाज में शिकारी या शिकार का भाव सामन्त काल में आया जो भी दुनिया के कई समाजों में आज जीवित ही नहीं; अत्यन्त प्रभावी भी है| भारत की स्थिति का आकलन कोई भी बुद्धिजीवी अपने सम्यक विवेक से कर सकता है|

ऐसा कहा जा सकता है कि सभी संस्थान एक संगठन ही होता है परन्तु कुछ ही संगठन बढ़ते है, फैलते हैं, और अपना अस्तित्व बनाये रखते हैं तथा संस्थान का स्तर (status) भी पा लेते हैं| संगठन का मूल (Basic) एवं स्वाभाविक (Natural) उद्देश्य संगृहीत लोगो (Associated or Collected People) में एक आतंरिक व्यवस्था (Internal Order) बनाये रखना है ताकि संगठन का लक्ष्य प्राप्त हो सके| लेकिन इसके (संगठन के) संस्थान के स्तर पर परिवर्तित होते ही यह संगठन से ऊँचा एवं विशिष्ट स्तर पा लेता है और एक संस्थान संगठन से बड़ा बन जाता है| जहाँ एक संगठन किसी विशेष इच्छित लक्ष्य (Desired aim) को प्राप्त करने के लिए लोगो का एक व्यवस्थित एवं संकलित कार्यशील समूह है, वही एक संस्थान एक स्थापना (Establishment) है जो किसी विशिष्ट आदर्श को बढाने या प्राप्त करने के लिए समर्पित (Dedicated) है| एक संगठन का संरचना केन्द्रीकृत या विकेन्द्रितकृत हो सकता है परन्तु एक संस्थान का संरचना सदैव विकेंद्रीकृत ही होता है और इनकी शक्तियाँ प्रबंधन के विभिन्न स्तरों पर संचालित होता है| एक संगठन जहाँ विधानों (Legislation), नियमनों (Regulation), नियमों (Rules) एवं नीतियों (Policies) से संचालित एवं नियंत्रित होता है, वही एक संस्थान कुछ पूर्व निर्धारित मूल्यों (Values) एवं आदर्शों (Ideals)से संचालित एवं नियंत्रित होता है|

एक संगठन का एक निश्चित जीवन चक्र (Life Cycle) होता है| एक जीवन चक्र में जीवन का उदय या जन्म होता है, उसका वृद्धि होता है, उसमे परिपक्वता आता है, और एक समय के बाद समाप्त भी हो जाता है| यही एक सगठन का भी जीवन वृति है| लेकिन एक संस्थान अपने जीवन काल में एक विकासशील प्राणी (Developing Organism) की भांति बदलती हुई परिस्थिति के अनुकूल अनुकूलन (Adaptation) भी करती है, संवर्धन (Growth) भी करती है, रूपांतरण (Modification) भी करती है और अपनी मूल्यों एवं आदर्शों को बनाए रखने में सफल भी होती है| ऐसा इसलिए होता है क्योंकि एक संगठन का प्राथमिक उद्देश्य अपने सदस्यों को सेवा या लाभ देना होता है जबकि एक संस्थान अपने ज्ञान या मूल्यों या आदर्शों को पाने या फैलाने के लिए होता है|

हम और आप किसी भी तरह के लोगो का एक समूह किसी खास उद्देश्य के लिए स्थापित करते हैं पर हमें यह पता ही नहीं होता कि यह समूह संघ, संगठन, संस्था एवं संस्थान के किस स्तर में किस स्तर पर है? यह नहीं जानने से हमें अपनी भावी नीतियों एवं रणनीतियों को समझने, संचालित करने एवं बनाने में कठिनाई होती है| इनका स्थापना लाभ के लिए होता है, भले वह लाभ व्यकिगत हो, सामाजिक हो, या मानवीय हो| भले ही यह शारीरिक तुष्टि दे या मानसिक या आध्यात्मिक तुष्टि दे| लगभग सभी संस्थाओं का उद्देश्य समाज तथा  मानव को सुख, शान्ति, संतुष्टि, एवं समृद्धि पहुंचाना होता है तो इतने स्थापना की संख्या क्यों? शायद प्रक्रियात्मक या संचालात्मक भिन्नताओ के कारण| लेकिन अधिकतर भिन्नता इनके स्वरूपों, आदर्शों एवं संचालानात्मक प्रक्रियाओं के समझ के अभाव में है जिसे सुलझाने के लिए कोई बैठना नहीं चाहता| इस तरह की समझ से कई संघ, संगठन एवं संस्थान एक साथ मिल कर काम कर सकते हैं, भले ही उसे कई अंगो में बाँट कर कार्य विभाजन किया जा सकता है|

समाज एवं मानवता के सुनहरे दिनों की बहुत नजदीक आ जाने की सुखद आशा में हूँ ; क्योंकि कोई भी इन्सान मूलत; दुष्ट नही होता, भले ही उसने अज्ञानता के कारण (जिसकी जानकारी उसे नहीं है) उसकी अवधारणाएँ एवं प्रत्याशायें समाज एवं मानवता के व्यापक कल्याण के विपरीत हो गया है| यहाँ बुद्धिजीवियों के बुद्धि से युक्त होने पर प्रश्न खड़ा किया जा सकता है| आप तो इसे समझें, विश्व समझेगा और बाकि तथाकथित अज्ञानी भी समझ जायेंगे|

 निरंजन सिन्हा                                                                    

व्यवस्था विश्लेषक एवं चिन्तक|

 

1 टिप्पणी:

  1. आलेख सरल, प्रभावी और सारगर्भित है. दूसरे आलेख की प्रतीक्षा करूंगा. विनय कुमार ठाकुर, ACST

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