शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों का छिपा हुआ इतिहास (The Hidden History Of SC & ST)

हमें तथाकथित अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के वास्तविक इतिहास को जानना और समझना चाहिए| तो यहां स्वाभाविक तौर पर आपके दिमाग में यह बात अवश्य उठेगी किक्या अब तक इनके बारे में लिखा हुआ इतिहास झूठा हैया अपूर्ण हैक्या आपको लगता है कि एक शिकारी कभी भी अपने शिकार का इतिहास सम्यक एवं सच्चा स्वरुप में लिख सकता है? तो इसका जवाब हैबिल्कुल नहीं। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों को 'ऐतिहासिक काल' (Historical Period) में समाजसम्पत्तिसम्मानसमानताशिक्षातथा सत्ता इत्यादि कई आधारभूत मानवीय आयामों से जानबूझकर वंचित कर दिया गया| इसका नतीजा यह हुआ किये लोग अपने वास्तविक इतिहास को ही भूल गए हैं| शिकारियों (Poachers) ने इनके मानस पटल पर अपने हितों के अनुरूप झूठे और काल्पनिक इतिहास की एक मोटी परत स्थापित कर दी| और इस इतिहास बोध (Perception of History) के माध्यम से यह सुनिश्चित किया कि ये निरन्तर हीनता बोध से ग्रस्त रहेंताकि ये लोग कभी भी उनके या उनकी आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए खतरा न बनने पायें। अब यदि ये लोग अपने इतिहास लेखन का कुछ प्रयास भी शुरू किये हैंतो विडंबना यह है कि ये लोग अपने शातिर शिकारियों द्वारा प्रतिपादित अप्रमाणिक एवं भ्रमपूर्ण अवधारणाओंविचारों एवं प्रक्रिया विधियों में ही उलझ कर दिशाहीन हो गए हैंकोई भी कभी भीखासकर आज के सूचनाओं के युग मेंअपने विरोधियों की अवधारणाओंविचारों एवं विधियों की सहायता या उपयोग से अपने विरोधियों को परास्त नहीं कर सकताजैसे कि आज किसी भी आधुनिक हथियार को हम उसके उत्पादनकर्ता एवं आपूर्तिकर्ता के विरुद्ध उपयोग नहीं कर सकतेक्योंकि कई सेंसरों (Sensors) के द्वारा उनका गोपनीय नियंत्रण उन हथियारों पर उन उत्पादकों का होता हैऔर वह काफी गोपनीय होता है|

जब अतीत व्यतीत होकर नष्ट नहीं होता और वर्तमान में अपने मौलिक स्वरूप को कई रूपों में स्पष्ट करता रहता हैतो किसी भी वर्त्तमान को सम्यक ढंग से समझने एवं विश्लेषण करने के लिए हमें उसका इतिहास यानि उसके अतीत को मूल रूप मेंगहराई से एवं सही तरह से जानना एवं समझना होगा| 'वर्तमानसदैव उसके अतीत के पूर्वजों के सचेत एवं अचेत विचारोंकर्मोएवं मान्यताओं का परिणाम होता है। परन्तु आज के यह लोग तो अपने अचेत को बिल्कुल जानते ही नहीं हैंऔर इनका सचेत भी गलत व्याख्याओं में झूल रहा है| समाज बोध और राष्ट्र बोध किसी समाज का यानि किसी हिस्से का उसके अतीत एवं वर्तमान की सामूहिक स्मृति है| इनके समाज बोध एवं राष्ट्र बोध को दुरुस्त करने के लिए हमें इन लोगों के अतीत और वर्तमान को उसके वास्तविक परिप्रेक्ष्य में देखना एवं समझना होगाकिसी का भी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ही उसका इतिहास बोध बनता है, और वही इतिहास बोध उनमे और उनके राष्ट्र में उमंग पैदा करता हैयह वास्तविक इतिहास ही किसी समाज और उसके लोगों को गर्व करने लायक प्रेरणा देता हैऔर उस गर्व भरे उमंग से वह समाज एवं राष्ट्र मानव जीवन की बहुआयामी ऊंचाईयां छूता हैकिसी भी इतिहास का उद्देश्य समाज और राष्ट्र का विकास एवं संवर्धन होता हैपराजित एवं निम्न मानसिकता किसी भी समाज एवं राष्ट्र की सारी उर्जा एवं उमंग को नकारात्मक बनाती हैऔर उसका परिणाम बहुत भयावह होता है| इसीलिए भारत देश के वास्तविक व्यापक हित मेंमैं देश के एक चौथाई हिस्से (सम्पूर्ण आबादी का एक चौथाई) का वास्तविक इतिहास लिखने को प्रेरित हुआ हूंयह चौथा हिस्सा एक चार पहिये के संतुलित एवं सक्षम वाहन के एक पहिये के समान हैजिसकी उपेक्षा के कारण यह वाहन रूपी महान देश शताब्दियों से घिसटने को  मजबूर है|

मैं इनके संवैधानिक प्रावधान (Provision) एवं व्यवस्था (Implementation system), विभेद (Discrimination) एवं पूर्वाग्रह (Prejudice), भिन्नता (Difference) एवं असमानता (Un equality), और इनके प्रति रूढ़िबद्ध धारणाओं (Stereotype Images) के बारे में कुछ नहीं लिखना चाहता हूँक्योंकि इस संबंध में आप मुझसे ज्यादा एवं अपेक्षित जानकारी रखते हैंआप भी जानते हैं कि अनुसूचित जातियाँ वे सामाजिक समुदाय हैंजिसे भारतीय संविधान की धारा- 341 के अन्तर्गत सूचीबद्ध किया हुआ हैएवं अनुसूचित जनजातियाँ वे सामाजिक समुदाय हैं जिसे भारतीय संविधान की धारा- 342 के अन्तर्गत सूचीबद्ध किया हुआ हैश्रीमती रूजवेल्ट (Eleanor Rooseveltअमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट की पत्नी) कहती हैं कि अच्छे विचारक विचारों एवं नीतियों (Thought n Policy) की बात करते हैंजबकि निम्न एवं माध्यम सोच के लोग व्यक्तियों एवं घटनाओं का विशद वर्णन करते हैं| इसीलिए मैं किन्हीं घटनाओं एवं व्यक्तियों का वर्णन नहीं कर विषय संबंधी यथोचित एवं मौलिक बात तक ही  सीमित रहूँगा|

इन सामाजिक वर्गों के इतिहासकार इनका इतिहास” (History) लिखने की कोशिश तो करते हैं या लिख भी देते हैंपरन्तु इतिहास के विकास एवं क्रियाविधि के वैज्ञानिक लेखन” (Historiography) पर ध्यान ही नहीं देते हैंइन दोनों के गहरे अर्थ एवं भिन्नता को ध्यान से समझा जायइतिहास के विकास एवं क्रियाविधि के वैज्ञानिक लेखन” (Historiography) को नहीं समझने के कारण ही इन वर्गों के अधिकतर या कतिपय लेखक उन अवधारणाओंविचारों एवं मान्यताओं का ही उपयोग करने लगते हैंजो दिखते तो हैं इन वर्गों के हितों के अनुरूपपरन्तु परिणाम में इनके ही मौलिक हितों के विरुद्ध जाते हैंपरिणाम यह होता है कि ये शातिर शिकारियों के बौद्धिक जाल में उलझ जाते हैंऔर इनको भ्रम वश यह प्रतीत होता है कि ये अब मंजिल के बिल्कुल नजदीक हैंइस तरह दशक ही नहींसदियाँ बीत जाती हैंराजनीति के चेहरे बदलते जाते हैंलेकिन इनकी स्थिति में कोई बहुत परिवर्तन नही होता है|

 यह बात मुझे इसलिए लिखनी पड़ रही है क्योंकि मुझे स्विस (Swiss) भाषाविज्ञानी फर्डिनांड डी. सौसुरे (Ferdinand de Saussure) याद आ गएइन्होने लिखावट के शब्दों एवं वाक्यों को समझने के तरीकों को बदल दिएइनके अनुसार किसी भी शब्द के अर्थ का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता, बल्कि उसका अर्थ उसके सन्दर्भ तथा अन्य शब्दों एवं वाक्यों के साथ उसके सम्बन्ध द्वारा निर्धारित होता हैइस तरह किसी भी शब्द एवं वाक्य का अर्थ उसके पारिस्थितिकी (समय,  स्थानकालक्रमपरिस्थिति) के सन्दर्भ में होता है| इसीलिए किसी भी शब्द को सही ढंग से समझने के लिए उस पूरे लिखावट कोउसके प्रतिरूप (Pattern) कोउस कालक्रम (Chronology) कोउसकी तत्कालीन परिस्थिति (Situation) कोऔर उसकी संपूर्ण पारिस्थितिकी (Ecology) को समझना होगाइस तरह किसी भी शब्द का सतही अर्थ (Superficial Meaning) भी हुआ और उसका अन्तर्निहित वास्तविक अर्थ (Underlying Meaning) भी हुआअत: हमें किसी भी शब्द के सतही और अन्तर्निहित अर्थ की भिन्नता को समझना होगा, अन्यथा लेखक के कुटिल उद्देश्यों में उलझ कर रह जायेंगेवैसे इतिहास लेखन को बेहतर ढंग से समझने के लिए एडवर्ड हैलेट कार की पुस्तक इतिहास क्या है (What is History)” भी अवश्य देखना चाहिए|

भारत में स्थापित संस्कृति के विदेशी शासकोके पक्ष में अपने को साबित करने के लिए आर्यों की कहानी गढ़ी गयी, जिसकी आज लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में कोई उपयोगिता नहीं होने के कारण आई.आई. टी.खड़गपुर की टीम द्वारा इसे गलत घोषित कर दिया गया है| भारत के प्राचीन इतिहास में अब यह पूर्णतया स्थापित हो चुका हैकि वैदिक संस्कृति का इतिहास (देखें - प्रो रामशरण शर्मा की पुस्तक – भारत का प्राचीन इतिहास) महज एक गढ़ा गया मिथक हैयानि कल्पित कहानी है| वैदिक संस्कृति के बहाने वर्ण व्यवस्था को पुरातन, सनातन एवं ऐतिहासिक साबित करने की कोशिश की गयी थी, जो अब गलत साबित हो चुकी है|  इन कहानियों में वर्णित बातों के पक्ष में यदि आप प्रमाणिक पुरातात्विक साक्ष्य खोजेंगे या समकालीन विदेशी साहित्यों में कोई प्रमाण खोजेंगेतो आपको कभी नहीं मिलेंगे| इसके साथ ही संस्कृत भाषा की तथाकथित महिमा मंडित पौराणिकता (प्राचीनता) का मिथ (Myth) भी अब स्पष्ट रूप से उजागर हो गया है। इस संबंध में एक ध्यान देने योग्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि "वर्ण एवं जाति" की उत्पत्ति एवं उसका संवर्धन काल मध्यकाल में स्पष्ट रूप से स्थापित हो चुका है। जब इतिहास की व्याख्या आधारभूत आर्थिक शक्तियों अर्थात उत्पादनवितरणविनिमय एवं उपभोग के कारकों के व्यापक संदर्भ में किया जाता हैतो सब कुछ स्वत: स्पष्ट हो जाता है| उपरोक्त के संदर्भ में यदि देखा जाए तो हम पाते हैं कि, 'प्राचीन भारतमें सभ्यता एवं संस्कृति का बौद्धिक विकास हो रहा थाजबकि 'मध्य कालसामन्तवाद के विकास एवं संवर्धन का काल रहा|

सामन्तकाल में समानता का अन्त होने लगाऔर सामन्ती वर्गों का उदय होने लगायह मध्य काल का प्रारंभ था'बौद्धिक संस्कृति का समाज न्यायसमानतास्वतंत्रता एवं बंधुत्व पर आधारित थाजबकि सामन्तीकाल में इन्ही तत्वों का ही विरोध था| ऐसी परिस्थितियों में भारत उस समय दो समूहों में बंट गयाएक समूह वर्ण व्यवस्था पर आधारित थावर्ण के साथ जो व्यवस्था बनीवह सवर्ण व्यवस्था कहलायीऔर यह व्यवस्था सामन्ती व्यवस्था के प्रत्यक्ष नियंत्रण में रही| दूसरा समूह 'अवर्ण व्यवस्था' वाला कहलायाजो 'वर्ण व्यवस्थावाले ढांचे  से बाहर रहा| सवर्ण व्यवस्था पदानुक्रम (Hierarchy) पर आधारित थी और इसीलिए उसमें उर्घ्वाकार (Vertical) विभाजन हुआअवर्ण व्यवस्था में पदानुक्रम नहीं थाऔर इसीलिए यह क्षैतिज (Horizontal) विभाजन की व्यवस्था हुई| सवर्ण व्यवस्था में ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य एवं शूद्रऐसे चार सामाजिक समूह हुएशूद्र इस व्यवस्था में निजी यानि व्यक्तिगत सेवक रहेजो ब्रिटिश काल में सामन्ती व्यवस्था के ढहते ही लुप्त हो गएअवर्णों में भी चार समूह हुए -

पहला - जो वस्तुओं के उत्पादक एवं सेवाओं के प्रदाता थे (किसानपशुपालक, शिल्पकार आदि एवं अन्य सेवा देने वाले लोग),

दूसरा – जो विदेशों में उत्पन्न धर्मों के अनुयायी थे (मुसलमानईसाईइत्यादि),

तीसरा – जो जंगलों एवं दूरस्थ क्षेत्रो के निवासी थे (जनजातीय लोग)एवं

चौथा – जिन्हें अछूत (अनुसूचित जाति यानि दलित) कहा जाता है|

वर्णवादी समुदाय में चौथे समूह में आने वाले शूद्रों की संख्या हमेशा ही बिल्कुल नगण्य रहीजो कि प्राकृतिक आर्थिक कसौटियों के अनुरूप ऐसा होना स्वाभाविक भी था। कुछ लोगों का ऐसा मानना है किआज तो लोकतंत्रीकरण के प्रभाव में निहित स्वार्थों द्वारा अवर्णों को भी शूद्र बनाया यानि कि बताया जा रहा हैताकि लोकतंत्रात्मिक व्यवस्था में सवर्ण समुदाय जो कि भारत में मूलतः एक अल्प संख्यक समुदाय हैराजनीतिक तौर पर अल्प संख्या में नहीं रह जाय,और अपना अर्जित किया हुआ सब कुछ वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक रूप से  अप्रासंगिक हो कर खो न बैठें।

इस तरह हम देखते हैं कि सामन्ती वर्ग के विरुद्ध भारत में अवर्णों की आबादी बहुत बड़ी थी| अब यह एक प्रामाणिक तथ्य है कि सामन्ती व्यवस्था के प्रारंभ के समय लगभग सभी लोग 'बौद्धिक संस्कृतिके अनुयायी थेजब सामंतो ने समानता का अन्त करना चाहाऔर उसे जन्म के वंश से जोड़ना चाहातो उसका विरोध होने लगा| यह तय है कि किसी भी समाज में सब लड़ाके (Fighter or Warrior) नहीं होते या हो सकतेइन अवर्णों की सुरक्षा एवं संरक्षा में इनके ही परिवार के कुछ लड़ाके  ग्रामीण समाज के सीमांतों पर और सीमांतों के पार चले गए| यहां ध्यान देने की जरूरत है कि किसी क्षेत्र (Area) के सीमांत (Frontier) उसकी सीमा (Boundary) नहीं होते हैं। सीमांत वह प्राकृतिक भौगोलिक प्रदेश होते हैंजो एक राज्य की प्राकृतिक सीमा निर्धारित करते थेसीमांत एक पुरातन अवधारणा है| पहले आबादी महत्वपूर्ण होती थेन कि जंगलपहाड़ एवं पहाड़ी क्षेत्र। सीमा एक आधुनिक अवधारणा है। सीमांत प्रदेश अपनी भौगोलिक विविधता के कारण लड़ाकों को सामन्तों की नजरों से बचाए रखने में ज्यादा कारगर साबित हुए। बाद के कालों में ये लड़ाके गाँवों की सीमा पर भी आ गए या बस गए। कालांतर में सीमांतों पर रहने वाले ये योद्धा अछूत बनाये गए और सीमांतों के पार दूरस्थ इलाकों एवं जंगलों में रहने वाले ये योद्धा जनजाति कहलाए|

इन लड़ाकों को सामन्ती सैन्य शक्तियों से लड़ने और उन सैन्य शक्तियों पर गोरिल्ला आक्रमण करने के लिए सीमांतों पर एवं सीमान्तो के पार रहना पड़ता था। इस तरह अवर्ण समाज के यह "पवित्र योद्धा" (Sacred Warriors) यानि बृहत् सामाजिक हितों के लड़ाके सदैव सामन्ती शक्तियों के निशाने पर रहे। कालान्तर में इस तरह ये समाज के मुख्य धारा से दूर रहे और दूर होते गए। इन्हें समाज से कटना पड़ासम्मानसमतासत्तासम्पत्ति एवं शिक्षा से भी वंचित होना पड़ा। कालांतर में सामंतों के दबाव मेंकाल की परिस्थिति मेंऔर नहीं झुकने के हठ में इन लोगों ने सामन्ती व्यवस्था से दूरी बनाये रखा और अपने सामर्थ्य तक लड़ते रहे और निरंतर विरोध करते रहे। इन्हीं लड़ाकों में सबसे ज्यादा हठी स्वभाव वालों को दुसाध्य (जिसको साधना दुरूह था) यानि दुसाध कहा गयाजिसे आजकल जातीय व्यवस्था के खांचे में 'पासवानभी कहते हैं। इनका लड़ाकापन आज भी पहले के ही जैसा जीवंत है। वर्तमान भंगी जाति भी अक्सर सामन्ती नियमों एवं व्यवस्थाओं को भंग करता रहाजिसके कारण सामंतों ने उनके जीवित रहने की शर्त को घृणास्पद बना दिया। इसी प्रकार कुछ कट्टर बौद्ध अनुयायी मृत जानवारों को ही मांसाहार के लिए उपयुक्त मानते रहेसाथ ही चर्म उपयोग के लिए जानवरों के खाल भी उतार लेते थे। ये कट्टर बौद्ध अनुयायी तथा बहुजन अवर्ण समाज के हित में सामन्ती शक्तियों से अंत तक लड़ने वाले लोग चमार कहलाएइन अवर्ण समाज के कतिपय पवित्र योद्धाजो सामंतों के विरुद्ध जिद्दी एवं हठी रहे और उनसे कोई समझौता नहीं करने को तैयार हुएअपने जीवनयापन के लिए खाली खेतों में मुस (खेतों के चूहा को मुस यानि Rat तथा घरों के चूहा को चूहा यानि Mice,  Mouse कहते हैं) को पौष्टिक आहर के लिए भी खोजते थेआज मुसहर (मुस अर्थात चूहा को हरने वाला) कहलाते हैं। ये कभी न हार मानने वाले अवर्ण समाज के कुछ उन संघर्षशील समूहों के उदहारण हैंजो बहुसंख्यक अवर्ण समुदाय के सामूहिक हितों के 'पवित्र योद्धारहे। अभी इस संबंध में बहुत कुछ खोज होना बाकी हैये तो बस एक प्रदेश से शुरुआत है। कालांतर में ये संघर्षशील समूह वृहद् अवर्ण समुदाय से अपने वास्तविक संबंधों तथा अपने निर्वासन के कारणों एवं उद्देश्यों को धीरे-धीरे भूलते गए और बहुसंख्यक समाज (मुख्य धारा वाले समाज) से दूर भी होते गए।

"इतिहास का गुरुत्वीय ताल" (Gravitational Lensing of History) अवधारणा के उपयोग के बिना इतिहास के तत्कालीन सामाजिकसांस्कृतिकभौगोलिक एवं जनसांख्यिक परिदृश्य को नहीं समझा जा सकता है। यह अवधारणा भले ही भौतिकी की हैऔर भारी एवं बड़े आकाशीय पिंडों के गुरुत्व प्रभाव में कई चीजों को समझने एवं समझाने में सहायक होती हैलेकिन यह अवधारणा यहां इतिहास एवं मानव विकास संबंधी विज्ञानों में भी उतनी ही उपयोगी है। यदि आप इस अवधारणा कावर्तमान सभ्यता-संस्कृति के इकोसिस्टम में बैठकरप्राचीन कालीन इतिहास के व्याख्यापन में ध्यान में रखते हैंतो आपको उस समय कालभौगोलिक परिदृश्यतत्कालीन जनसांख्यिक स्थिति (कम आबादी)एवं तत्कालीन सामाजिक सांस्कृतिक राजनीतिक परिदृश्य को वास्तविक रूप में बिल्कुल नजदीक से समझने का अवसर मिलेगा और आप वास्तविक इतिहास के करीब पहुँच सकेंगे। यदि आप इस अवधारणा का ध्यान नहीं रखेंगे तो आपका दृष्टिकोण और आपकी समझ बड़ी ही आसानी से वर्तमान कालीन सुविकसित सभ्यता-संस्कृति के "ग्रेविटेशनल लेंसिंग" का शिकार होकर भूतकालीन वास्तविक स्थितियों के सही आकलन में सर्वथा असमर्थ होगी। इसके बिना आप बड़ी ही आसानी से गलत निष्कर्षों और काल्पनिक स्थापनाओं का सृजन कर बैठेंगे। इसी तरह इतिहास लेखकों की सामंतवादी मानसिकता की छाप समझने के लिए "इतिहास का जडत्वीय सांदर्भिक ढांचा" (Inertial Reference Frame of History) का अध्ययन कर सकते हैं। इतिहास के इन दोनों अवधारणाओं को लेखक (निरंजन सिन्हा) ने स्वयं दिया है।

जाति एवं वर्ण को पुरातनसनातन और ऐतिहासिक बनाने के लिए आर्यों की कहानी के साथ उन्होंने प्राचीन भारतीय "बौद्धिक संस्कृति" के ग्रंथों के आधार पर तथाकथित वैदिक संस्कृति की कहानी बनाईऔर उन प्राचीन ग्रंथों को शिक्षण संस्थानों एवं पुस्तकालयों के साथ-साथ नष्ट कर दिया गयाताकि कालान्तर में लोगों को सच्चाई का पता न चल सके। अवर्ण समुदाय के जो लोग गाँवों में वस्तुओं के उत्पादक एवं सेवाओं के प्रदाता बने रहेउनकी दुर्दशा इन लड़ाको जैसी नहीं हुईअर्थात इन्हें सम्मान एवं सम्पत्ति का वैसा नुकसान नहीं हुआ। इसी तरह  उत्पादक समाज का एक वर्ग नादब” (नहीं दबने वाला - कालांतर में यादव या जादब) अपने पशुओं के साथ अलग रहने लगा, जिसका पुरुष वर्ग अपने पशुओं के साथ चरागाहोंवनों एवं खाली खेतों में अधिकतर समय व्यतीत करता था। सामन्ती शक्तियाँ भी इनके लड़ाकापन के कारणइनके संख्या बल के कारणऔर वीरान एवं दूरस्थ निर्जन क्षेत्रों में इनकी उपस्थिति के कारण इनसे उलझने से बचती रहींशायद उन्हें इनके साथ उलझने का अच्छा अनुभव नहीं रहा होगा। आज भी सामन्ती शक्तियां इनसे प्रत्यक्ष उलझना नहीं चाहतीबल्कि उलझने के लिए उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से साजिश रचनी पड़ती है।

यह ध्यान रखने की बात है किभारत में मुसलमानों एवं ईसाईयों की संख्या में अधिकांशतः मूल रूप से अन्य भारतीयों की तरह ही बौद्धिक संस्कृति के अनुयायी ही थे। इनकी अधिकतर आबादी भी भारत के नव-सामन्ती व्यवस्था की विरोधी रही। कहने का तात्पर्य यह है किबहुजन हितों के कतिपय जुझारू लड़ाकों ने अपना सब कुछ यानि समाजसमानतासम्मान सम्पति खो देने के बादमुस्लिम शासकों के समय अपनी धार्मिक आस्था बदलकर इन छोटे सामंतों के आतंक से बचने का रास्ता चुन लिया। यह दूसरी श्रेणी के लोग और कोई नहींबल्कि आज के बहुसंख्यक मुसलमान हैंइसी तरह सामन्ती वर्गों की सामाजिक उपेक्षाओं के कारण बहुत से लोग ब्रिटिश काल में ईसाई भी बन गए।

आज उपरोक्त वर्णित अवर्ण बहुजन समुदाय के ये हिस्से (अर्थात एस.सी.-एस.टी. और माइनारिटी)  अपना वास्तविक इतिहास भूल गए हैं। आज कुछ धूर्तों के कारण और कुछ नादानों के प्रयास में शब्दों के सतही अर्थ और निहित अर्थ में अन्तर नहीं समझने के कारण वृहद् अवर्ण समुदाय के ये विभिन्न समूह अपना धनसंसाधनसमयउर्जा एवं जवानी को गलत दिशा में जाया कर रहे हैं। आज आवश्यकता हैकि इनके ऐतिहासिकगौरवपूर्ण एवं परम त्यागमय "पवित्र उद्देश्य" को रेखांकित करते हुए इनका सही एवं सम्यक इतिहास लिखा जाय। यह वास्तव में भारतीय इतिहास में एक पैरेडाईम शिफ्ट होगाऔर तभी महान भारत राष्ट्र का सम्यक एवं उत्कृष्ट विकास सम्भव हो सकेगा। दुनिया के किसी भी राष्ट्र में किसी भी समुदाय की उपेक्षा एक नकारात्मक तथ्य होती है। अतः हमें भारतीय राष्ट्र के व्यापक हित में इसे सकारात्मक बनाने की जरूरत है। वैसे भारत के संविधान निर्माता डा. बाबा साहेब अंबेडकर का भारतीय संविधान के माध्यम से इस दिशा में किया गया योगदान अप्रतिम एवं अतुलनीय (Incredible) है।

अब आप हमसे पूछ सकते है कि हमारे पास ऊपर कही गयी तमाम सारी बातों का साक्ष्य क्या हैलेकिन विडंबना यह है कि आप उनसे प्रमाण नहीं मांगतेजो साक्ष्य भी नहीं देते और तर्कसंगत बात भी नहीं कहतेऔर उनकी बात आप के द्वारा बिना विरोध के मान ली जाती है। मैं तो यहां वैज्ञानिक तर्क भी दे रहा हूँजिसे कोई भी बौद्धिक व्यक्ति समझ सकता हैऔर तर्क भी कर सकता है। आप यदि महान वैज्ञानिक एवं दार्शनिक बुद्ध के और उनके अनुयायी यथा फुलेशाहूजी महाराजआम्बेडकर और पेरियार के समर्थक हैं या विरोधी हैंतो आपको तर्कसंगत बात समझनी पड़ेगी और माननी भी पड़ेगी। हाँसाक्ष्य के लिए आप सभी विद्वानों को अपने विचारों मेंअवधारणाओं मेंव्यवहारों मेंऔर कर्मों में पैराडाईम शिफ्ट यानि मौलिक बदलाव करना ही पड़ेगा। लेकिन आप इसमें बिल्कुल स्पष्ट रहें कि आप कभी भी अपने विरोधियों  द्वारा गढ़ी गयी उनकी अपनी अवधारणाओं एवं विचारों के सहारे उन्हें परास्त नहीं कर सकतेभले ही आपको जीत जाने का भ्रमपूर्ण झूठा एहसास समय- समय पर होता रहे। यदि आप को मेरी उपरोक्त कही गयी बातों को समझने में कोई कठिनाई हो रही होतो आप इस आलेख को बिना किसी संकोच के दुबारा और तिबारा भी पढ़ें।

(आप मेरे अन्य आलेख niranjan2020.blogspot.com पर देख सकते हैं।)

निरंजन सिन्हा

 

18 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही अच्छा और तार्किक।

    सत्यमेव जयते।

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  2. अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा माइनारिटीज के इतने गौरवशाली एवं प्रेरणादायी इतिहास का प्रकटीकरण एवं प्रस्तुतीकरण इतने तर्कपूर्ण, वैज्ञानिक एवं सारगर्भित ढंग से पहली बार किया गया है।
    कम्यूनिस्ट, सेक्युलर,दक्षिण पंथी एवं वामसेफ की विचारधारा वाले किसी भी इतिहासकार या विचारक ने ऐसा खोजपूर्ण वास्तविक तथ्य उपरोक्त समूहों के विषय में आज तक प्रस्तुत नहीं किया।
    श्री निरंजन सिन्हा जी को, उपरोक्त निष्पक्ष एवं विशुद्ध वैज्ञानिक पद्धति को अपनाकर लिखे गये आलेख के लिए बहुत बहुत साधुवाद।
    हम आशा करते हैं कि सिन्हा जी का उपरोक्त आलेख देश की एकता-अखंडता तथा उसके सुदृढ़ीकरण एवं बहुमुखी विकास में एक दूरगामी भूमिका निभाएगा।

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  3. सारगर्भित होने के साथ ही साथ व्यापक दृष्टि से इतिहास को देखने का सराहनीय प्रयास....बहुत ही रोचक और प्रेरणादायक...

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  4. ज्ञान अनल की यह रश्मि असत्य के आधारहीन मुलम्मे को जला कर राख कर देगा, इस आलेख में इतना दम है कि अपने इतिहास के जानकारियों का साफ साफ झलक देगा।
    साधुवाद महोदय जी

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  5. वर्ण व्यवस्था को बहुत ही तार्किक एवं सही शब्दों में पिरो कर व्याख्यान दिया।
    आपके विचार वास्तव में बहुत ही अच्छे हैं।

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  6. वर्ण एवं जाति व्यवस्था के प्रादुर्भाव पर अच्छा लेख. लेकिन कृषि, दुग्ध और अन्य सहयोगी उद्यम करने वाला वर्ग तो खत्तीय या श्रमण संस्कृति के समय में (प्राचीन काल) में भी रहा होगा. साथ ही इसी वर्ग के कुछ लोग सैन्य और सुरक्षा सेवाओं के लिए चयनित किये जाते होंगे. लेकिन इस काल में किसी उद्यमीं को उसके उद्यम के अनुसार चिन्हित नहीं किया गया और उद्यम के अनुसार ऊंच नीच की दृष्टि से नहीं देखा गया. इसलिए श्रमण समाज के बीच मौजूद इसी भाव को शायद समयक् संस्कृति का नाम दिया गया.

    लेकिन प्रश्न यह उठता है कि मध्य काल में मुस्लिम आक्रंताओं के आने बाद ऐसे कौन से समूह श्रमणों में अचानक पैदा हो गये जिन्होंने इतनी तेजी से समयक् संस्कृति का ताना बाना ही ध्वस्त कर दिया और वर्ण तथा जाति व्यवस्था के साथ साथ पाखंड अंधविश्वास को कूट कूट कर जनमानस में भर दिया. मुझे लगता है कि आप जैसे खोजी लेखकों/ इतिहासविदों को मध्य काल के इस पक्ष पर अधिक अन्वेषण कर तथ्यों को सामने लाने का प्रयास करना चाहिए.

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    1. संक्षेप में सारी बातें एक छोटे-से आलेख में समा नहीं सकता। विस्तार से मेरी पुस्तक -"बुद्ध, दर्शन एवं रुपांतरण" में वर्णित है। जिन्हें पढ़ना है, इसी ब्लॉग पर पीडीएफ में मुफ्त उपलब्ध है।

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  7. आज कल अपना एससी, एसटी, ओबीसी और सिक्खो का वास्तविक इतिहास पढकर जानने की कोशिश कर रही हूँ। आप के सारगर्भित लेख मेरे काफी concepts को समझने में मदद कर रहे है। आप के लेख कई कई बार पढती हूँ। धन्यवाद निरंजन जी।

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  8. इतनी महत्वपूर्ण एवं तथ्यात्मक जानकारी उपलब्ध कराने हेतु महोदय को बहुत बहुत साधुवाद🙏

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  9. Really it's eye opening article.All the facts and analysis are unique. Thank you sir for enlightened thought.🤟

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  10. आज दुबारा पढ़ा आपका आलेख। सचमुच सराहनीय।

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  11. निरंजन जी सप्रेम धन्यवाद।
    आप जैसे लोगों की मेहनत से ही समाज में जाग्रति आयेगी
    व इतिहास से ही पावर का संचार होता है। हम लोंगों का कोई इतिहास था ही नहीं, था तो उलूल जलूल लिखा गया।

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  12. बहुत शानदार एवं तर्कसंगत खोज निकाले हैं सर। आपने तो इतिहास का नया आईना लोगों के पास रखकर इस नजरिए से दिखवा, ज्ञान की रोशनी से सराबोर करने का जबरदस्त प्रयास किया है सर। बहुत बहुत आभार सर ।

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