सम्राट अशोक के कारण इस भौगोलिक भू भाग का नाम “आभा से रत” यानि “आ(भारत)” यानि “भारत” पड़ा| इसी कारण भारत को “मग्ग देश” यानि “मगध” कहा गया, जिसका अर्थ “पथ प्रदर्शक” होता है| अशोक के समय का मगध यानि भारत अपने भौगोलिक क्षेत्र के विस्तार को फिर कभी नहीं पा सका| अशोक ने पशुओं सहित मानवता के कल्याण की नीतियों के लिए ही विख्यात हुआ|
तो प्रश्न यह है कि सम्राट अशोक को कुरूप और क्रूर क्यों होना पड़ा? यह प्रश्न किसी को भी अटपटा लग सकता है, या बेहूदा सवाल लग सकता है| भला कोई क्यों कुरूप होना चाहेगा? क्रूर तो किसी को कोई परस्थितियाँ ही बना सकती हैं या स्वयं की मानसिकता की वजह से कोई क्रूर बन सकता है| इन सवालों का जबाव ढूंढने के पहले हमें “इतिहास के विकास एवं क्रियाविधि का लेखन" (Historiography, Not History Writing) के कतिपय स्थापित विद्वानों के कुछ महत्वपूर्ण कथ्यों (Statements) का अवलोकन करना होगा|
यहां हम एडवर्ड हैलेट कार (Edward Hallet Carr) की बात करेंगे, जो अपनी प्रसिद्ध पुस्तक – “इतिहास क्या है? (What is History)” में लिखते हैं – “एक्टन (कैम्ब्रिज माडर्न हिस्ट्री के लेखक) कहते हैं, कि हम अपने जीवन में अंतिम इतिहास नहीं लिख सकते, लेकिन हम परंपरागत इतिहास को रद्द अवश्य कर सकते हैं|” इसका आधार यह है, कि सभी ऐतिहासिक धारणाएं व्यक्तियों तथा दृष्टिकोणों के माध्यम से बनती हैं| इतिहास लेखन में लेखक वस्तुत: अपनी मानसिक स्थिति को ही प्रतिध्वनित करता है, और वह उस समाज की मान्यताओं एवं व्यवस्थाओं से प्रभावित होता है, अथवा यह कहें कि वह उस समाज की मान्यताओं एवं व्यवस्थाओं से नियंत्रित, निर्देशित एवं संचालित होता है| 'तथ्य' यानि साक्ष्य तो पवित्र होते हैं, पर मंतव्यों और व्याख्याओं (Intentions & explanations) पर कोई बंधन नहीं होता | इनके अनुसार तथाकथित मूलभूत तथ्य (Fact) हर इतिहासकार के लिए समान होते हैं, और उनके लिए कच्चे माल की तरह होते हैं| यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि ये 'तथ्य' इतिहास का 'स्वयं' कच्चा माल नहीं होते, बल्कि इतिहासकार का कच्चा माल होते हैं| इन मूलभूत तथ्यों को स्थापित करने की आवश्यकता तथ्यों के भीतर निहित किसी गुण पर आधारित नहीं होती, बल्कि इतिहासकार के पूर्व निर्धारित निर्णय एवं इरादे (intention) में होती है|
वे यह भी कहते हैं कि जनता की राय (Opinion) को प्रभावित करने का सबसे प्रभावी तरीका यह है, कि वह अर्थात इतिहासकार जो प्रभाव उत्पन्न करना चाहता है, उसके अनुरूप ही तथ्यों का चुनाव करे और उन्हें अपने पूर्व निर्धारित निर्णय एवं इरादे के अनुसार उचित तरीके से प्रस्तुत करे| तथ्य तभी बोलते हैं, जब इतिहासकार उन तथ्यों से बोलवाता है| यह इतिहासकार तय करता है कि वह तथ्यों को किस क्रम एवं सन्दर्भ में और किस तरह प्रस्तुत करता है| यह एक कुतर्क ही है कि ऐतिहासिक तथ्य वस्तुगत होते हैं, और इतिहासकार की व्याख्या से निरपेक्ष एवं स्वतंत्र होते हैं|
भारत के साथ दुर्भाग्य यह है कि कतिपय या अधिकतर भारतीय इतिहासकार बिना प्रमाणिक तथ्यों या साक्ष्यों के ही इतिहास की व्याख्या या रचना कर देते हैं, जबकि विदेशी स्थापित इतिहासकारों पर यह आरोप लगता है कि उन्होंने साक्ष्यों की समुचित व्याख्या नहीं की| कहने का तात्पर्य यह है कि विदेशी इतिहासकार साक्ष्यों की मनमानी व्याख्या कर देते हैं, परन्तु भारतीय इतिहासकार तो बिना किसी वास्तविक साक्ष्य या तथ्य के भी इतिहास लिख या रच देते हैं| स्पष्ट है कि विदेशी इतिहासकार इतिहास रचना में अपने मंतव्यों या लक्ष्यों के अनुरूप इतिहास बदल देते हैं, जबकि भारतीय इतिहासकार तो मिथकों यानि मात्र कपोल-कल्पित कहानियों को भी इतिहास साबित कर देते हैं या इतिहास बना देते हैं| हम जानते हैं कि मिथक या कहानियाँ बिना किसी प्रमाणिक तथ्य या साक्ष्य वाली परम्परागत या मनमानी कल्पित कहानियाँ मात्र होती हैं| विडंबना यह है कि बहुसंख्यक अशिक्षित और सामान्य जनता इसे सही मान लेती है, क्योंकि ऐसी कहानियों या मिथकों को समाज के प्रतिष्टित लोगो का समर्थन या संरक्षण हासिल होता है, या फिर इनका पर्याप्त खंडन नहीं होता है| मीडिया भी अपने आकाओं के सामंती हितों के अनुरूप ही इसे जनसामान्य को परोसता है, यानि कि यथास्थितिवाद को बनाए रखने में अपनी अहम् भूमिका निभाता है|
प्रोफ़ेसर कार आगे बताते हैं कि इतिहास के अध्येता के लिए यह जरूरी है कि वह इतिहासकार के मानसिक स्वरूप (एवं मंशा) को अपने मस्तिष्क में पुनर्निर्मित कर ले| तथ्यों का अध्ययन शुरू करने से पहले इतिहासकार का अध्ययन शुरू करना चाहिए, अर्थात उसकी पूरी कुंडली का विस्तार पूर्वक अध्ययन कर लेना चाहिए। जब आप इतिहास की कोई पुस्तक या विषय वस्तु पढ़ते हैं, तो हमेशा कान लगाकर उसके पीछे की आवाजें अवश्य सुनें| अगर आपको कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ती है, तो इसका एक मतलब यह है कि आप या तो एकदम बहरे हैं या फिर आपका इतिहास बोध बहुत कमजोर या बिल्कुल शून्य है| (ध्यान रहे कि यह कार महोदय का कथन है, मेरा नहीं)।
इतिहासकार जिस प्रकार के तथ्यों की खोज कर रहा है, उसी प्रकार के तथ्यों को पाएगा या पहचानेगा| इतिहास लेखन में इतिहासकार का मानसिक स्वरूप (Mental Setup) और उसके कार्यों के पीछे काम करने वाले विचारों की कल्पनात्मक समझ काम करती है, जिसको वह चित्रित करना चाहता है या आकार देना चाहता है।
अब हम अशोक सम्राट की कुरूपता एवं क्रूरता पर आते हैं| भारत के महानतम सम्राट के बारे में दुर्भावनापूर्ण शब्द एवं भाव कहाँ से आ रहे हैं, इसकी हमें गहन खोजबीन करनी होगी। पालि भाषा के विद्वान श्री राजीव पटेल जी बताते हैं कि इन भ्रमों एवं साजिशों का आधार बौद्ध साहित्य का ‘दीपवंश’, ‘महावंश’, और ‘दिव्यावदान’ नामक तीन पुस्तकें हैं| इसकी चर्चा अपनी पुस्तक “भ्रम का पुलिंदा” (प्रकाशक- सम्यक प्रकाशन, दिल्ली) में भी उन्होंने किया है|
राजीव जी के अनुसार -
“यही वे पुस्तकें हैं जो बिन्दुसार मौर्य के 100 पुत्र होने और इनमें से 99 की हत्या अशोक द्वारा होने की कहानी गढ़ती हैं, जबकि पुरात्विक प्रमाण इस बात की पुष्टि बिल्कुल नहीं करते हैं|”
“यही वे पुस्तकें हैं जो पुष्यमित्र शुंग को (ब्राहमण होना और) बौद्ध विरोधी बताती हैं, जबकि पुरातात्विक प्रमाण इसकी पुष्टि बिल्कुल नहीं करते हैं|”
राजीव जी इन पुस्तकों को एवं इनके आधार पर तैयार की गयी सभी बातों (तथाकथित साक्ष्यों) एवं किताबों को भ्रम का पुलिंदा कहते हैं| इसका कारण वे यह बताते हैं, कि इन तीनों पुस्तकों के मूल लेखक का कोई अता-पता नहीं है, और दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि इन तथाकथित प्राचीन पुस्तकों की मूल भाषा एवं मूल लिपि का भी कोई अता-पता नहीं है, और इनकी लिपिबद्धता की आधार सामग्री क्या है, अर्थात इन्हें किस सामग्री पर यानि आधार सामग्री पर यानि किस प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्यों के आधार पर तैयार किया गया? यह आधार सामग्री क्या लकड़ी, धातु, पत्थर, कागज़, चमड़ा, मिट्टी, छाल, या पत्ता था? माननीय राजीव जी इन साक्ष्यों को इसलिए खोज रहे हैं ताकि इन बिना सिर-पैर वाली पुस्तकों की प्रमाणिकता स्पष्ट हो सके या इनमें वर्णित मिथकीय कहानियों का पर्दाफाश हो सके|
ये पुस्तकें सिंहली (श्रीलंका की भाषा) में लिखित हैं, जिसका काल निर्धारण उन्नीसवीं सदी के अंत में या बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में निश्चित किया जा सकता है| ये पुस्तकें इतिहास या धर्मशास्त्र या दर्शन की नहीं होकर एक नाट्य स्वरूप में है| इनके नाट्य स्वरूप से कई बातों के संकेत मिलते हैं, जैसे कि इनका लेखन ही अन्य नाटकों की ही तरह मात्र मनोरंजन के उद्देश्य से किया गया हो और इसी कारण दर्शकों को आकर्षक लगने के लिए इसमें मानवीय मनोवैज्ञानिक प्रभाव देने वाले हिंसा, क्रूरता, हत्या, कत्लेआम जैसा भावनात्मक आधार जोड़ दिया गया, ताकि आम दर्शक भावनाओं में बह कर नाटक देखने की संतुष्टि पा सकें| कहने का तात्पर्य यह हुआ कि एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व को आधार बनाकर पूरा चटपटा मसाला भर दिया गया, जिसे तथाकथित मूर्ख इतिहासकार एक ऐतिहासिक तथ्य के रूप में ले लेते हैं या सजग इतिहासकार इसकी आड़ में अपनी धूर्ततापूर्ण साजिश को अंजाम देते हैं या देने की कोशिश करते हैं| यह महत्वपूर्ण पक्ष इन पुस्तकों की तथाकथित प्रमाणिकता की खोज के अतिरिक्त है, जिस पर ठहर कर गहराई से विचार करने की जरूरत है।
यदि कोई इतिहासकार पहले या वर्तमान में कोई इतिहास की गलत एवं दुर्भावनापूर्ण व्याख्या करता है, तो वह या तो यथास्थितिवादी (सामाजिक एवं सांस्कृतिक यथास्थितिवाद का समर्थक) है, या वह बिका हुआ है और किसी साजिश का हथकंडा है, या भारत को अस्थिर करने वाले किसी विदेशी शक्ति का एजेंट है; वह राष्ट्रवादी तो कदापि नहीं है|
मनमानी ऐतिहासिक व्याख्या के दिन अब लद गए हैं| पहले भारतीय इतिहास में एक महाकाव्य युग (Epic Age) हुआ करता था, जिसमें महाभारत एवं रामायण को शामिल किया हुआ था, परंतु अब यह इतिहास के किताबों से बाहर है| ये दोनों महाकाव्य अब इतिहास की पुस्तकों में 'साहित्य' के रूप में है, ऐतिहासिक तथ्य यानि प्रसंग के रूप में नहीं है। ऐसा क्यों हुआ? ऐसा होने के पीछे की मूल वजह यह है, कि अब हमारी पृथ्वी एक वैश्विक गाँव (Global Village) हो गयी है, और भारत या अन्य कोई भी देश उसका एक टोला (मोहल्ला) मात्र रह गया है| जो बात विश्व को मान्य होगी, आपको भी वही माननी होगी| जब विश्व ने इन महाकाव्ययुगीन गाथाओं की ऐतिहासिकता को पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में इनकार कर दिया, तो परिणामत: भारत को इन्हें अपने इतिहास की किताबों से बाहर करना पड़ा| वैसे किसी आस्था या किसी मिथकीय विश्वास पर कोई भावनात्मक ठेस पहुंचाने वाली टिप्पणी नहीं होनी चाहिए| लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि जब किसी तथाकथित इतिहास का प्रमाणिक पुरातात्विक साक्ष्य नहीं मिला, तो यह निश्चित है कि वह इतिहास नहीं माना जायेगा और कल्पित कहानियों की श्रेणी में वह मात्र एक आस्था का विषय ही रह जाएगा| रामायण और महाभारत के आधार वाले महाकाव्य युगीन इतिहास के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।
जिस अशोक का जेम्स प्रिंसेप के उद्घाटन के पहले कोई पता नहीं था, उसके पता होते ही कई विद्वानों को कई आकाशवाणी वाली जानकारियाँ प्राप्त होने लगी, जो स्पष्टतया योजनाबद्ध तरीके से बनाई हुई और विशुद्ध रूप में कपोल- कल्पित हैं| अशोक भारत के महानतम एवं गौरवशाली सम्राट हैं, जिन्होंने भारत को वह भौगिलिक विस्तार दिया, जिसे फिर से प्राप्त कर पाना अभी तक संभव नहीं हुआ| अशोक ने भारत में उद्घाटित विज्ञान, सामाजिक विज्ञान एवं नीतिशास्त्र के ज्ञान के सार को वैश्विक प्रसार दिया, जिसके कारण भारत को वैश्विक गुरू का दर्जा हासिल हुआ| बुद्ध का धम्म क्या है? वह मात्र विज्ञान, वैज्ञानिक मानसिकता, सामाजिक विज्ञान एवं नीतिशास्त्र का सार है, जिसे धार्मिक लोगों ने अपने निहित स्वार्थों वश धर्म की तरह प्रस्तुत किया है| वे एक कल्याणकारी राज्य के प्रथम प्रवर्तक तथा न्याय, समानता, स्वतंत्रता एवं बंधुत्व पर आधारित व्यवस्था के आयोजक एवं प्रथम व्यावहारिक सूत्रधार रहे।
ऐसे महान भारतीय गौरव को कोई सामन्तवादी मानसिकता का यथास्थितिवादी कैसे बर्दास्त कर सकता है? दसवीं शताब्दी के बाद महान अशोक के इन्हीं मानवतावादी विचारों को सामंतवादी निहित स्वार्थों द्वारा भारत में एक योजनाबद्ध तरीके से नष्ट कर दिया गया, कई शिक्षण संस्थान, पुस्तकालय आदि जला दिए गए और नष्ट कर दिए गए| इन निहित स्वार्थों द्वारा उन्हें इतिहास से लगभग मिटा ही दिया गया था। लेकिन धन्य हैं, कुछ अंग्रेज इतिहासकार जिन्होंने अपने महान सत्यनिष्ठ प्रयासों से भारत के पूर्वकालीन इस महान गौरव को पुन: जीवित कर दिया।
ऐसे महान मानवतावादी शासक को यदि कोई नीच वंश का, कुरूप एवं क्रूर बताता है, तो वह उस व्यक्ति या लेखक की निम्न और हीन मानसिकता को और उसके छिपे हुए निकृष्ट स्वार्थ को ही स्पष्ट करता है| इस नीच वंश, कुरूपता एवं क्रूरता का यदि आप प्रमाणिक पुरातात्विक या समकालीन साहित्यिक साक्ष्य खोजना चाहेंगे, तो स्पष्टतया आपको नहीं मिलेंगे| प्रो० रामशरण शरण ने तो वैदिक संस्कृति के जमीनी अस्तित्व को ही पूरे साक्ष्यो एवं तर्कों के साथ नकार दिया है, जिसे ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक - “भारत का प्राचीन इतिहास” में देखा जा सकता है|
स्पष्ट है कि सम्राट अशोक कभी भी कुरूप एवं क्रूर नहीं रहे, बल्कि स्वार्थी, बेईमान एवं गहरे वर्गीय हीनता बोध से ग्रस्त कुछ इतिहासकारों ने बिना प्रमाणिक साक्ष्य के ही उन्हें कुरूप, क्रूर एवं नीच वंश का बना दिया यानि बता दिया| ध्यान रहे कि अभी इतिहास की अन्य कई परतों को साफ़ करना बाकी है| सामंतवादी व्यवस्था के समर्थक सभी इतिहासकार हर उस ऐतिहासिक व्यक्तित्व को दुष्ट या निकृष्ट साबित करता है या करना चाहता है, जो मानवता के पक्ष में न्याय, स्वतंत्रता,समता और बंधुत्व का समर्थक रहा है।
अन्त में हम यही कहना चाहेंगे कि यदि आपको हमारी उपरोक्त बातों को समझने में कोई दिक्कत हुई है, तो आप एक बार फिर एडवर्ड हैलेट कार की उपरोक्त उद्धृत बातों को (या उनकी पुस्तक में जाकर) अवश्य पढ़ें ।
(आप मेरे अन्य आलेख niranjan2020.blogspot.com पर देख सकते हैं।)
आचार्य निरंजन सिन्हा।
भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक
गुरुवार, 13 जनवरी 2022
सम्राट अशोक को कुरूप और क्रूर क्यों होना पड़ा?
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बहुत अच्छी जानकारी
जवाब देंहटाएंYou are right sir..
जवाब देंहटाएंIndia m history scam hua h.. without fact, evidence wale writer historian bne hua h
भारत राष्ट्र की अस्मिता के प्रतीक एवं विश्व के महानतम मानवतावादी सम्राट को केन्द्र में रखकर लिखा गया यह आलेख माननीय निरंजन सिन्हा जी के रूप में उभरती हुई उस उत्कृष्ट और प्रबल सात्विक मेधा को उजागर करता है,जो भारत में पुनः 'अशोक राज' की स्थापना के लिए अपने मजबूत इरादे के साथ सक्रिय हो उठा है।
जवाब देंहटाएंभारतीय स्मिता एवं विश्व में उसके महान गौरव को स्थापित करने वाले महान महापुरुषों एवं सम्राटों जैसे चन्द्र गुप्त मौर्य,अशोक महान आदि पर अपनी हीन और कुत्सित मानसिकता की वजह से मिथकीय और काल्पनिक इतिहास, कहावतों एवं कहानियों के माध्यम से कीचड़ उछालने वालों को अब सावधान हो जाना चाहिए।
किसी राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार रूपी रंगीन आवरण में छिपकर अब ऐसे तत्व अपने बनाये गये भ्रम के पुलिंदों के माध्यम से अपनी कुरूपता,नीचता और सियार जैसी कायरता एवं नपुंसकता को ज्यादा समय तक छिपा कर नहीं रख सकते।
मुझे पूरी उम्मीद है कि विद्वान लेखक निरंजन सिंहा तत्वपरक और खोजी ऐतिहासिक लेखन से प्रेरणा लेकर बहुत अन्य इतिहासकार भी भारतीय मिथकीय एतिहासिक लेखन की मिथकीय तत्वों की परत दर परत उजागर करेंगे और साक्ष्ययुक्त संतुलित इतिहास लेखन की प्रेरणा लेंगे।
जवाब देंहटाएंVery well written sir
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा आपने. महान सम्राट के बारे में कुरूप और क्रूर लिखना, मनुवादियों की सोची समझी साज़िश है. इसी तरह काल्पनिक इतिहास का भंडाफोड़ करत रहिये
जवाब देंहटाएंविचारणीय आलेख!
जवाब देंहटाएंअच्छी और नई जानकारी के लिए धन्यवाद...भारतीय इतिहास में प्रायः इसी प्रकार का घालमेल करके असली इतिहास को मिटाने का कुचक्र किया गया है सर...
जवाब देंहटाएंBest logical and analytical writing sir
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह साक्ष्य परक एवं काफी मेहनत से तैयार की गई उत्कृष्ट आलेख,सर को बहुत बहुत साधुवाद।
जवाब देंहटाएंनमस्कार सर
जवाब देंहटाएंइस ज्ञानवर्धक लेख के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।
इतिहासकार जिस प्रकार के तथ्यों की खोज कर रहा है, उसी प्रकार के तथ्यों को पाएगा या पहचानेगा
जवाब देंहटाएंVery impressive and very well explained
Explained well.
जवाब देंहटाएंज्ञान बर्धक लेख... सर
जवाब देंहटाएंवास्तविकता को धरा पर परोसने एवं अल्पज्ञता के नमूने एवं संकीर्णता व विकलांग मानसिकता वाले इतिहासकार को जो वास्तव मे भर्त्स्ना योग्य हैँ उसको धत्ता बताकर, ज्ञानवर्धन के लिए परोसे गये लेख के लिए निरंजन सिन्हा
जवाब देंहटाएंजी आपको बहुत बहुत धन्यवाद आभार l
डॉ तपेश्वर महतो
आदरणीय आचार्य निरंजन सिन्हा द्वारा लिखित यह आलेख अत्यंत ही तर्कपूर्ण ढंग से जम्बूद्वीप (वृहत्तर भारत) के महान सम्राट अशोक के वास्तविक स्वरूप को भलीभांति उजागर करता है।यह आलेख ऐसे महान सम्राट के चरित्र पर कीचड़ उछालने वालों की मंशा तथा उनके निकृष्ट गुप्त एजेंडे का भी अच्छी तरह से पर्दाफाश करता है। इसी संदर्भ में भारत के मूर्धन्य नवाचारी, खोजी एवं वैज्ञानिक इतिहासकार श्री राजीव पटेल जी की पुस्तक 'भ्रम का पुलिंदा' अध्ययन करने योग्य है। राजीव जी की उपरोक्त पुस्तक ईर्ष्या-द्वेष, हीनता बोध, छल-कपट, लालच और मूर्खता से ग्रसित निकृष्ट बुद्धि और संस्कारों वाले व्यक्तियों की प्रत्येक क्षेत्र में खोज एवं पहचान की प्रखर दृष्टि प्रदान करती है।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं !आचार्य निरंजन सिन्हा जी। आप साहित्य और इतिहास के अंतर को बहुत अच्छे से समझते हैं और बहुत अच्छी तरह से आपने इतिहास के घालमेल का इतिहास लेखन के गुप्त एजेंडे का भंडाफोड़ किया है ।आप तथ्यपरक एवं खोजी इतिहास लेखन के साक्ष्यों व तथ्यों के आधार पर इतिहास की सही व्याख्या कर रहे हैं। मेरी शुभकामनाएं है, आप इसे और आगे बढ़ाइए और इसी तरह से सच्चे इतिहास को जनता के सामने प्रस्तुत करें ।कल्पित और गल्प इतिहास का भंडाफोड़ करना बहुत आसान है। आपके और अन्य समान विचारधारा वाले इतिहासकारों के प्रयासों से यह संभव भी है।साधुवाद।
जवाब देंहटाएंप्रणाम आदरणीय सिन्हा सर!
जवाब देंहटाएंसिन्हा जी नें आलेख में इतिहास और साहित्य के अंतर को तथ्यपरख समझते हुए तथ्यों और साक्ष्यों के आधार पर इतिहास की यथार्थ व्याख्या की है। साथ ही इतिहास के घालमेल करने वालों की मंशा का भंडाफोड़ किया है। अतः इसी तरह सच्चे इतिहास को जनता के सामने प्रस्तुत करें। आपको शुभकामनाएं , शुभेच्छा.. 🙏🏻