मंगलवार, 11 जनवरी 2022

अंधविश्वास एवं ढोंग कैसे उखाडें?

किसी  भी समाज में फैलाया गया, या फैला हुआ अन्धविश्वास (Superstition), कर्मकांड (Ritual), पाखंड (Imposture/ Simulation/ Impost/ Hypocrisy) एवं ढोंग (Pose/ Pretense/ Make false believe) सभी एक ही भाव (Sense) यानि एक ही भावना से धारित विभिन्न शब्दों में अभिव्यक्तियाँ हैं, जिनमें मामूली अंतर हैं । एक बार इन शब्दों को सरल एवं साधारण तरीके से समझ लिया जाय, तब इस बुराई को उखाडा (Uproot) या समाप्त (Eliminate) किया जा सकता है।

अन्धविश्वास विचारों एवं आदतों में एक विश्वास (Believe) है, जो अतार्किक, अविवेकी, अवैज्ञानिक, अनुपयोगी एवं तथ्यहीन होता है। यह किसी डर, लोभ, जादू, चमत्कार, या दैवीय शक्ति के नाम पर आधारित एवं उसी से संचालित एवं नियंत्रित माना जाता है। निहित स्वार्थों द्वारा इसे ऐतिहासिक परंपरा एवं विरासत की निरंतरता के रूप में प्रस्तुत एवं स्थापित किया जाता है।

कर्मकाण्ड में किसी फल यानि परिणाम को पाने के लिए निर्धारित आवश्यक कर्म वैज्ञानिक एवं विवेकपूर्ण तरीके से नहीं कर के धर्म या संस्कृति के नाम कोई अनावश्यक अवैज्ञानिक एवं अतार्किक विधि (Process) का अनुसरण किया जाता है। ऐसा करने से समस्त मानवीय इच्छाओं को प्राप्त कर लिए जाने का दावा किया जाता है। अर्थात किसी लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु उसके लिए निर्धारित वास्तविक कर्म करने के बजाय किए जाने  वाले अन्य कांड यानि कृत्य को ‘कर्मकांड’ कहते हैं। इसमें अन्य प्रयोजनों के लिए किया जाने वाला आयोजन (Function) या विधि (Process) भी शामिल होता है, जिसे किसी विशेष घटना के होने का द्योतक या सूचक माना जाता है। विवाह या मृत्यु के अवसर पर किया गया कर्मकांड मानवीय मनोभावों को संतुष्ट करता है, जिसका स्वरूप  कुछ भी हो सकता है। इसमें विभिन्न सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों (Values) के अनुसार किये गये विभिन्न प्रतिमानों (Norms) को भी शामिल किया जा सकता है|

‘पाखंड’ में वह अनावश्यक तमाशा किया जाता है, जिसका कोई तार्किक एवं वैज्ञानिक आधार नहीं होता, और जिसकी कोई आवश्यकता भी नहीं रहती। यह सामान्यत: मूर्खतापूर्ण एवं धूर्ततापूर्ण फिजूल कार्य होता है, जो धन, समय एवं संसाधन का दुरूपयोग करता है। इसे अन्धविश्वास पर आधारित कृत्य एवं व्यवहार माना जाना चाहिए|

‘ढोंग’ किसी को ठगने, या छलने, या धोखा देने के लिए धूर्ततापूर्ण तरीक़े से किया गया प्रपंच, आडम्बर, पाखंड या ढकोसला है। ढोंग में किसी व्यक्ति का या किसी क्रिया का वह स्वरूप  बताया जाता है, जो वह वास्तव में होता ही नहीं। जैसे कि अपने को देवता बताना या देवता अथवा ईश्वर का प्रतिनिधि बताना ढोंग है, क्योंकि ईश्वर का अस्तित्व है ही नहीं।

उपरोक्त चारों कार्य एक दूसरे से गुंथे हुए होते हैं, और समानार्थी भाव रखते हैं। इन सबके लिए प्रलोभन, सम्मोहन, धोखा, डर एवं चतुर रणनीति का प्रयोग किया जाता है। अन्धविश्वास, पाखंड एवं ढोंग को तो समाप्त किया जा सकता है, क्योंकि इनके अस्तित्व का आधार व्यक्ति के ज्ञान का स्तर होता है। परन्तु मानव सभ्यता और संस्कृति से कर्मकांडों को पूरी तरह से समाप्त करने की बात पर थोड़ा ठहर कर सोंचने की ज़रूरत है। हमारी सभ्यता-संस्कृति में प्रचलित कुछ कर्मकांडों को केवल न्यूनतम ही किया जा सकता है, उनका  समूल नाश नहीं। क्योंकि जिन कर्मकांडों का मूल आधार गहरी एवं सात्विक मानवीय भावनाएं होती हैं, उन्हें  शून्य कभी नहीं किया जा सकता अर्थात उनका सम्पूर्ण विलोपन नहीं हो सकता है| यह ध्यान देने योग्य बात है कि मशीने ‘कार्य- कारण से संचालित होती है, जबकि मानव ‘कार्य- कारण’ के साथ साथ ‘भावनाओं’ के संतुलन से नियंत्रित एवं नियमित होती है|  

उपरोक्त को उखाड़ फेकने के लिए हमें किसी भी क्रिया या भाव के सतही एवं निहित यानि संरचनात्मक अर्थ में अंतर समझना होगा। इसके साथ ही हमें मिथक और इतिहास में तथा मिथक और विज्ञान में भी अंतर समझना होगा। मानवीय मनोविज्ञान की समझ के साथ बेहतर विकल्प को तराशना होगा| मानवीय मनोविज्ञान की समझ के बिना हमें इस क्षेत्र में  कुछ भी सफलता नहीं मिलेगी। अतः इस पर विशेष रूप से ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है।

परिवर्तन का मनोविज्ञान

अन्धविश्वास और ढोंग को जड़ से उखाड़ने से पहले हमें कुछ मानवीय पहलुओँ  एवं मानव मनोविज्ञान को समझना होगा। समाज में अन्धविश्वास और ढोंग फ़ैलाने वाले लोग समाज में अपनी शक्ति और अपने प्रभाव का विस्तार तो करते ही  हैं, परन्तु ऐसा करने की रणनीति एवं कार्य पद्धति को वे बहुत ही कुशलतापूर्वक बहुसंख्यक आम जनता की नजरों से सदैव ओझल रखते हैं। ये धूर्त लोग अपने शातिर उद्देश्यों को छुपाये रखते हैं|

वे सदा न्यायपूर्ण, दयालु, सदाचारी एवं धार्मिक दिखते हैं। उन्हें  सभ्य, लोकतान्त्रिक और संस्कारयुक्त भी दिखना पड़ता है। उन्हें धार्मिक और राष्ट्रवादी कहलाना एवं दिखलाना भी बहुत पसंद होता है। क्योंकि इन्ही सब आवरणों में उन्हें अपनी हर तरह की  दुष्टता छिपाए रखने का सबसे उपयुक्त अवसर उपलब्ध हो पाता है। ग़लत करने के बाद भी इन शब्दों की आड़ में उन्हें अपनी  आवाज (Volume of Voice) ऊँचा करने का अवसर सदैव उपलब्ध रहता है; और उनका धंधा पीढ़ी दर पीढ़ी इसी तरह चलता रहता है। एक अच्छे एवं प्रभावशाली ठग का प्रभाव किसी व्यक्ति के शरीर पर ही नहीं होता, बल्कि व्यक्ति के मस्तिष्क के अंदर होता है। इसलिए हमें यह बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिए कि किसी किले के अन्दर जाने का सुरक्षित एवं आसान रास्ता मनुष्य के दिल एवं दिमाग से होकर जाता है।

संसार का लगभग हर व्यक्ति बौद्धिक रूप से बदलाव की ज़रूरत को बड़ी ही शिद्दत के साथ समझता और महसूस करता है। अपने मन के अंदर वह इसका बड़ा कट्टर समर्थक भी होता है। लेकिन आदत के मौलिक चरित्र  और परम्परागत सामाजिक स्थापनाओँ की संभावित आलोचना के डर से वह ठिठक जाता है। सामान्यत: दुनिया के प्रत्येक समाज में लोग आदत के अनुरूप ही चलते हैं, और ज्यादा प्रयोगशीलता से उत्पन्न परेशानियों से स्वाभाविक तौर पर बचना चाहते हैं। वस्तुतः मानवीय मनोविज्ञान में अनेक विरोधाभास और जटिलताएं होती हैं, जिस पर अधिकांश बौद्धिक विचारक ध्यान नहीं देते और उसकी सिरे से उपेक्षा (Neglect) कर जाते हैं।

प्रायः देखा जाता है कि सामान्य लोग और विद्वान दोनो ही, सिर्फ यह बताते हैं, कि कोई भी परंपरा, रीति- रिवाज अथवा अनुष्ठान अपने विधि-विधान, क्रिया या विचार में क्यों ग़लत है, और कहां ग़लत है? इन सभी कारणों (Reasons) से लगभग सभी बहुसंख्यक वाकिफ होते हुए भी अपने मनोवैज्ञानिक दबाव में आदत एवं परंपरा छोड़ नहीं पाते हैं और तथाकथित विद्वान समझते हैं कि ये मूर्ख हैं| ये विद्वान लोग मानवीय मनोविज्ञान के आधारभूत पहलुओं (Aspects) को नहीं समझ पाते हैं। विद्वान लोग कोई चीज क्यों गलत है, इसी को बताने में पहले से स्थापित 171 (यह संख्या उदाहरण के लिए है,) कारणों एवं तर्कों में एक और कारण एवं तर्क तो जोड़ देते हैं, परंतु ये विद्वान लोग उस परंपरा, रीति-रिवाज अथवा अनुष्ठान की ज़रूरत के मूल में छिपी हुई आधारभूत मानवीय आवश्यकताओं एवं मनोविज्ञान को समझ पाने में सर्वथा असमर्थ होते हैं। ये “सांस्कृतिक गत्यात्मकता” (Cultural Dyanamism) को समझते नहीं होते हैं| वे तथाकथित विद्वान यह समझते हैं कि लोग उनकी तर्कों एवं साक्ष्यों को समझ ही नहीं रहे हैं, जबकि लोग उनकी तर्कों एवं साक्ष्यों को अच्छी तरह से समझ रहे होते हैं परन्तु वे मनोवैज्ञानिक दबाव में कुछ नहीं कर पाते।

वास्तव में यह तथाकथित विद्वान लोग आत्म प्रशंसा और प्रचार के मोहपाश में फँसकर मानवीय मनोविज्ञान के अनुरूप कोई वैकल्पिक समाधान या व्यवस्था प्रस्तुत करने के बजाय अपना पूरा ध्यान “खुद को स्थापित ज्ञानी” साबित करने और सामान्य जन को मूर्ख साबित करने में ही  लगाए रखते हैं। वे मानवीय भावनाओं के संशय और स्वाभाविक प्रश्नों को प्रायः छोड़ देते हैं, और कोई ऐसा संतुष्टिपूर्ण विकल्प बिल्कुल ही नहीं दे पाते, जो व्यक्ति एवं समाज के मनोवैज्ञानिक संशयों को दूर करता हो एवं आवश्यकताओं को पूरा करता हो। जनमानस को जहां भी ऐसा विकल्प मिलता है, वहां उन्हें प्रचलित प्रथाओं एवं आदतों को, जो कि सर्वथा उनके लिए नुक़सानदायक है, छोड़ने में आसानी होती है।

इस सम्बन्ध में मानवीय मनोविज्ञान को ध्यानपूर्वक समझने की आवश्यकता है। मानव मनोविज्ञान हमें बताता है कि व्यक्ति भावनात्मक रूप से अतीत की गहराइयों में बहुत जकड़ा हुआ रहता है, और इसीलिए वह प्रायः सतही परिवर्तन ही चाहता है। आदतों में बदलाव जीवन में खालीपन पैदा करता है, जो मानव को बेचैन और परेशान  कर देता है। इसीलिए पुराने जीवन मूल्यों, आदतों एवं परम्पराओं को सदैव बाहरी तौर पर समान (Similar), परन्तु गहरे अर्थ में भिन्न जीवन मूल्यों, आदतों एवं परम्पराओं से प्रतिस्थापित करना पड़ता है। नए जीवन मूल्यों, आदतों एवं परम्पराओं के स्वरूप  के बाहरी रूप में मामूली सुधारात्मक बदलाव होना चाहिए। उनमें क्रांतिकारी  बदलाव नहीं होना चाहिए। इसीलिए सांस्कृतिक क्षेत्र में क्रान्तिकारी बदलाव समाज में प्रायः  सफल नहीं हो पाते हैं। इसके लिए पुराने पद-नाम, संख्या, विधि व तरीका में यथासंभव स्थिरता रखा जाता है, और मूल अवधारणा को चुपके से या धीरे-धीरे बदल दिया जाता है।

इन नए बदलावों को अतीत की  परंपरा, संस्कार, जीवन मूल्य का एवं इतिहास का जबरदस्त और सार्वजनिक समर्थक दिखना चाहिए। चूँकि लोग स्वाभाविक रूप से अपनी आदत के गुलाम होते हैंइसीलिए बदलाव भी आदत की स्थिरता के अनुकूल होना चाहिए। इससे नए प्रयास का सार्वजानिक विरोध नहीं हो पाता है। इसी प्रकार हमें किए गए किसी भी परिवर्तन को सदैव ऐतिहासिक, सनातन एवं पुरातन दिखाना चाहिए। क्योंकि इसी पुरातनता, सनातनता एवं ऐतिहासिकता को आम लोंगो द्वारा राष्ट्रवाद, संस्कृति और समाज के अनुरूप यानि हितों के अनुरूप माना जाता है। वास्तव में पुराने स्वरूप  की आड़ में ही मौलिक बदलाव सफल होते हैं; और इतिहास में संस्कृतियों में बदलाव सदैव इसी तरह से होते रहे हैं।

हमें भी अन्धविश्वास, ढोंग, पाखंड और कर्मकाण्ड को जड़ से उखाड़ने के संदर्भ में  उपरोक्त वर्णित मानवीय मनोविज्ञान की प्रक्रिया को गहराई से समझना होगा। परिवर्तन हमेशा क्रमिक (Sequential Stages) एवं क्रमश: (Slowly) होना चाहिए|

पहले अन्धविश्वास, ढोंग, पाखंड एवं कर्मकाण्ड के कर्ता (Agent) को बदलिए,

फिर प्रक्रिया (Process) को बदलिए,

फिर वस्तु (Object/ Material) को बदलिए

और अंत में अवधारणाओं (Concepts / Thoughts) को बदल डालिए।

फिर सब कुछ बदल जायेगा।

उपरोक्त वाक्यों को कई बार स्थिर होकर पढियें|

तब एक बार फिर हमारा देश भारत एक संपन्न, शक्तिशाली, एवं विकसित राष्ट्र बनेगा, जिसकी ओर सम्पूर्ण विश्व की  केवल कातर निगाहें  ही होंगी। बस, धैर्यपूर्वक थोड़ा  इन्तजार कीजिए, निकट भविष्य में ऐसा शीघ्र ही होने वाला है।

आचार प्रवर निरंजन 

8 टिप्‍पणियां:

  1. ढोंग,पाखंड, आडंबर तथा कर्मकाण्ड का बड़े ही सुन्दर,सरल एवं तार्किक ढंग से पोस्टमार्टम किया गया है।साथ ही आम बहुसंख्यक जनता की अपनी आदतों की गुलामी तथा उपरोक्त ढोंग,पाखंड इत्यादि के सहारे अपना धंधा चलाने वालों का चरित्र चित्रण भी अति सरल एवं तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
    भारतीय जनमानस को भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरूप जागरूक और सजग बनाने हेतु लेखक के इस प्रयास के लिए उन्हें बहुत बहुत साधुवाद।

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  2. सभ्य समाज निर्माण में लेखक का प्रायस बेहतर है

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  3. जिस ढंग से अपने समाज के उस पहलू को उजागर किया है जिसमे समाजका अधिकांश वर्ग उलझा हुआ है, एक बहुत ही उम्दा प्रदर्शन।

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  4. बहुत अच्छा, सार्थक और समय की मांग के अनुसार एक जरूरी लेख है.

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  5. अच्छा लेख है,इसे आसानी से समझा जा सकता है।

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  6. समाज से अंधविश्वास,पाखण्ड और ढोंग निवारण में लेखक का एक अत्यंत सराहनीय और प्रेरक प्रयास।भारत आपका सदा ऋणी रहेगा।नमन।

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