शनिवार, 8 जनवरी 2022

शुद्र, विकास और सांस्कृतिक इंजीनियरिंग (Shudra, Development and Cultural Engineering)

भारत में शुद्रविकास एवं सांस्कृतिक इंजिनीयरिंग (अभियंत्रण) के इतने गहरे सम्बन्ध हैंकि इसे अच्छी तरह समझे बिना भारत का सर्वोत्तम विकास संभव ही नहीं हैपहले इन अवधारणाओं को एवं इनसे सम्बंधित अन्य बातों को समझा जायमैं हर एक अवधारणा का समुचित विश्लेषण करूँगा ताकि इन बातों को ढंग से समझा जायसांस्कृतिक अभियंत्रण (इंजिनीयरिंग) (Cultural Engineering) में  विचारों (Ideas), अवधारणाओं (Concepts), अभिवृतियों (Attitudes), प्रतिरूपों (Patterns), उपागमों (Approaches) एवं प्रतिमानों (Norms) में पैरेडाईम शिफ्ट का मामला है।

पैरेडाईम शिफ्ट (Paradigm Shift ) एक अवधारणा है, जिसे थामस कुहन ने क्रन्तिकारी परिवर्तन यानि रूपांतरण (Transformation) (स्थायी एवं अपरिवर्तनीय बदलाव ही रूपांतरण कहलाता है) के लिए आवश्यक माना है। किसी भी विचारसोचअवधारणाप्रतिरूपउपागम एवं प्रतिमान आदि में सामान्य से हट कर एक सर्वथा नए ढंग से देखने एवं समझने को ही पैरेडाईम शिफ्ट कहते हैंइस शब्द को थामस कुहन ने 1962 में अपनी  पुस्तक – The Structure of Scientific Revolution में पहली बार इस्तेमाल किया था।

शूद्र परम्परागत रूप से वर्ण आधारित सामाजिक व्यवस्था का सबसे निचला एवं चौथा स्तर (Level) हैपरम्परागत रूप में भारत की बहुसंख्यक आबादी इनमे ही शामिल बताई जाती हैपरन्तु यह सही नहीं है| भारत में वर्ण के साथ एक व्यवस्था रहीजिसे ” (सहित) वर्ण यानि सवर्ण कहा गयाइसमें चार वर्ण पदानुक्रम के अनुसार  क्रमश: ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य एवं शूद्र हैंइस वर्ण व्यवस्था के बाहर भी एक  सामाजिक व्यवस्था थीजिसे “अवर्ण” व्यवस्था कहा जाता हैशूद्र कहे जाने वाले लोग  वस्तुत: वर्ण व्यवस्था में निजी सेवक होते थे और इनकी संख्या बहुत कम होती थी| आप देख सकते हैं कि आज भी किसी परिवार या संगठन में निजी सेवकों की संख्या अत्यंत कम होती हैब्राह्मण धर्म की संहिताओं (Codes) में शूद्रों को एक कमरे का घर निर्धारित थाजैसे कि  आज के नौकरों (निजी सेवक) को एक कमरे का आउट हॉउस निर्धारित रहता हैशूद्रों को धातुओँ में सोना (Gold) रखने की अनुमति नहीं थीक्योंकि निजी सेवक सोना अवैध ढंग से ही पा सकते थेसंहिताओं के नियम इन्हीं सवर्णों (वर्ण सहित) के लिए थेजिसमे शुद्र भी शामिल थे|

अवर्ण व्यवस्था में भी चार श्रेणी के लोग थे –

1. वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादक,

2. विदेशों में उत्पन्न धर्मों के अनुयायी,

3. जंगलों में अलग-थलग रहने वाले जनजातीय लोग एवं

4. वर्ण व्यवस्था से बाहर किए गए तथाकथित अछूत|

ध्यान रहे कि अवर्ण व्यवस्था में चार श्रेणीं (क्षैतिज विभाजन) हैचार स्तर (उर्घ्वाकार पदानुक्रमण) नहीं| संहिताओं के नियम अवर्णों के लिए नहीं बनाए गए थे| विदेशों में उत्पन्न धर्मों के अनुयायीजंगलों में अलग थलग रहने वाले जनजातीय लोग एवं वर्ण व्यवस्था से बाहर किए गए तथाकथित अछूतों  को वर्ण व्यवस्था से कोई लेना देना नहीं था| वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादकों को व्यावहारिक रूप से  संहिताओं के दायरे में नहीं रखा गया| कुछ उदहारणों  का अवलोकन करेंशूद्रों को जहाँ एक कमरे ही निर्धारित किए गए थेवही उत्पादको के घरों में पशुओं एवं कृषि उत्पादों के लिए ही एक से अधिक कमरे होते थे| जहाँ शूद्रों के लिए सोना रखना मना थावहीं उत्पादक अवर्णों को धन संग्रहण के लिए यही सोना ही उपलब्ध थाक्योंकि सामन्ती काल में अन्य  कोई मुद्रा प्रचालन में ही नहीं थी। स्पष्ट है कि ये अवर्ण उत्पादक  लोग शूद्र नहीं थे| दरअसल शूद्र शब्द ही क्षुद्र से बना हैजिसका साधारण एवं सीधा अर्थ छोटानीच यानि निम्नतर होता हैवस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादक कभी भी सभ्य समाज में छोटानीच एवं घटिया नहीं हो सकता था| इसे सामन्ती नियम और कायदे की व्यवस्था से अलग यानि बाहर रखा गया थाआज भारत के बहुसंख्यकों में इन्हीं की आबादी का हिस्सा नब्बे प्रतिशत से अधिक है|

वास्तव में आज भारत में शूद्रों का अस्तित्व ही नहीं हैये शूद्र ब्रिटिश काल में सामन्ती व्यवस्था के ढहते ही अपना मौलिक स्वरूप खो दिये। हिन्दू’ शब्द भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों के लिए ‘हीन’ यानि निम्न लोगो के अर्थ में अरबों द्वारा सर्वप्रथम प्रयुक्त एवं तत्कालीन भारतीय बौद्धिक वर्ग (ब्राह्मणों) द्वारा समर्थित शब्द है| हीन” शब्द का अर्थ नीच होता है और ‘हीन’ से हिन्दू शब्द बना हैइसी कारण मुगलों के काल में जजिया कर हिन्दुओं पर लगता थापरन्तु ब्राह्मणों पर नहींदयानंद सरस्वती ने भी अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि ब्राह्मण हिन्दू नहीं हैंपरंतु आज यह लोकतान्त्रतिक व्यवस्था की अनिवार्यता है कि शक्ति बहुसंख्यक के पास होती हैअल्पसंख्यक के पास नहीं| इसी  गणितीय अनिवार्यता ने वर्ण वादी सामाजिक व्यवस्था के संचालकों को अवर्णों की  सम्पूर्ण  आबादी को सामन्ती वर्ण व्यवस्था में शामिल कर वर्ण व्यवस्था के विस्तार  का विचार दियाइसीलिए कुछ संगठनों  और उनके एजेंटों द्वारा  प्रकट एवं अप्रकट रूप में समस्त  अवर्णों का भी शूद्रीकरण करने का अभियान आज जोरों पर है|

किसी भी क्षेत्रतंत्र एवं जीव की  सर्वागीण वृद्धि के साथ जो आधारभूत व्यवस्था  निर्मित हो जाती  हैउसे विकास कहा जाता है| विकास में वृद्धिसभी दिशाओं में आधारभूत ढांचा के साथ व्यवस्थास्थायित्वप्राकृतिक न्याय तथा भविष्य के साथ मानवता का तत्व शामिल होता है| इनमे में से किसी भी एक तत्व का विलोपन होने से सम्यक विकास नहीं हो सकताविकास और वृद्धि दो भिन्न भिन्न अवस्थाएं  हैं , इसीलिए बिना वृद्धि के भी विकास होता है और वृद्धि के साथ भी विकास होता हैजब व्यवस्था में सभी नागरिकों की उत्कृष्ट योग्यता का दक्षतापूर्ण समर्पण के साथ सहभागिता होता हैतो विकास अपने चरम पर होता है| भारत का  बहुसंख्यक भी जब अपनी प्राकृतिक योग्यतामहत्तम दक्षता और सहभागिता के साथ देश की व्यवस्था के  प्रत्येक क्षेत्र में  अपना सम्पूर्ण योगदान करेगातब  ही भारत का सर्वोत्तम विकास संभव होगा। इसके अलावा विकास के लिए मानव के विश्वास तंत्र (Believe System) एवं  उसकी अभिवृति (Attitude) की उत्कृष्टता भी आवश्यक है|

विश्वास तंत्र (Believe System) सोचविचारोंआचारों (संस्कारों) एवं व्यवहारों  का एक समेकित तंत्र (Integrated system) हैजो व्यक्ति के मन के विश्वास से निर्धारितनियंत्रित एवं संचालित होता हैइसे मनोबल (Morale) की शक्ति भी कहते हैंयह विश्वास तंत्र व्यक्ति की अभिवृति (Attitude) को तय करता हैजो उसके विचारसंस्कारव्यवहार एवं कार्य से अभिव्यक्त होता है| यही वह विश्वास तंत्र हैजिसे बिस्मार्क ने जर्मनी के असंगठित समूहों को एकत्र करने एवं उनमे सर्वश्रेष्टता  का सम्मान भाव भरने में किया थाइसी उत्कृष्टता के विश्वास तंत्र का उपयोग कर हिटलर ने जर्मनों के साथ विश्व को रौंद दिया थालेकिन भारत के संदर्भ में  विडंबना यह है कि आज  हम भारतीय कुछ गिरोहों की  साजिश के कारण भारत के बहुसंख्यको यानि संपूर्ण भारत का ही मनोबल गिराने एवं तोड़ने में लगे हुए हैं। इस प्रक्रिया को भारत में शूद्रीकरण यानि क्षुद्रिकरण यानि कि मानसिकता का निम्नीकरण (Degradation of Mentality) भी  कहते हैं। जब कोई अपने सोच एवं मानसिकता में निम्नतर अवस्था में होता हैतब वह रक्षात्मक मुद्रा (Defensive Mode) में होता है और इसीलिए वह कभी भी जीतता (Winner) हुआ नहीं होता है| भारत के बहुसंख्यक अवर्ण वर्ग के शूद्रीकरण की यह अपमानजनक  प्रक्रिया इन धूर्त गिरोहों के गुप्त राजनीतिक एजेंडे से प्रेरित है। अपने को जो लोग अभी भी शूद्र वर्ण का सदस्य मानते हैंयानि अपने को सामन्तों के निजी सेवक के खानदान का मानते आ रहे हैंअर्थात्  जो यह मानते हैं कि उनके बाप- दादा सामंतों के बेड रूम एवं बाथ रूम का व्यवस्था करते आ रहे थेऔर उन्हें इन सब पर गर्व हैतो वे गर्व करने के लिए स्वतंत्र हैं| परन्तु वे इसी आधार पर भारत के बहुसंख्यकों का शुद्रीकरण करने का जो प्रयास कर रहे हैंवह वास्विकता से बिल्कुल परे और एक निकृष्ट कोटि का स्वार्थी इरादा है | वास्तव में ऐसे लोग सम्पूर्ण भारत का तथा समाज के बहुसंख्यकों का अपमान कर रहे हैं| ये शुद्रीकरण का नारा देने वाले लोग वास्तव में वर्ण व्यवस्था के संपोषक और उनके एजेंट हैंये लोग बहुसंख्यकों को इन उलझनों में उलझा कर उनका संसाधनउर्जासमयधन और जवानी बरबाद कर रहे हैंइन लोगो को जहां सकारात्मक एवं रचनात्मक कार्यों में लग कर देश की बहुसंख्यक आबादी के व्यक्तिगत जीवनसामाजिक जीवन तथा राष्ट्रीय जीवन में कुछ विकास करना था , ये लोग देश के विरुद्ध देश को ही खड़ा कर अपनी राजनीति कर रहे हैं|   

व्यक्तिसमाजएवं राष्ट्र के सम्यक विकास के लिए तथाकथित शूद्र यानि बहुसंख्यकों को लेकर ही  इंजीनियरिंग करना होगाकार्य एवं कारण का व्यवस्थित ज्ञान विज्ञान होता हैइसे जब व्यक्तिगत या सामाजिक उपयोगिता के लिए व्यावहारिक बनाया जाता हैतो इसे इंजीनियरिंग कहते हैंऔर जब इस ज्ञान का उपयोग यंत्र बनाने में किया जाता हैतो इसे तकनीक या टेकनोलोजी कहते हैं| चूँकि शूद्र यानि बहुसंख्यकों की समस्या की जड़े मात्र वर्तमान सामाजिक व्यवस्था से ही नहीं जुड़ी हुई हैं , इसीलिए इसका समाधान मात्र सामाजिक इंजीनियरिंग से ही संभव नहीं हो पा रहा हैइन तथाकथित शुद्रों  यानि क्षुद्रों  की समस्या की जड़ें  भारतीय इतिहास में बहुत गहराई में दबी हुई हैं और संस्कृति का एक अहम् हिस्सा बनी हुई हैं। इसीलिए इनके समाधान हेतु  सांस्कृतिक इंजीनियरिंग की भी आवश्यकता है|

इंजीनियरिंग की प्रक्रिया में सदैव उपलब्ध तार्किक विचारों (Ideas), अवधारणाओं (Concepts), प्रतिरूपों (Patterns), उपागमों (Approaches) एवं प्रतिमानों (Norms) में पैरेडाईम शिफ्ट करना होता हैउन्हें पुनर्गठित (Re Structuring) एवं पुनर्विन्यासित  (Re Orientation) इत्यादि  करना होता है| अत: सांस्कृतिक इंजिनीयरिंग में भी इनसे सम्बन्धित विचारोंअवधारणाओंप्रतिरूपोंउपागमों एवं प्रतिमानों में बदलाव करना होगा| हमें वर्णसवर्ण एवं अवर्ण व्यवस्था को उचित संदर्भों में समझना होगाहिन्दू संस्कृति की मौलिक अवधारणाओँ  एवं आवश्यकता को कई नए दृष्टिकोणों से समझना होगाहमें आर्यों की कहानी एवं वैदिक संस्कृति के प्रमाणिक पुरातात्विक साक्ष्य मांगने होंगे| अब आर्यों की तथाकथित कहानी को झूठा बताया  जा रहा  है (आई.आई.टी. खड़गपुर द्वारा प्रकशित)। इसी प्रकार  वैदिक संस्कृति के धरातलीय वास्तविक अस्तित्व को प्रोफ़ेसर रामशरण शर्मा अपने अकाठ्य साक्ष्यों से इनकार करते हैं (देखें ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकशित पुस्तक – भारत का प्राचीन इतिहास)मतलब यह हैकि इन अवधारणाओं एवं प्रतिमानों को बदल कर फिर से इंजिनीयरिंग करना है। अवधारणा बदलेंसांस्कृतिक नींव बदलेंसमाज स्वतः बदल  जाएगा। हमारा महान देश भारत बदल जायगा।

(आप मेरे अन्य आलेख niranjan2020.blogspot.com पर देख सकते हैं।)

निरंजन सिन्हा

 

 

16 टिप्‍पणियां:

  1. सटीक और व्यवस्थित विश्लेषण...

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  2. आप ने हिन्दू का सही विश्लेषण किया है ।सच है हमे अपने सोचने का दायरा बदलना पडेगा ।अच्छा लेख।

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  3. भारत के वास्तविक ऐतिहासिक तथ्यों का अद्भुत विश्लेषण एवं आश्चर्यजनक प्रस्तुति।

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  4. सादर ननस्कर महोदय,सराहनीय विश्लेषण पुरानी वर्ण व्यस्था के साथ नाम बदली गई वर्ण व्यस्था पर भी लिखिए महोदय ,सामान्य,ओबीसी,sc व st पर धन्यवाद

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  5. बहुत अच्छी जानकारी दी गई है सर परंतु लेखनी के सार से यह प्रतीत होता है की पुरानी घटिया और सड़ी-गली व्यवस्था को प्रासंगिक ठहराने की कोशिश की गई है।

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  6. एक बार और पढ़ा जाय।
    या स्तर और ऊपर किया जाय।

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  7. Definately... our society need transformation... cultural, social, economically...

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  8. सबसे पहले आप को, आज की तारीख में, शूद्र, सवर्ण, अवर्ण और शूद्रों के विकास और उनके सांस्कृतिक इंजीनियरिंग को लेकर इतना लम्बा चौड़ा लेख लिखने की क्यों जरूरत पड़ी? इसके पहले क्यों नहीं लिखा जाता था? या लिखा गया। कारण हमें जो नजर आता है, वह यह है कि, आज शूद्रों की उभरती सामाजिक चेतना की क्रिया के विपरीत सिर्फ प्रतिक्रिया है।
    आप ने दुनियां भर के विद्वानों और सामाजिक चिन्तकों का उद्धरण देते हुए सिर्फ भ्रामक और शूद्रों को फिर से दिग्भ्रमित करने की कोशिश की है। शूद्रों के बारे में करीब दो सौ सालों से अपने ही देश के महान समाज सुधारकों ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, शाहूजी महाराज, पेरियार रामास्वामी नायकर आदि महापुरुषों, यहां तक कि हिन्दू धर्म, या वैदिक धर्म या सनातन धर्म का पोस्टमार्टम करने वाले विश्व विख्यात विद्वान बाबा साहेब का नाम भी आप को याद क्यों नहीं आया?
    सबसे बड़ा आश्चर्य तब हुआ, जब मैंने देखा कि आप ने, हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, तथा सवर्ण, अवर्ण, वर्ण व्यवस्था के बाहर भीतर आदि नाटकीय विश्लेषण बहुत अच्छी तरह से किया, लेकिन उसी व्यवस्था के सम्विधान मनुस्मृति के सिद्धांतों का जरा भी जिक्र नहीं किया।
    आप ने तो अवर्ण की परिभाषा ही बदल दिया। बाबा साहेब ने अंग्रेजों के शासनकाल से ही हिन्दुओं को सिर्फ दो भागों में विभाजित किया था। फारवर्ड और बैकवर्ड, सवर्ण और अवर्ण, अगड़ा और पिछड़ा। फिर इसी बैकवर्ड कास्ट (BC) को ही संविधान में, SC, ST, OBC से चिन्हित किया गया। आप का तर्क कि अवर्ण को हिन्दू वर्ण व्यवस्था से अलग बाहर रखा गया था। यदि आप की बात थोड़े समय के लिए मान लूं और इन पर मनुस्मृति का कानून भी लागू नहीं था तो, इनके पूर्वज बाप दादा परदादा, अशिक्षित, लाचार, असहाय, जानवर से बद्तर ज़िन्दगी जीने को क्यों मजबूर हुए, किसने किया? पश्चिमी सभ्यता की तरह इनके भी बाप-दादा, डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, शोधकर्ता क्यों नहीं बनें? उन्होंने तो अंधे और गूंगों को भी पढ़ने-पढ़ाने का आविष्कार तक बहुत पहले कर लिया था और यहां क्या किया गया था, यदि थोड़े समझदार है तो हमें याद दिलाने की जरूरत नहीं है।
    आज के माहौल में, शूद्रों में संवैधानिक समता समानता और बन्धुत्व की प्रेरणा से तर्कशील होने, कर्म करने वाले ही पुज्यनीय और महान है, ऐसी चेतना और जागृत आने पर, शूद्र पूरे देश में, शूद्र होने पर शर्म नहीं, अब गर्व महसूस करने लगा है। जहां नाम लेने मात्र से घृणा हो रही थी, आज वही शूद्र उपाधि लगा रहे हैं। क्या यह सांस्कृतिक इंजीनियरिंग नहीं है?
    हिंदू धर्म की आत्मा, सवर्णो द्वारा संचालित, सभी जातियों में क्रमिक ऊंच-नीच, छुआछूत की अपराधिक भावना और शूद्रों में धार्मिक मानसिक गुलामी से मुक्ति दिला कर, आपसी भाईचारा पैदा करने को ही सोसल इंजीनियरिंग कहा जाता है, जिसको आप ने अपने लेख में नजर अंदाज कर दिया है।
    जहां तक शूद्रों के विकास या डबलप्मेंट की बात है तो, मेरा मानना है कि, सिर्फ भारतीय संविधान, जिससे पूरे देश की व्यवस्था चलती है, उसका आप ने या तो जानबूझकर जिक्र नहीं किया या हो सकता है, आप को इसकी पूरी जानकारी न हो, यदि संविधान पूरी तरह कड़ाई से जिस दिन लागू कर दिया जायेगा, उसी दिन से शूद्र अपने बुद्धि-विवेक और कर्तव्यनिष्ठा से, अपना विकास खुद कर लेगा। किसी के एहसान की जरूरत नहीं पड़ेगी।
    सर जी अंत में, अवधारणा नहीं, हिन्दुओं में ब्याप्त, जातिवादी ऊंच-नीच, छुआछूत, की सड़ी-गली मानसिकता बदलने से सांस्कृतिक बदलाव आ आएगा। यही नहीं, समाज खुद नहीं बदलेगा, संविधान के अनुच्छेद 13 और अनुच्छेद 51/AH के अनुसार सभी को बदलने की कोशिश करते रहना पड़ेगा, तभी हमारा देश महान बनेगा।
    इन विषयों को ध्यान में रखने से ऐसा लगता है कि आप भूगोल की क्लास में इतिहास पढ़ा रहे हैं। धन्यवाद।
    शूद्र शिवशंकर सिंह यादव

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    1. आज वर्तमान व पूर्व की
      शुद्र वर्णव्यवस्था में राजनैतिक, सांस्कृतिक,सामाजिक,आर्थिक,शैक्षणिक समरसचेतना में काफी अंतर है बाबा भीम राव अम्बेडकरजी, ज्योतिबाईफूले,पेरियार स्वामी,कबीर रविदास ललर्ईयादव,लेनिन केनाम से ख्याति कुशवाहाजी आदि महापुरूषों का अनुसरण व इनके भारतीय संविधान के योगदान कोभूलना नहीं चाहिये। मैं आप का समर्थन करता हूँ पर हिन्न्र्व्यवसस्

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  9. अवण॑ की धारणा आपके लेख का फोकस है, मैं इससे सहमत हूं। मनु स्मृति एक शरारत पूर्ण पुस्तक थी इसकी बातें कभी भी समाज में IPC CrPc जैसे लागू नहीं रहीं। भारतीय समाज समुद्र की तरह रहा है इसमें विश्वास परंपरा की अनेक धाराएं मिलती रही हैं और समाहित होती गई हैं

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  10. निरंजन सर द्वारा लिखित आलेख के आलोक में शिव शंकर यादव सर की टिप्पणी काफी महत्वपूर्ण एवं प्रसांगिक से जान पड़ता है। जो बातों को निरंजन सर कहना चाह रहे थे उसमें थोड़ा भटकाव दिखता है।

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  11. अभी सिर्फ सरसरी नज़र से मैन सिन्हा जी के लेख को पढ़ा जिसका अध्ययन कर parawise कंटेंट्स पर सांगोपांग टिप्पणी देना अभिप्रेत होगा ,अस्तु तत्काल में श्री शिवशकर जी मूलवासी "शूद्र" के अभिमत पर । उन्होंने सिन्हा जी के सामाजिक रूपांतरण के लिये यानी शूद्र,विकास व सांस्कृतिक इंजीनियरिंग के एकेडेमिक वैचारिक पक्ष पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि इसमें भारतीयसामाजिक बदलाव के महान वैचारिक प्रवर्तकों ,पेरियार, फूले दंपत्ति और भारतीय संविधान के मुखर प्रणेता बाबा साहब का ही जिक्र नही किया,शायद शूद्रों,वंचितों को अपने एकल एकेडेमिक लेख से दिग्भ्रमित करने के लिये?
    मुझे भी लगा कि सिन्हा जी के अनुसार तो सामाजिक बदलाव पूर्व,अवधारणाओं,बिचारों,अभिवृत्ति,उपमानों सामाजिक आचरण आदि (विश्वास तंत्र) में पैराडाइम शिफ्ट की सोशल इजीनियरिंग से ही शुद्र विकास संभव है,अधूरा लगा! क्यों? क्योंकि कथित ब्राम्हणी वर्ण ब्यवस्था की गंदी गंगा की बिचारों की पैराडाइम शिफ्ट की स्थानिक सफाई से वह तब तक अविरल निर्मल नही हो सकती जबतक की उसके उद्गम मनुस्मृति में उल्लिखित शूद्रों के विरुद्ध गंदे बिचारों की मानव समता बिरोधी बिचारों की गंगोत्री का अस्तित्व ही समाप्त कर शिवशकर जी के अनुसार वहां मानवसमतावादी बिचारों से लैश संविधान का पैराडाइम शिफ्ट नही किया जाता ।सिन्हा जी के अपने लेख में शूद्र-घृणायुक्त मनुस्मृति के विकल्प उसके स्थानापन्न मानवसमानता,स्वतंत्रता,समता व बंधुता से युक्त संविधान का जिक्र न किये जाने को शिवशकर जी द्वारा मूल आलोच्य बिंदु बताना उचित,तार्किक,संतुलित व समीचीन भी है ।

    आधार कृष्ण यादव

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  12. मैं शिव शंकर जी के विश्लेषण से सहमत हूं।

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  13. मैं लेखक की इस गहरे विश्लेषण और मौलिक चिंतन की हार्दिक सराहना करता हूं। इसने विचारों को एक नया और नवाचारी दृष्टि दिया है जिससे समाज और देश को विकास की नई ऊंचाइयों को छूने में मदद मिलेगी।

    ये तथागत बुद्ध और उनके दर्शन के महान अनुयायियों यथा आम्बेडकर, फुले, शाहूजी महाराज, पेरियार की भावनाओं और आदर्शों के अनुरूप अपने मौलिक चिंतन को विस्तार दिया है।

    इनके तथाकथित आलोचक इन महापुरुषों के नाम तो ले रहे हैं, परन्तु इन महापुरुषों के आदर्शों और सिद्धांतों की समझ नहीं दे रहे हैं। वे आलोचक यह भी कह सकते हैं कि आम्बेडकर और फुले अपने समय में कम्प्यूटर, मोबाइल और इंटरनेट का प्रयोग नहीं करते थे और आज इनके उपयोगकर्ता इस आधार पर इनके विरोधी हैं।

    लेखक श्री निरंजन सिन्हा की गूढ़, मौलिक और नवाचारी दृष्टि यदि किन्हीं को नहीं समझ में आ रहा है तो उन्हें चाहिए कि वे लोग श्री सिन्हा जी को विमर्श और स्पष्टीकरण के लिए खुले मंच पर आमंत्रित करें ताकि विमर्श को सही दिशा मिले और अन्य बुद्धजीवी भी शामिल हो सकें।
    सादर।

    उमेश सिंह यादव, देवकुली, बिहटा, बिहार।

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