गुरुवार, 27 मई 2021

वर्ण व्यवस्था: एक नया दृष्टिकोण

वर्ण व्यवस्था: एक नया दृष्टिकोण

आज मैं आपके सहयोग से एक नया विमर्श शुरू कर रहा हूँ, परंपरा से थोडा हट कर है; इसलिए थोडा अटपटा लग सकता है| परन्तु जब आप इसे पूरा पढेंगे तो यह निश्चित है कि आपके विचारों को समझने और अपने उलझनों को सुलझाने में एक नया दृष्टिकोण मिलेगा| आपके दृष्टिकोण में एक पैरेडाइम शिफ्ट (Paradigm Shift) हो जायेगा|

वर्ण का अर्थ होता है – रंग (Colour), अर्थात चेहरे एवं शरीर के त्वचा का रंग| इस आधार पर विश्वव्यापी प्रतिरूप (Pattern) या बनावट (Composition) में समानता नहीं है| भारत एवं शेष विश्व का नजरिया अलग अलग है| मानव में रंगों की श्रेणी श्वेत (White) से काला (Black) तक होती है| जो श्वेत (सफ़ेद) नहीं होते है, उन्हें अश्वेत (Non- White) कहते हैं और बहुत लोग इसमें काला रंग यानि वर्ण को भी अलग से शामिल कर लेते हैं| जो रंग सभी तीनो प्राथमिक (Primary) रंगों से मिलकर बनता है अर्थात जो रंग अन्य रंगों को परावर्तित (Reflect) कर देता है; श्वेत रंग कहलाते हैं| जो रंग अन्य रंगों को परावर्तित नहीं कर सभी आपतित (Incidence) रंगों को अवशोषित (Absorbed) कर लेता है, काला रंग कहलाता है| इस तरह पीला रंग, गेंहूआ रंग, सावंला रंग को अश्वेत कहते हैं, कुछ लोग इसमें काला रंग को भी रखते हैं और कुछ इसे अश्वेत से बाहर भी रखते हैं|

आप भी जानते हैं कि त्वचा (Skin) के रंग का निर्धारण कैसे होता है? जो व्यक्ति ठंढे स्थानों में लम्बे समय से रह रहा हो या लम्बे समय से कड़ी धुप (Sun Rays) एवं शारीरिक श्रम से बचता रहा हो, तो ऐसे लोगो का अनुकूलन (Adoptation) इसी तरह श्वेत रंग में विकसित होकर होता है| लेकिन जो लोग उष्ण एवं आद्र प्रदेशों में लम्बे समय से रहते हैं या तीखी धुप एवं आद्र खुली वातावरण में लगातार काम करते हैं, तो ऐसे लोगों का अनुकूलन इसी तरह काला या अश्वेत रंग में विकसित होकर होता है| काला रंग के अतिरिक्त बाकि के अश्वेत रंग इन दोनों रंगों के मध्यवर्ती रंग होते हैं, जो इनके रहने या काम करने  के वातावरण के मध्यवर्ती कारको के कारण निर्धारित होते हैं| यही तार्किक आधार होता है, जिससे शारीरिक रंगों का निर्धारण होता है, और जिसे वर्ण भी कहा जाता है| आपको भी ज्ञात होगा कि सभी वर्तमान मानव एक ही व्यक्ति के संतान हैं, जिन्हें होमो सेपियन्स सपियन्स कहा जाता है| अपनी उत्पत्ति के बाद आज से कोई लगभग पचास हजार वर्ष पूर्व वे अफ्रिका से बाहर निकले और पुरे विश्व में फ़ैल गए| इतने लम्बे कालों में विभिन्न प्रदेशों की भौगोलिक एवं पारिस्थितिकीय परिस्थितियों में अनुकूलन के कारण वे विभिन्न प्रजाति – नीग्रो, काकेशियन, मंगोलोइड में, एवं इनके अंतरवर्ती मिश्रित प्रजाति में विकसित हुए| इसी तरह भारत में भी सामान्य भारतीयों में काम की परिस्थितियों एवं रहने के क्षेत्र के आधार पर शारीरिक रंग विकसित हुई, जिसमे आज भी परिवर्तन देखा जा सकता है| भारत में इन्ही शारीरिक रंगों को वर्ण का आधार बनाया गया| श्वेत के समानार्थी ब्राह्मण, काला के समानार्थी शुद्र, अन्य अ- श्वेत (गेहूंआ एवं सावंला क्रमश:) के समानार्थी में क्षत्रिय एवं वैश्य हुए| अवर्ण में उत्पादक जातियां थी, जिनको सामंती साहित्यकारों के वर्ण व्यवस्था से बाहर ही रखा या इस ओर ध्यान ही नहीं दिया|

प्राचीन भारत में इस रंग यानि तथाकथित वर्ण की कोई आवश्यकता या कोई उपादेयता नहीं थी, और इसीलिए प्राचीन भारत में वर्ण की कोई भी चर्चा या कोई भी सन्दर्भ इतिहास के प्रमाणिक साक्ष्य के साथ नहीं है| प्राचीन भारत के कई शासको ने अपने बारे में, अपने वंश एवं परिवार के बारे में, तथा अपने कृत्यों या अन्य आधारों पर कोई विशेष उपाधि की चर्चा किया है, परन्तु वर्ण जैसे महत्वपूर्ण सामाजिक प्रस्थिति (यदि उस समय समाज में प्रचलित एवं महत्वपूर्ण थी तो) की चर्चा नहीं की है| यह चर्चा इसलिए नहीं की, क्योंकि उस समय समाज में यह किसी भी रूप में प्रचलित नहीं थी| यह तो सामंतवाद की अनिवार्य आवश्यकताएं थी, जिसने जाति व्यवस्था को बनाया एवं उसे वंशानुगत भी बनाया| ऐसी सामाजिक व्यवस्था की निरंतरता ही ने वर्ण की अवधारणा को जन्म दिया, विकसित किया, संवर्धित किया, संरक्षित किया, समर्थन दिया एवं पुष्ट किया| यदि ऐसी सामाजिक व्यवस्था की निरंतरता के लिए इसे वंशानुगत नहीं बनाया जाता, तो यह वर्ण व्यवस्था ही विकसित नहीं होता और इस वर्ण व्यवस्था की आवश्यकता ही नहीं होती|

आप यह कह सकते हैं कि यह वर्ण व्यवस्था भारत में प्राचीन काल से है अर्थात हजारों वर्ष पुरानी है| मैं तो यह कह रहा हूँ कि यह एक हजार वर्ष भी पुरानी नहीं है, और यह सामन्तवाद के अनिवार्यताओं से उत्पन्न हुई| आप भी जानते हैं कि सामंतवाद एक विश्वव्यापी (उस समय के विश्व में एशिया, यूरोप एवं अफ्रीका के भूमध्यसागरीय क्षेत्र ही शामिल थे) घटना थी, जिसने इतिहास को प्राचीन काल से मध्य काल में विभाजित किया है| यदि आप सही है यानि वर्ण के पुरातनता के समर्थक हैं, तो अपने पक्ष में कोई ठोस पुरातात्विक एवं तर्कसंगत साक्ष्य प्रस्तुत कर सकते हैं| यदि आप साहित्यिक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं, तो आपको भी मालूम है कि यह कागजी कहानियां कागज के अविष्कार के होने और भारत में कागज के उपयोग में लाये जाने के बाद की ही संभव हो सकती है| आप कह सकते हैं कि यह ऐतिहासिक साहित्य मौखिक रूप में याद किए एवं स्मृति में रखे जाते रहें थे| तो लिखित क्यों नहीं थे, जबकि समकालीन भारतीय समाज लिखता भी था| यदि ये साहित्य की रचना करने के लिए उत्कृष्ट विद्वान रहे तो लिखने की सरल एवं सहज शैली क्यों नहीं अपना पाए? क्योंकि बीत गए समय को निरंतरता की कड़ी में सजाना था, ताकि इन साहित्यों को पुरातन, सनातन और ऐतिहासिक साबित करना था जिससे इनकी मान्यताओं पर कोई प्रश्न खड़ा नहीं किया जा सके| यह सब कहानियाँ हैं, जिन्हें पौराणिक, प्राचीनतम, ऐतिहासिक बताने एवं निरंतरता बनाए रखने के लिए साहित्य रची या बनायीं गयी है। इससे आप भी अपने को गौरवशाली महसूस कर सकें। वैसे भारत के प्राचीनतम संस्कृति – बौद्धिक संस्कृति भी गौरव के लिए काफी है|

भारत में वर्ण का विभाजन स्पष्ट रूप में रंग के आधार पर नहीं बनाया गया, और इसीलिए वर्ण का नाम रंग आधारित नहीं होकर भिन्न नामावली में है| शास्त्रों एवं साहित्यों के अनुसार भारत में वर्ण का विभाजन चार की संख्या – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र में किया गया है| अमेरिका में सामाजिक व्यवस्था में वर्ण विभाजन श्वेत और अश्वेत में किया जाता है| अश्वेत में काले वर्ण एवं अन्य अ – श्वेत (Non – White) में आ जाते हैं, हालाँकि इसके समर्थन में कोई साहित्य या शास्त्र नहीं है| ऐसी ही सोच आज भी कुछ यूरोपियनों में गैर यूरोपियनों एवं गैर अमरीकी के प्रति भी है, जो सामंतवादी (Feudalism) एवं साम्राज्यवादी (Imperialism) मानसिकता के अवशेष का परिचायक है| इन समाजों में इसे अब सामाजिक आदर्श के रूप में कोई महत्त्व या समर्थन नहीं है| लेकिन भारत में यह व्यवस्था अर्थात यह सामंती व्यवस्था अपने आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक स्वरुप में यानि आवरण में आज भी मौजूद है| इसे भारत में आज भी सामाजिक मान्यता प्राप्त है और यह हमारे लिए गौरवशाली भी है| यही सामंती मानसिकता भारत के तीव्र विकास को बाधित किए हुए हैं|

भारत में इन वर्णों के निर्धारित क्रिया कलाप स्पष्ट रूप में वर्णित किए हुए हैं| ब्राह्मण देव या देवपुत्र माने जाते थे और इसीलिए सर्व ज्ञानी माने जाते रहे| यह शब्द प्राचीन भारत के पालि एवं प्राकृत के बम्हन या बाभन से बना है, जो प्राचीन भारत में ज्ञानी व्यक्ति के लिए पदनाम होता था और यह वंशानुगत नहीं था| इन्होंने अध्ययन एवं चिंतन का कार्य अपने जिम्मे रखा| यह ब्राह्मण शब्द पूर्व के बम्हन से मिलता जुलता शब्द सामंतवाद के समय में सबसे पहले आया और “र” का संयुक्ताक्षर के साथ बना| “र” का संयुक्ताक्षर पालि एवं प्राकृत में नहीं होता है| इसी पालि एवं प्राकृत को संस्कारित कर “संस्कृत” बनाया गया”| इस काल के पहले संस्कृत के अस्तित्व का कोई अधिकृत स्पष्ट पुरातात्विक ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है| क्षत्रिय शब्द क्षेत्रिय से बना, जो बड़े सामंतो के स्थानीय (क्षेत्रिय या क्षेत्रीय) राजस्व संग्रहणकर्ता तथा व्यवस्थापक थे| कालांतर में ब्राह्मण इनको राजा की उपाधि राजतिलक कर (तिलकोत्सव) करते थे, तब वे देवता के अंश से युक्त हो पाते थे| मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा करना इसी प्रक्रिया का हिस्सा है| इन्हें वर्ण व्यवस्था में दूसरा  स्थान दिया गया| सामंतवाद में तीसरा स्थान वैश्य को दिया गया जो व्यापार (उत्पादन कर्ता नहीं) करते थे| इन्हें वणिक भी कहा गया और वणिको की संख्या नगण्य थी, परन्तु महत्वपूर्ण थी| ये वणिक व्यापार करते थे और इसीलिए सामंतों के प्रत्यक्ष नियंत्रण से बाहर ही थे, ये कही भी जा सकते थे, कहीं भी बस सकते थे| ये सामंतों को ऋण भी देते थे और हथियारों सहित अन्य आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति भी करते थे| ये उत्पादक अर्थात शिल्पी नहीं होते थे| अंतिम वर्ण शूद्रों की है जो अन्य उपरी तीन वर्णों की सेवा करते थे यानि व्यक्तिगत सेवा देते थे| इन शूद्रों को आप इन सामंतों के व्यक्तिगत सेवक मान सकते हैं, जिन्हें अब के वर्तमान व्यवस्था में खोजना संभव नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इन शूद्रों की उपयोगिता वर्तमान काल में कतिपय कारणों से नहीं रह गयो थी। इन शुद्रो के कार्य की प्रकृति के गन्दगी से सम्बन्ध के आधार पर कुछेक शूद्रों को अछूत भी माना गया, हालांकि इनकी संख्या या नाम की कोई स्पष्ट एवं तार्किक संतोषप्रद व्याख्या नहीं मिलती है| संभवत: बाद में आवश्यकता के अनुसार शूद्रों की सूचि विस्तृत की जाती रही| समय के साथ साथ सामंतवादियों और इनके विरुद्ध आन्दोलनकारियों की आवश्यकता के अनुरूप शुद्रो की परिभाषा एवं अवधारणा को बदलता जाता रहा है| पर शूद्र व्यक्तिगत सेवक थे जिनका अस्तित्व अब नहीं है, परन्तु अब भी सामंती सोच वाले लोग इसी श्रेणी में अवर्णों और जनजातियों को शामिल करने को बेकरार हैं। इसे समझना होगा।

तो क्या भारतीय सामाजिक व्यवस्था में इन चार वर्णों के अतिरिक्त भी कोई अन्य वर्ण है? एक बार पटना के एक बुद्धिजीवी डॉ सुनील राय ने बताया, जिनकी शैक्षणिक योग्यता पशु चिकित्सक की है, कि पशुओं या गायों के ज्ञात एवं प्रचलित वर्गीकरण के अलावे एक अन्य अलग वर्ग होता | इसमें वैसा वर्ग आता है  जो किसी अन्य वर्गीकृत वर्ग में नहीं आता, उन्हें अन्य (Others) वर्ग कहा जाता है| ऐसा ही वर्गीकरण के कई सन्दर्भ हैं, जिसमे अन्य श्रेणी में बड़ी संख्या होने के बावजूद इसे वर्गीकरण के वर्ग से बाहर रखा गया है| भारतीय सामाजिक व्यवस्था में भी ऐसी ही व्यवस्था है, जिसमे एक बड़ा वर्ग अवर्गीकृत (अवर्ण) श्रेणी में छोड़ दिया गया है| इसमें वे लोग आते हैं जो ब्राह्मण नहीं हैं, जो क्षत्रिय नहीं है, जो वणिक नहीं हैं, और जो शुद्र भी नहीं हैं अर्थात किसी की भी व्यक्तिगत सेवा में नहीं थे| ऐसे लोग अवर्ण की श्रेणी में आते हैं|

इस अवर्ण श्रेणी में वे लोग है जो सामंती व्यवस्था की अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण तो थे, परन्तु इनका अस्तित्व सामंतवाद के पहले भी था, सामंतवाद के समय में था, और सामंतवाद के बाद भी रहेगा| ये वर्ण सदैव महत्वपूर्ण रहें, क्योंकि ये ही उत्पादक होने के कारण आधार थे। इनकी भूमिका एवं सामाजिक प्रस्थिति में सामंतवादी ढांचा में कोई परिवर्तन नहीं आया और इसी कारण शास्त्र रचियताओं ने इनको वर्ण के लिए रेखांकित नहीं किया, अर्थात इस पर ध्यान ही नहीं दिया| ये अवर्ण के लोग उत्पादक थे और इसीलिए राज्य, समाज एवं अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण थे| समाज के विकास एवं रूपांतरण के लिए उत्पादन (Production), वितरण (Distribution) एवं विनिमय (Exchange) की शक्तियाँ एवं उनके अंतर सम्बन्ध (Forces and its interrelations) प्रभावित एवं निर्धारित करते हैं| सामंती काल में वितरण एवं विनिमय महत्वपूर्ण तथा सर्व व्यापक नहीं रह गया था| इस वितरण एवं विनिमय को वणिक वर्ग यानि वैश्य देखते थे| उत्पादक वर्ग खाद्य उत्पादक एवं अन्य श्रम उत्पादक थे| ये उत्पादक समूह या समाज अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण तो थे, परन्तु अपने प्रकृति एवं स्वरुप में अपरिवर्तित थे| ये उत्पादन में व्यस्त रहे और सत्ता से परम्परागत रूप में निरपेक्ष यानि तटस्थ रहते आये| प्राचीन काल में चूँकि जाति व्यवस्था नहीं थी, इसीलिए कोई भी व्यक्ति या परिवार अपनी आवश्यकता एवं सहुलिअत के अनुसार उत्पादक बनता था यानि उत्पादन के कार्यों में लगता था| भारत से सम्बंधित प्राचीन विदेशी साहित्य (इसलिए कि विदेशी साहित्य सामंतवादियों के द्वारा नष्ट होने एवं विकृत होने से बचे हुए थे) में पेशेगत समूह की चर्चा ही है, जातिगत समूह की चर्चा नहीं है|

सामान्यत: वर्तमान की मध्यवर्ती जातियां ही अवर्ण थे और वर्ण के वर्गीकरण से बाहर थे| ये उत्पादक समूह या समाज अनाज एवं सब्जियों का उत्पादन करते थे, दूध एवं दूध के विभिन्न उत्पादों को तैयार करते थे| ये अवर्ण तेलहन, दलहन, रेशा (पटुआ, एवं कपास), ईख, पेय (ताड़ी या नीर), तम्बाकू, फूल, फल, औषधि इत्यादि के उत्पादनकर्ता थे| इसी तरह मिठाई बनाने वाले, शराब बनाने वाले, तेल पेरने वाले, पान के उत्पादक, मिट्टी एवं धातु के बर्तन एवं अन्य वस्तुएं बनाने वाले, कृषि उपकरण एवं हथियार बनाने वाले अवर्ण उत्पादक थे| ये सभी समूह या समाज किसी व्यक्ति के सेवक नहीं थे, अपितु समाज एवं राज्य के सेवक थे| ये अवर्ण लोग उसी तरह के सेवा प्रदाता थे जैसे ब्राह्मण धार्मिक सेवा देकर, क्षत्रिय सुरक्षा की सेवा देकर, वैश्य व्यावसायिक सेवा देकर समाज एवं राज्य की सेवा करते थे| इस तरह व्यक्तिगत सेवाओं के सीमित दायरों के अतिरिक्त राज्य एवं समाज को सेवा देने का आधार विस्तृत था और इसमें काफी समूह शामिल थे| कई सेवाएँ तो सामयिक एवं बहुत छोटे अवधि की होती थी (जैसे बाजा बजाना, या नाचना) और मुख्य पेशा अन्य उत्पादन होता था; मानों उत्पादन ही प्रमुख रहा है जिसमे निरंतरता रहती थी| उत्पादन ही पूर्णकालिक व्यस्तता रहती थी| ये सभी वर्ग या सामाजिक समूह वर्ण व्यवस्था से बाहर के अवर्णीकृत वर्ण हैं यानि अवर्ण हैं जो न तो ब्राह्मण हैं, जो न तो क्षत्रिय हैं, न तो वैश्य हैं, और न ही शुद्र हैं|

यह अवधारणा आपको असमानतावादी व्यवस्था से सांस्कृतिक आधार पर अलग होने में सहायता करता है। इस तरह आप अपने सामाजिक समूह को सामंतवादी धार्मिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था से बाहर निकाल सकते हैं। मैंने एक सूत्र मात्र दिया है जिस पर काम करने की आवश्यकता है।

इन उत्पादक जातियों को सेवक की श्रेणी में लाने और शुद्र वर्ण में समाहित किए जाने का कतिपय विरोध किया जाने लगा है| यह दावा एवं प्रतिदावा कितना सही है या कितना गलत है; मुझे नहीं पता है| इसीलिए मैंने शुरु में ही आपको भी इस विमर्श में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया है| मुझे यह भी नहीं पता है कि यह अवर्ण की अवधारणा कैसे वर्तमान सामंती ढांचा, जो आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक आवरण में छुपा हुआ है, ध्वस्त करने में सहायक होगा? अर्थात यह अवधारणा भारत के विकास में कैसे सहायक होगा, इस सम्बन्ध में मुझे कोई विचार नहीं आया है| पर यह है तो तर्क आधारित नयी धारणा जिसके लिए मैं डॉ सुनील राय का आभारी हूँ जिन्होंने इसका प्रथम संकेत दिया था| आप भी इस पर विचार करें और इसे यदि उपयोगी बनाया जा सकता है, तो इसे समाज एवं राष्ट्र हित में उपयोगी एवं सार्थक बनाएं|

सादर|

निरंजन सिन्हा

व्यवस्था विश्लेषक, बौद्धिक उत्प्रेरक एवं चिन्तक|


4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत शानदार व्याख्या किये हैं सर। भारतीय वर्ण व्यवस्था इस सवर्ण एवं अवर्ण कांसेप्ट से भी ज्यादा पीड़ादायी एवं नफरत संजोए हुये है।
    बहुत बढ़िया जड़ को हिलाये हैं सर धन्यवाद।

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  2. ऐसे लेखक की कमी थी ।जो वास्तविकता को अपनी लेखनी से धरातल पर ले आए। आप को योगदान सराहनीय है और आगे की पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शन का काम करेगा

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  3. फिर शुद्र जातियां कौन?

    वर्णागत व्यवस्था में ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य वर्ग को जीवकोपार्जन वाली वस्तुओं का सेवा कौन करेगा?

    लेखक को इन सब वर्गो का भी खुलासा करना चाहिए।

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