गुरुवार, 8 जुलाई 2021

परिवर्तन का रथ कहाँ रुका है?

हमलोग परिवर्तन चाहते हैं, परन्तु सवाल यह है कि परिवर्तन का रथ क्यों रुका हुआ है और कहाँ रुका हुआ है? कौन सा परिवर्तन? हमलोग यहाँ सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिवर्तन की बात कर रहे हैं| आप इसे ऐसे कह सकते हैं कि परिवर्तन में सभी परिवर्तन के स्वरुप समाहित है। इस परिवर्तन में स्थायी और ‘अग्र दिशा में बढ़ते’ (Forwarding) परिवर्तन भी समाहित है, जिसे रूपांतरण (Transformation) भी कहते हैं|  हां, परिवर्तन का रथ स्त्रियों (Women) के पास रुका हुआ है| स्त्रियों ने ही परिवर्तन का रथ को रोक दिया है|

स्त्रियों ने क्यों परिवर्तन का रथ को रोक लिया है? उन्होंने रोक तो लिया है, यह सही है| परन्तु उन्हें यह पता ही नहीं है, कि उन्होंने किसी परिवर्तन के रथ को रोक दिया है| सामान्य स्त्रियों के बहुमत को तो यह भी पता नहीं, कि परिवर्तन एवं रूपांतरण क्या है और क्यों जरुरी है? मैं यह बात वैश्विक स्तर पर कह रहा हूँ, अत: कोई विशेष समूह इसे अन्यथा नहीं लें| और यदि उन्हें (स्त्रियों को) यह पता है, कि परिवर्तन क्या है और क्यों जरुरी है, तो भी उन्हें यह पता नहीं है, कि उन्होंने किसी रथ को भी रोक रखा है, जो उन्हीं के  जीवन में ही एक सकारात्मक परिवर्तन करने वाला है? तो क्या सभी पुरुषों को यह पता है कि परिवर्तन का रथ क्यों रुका पडा है? शायद यदि सभी को पता ही रहता, तो मुझे इस आलेख को लिखने की जरुरत ही नहीं पड़ती|

स्त्री कौन है? एक स्त्री इंसान ही तो है| मानव के दो स्वरुप हैं स्त्री एवं पुरुष| दोनों ही एक दुसरे के पूरक| किसी एक के बिना दुसरे का अस्तित्व ही नहीं है| जीव वैज्ञानिकों के अनुसार स्त्रियाँ तो पुरुष के बिना भी स्त्रियों को जन/ पैदा कर (To give birth) सकती है| परन्तु एक पुरुष तो एक स्त्री के बिना अस्तित्व में आ ही नहीं सकता| ऐसा इसलिए है कि जनने का काम तो सिर्फ स्त्री ही कर सकती है, क्योंकि गर्भाशय (Womb) तो सिर्फ स्त्रियों में होती हैसीलिए ‘स्त्रियों’ को “गर्भाशय वाला मानव” (Womb Man) कहा जाता है| ‘पुरुष मानव’ को अंग्रेजी में ‘मैन’ (Man) कहा गया, तो “स्त्री मानव” को अंग्रेजी में “गर्भ (Womb) वाला मानव” (Womb +Man = Woman) कहा गया|

फिर एक स्त्री एवं एक पुरुष में क्या अन्तर है? एक स्त्री एवं एक पुरुष में तो मात्र पूरकता (Complementary) की आवश्यकताओं के अनुरूप उत्पन्न जननीय अंगों (Genital Organ) में ही अंतर होता है| एक स्त्री भी जब साधारण पुरुष मानव की ही तरह पैदा लेती है, तो यह परिवर्तन का रथ कैसे रोके रखती है? एक समाज शारीरिक बनावट एवं एक समान संस्कृति के होते हुए भी एक स्त्री परिवर्तन का रथ रोक लेती हैवास्तव में एक स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि एक स्त्री बना दी जाती है| फ़्रांसिसी लेखिका सिमोन द वउआर (Simone de Beauvoir) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक द सेकेंड सेक्स (The Second Sex) में यही भाव लिखी हैइसका हिन्दी अनुवाद "स्त्री उपेक्षिता" नाम से हुआ, जिसे प्रभा खेतान ने अनुदित किया है|  मैं इन दोनों को सादर नमन करता हूँ| सिमोन के द्वारा फ्रेंच में लिखी गई इस पुस्तक में इन्होंने स्त्री संबंधी धारणाओं और विमर्शों को गहरे तौर पर प्रभावित किया है। स्त्री अधिकारवादी विचारधारा वाली सिमोन की यह पुस्तक ‘नारी अस्तित्ववाद’ (Existentialist) को प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करती है। यह स्थापित करती है कि स्त्री जन्म नहीं लेती है, बल्कि जीवन में बढ़ने के साथ बनाई जाती है।

ऐसा इसलिए कहा जाता है, क्योंकि वर्तमान समाज में पुरुषों की मानसिकता स्त्रियों के प्रति समुचित यानि उपयुक्त नहीं हैजब स्त्रियों को ‘भोग्य वस्तु’ मान लिया जाता है, तब ही स्त्रियों पर संकट आता है| वस्तु’ (Object/ Material) मान लेने से ये भी वस्तुओं की श्रेणी में आ जाती है| फिर इसे बेचा – ख़रीदा जा सकता है, इसे दान (कन्यादान) में भी दिया जा सकता है, इसे जुएँ में दांव पर भी लगाया जा सकता है, या बड़े सामंतों को (सामंती काल में)  अपनी परम भक्ति साबित करने के लिए महँगी वस्तुओं की तरह उपहार स्वरुप भेंट भी किया जाता था, जैसा मध्य काल में दुनियां सहित भारत में भी खूब प्रचलित रहादरअसल ऐसी भावना सामंती काल में आई, या यदि यह पहले से ही थी, फिर भी इस काल में और ज्यादा मजबूत हुई| वस्तुओं की तरह ऐसी भावना आ जाने से स्त्रियों के प्रति पुरुषों का सोच, व्यवहार, प्रतिक्रिया एवं अपेक्षाएं बदल गयी| सामन्ती मानसिकता वाले समाज में स्त्रियों को वही करना पड़ता है, जिसे करने की अपेक्षा उनसे की जाती है|

स्त्रियों की शारीरिक बनावट ऐसी है, जो पुरुष के यानि एक दुसरे के पूरक हो| शारीरिक असमानता  असल में प्रकृति की क्रिया है, या प्रकृति को बचाए रखने की व्यवस्था है| इसी से प्रकृति की निरंतरता है| इसमें पुरुषो का कोई हाथ नहीं है। अतः शारीरिक असमानता को पुरुषो ओर नारी में सामाजिक असमानता करने का कारण बनाना व्यर्थ एवं मूर्खता हैं। किसी व्यक्ति का लिंग (Gender) एक जैवकीय निर्धारण की घटना है, जिसपर उस व्यक्ति का कोई नियंत्रण नहीं होता हैं। इस प्राकृतिक विभेद को “यौन विभेद” (Sex Discrimination) कहा गया है, और समाज द्वारा उत्पन्न विभेद को “लैंगिक विभेद” (Gender Discrimination) कहा गया है| इसलिएपुरुषो और नारियो में कोई सांस्कारिक भेद भाव नहीं करना चाहिए।

लेकिन वस्तु (Commodity, Item) समझने से इसे भी अन्य वस्तुओं की तरह सुरक्षित रखने, संरक्षित रखने, उपयोग करने या उपभोग करने, या अन्य आवश्यकताओं में प्रयुक्त किया जाने लगा| नजीता यह हुआ कि इनकी दुनिया घर की चाहरदीवारी तक सीमित कर दी गयी| इनके अतिरिक्त समय को व्यस्त करने के लिए अनेक व्रत, कर्मकांड, त्यौहार आदि का ईजाद भी कर दिया गया| आप देखेंगे कि ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जिनमे पुरुषों की सहभागिता नहीं के बराबर है| उनके लिए अलग मूल्य (Value) एवं प्रतिमान (Norm) स्थापित कर दिए गए| इनको सामान्य शिक्षा से भी वंचित कर दिया गया| इनको बाहरी गतिविधियों में शामिल होने से भी प्रतिबंधित कर दिया गया| इससे उनकी तर्क क्षमता, विश्लेषण क्षमता, मूल्याङ्कन क्षमता, और वैज्ञानिक मानसिकता पर्याप्त विकसित नहीं हो पायी|

लेकिन एक स्त्री अपने परिवार का धुरी (Axis) होती है। एक स्त्री को परिवार की दुनिया में सीमित कर दिया जाता है एक सीमित क्षेत्र में रहने के कारण एक स्त्री अपने ऐसे गुण एवं स्वभाव विकसित कर लेती है, कि एक पुरुष को अपने बच्चों एवं अन्य सदस्यों के बीच उस स्त्री की हर वो बात माननी ही पड़ती है, जो सभी संस्कारों एवं संस्कृति से जुडी बातें हैं। उन सभी में स्त्रियों की प्रभावशीलता हावी रहती है| उस ‘अन्यथा प्रभावशीलता’ को निष्प्रभावी करने में अपेक्षा से ज्यादा समय, संसाधन, उर्जा एवं धन लगाना पड़ता है| ऐसा स्वाभाव एक स्त्री में स्वाभाविक तौर पर होता है, या विकसित हो जाता है, ऐसी बात नहीं होती हैवस्तुत: वर्तमान समाज एवं संस्कृति ही उस स्त्री को गढ़ता (Carve out ) है, बनाता है  या ढालता (Cast into) है| उनके सोच को नियंत्रित, नियमित, निर्धारित, संरक्षित, एवं संयोजित कर ही ऐसा करना संभव होता है| इससे एक स्त्री अज्ञानता एवं संकुचित विचार से घिर जाती है| इससे ये यथास्थितिवादी हो जाती है, अर्थात परिवर्तन विरोधी हो जाती है| यह सब संस्कार एवं संस्कृति के नाम पर, यानि परंपरा के नाम पर किया जाता है|

इतना ही नहीं, इन स्त्रियों के लिए एक नया शब्द का ईजाद किया गया – आबरू| आबरू एक ऐसा शब्द बनाया गया, जिसके साथ सिर्फ एक ही शब्द का इस्तेमाल यानि प्रयोग किया जा सकता है| यह एकमात्र शब्द है - लूटनाया समानार्थी भावार्थ का कोई दूसरा शब्द|  अर्थात किसी की आबरू लुटती है या लुटने से बच जाती हैकिसी की आबरू बन गयी, या बिगड़ गयी, या बढ़ गयी, या सम्हल गयी; ऐसा नहीं होता है| यह सामंती मानसिकता वाले पुरुषों के सोच एवं साजिश का परिणाम है| इस तरह एक स्त्री के लिए उसके अस्तित्व से यानि उसके जीवन से अधिक महत्वपूर्ण आबरूको बना दिया गया| एक स्त्री कहीं भी घर से बाहर जाए, उसे अपने आबरू के प्रति सजग रहना है और उसे लुट जाने से बचाना ही उसका जीवन है| अन्यथा उसका सब कुछ यानि जीवन ही व्यर्थ हैइस तरह एक स्त्री के लिए शिक्षा या कार्य या स्वास्थ्य या जीविकोपार्जन या मनोरंजन या यात्रा से महत्वपूर्ण हो गया, उसका आबरू का बचा रहना|

सांस्कृतिक रूप से यौन की पवित्रता की जिम्मेवारी सिर्फ स्त्रियों को ही दी गयी| इस यौन की पवित्रता की सामाजिक जिम्मेदारी पुरुषों की नहीं है। ऐसे संस्कृति के समाज में स्त्रियों का दायरा घर की चाहरदिवारी तक सीमित हो गया, उसी तरह से जैसे एक लम्बे सजायाफ्ता कैदी जेल में सीमित हो जाता है| यहाँ एक कैदी का उदहारण भी गलत है, क्योंकि वह अपने उम्र एवं विचारो के परिपक्व होने पर ही जेल जाता है| परन्तु एक स्त्री को तो अपने जन्म से ही उस स्त्री के ‘निर्धारित ढांचे’ (Fixed Frame) में ढाल दिया जाता है और उसी ढाँचे में बढ़ने दिया जाता है|

इन सबका समेकित परिणाम यह होता है, कि बहुसंख्यक महिलाओं में ऐसे संस्कार (Sacraments, Ordination, Impression) उनके अचेतन (Un conscious), अवचेतन (Sub conscious), चेतन (Conscious एवं अधिचेतन (Super conscious) में समाहित हो जाते हैं| इनके व्यवहार, इनकी सोच, इनकी बोली, इनके कार्य आदि इन्ही अन्तर्निहित (Implied) चेतना से संचालित, निर्धारित, नियमित, नियंत्रित एवं प्रभावित होने लगते हैं| इन पर इन स्त्रियों का नियंत्रण नहीं होता है, अपितु ये स्त्रियाँ ही इन संस्कारों के नियंत्रण में होते हैं| समाज का पुरुष वर्ग अपनी इस तथाकथित विद्वता एवं अपनी तथाकथित आधुनिक विचारों की अभिव्यक्ति का परिवार के बाहर तो खूब उपयोग करता है, परन्तु जब वह अपने परिवार में इसका उपयोग करता है, तो वह उन नए विचारों को जीवन में उतरने में अपने को असमर्थ पाता है| एक आधुनिक विचार का पुरुष सब कुछ सोच सकता है, परन्तु अपने संस्कार को परिवार में बदल कर नए संस्कार नहीं पा सकता है| वह पुरुष अपने परंपरागत संस्कारों में जड़ (Fix) होता है| मैं यह बात सामान्यकृत परिवार की कर रहा हूँकुछ अपने को अपवाद में मान लें|

आप देखते होंगे कि इस समाज को, इस संस्कृति को, इस व्यवस्था को, इस यथास्थितिवादी मानसिकता को बदलने के दावा करने वाले बहुत से तथाकथित क्रांतिकारी संगठन हैं| इन संगठनों का ढांचा देखिए, इनकी बैठकों को देखिए; इसमें पुरुषों की संख्या महत्तम होगी एवं स्त्रियों की संख्या नगण्य| इन क्रांतिकारी विचारों को जब जमीन पर उतारने की बात होगी, और यदि ये संस्कारों से सम्बन्धित होगी, तो यह पारिवारिक स्तर पर ही ध्वस्त (Collapse) हो जाती है, या ध्वस्त हो जाएगी

‘परिवर्तन का रथ’ यही रुक जायेगा या यह कहिये कि ‘परिवर्तन रथ’ का शानदार पहिया वही कीचड़ में ऐसा धंस जायेगा, कि किसी से निकल ही नहीं पायेगा| स्त्रियाँ वही करेगी, जो उसे जीवन भर में सिखाया गया है, जिसमे जीवन भर ढाला गया है| हम एक परिपक्व व्यक्ति के मानसिकता को यानि संस्कारों को आसानी से नहीं बदल सकते| इन संस्कारों की मनोवैज्ञानिक जड़ें बहुत गहरी होती हैं, क्योंकि इन जड़ों का पोषण जन्म के साथ ही शुरू हो जाता है|

किसी भी समाज या संस्कृति में विकास (Development) के लिए परिवर्तन (Change) का होना जरुरी होता है| निश्चित है कि यह परिवर्तन सकारात्मक (Positive) एवं रचनात्मक (Constructive) दिशा में होना है| नकारात्मक (Negative) दिशा में परिवर्तन को ही विध्वंस (Destruction) कहा जाता है| लेकिन परिवर्तन ही विकास का आधार है| यह परिवर्तन ही वृद्धि (Growth) को भी आधार देता है| वृद्धि सामान्यत: एक देशीय (Uni Directional) सकारात्मक परिवर्तन है, जो सामान्यत: अंकगणितीय आधार (Arithmetical Basis) पर मापा जाता है| जबकि विकास स्पष्टतया बहु देशीय (Multi Directional) समेकित परिवर्तन (Integrated Change) है, जिसे साधारण अंकगणितीय आधार पर निर्धारित नहीं किया जा सकता है| इसे मापने में कई विशिष्ट एवं बहुआयामी (Multi Dimentional) अवधारणाओं (Concepts) का उपयोग किया जाता है| स्पष्ट है कि परिवर्तन के बिना विकास नहीं हो सकता|

क्या कोई ऐसा व्यक्ति या समाज भी है, जो परिवर्तन नहीं चाहता है? इसका स्पष्ट उत्तर हाँभी है और नाभी है| यह उस समाज के सन्दर्भ पर निर्भर करता है| कुछ व्यक्ति स्वयं में परिवर्तन तो चाहता है, परन्तु विस्तृत समाज में परिवर्तन नहीं चाहता है| कुछ व्यक्ति विस्तृत समाज में तो परिवर्तन नहीं चाहता है, परन्तु अपने तथाकथित समाज में ही परिवर्तन चाहता है| ऐसे ही व्यक्ति या समाज सामंतवादी होते हैं

सामंतवादी वे होते हैं, जो वंशानुगत आधार पर असमानता को यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं| वास्तव में “समानता का अन्त” यदि वंशानुगत आधार पर है, तो यही “सामंतवाद” है| इनको अपना स्वार्थ तो दीखता है, सम्पूर्ण समाज का हित नहीं दीखताये स्वार्थी लोग वैश्विक समाज की गतिविधियों की समझ की उपेक्षा करते हैं| इनको वैश्विक हलचलों का सही अनुमान नहीं होता है, वे इसे समझना ही नहीं चाहते है| ये सिर्फ साथ रहने वाले दुसरे समाज को पीछे करने में व्यस्त होते हैं| इस तरह ये विकास के तथाकथित सुखद भ्रम में जीते होते हैं| इन सामन्तवादियों को तो लगता है कि ये लोग अपने ही देश में अपने ही देश के सामने वाले को बुरी तरह से पछाड़ रहे हैं| इनको यह पता नहीं है कि इनकी नाव रूपी देश या समाज को ही किसी दुसरे संस्कृति के लोगों ने अपहृत (हाईजैक) कर लिया हैं| ये लोग दृश्य घटनाओं को तो आंखों से देख पाते हैं, पर अदृश्य घटनाओं की कोई समझ इनको नहीं होती| इसी कारण यह सम्पूर्ण समाज या सम्पूर्ण संस्कृति वैश्विक स्तर पर दुसरे के शिकार हो रहे हैं| ये लोग पूरे समाज की सांस्कृतिक हितों की उपेक्षा करते होते हैं|

इसका अर्थ यह हुआ कि समाज का बहुसंख्यक आबादी विकास चाहता हैं, और इसके लिए आवश्यक परिवर्तन के पक्ष में होता हैं| तो भी परिवर्तन का रथ अपेक्षित गति से बढ़ता हुआ नहीं होता है, या कहीं रुका हुआ होता है, या कहीं धँसा हुआ होता है| यह रथ कहाँ और किन परिस्थितियों में रुका हुआ है? इसके लिए हमें यथास्थितिवादी शक्तियों एवं कारको को समझना होगा| इसके लिए हमें स्त्रियों के प्रति किए जा रहे संस्कारों एवं व्यवहारों का अवलोकन, विश्लेषण, मूल्याङ्कन, एवं उसका मनन- मंथन करना होगा और उसे इस सन्दर्भ में व्यवस्थित करना होगा| इसके बिना विकास की बात बेमानी हैयथास्थितिवाद को बनाये रखने में संस्कृति की भूमिका ही महत्वपूर्ण होती है| संस्कृति सदियों तक यथास्थितिवाद बनाये रहती है और ऐसी क्षमता दुसरे किसी कारक में नहीं होती है| इसी संस्कृति एवं संस्कार को स्त्रियों के सन्दर्भ में समझना और विमर्श करना जरुरी है|

हमें नैतिकता को सकारात्मक दृष्टिकोण से, वैज्ञानिक दृष्टिकोण में, विकासवादी पृष्ठभूमि में और मानवतावादी सन्दर्भ में समझना होगा| इसे नए ‘पैरेडाइम शिफ्ट’ से भी देखने की कोशिश होनी चाहिएतथाकथित नैतिकता के मूल्य एवं प्रतिमान को फिर से परिभाषित किया जाना ही  चाहिए। सामंती मानसिकता को सभी विकसित समाज छोड़ चुके हैं, हमें भी इस मानसिकता को त्यागना होगा| इन स्त्रियों की संभाव्यता, क्षमता, उत्पादकता, एवं प्रभावशीलता को समझना होगा| इनके अनेक ऐसे गुण एवं विशेषता हैं, जिनकी संभाव्यता, क्षमता एवं उपयोगिता की पहचान बाकी है| इस दिशा में हमें अपनी सोच को ले जाने पर बहुत कुछ और स्पष्ट होने लगेगा|

मानव विज्ञान (Anthropology) में हम सरल (Simple) एवं साधारण  Ordinary) समाजों का अध्ययन करते हैं| मानव विज्ञान में हम लम्बे समय में उन समाजों में उत्पन्न सहज स्वाभाविक प्रवृतियों (Instinct) को जानते एवं समझते हैं, ताकि आधुनिक समाजों की कई समस्याओं के समाधान में इसका सदुपयोग किया जा सके| ऐसे ही सरल समाजों में महिलाओं की भूमिका अध्ययन योग्य है, जैसे केरल का नायर”, तमिलनाडु का टोडा”, मेघालय का खासीआदि जनजातीय| इससे महिलाओं की सरल एवं सहज प्रवृतियों को समझ कर आधुनिक युग में संस्कार एवं संस्कृति के सन्दर्भ में भूमिका समझी जा सकती हैइससे हम परिवर्तन रथ के रुके पहिये में स्त्रियों की भूमिका को समझ कर इन बाधाओं को दूर कर सकते हैं| यह विकास को अपेक्षित गति देने के लिए अनिवार्य होगा|

(यह एक विमर्श की शुरुआत है, जिसमे आपकी सक्रिय भागीदारी से उपयुक्त सुझाव मिलेगा, कमेन्ट बाक्स में इन्तजार रहेगा|)

निरंजन सिन्हा

चिन्तकबौद्धिक उत्प्रेरक एवं लेखक।

 

 

14 टिप्‍पणियां:

  1. मनोवृतियों को झकझोर करता हुआ...
    एक और शानदार लेख...
    ऐसे ही परिवर्तन पथों को रोशन करते रहे सर,,,🙏🙏

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  2. बहुत सुन्दर लेख, महोदय महिलाएं बहुत ही परिवर्तनशील होती है,राजनीति से लेकर समाज और कार्यालयों आदि तक।अब परिवर्तन बहुत प्रकार के हो गए यथा सामाजिक परिवर्तन,राजनैतिक परिवर्तन,स्व में परिवर्तन,अपने बदले हुए रुप व स्वभाव में परिवर्तन के साथ साथ घर परिवार चलाने में समय समाज के साथ आचरण परिवर्तन।बहुधा देखनके में आया है कि स्त्रियां जिस समाज व परिवेश में जाती है खुद को परिवर्तित कर लेती है यथा कोई महिला किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति से शादी कर स्वम् को उस समाज के अनुरूप परिवर्तित कर लेती है। हमारे समाज में महिलाओं को शिक्षा अवश्य देते हैं पर उनको परिवार,समाज, राजनीति आदि क्षेत्र में निर्णयों को प्रोत्साहित नहीं करते अपितु बोलते हैं खाना बनाना सीख जीवन भर ये करना है, परिवार चलना है जब उनके चारो तरफ के परिवेश को युवा होने से पहले ही भारी बना दिया जाता है ,उन पर आवश्यक बोझ डाल दिया जाता है यहां तक के उनके कुछ अंग भी छिदवा दिए जाते हैं तो वो फिर शनै-शनै राजनीति,समाज आदि क्षेत्र से स्वम् को जुदा कर लेती है ,आवश्यकता है उनको उच्च शिक्षा के साथ स्वछंद वातावरण देने की पर ये भी नहीं दे सकते कारण आप साफ जानते हैं।हम सब रात 12 बजे बेटे को रेलवे स्टेशन,अस्पताल आदि जगह को भेज देंगे पर महिलाओं को नहीं कारण परिवेश ही हमने ऐसा गणा है कि महिलाएं खुद को अबला महसूस करें। देखने को मिलता है समाज में पुरुष मानसिकता ही नहीं अपितु महिला भी महिला का मानसिक विरोध करती है। अब कौन सी कड़ी कौन सी जगह कमजोर है देखना होगा।स्त्रियां मानव को निःसंदेह जन्म देती है पर मानवता तो समाज व परिवेश जन्म देता है। सादर

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  3. Nice thought with perfect and excellent writtng .
    Appreciable

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  4. प्रणाम सर । आपका लेख हमेशा ही विचारणीय होता है। यह लेख भी हमें विचार करने की प्रेरणा दे रहा है। निश्चित रुप से स्त्रियां ही सामाजिक परिवर्तन की आधार है। वंश भी उन्हीं के द्वारा बढ़ता है पर यह उनका दुर्भाग्य है कि समाज आज भी उनको वह सम्मान नहीं मिल पाया है जिनकी वे हकदार हैं। पुरुषों को पैदा करने वाली स्त्री एक दिन पुरूष की ही हवस की शिकार बन जाती है। आंखिर क्यों? आबरु का ख्याल केवल लड़कियों को ही रखने को कहा जाता है लड़कों को क्यों नहीं ?
    आपने इस लेख के माध्यम से निश्चित रूप से एक विमर्श की शुरुआत किए हैं।
    हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।

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  5. The blog is excellent, I liked the thought that u pen down all ur life events what u saw, a women goes through, finding herself tied to the society.

    I personally liked few lines from the blog:
    *स्त्री मानव को अंग्रेजी में वोम्ब (Womb) वाला मानव (Womb +Man = Woman) कहा गया*
    This shows women preserves society as well as the culture.


    *स्त्री जन्म नहीं लेती है, बल्कि जीवन में बढ़ने के साथ बनाई जाती है* -
    It emphasises that women are forced to live a life what others want.


    *इनको बाहरी गतिविधियों में शामिल होने से प्रतिबंधित कर दिया गया| इससे उनकी तर्क क्षमता, विश्लेषण क्षमता, वैज्ञानिक मानसिकता पर्याप्त विकसित नहीं हो पाता है* | - It tells us we are the reason for not letting their intellect to rise.


    *लेकिन एक स्त्री अपने परिवार का धुरी (Axis) होती है* - Even if they are confined to boundaries, they still act as pivot, around which whole family revolves.



    *एक स्त्री कहीं भी घर से बाहर जाए, उसे अपने आबरू के प्रति सजग रहना है और उसे लुट जाने से बचाना ही उसका जीवन है* - She always has to remind herself that she has to act accordingly & in the limits of societal rule which is laid down by others.


    *वृद्धि सामान्यत: एक देशीय (Uni Directional),जबकि विकास स्पष्टतया बहु देशीय (Multi Directional) समेकित परिवर्तन (Integrated Change) है* - Every parameter is accounted for development.

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  6. आपके इस आलेख ने इसे एक विस्तृत, पुस्तकाकार रूप में पढ़ने का लोभ पैदा कर दिया मन मे...

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  7. अत्यंत विचारोत्तेजक लेख है। इसे फेमिनिस्ट नहीं कहा जा सकता, बल्कि यह दुनियां की लगभग आधी आबादी से संबंधित सारे आयामों को छूता है।
    आश्चर्य है कि विकसित या विकासशील सभी समाजों में स्त्रियों के बारे में पुरुषों के दृष्टिकोण में कम ही अंतर मिलता है। इंग्लैड एक ही साथ विकसित और स्त्रियों या अन्य सामाजिक मामलों में इतना रूढ़िगत है कि आश्चर्य होता है। फिर निम्न सेक्स रेसियो के कारण कुंवारों की उच्च संख्या के बावजूद हरियाणा के समाज में स्त्रियों की अच्छी स्थिति न होना स्पेक्ट्रम का दूसरा छोर है।
    गांधी जी में तमाम कमियों के बावजूद मैं उनका बहुत बड़ा प्रशंसक हूं क्योंकि नारी शक्ति को सर्वप्रथम उन्होंने पहचाना और स्वीकार किया कि अंग्रेजो के खिलाफ़ लड़ाई तब तक अधूरी है जब तक आधी आबादी घर के अंदर है। हिंदी का महत्त्व भी उन्होंने ही पहचाना। पहले के स्वतंत्रता सेनानी तो शहरों में अंग्रेज़ी में भाषण देते थे और अंग्रेज़ी में प्रतिवेदन तैयार कर स्थानीय लाट साहब को प्रस्तुत करते थे।
    संयोग से हिंदी भी स्त्रीलिंग ही है-मातृ शक्ति।

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  8. देश और दुनिया की आधी आबादी अर्थात महिलाओं की वास्तविक मुक्ति के लक्ष्य को ध्यान में रखकर लिखा गया एक उत्कृष्ट आलेख।
    भारत सहित तीसरी दुनिया के तमाम सारे अविकसित और विकासशील देशों की सबसे बड़ी समस्या यही है कि उनकी आधी आबादी आज भी सदियों पुरानी रूढ़ियों, परंपराओं तथा अतार्किक मान्यताओं के दलदल में फंसी हुई है, और इस प्रकार इन देशों और संपूर्ण मानव समाज के परिवर्तन का रथ रुका हुआ है,या फिर बहुत ही धीमी गति से आगे बढ़ रहा है।

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  9. बहुत ही सारगर्भित लेख और निरपेक्ष विश्लेषण।इस लेख के संदेशों को हम सभी पुरुषों को अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में उतारना होगा।
    ऐसा करना प्रथमदृष्टया में असम्भव जरूर लगता है , परन्तु कठिन नहीं है। बेटीयों को शिक्षित किया जाय , उनके अंदर समुचित स्वतंत्र सोच विकसित करने का मौका दिया जाय तो कोई शक की गुंजाइश नहीं रह जाती है कि वे पुरुषों से किसी मामले में कम होगी।

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  10. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  11. बहुत शानदार एवं सारगर्भित लेख लिखे हैं सर

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