भारतीय
समाज में “शुद्र” शब्द का अर्थ, भाव, मिथक, कहानी एवं इतिहास की एक अलग दास्ताँ है|
अनेको विद्वानों ने इस विषय पर अनेकों ग्रन्थ एवं किताबें लिखी है| अब तो इसके
समर्थन में यानि इसको व्यापक बनाने के लिए विधिवत एवं व्यापक पैमाने पर आन्दोलन ही
चलायें जा रहे हैं| इन शुद्र समर्थक आन्दोलनों में तो व्यापक तौर पर भारत के ऐतिहासिक
व्यक्तित्वों का भी क्षुद्रिकरण किया जा रहा है यानि इन्हें निम्नतर बताया जा रहा
है| इन महान व्यक्तित्वों के तथाकथित क्षुद्र व्यक्तित्व के समर्थन में सामंतीकाल में ही
कहानियाँ गढ़नी शुरू कर दिया गया था, जिसे फिर से तेज किया जा रहा है|
आपको
क्षुद्रिकरण, और शुद्र के स्थान पर क्षुद्र शब्द से आपत्ति हो सकता है| ऐसा इसलिए हो
रहा है, कि आपकी स्थापित एवं वर्षों से अर्जित ज्ञान को धक्का लग रहा है| सामान्यत:
सभी लोग वही सुनना एवं जानना चाहते हैं, जो वे अब तक जान पायें हैं| यह सामान्य मानवीय
मनोवैज्ञानिक स्वभाव है| लेकिन आप कुछ नया एवं क्रांतिकारी करना चाहते हैं, तो
आपके सोच एवं अवधारणा को नया आधार एवं दृष्टिकोण देना होगा| आपके सोच में पैरेडाईम
शिफ्ट करना होगा| इसीलिए महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने एक बार “पागलपन” की
परिभाषा दिया – “प्रत्येक दिन एक ही तरह का काम करना और परिणाम नया खोजना|” मतलब
नया परिणाम पाने के लिए कुछ नए ढंग से सोचना या देखना होगा|
तो
चलिए, हमलोग शुद्र, क्षुद्र, शुद्रिकरण, एवं क्षुद्रिकरण की अवधारणा एवं प्रक्रिया
को समझें| यह विशिष्ट एवं अजूबा अवधारणा सिर्फ भारतीय समाज की है| इसका कोई दूसरा
उदहारण दुनियाँ के दुसरे क्षेत्रों में नहीं है| भारतीय बौद्धिक षड्यंत्रकारियों
ने तो विश्व जगत को भ्रमित करने के लिए भारतीय विशिष्ट व्यवस्था “जाति” का
अंग्रेजी अनुवाद एक पुतर्गाली शब्द के अनुरूप “Caste (कास्ट)” कर दिया| परिणाम यह
हुआ कि विश्व जगत भारतीय जातीय व्यवस्था की मूल प्रकृति एवं प्रक्रिया को ही नहीं
समझ पाए| इसी कारण इस अवधारणा में कोई पैरेडाईम शिफ्ट नहीं हुआ| बहुत से विशिष्ट
भारतीय शब्दों का आजतक अंग्रेजी अनुवाद नहीं किया जा सका| इसके उदहारण साडी, धोती,
योगी इत्यादि है| ऐसा इसलिए होता है, कि इसका कोई पश्चिमी संस्करण नहीं है| अत:
जाति की अंग्रेजी “Jati” ही रहनी चाहिए, ताकि बाहरी विद्वान जन भी इस विशिष्ट
व्यवस्था की प्रकृति एवं प्रक्रिया को सही ढंग से समझ सके| लेकिन इससे भारतीय समाज
का विकृत सामंती वर्तमान स्वरुप सामने आ जाता, जो सामंती वर्गों को पसंद नहीं था| अभी
तक शुद्र का अंग्रेजी नामकरण नहीं हुआ है, शायद इससे मिलता-जुलता कोई शब्द उन्हें
नहीं दिखा होगा|
उपरोक्त
दोनों शब्दों पर ध्यान दिया जाए| एक शब्द है – “क्षुद्र” यानि “Kshudra”, तो दूसरा शब्द – “शुद्र” यानि “Shudra” है| इन दोनों में अंतर मात्र रोमन
लिपि में लिखे शब्दों के प्रारम्भ “K” अक्षर का है, एक में यह अक्षर है एवं दुसरे
में नहीं है| क्षुद्र का अर्थ होता है – छोटा, तुच्छ, निम्न स्तरीय, नगण्य आदि| यह
एक विशेषण (Adjective) है, जो संज्ञा की विशेषता बताता है जैसे क्षुद्र ग्रह,
क्षुद्र भाव, क्षुद्र कृत्य आदि| शुद्र एक संज्ञा (Noun) है, जो एक सामाजिक वर्ग
का नाम है| यह वर्ण व्यवस्था का चौथा श्रेणी है, जिसे सबसे निम्नतम माना जाता है| यही
शब्द का खेल है, विवाद है, तमाशा है| मैं इसे रेखांकित कर यह बताना चाहता हूँ, कि
आप भी इस समानता और अंग्रेजी शासन में सूत्र खोजें| क्या यह सामन्तीकाल यानि मध्य
काल की उपज है और उसी समय से चला आ रहा है? भारत में सिर्फ चार वर्ण ही नहीं रहते थे|
इसके अलावे यानि इसके बाहर भी कई लोग थे| इनमें भारतीय परम्परागत सम्प्रदायों से
भिन्न कई संप्रदाय के लोग, बाहरी मूल संस्कृति के शासक वर्ग एवं परम्परागत भारतीय “अवर्ण”
शामिल थे|
परम्परागत
भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था में पाँच वर्ण थे| या आप कह सकते हैं कि इसमें चार
वर्ण एवं एक अवर्ण थे| चार वर्ण प्रत्यक्ष सामन्ती व्यवस्था के भाग थे- ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र अर्थात क्षुद्र| ब्राह्मण बुद्धिजीवी वर्ग था, जिसके
पास अध्ययन एवं अध्यापन का सर्वाधिकार सुरक्षित था| सामन्तकाल के पहले बुद्धिजीवी वर्ग
को “बम्हन” कहा जाता था, जो वंशानुगत नहीं होकर योग्यता आधारित होता था| सामन्तकाल
में यह शब्द ब्राह्मण हो गया और वंशानुगत होकर वर्ण एवं जाति बन गया| क्षत्रिय सामन्तकाल
की उत्पत्ति है, जो छोटे- बड़े शासक बने| सामन्तकाल के पहले ये शब्द खेतिय थे, जो
खेत शब्द का व्युत्पन्न है| बाद में ‘खेत’ ‘क्षेत्र’ में एवं ‘खेतिय’ ‘क्षेत्रिय’
में बदला| सामंती व्यवस्था का उदय क्यों हुआ? यह एक अलग विषय है, जिसे “उत्पादन” (Production),
“वितरण” (Distribution), एवं “विनिमय” (Exchange) की शक्तियों एवं उनके अंतरसंबंधों
के आधार पर व्याख्यापित किया जाता है| तीसरा वर्ण – वैश्य वितरण एवं विनिमय तक
सीमित थे और इसी कारण इनकी संख्या सामन्तकाल में नगण्य थी| चूँकि इनका कार्य
क्षेत्र अंतर प्रांतीय एवं अंतर देशीय था, और इसी कारण ये उपरोक्त वर्णित सामंतों
के नियंत्रणाधीन नहीं थे| चौथा वर्ण –शुद्र था, जो उपरोक्त दोनों सामंती वर्गों के
व्यक्तिगत सेवक थे| उपरोक्त दोनों सामंती वर्गों से तात्पर्य बौद्धिक सामन्त एवं शक्ति
सामन्त से है|
मैंने
एक “अवर्ण” की चर्चा की है| इसमें मुख्यत: वे भारतीय विशाल समुदाय आते थे, जो
उत्पादक (Producer) समुदाय रहे| ये अवर्ण वस्तुओं (Commodity) एवं सेवाओं (Services)
के उत्पादक थे, चाहे ये अर्थव्यवस्था के प्राथमिक सेक्टर (Primary Sector) में हों
या अर्थव्यवस्था के द्वितीयक सेक्टर (Secondary Sector) के हों| ये सामन्त काल के
पूर्व भी थे, सामन्त काल में भी थे , और इस काल के बाद भी रहेंगे| अंतर इतना ही
पड़ा, कि सामंत काल के पूर्व वंशानुगत की शास्त्रीय बाध्यता नहीं थी, जो सामन्त काल
में शास्त्रों में निर्धारित किये जाने लगे| इन अवर्णों को शासकीय व्यवस्था या
शासकों के बदलाव से कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता था, और इसी कारण दोनों वर्ग –
उत्पादक वर्ग एवं शासक वर्ग एक दुसरे के प्रति उपेक्षित (Neutral) भाव रखते थे|
भारत में कहावत भी है – कोई नृप (राजा) हो,
हमें क्या मतलब| अब इन वर्गों (अवर्ण) का भी शुद्रिकरण यानि क्षुद्रिकरण के अभियान
विभिन्न नामों से तेजी से उभरता जा रहा है| सामन्तवाद के अंत एवं पूँजीवाद तथा
अन्य वाद के उदय के साथ व्यक्तिगत सेवकों के वंशानुगत अवधारणा अप्रसांगिक हो गया है|
व्यक्तिगत सेवक के स्थान पर मजदुर एवं अन्य सेवा प्रदाता आ गए| शायद अब इन
वंशानुगत सेवकों को वंशानुगत आधार पर खोजना संभव नहीं है| पर अब भी जो अपने को वंशानुगत
सेवक रहने की अभी भी घोषणा कर रहे रहे है, वे ऐसा करने के लिए स्वतंत्र हैं|
शूद्रों के व्यक्तिगत सेवक होने के कारण ही इन्हें क्षुद्र माना जाता रहा| इसी
कारण इसी के अनुरूप इनके कृत्य एवं अधिकार निर्धारित किए गए थे| यह अलग बात है कि,
अब इसी शुद्र अवधारणा में अवर्णों को शामिल करने की व्यापक अभियान चलाया जा रहा है|
हद तो यह है कि ये तथाकथित शुद्र यानि क्षुद्र अपने को शुद्र यानि क्षुद्र घोषित
करने के आन्दोलन भी चला रहे हैं| इसे विस्तार से आगे समझेगें|
मेरा
मानना है कि इन वर्णों में उपरी तौर पर व्यापक परिवर्तन हो चुका है, पर बहुत कुछ
मौलिकता अभी भी बनी हुई है| इसे समझना है| बौद्धिक वर्ग में बहुत से बुद्धिजीवी वर्ग
आ गए हैं, जो वंशानुगत नहीं हैं| बुद्धिजीवी वर्ग सामन्तकाल में बौद्धिकता को एक
धार्मिक एवं सांस्कृतिक आवरण दे दिया, जो अब एक संस्कृति के रूप में दीखता है| इस
संस्कृति को पुरातन, सनातन, ऐतिहासिक, गौरवमयी बनाने एवं बताने के लिए भी कई
कहानियां एवं शास्त्र रच डाले गए| इसके तथाकथित काल को भी बहुत पीछे यानि भारत में
सभ्यता के प्रारम्भ काल काल तक ले जाया गया| इसी सांस्कृतिक आवरण में उनके ज्ञान की
परम्परा अभी भी निर्बाध स्थापित है| समाज के बहुसंख्यक में व्याप्त सामाजिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक पिछड़ापन एवं
असमानता के कारण भी शक्ति सामंतों की संरचना, प्रकृति एवं क्रियाविधि में कोई
विशेष परिवर्तन नहीं है| बौद्धिक सामंतों ने अपनी बौद्धिकता का भरपूर उपयोग किया,
और मनमाने ढंग से अपने हितों में नियम एवं विधान बनाएं| बाकि समाज को शिक्षा से
दूर रखा गया, इसी कारण शेष समाज की कोई प्रतिक्रिया उस काल में नहीं हुई| इन
नियमों एवं विधानों को सांस्कृतिक आवरण दे दिया गया|
तथाकथित
क्षुद्र यानि शुद्र का अब कोई अस्तित्व नहीं रह गया है, क्योंकि व्यक्तिगत सेवकों
की वंशानुगत पीढ़ी खोजना मैं मुश्किल समझता हूँ| अत: अब क्षुद्र यानि शुद्र की बात
बेकार है| इसका मतलब यह नहीं है कि सामाजिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक पिछड़ापन
समाप्त हो गया है| समाज में सामाजिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक पिछड़ापन होना और
किसी वर्ग का क्षुद्रिकरण यानि शुद्रिकरण करना अलग अलग विषय है| विश्व के हर समाज के
विशिष्ट वर्ग से सामाजिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक पिछड़ापन को दूर करने के उपाय
किए जा रहे हैं| परन्तु इन सामाजिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक पिछड़ापन का क्षुद्रिकरण
नहीं किया जा रहा है| इसे दुसरे शब्दों में, सांस्कृतिक आधार पर सदियों की
निर्योग्यताओं एवं पिछड़ेपन को दूर कर सामान अवसर देना कह सकते हैं|
अब
हमें इनमे भ्रम एवं साजिश को समझना है| इस क्षुद्र से शुद्र का होना भ्रम है या साजिश?
भ्रम में उद्देश्य निष्पक्ष होता है, जबकि साजिश में उद्देश्य स्वार्थी एवं गलत
होता है| भ्रम अनजाने में या अज्ञानतावश हो जाता है, जबकि साजिश पूरी योजना के साथ
एवं पूरी तैयारी तथा समर्पण के साथ किया जाता है| भ्रम में बुद्धिमता नहीं होता
है, जबकि साजिश बौद्धिक लोग ही कर सकते हैं| इसे भ्रम माना जाय या साजिश, इसके
प्रकृति, पृष्ठभूमि, क्रियाविधि एवं आवश्यकता को जानना एवं समझना होगा|
उपरोक्त
चारों – सांस्कृतिक, राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक भूमिकाओं एवं आधारों में
स्थायित्व के लिए शैक्षणिक आधार पर ध्यान देना आवश्यक हो गया| एक मानव एवं एक अन्य
स्तनपायी में शारीरिकी एवं चेतनता में कोई अंतर नहीं होता, सिवाय ज्ञान के| इसी ज्ञान
को पाना शिक्षा के द्वारा संभव होता है| अत: यही शिक्षा यानि ज्ञान मानव एवं अन्य
पशुओं में अंतर करता है| एक मानव में चेतनता के अतिरिक्त एक और गुण होता है जो
पशुओं में नहीं होता है – अपनी चेतानता यानि “चिंतन पर भी चिंतन करना”| एक पशु एवं
एक मानव में इसी ज्ञान का अंतर होता है| तत्कालीन समाज के बौद्धिक लोगों ने इसके
महत्त्व को समझते हुए शिक्षा को नियंत्रित एवं निर्देशित किया| तत्कालीन बौद्धिक
लोगों ने इस पर एकाधिकार स्थापित कर लिया|
सामंती व्यवस्था के राजनैतिक (शक्ति) एवं व्यावसायिक सामंतों को अक्षर ज्ञान एवं अंकगणितीय
ज्ञान तक ही सीमित रहने दिया| इन्होंने चिंतन एवं मनन – मंथन करने और उसे
व्यवस्थित – संगठित करने का एकाधिकार अपने पास ही रखा|
जिन
वर्गों को वंशानुगत लाभ में कमी यानि समाप्ति दिख रहा था, उनका बेचैन होना
स्वाभाविक है| व्यक्तिगत सेवक समाप्त हो गए या समाप्ति की ओर थे| किसी क्षेत्र का कोई
सामाजिक वर्ग वैश्विक सामाजिक रूपांतरण की शक्तियों को बदल नहीं सकता| वे
अर्थव्यवस्था की वैश्विक शक्तियों को रोक या स्थगित नहीं कर सकते थे| तब एक उपाय
यह था, कि “अवर्ण” का ही शुद्रिकरण यानि क्षुद्रिकरण किया जाना बेहतर विकल्प था| इससे
सामन्त द्वारा वर्ण व्यवस्था का लाभ निरंतर लिया जा सकता था| अवर्णों को शामिल करने
से वर्ण व्यवस्था को व्यापक एवं विस्तृत किया जा सकता है| इसी कारण कालांतर में “क्षुद्र”
यानि “शुद्र” को व्यापक एवं विस्तृत करने के लिए इसे बदलने की आवश्यकता हुई| शुद्र
व्यक्तिगत सेवक थे| अत: इनकी संख्या न्यून थी| लेकिन शुद्र को व्यापक बनाने की
आवश्यकता हुई| इसने “धूर्तता” (Cunning/ Rascaldom) की मांग की और इसके लिए साजिश
किए गए| तब इसे “विशेषण” से “संज्ञा” बना दिया| क्षुद्र सामंतवाद की पूर्वकालिक अवस्था
की माँग रही, तो शुद्र सामंतवाद की उत्तरकालिक अवस्था की आवश्यकता रही| इसमें
अवर्णों को शामिल करने की आवश्यकता व्यक्तिगत सेवको की समाप्ति के कारण हुई|
शिक्षा
पर एकाधिकार ने हर साजिश को सुगमता एवं सहजता से सफलता दिलाई| इसके पक्ष में तथाकथित
शास्त्रीय ग्रन्थ रचे गए| इन शास्त्रीय प्रावधानों को संस्कारों में, रीति- रिवाजो
में, कर्मकांडों में स्थापित कर दिया गया|
इसी के द्वारा तथाकथित “स्वर्ग” का स्वर्णिम स्वप्न एवं “नरक” का असहनीय दण्ड
निर्धारित एवं स्थापित कर दिया गया| इसके लिए कर्म का सिद्धांत एवं पुनर्जन्म का
सिद्धांत को स्थापित किया गया या मजबूत किया गया| इसी के लिए ‘आत्मा’ अवधारणा को पुनर्व्यख्यापित
किया गया| इस तरह किसी भी संभावित विरोध या प्रतिरोध की ‘सम्भावना की सम्भावना’ को
ही समाप्त कर दिया गया|
अब
आप एक स्थापित अवधारणा को एक अलग दृष्टिकोण से और अलग सन्दर्भ में समझने के लिए
तैयार हो गए होंगे| मैंने Out of Box देखने का प्रयास किया है| भारत को वैश्विक
पहचान बनाने के लिए सभी नागरिकों को सशक्त, क्षमतावान एवं प्रभावशाली संसाधन में
बदलना होगा| इसके लिए इसके समाधान को इसके सांस्कृतिक आधार में खोजना होगा| देशी
एवं विदेशी विद्वान, चाहे जो कारण हो, सभी उपाय पर विमर्श करेंगे, परन्तु मुलभुत
एवं आवश्यक आधार – सांस्कृतिक आधार पर विमर्श को छोड़ देंगे| इसी कारण भारत एक
स्वर्णिम अतीत के होते हुए भी उसे अभी तक पुन: प्राप्त नहीं कर सका है|
आप
भी इस दृष्टिकोण से और इस सन्दर्भ के आधार पर विचार करें| भारत की विकास की समस्या
इसके सभी नागरिको के पूर्ण संभाव्य क्षमता के उपयोग में है| यह इसके संस्कृति के विकृति
के निराकरण में है| मैंने एक व्यावहारिक विकल्प दिया है, अब आपको विमर्श आगे बढ़ाना
है|
(आपके
बहुमूल्य सुझाव, निदेश या टिपण्णी का इसी ब्लाग पर इन्तजार रहेगा|)
निरंजन
सिन्हा
चिन्तक,
व्यवस्था विश्लेषक, एवं बौद्धिक उत्प्ररक|
Very nice and analytical description. Totally different and rare approach. Congratulations!
जवाब देंहटाएं....close to the truth...ripe to time to exposing the malafide intentions of the so-called Brahmanical technology of the Indian social order... kudos... carrying on the speed...
जवाब देंहटाएंHirendra
जवाब देंहटाएंहमारा ओबीसी समाज ये मानने को ही तैयार नही है कि ब्राह्मणौ ने उन्हें बड़ी चतुराई से वर्ण व्यवस्था की चौथी श्रेणी शुद्रो मे स्थापित कर दिया है। आपने बहुत अच्छे तरीके से अपनी बात समझाई है। आपका लेखन बहुत स्पष्ट है।
जवाब देंहटाएंRight Rekha ji
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