मुक्ति पाने के
प्रयास में हम सब करते कुछ हैं, और पाते कुछ और ही है| ऐसा क्यों और कैसे होता है?
इसी को समझने के लिए ही यह आलेख है|
क्या
हमें गरीबी से ही मुक्ति चाहिए, या अमीरी यानि समृद्धि या
समृद्ध
जीवन की स्वतंत्रता ही चाहिए?
क्या
हमें किसी बीमारी से ही मुक्ति चाहिए, या हमें स्वस्थ्य रहने की स्वतंत्रता चाहिए?
क्या
हमें सिर्फ अशिक्षा से यानि मुर्खता से ही मुक्ति चाहिए, या
गुणवत्तापूर्ण
उच्च स्तरीय शिक्षा भी चाहिए,यानि बुद्धिमत्ता की स्वतंत्रता भी चाहिए?
क्या
हमें सिर्फ ब्राह्मणवाद से ही मुक्ति ही चाहिए, या हमें जीवन में
उस
मुक्ति से बहुत बहुत आगे की आधुनिकता एवं वैज्ञानिकता
की स्वतंत्रता भी पाना चाहिए?
तो सवाल बहुत ही अहम् है|
तब हमें अपने जीवन में कोई वृहत एवं व्यापक लक्ष्य ही रखना चाहिए, जिसमे उपरोक्त
वर्णित उदाहरण सहित अन्य तुच्छ एवं नकारात्मक बाधाओं को पार कर लेना स्वत: शामिल
हो जायगा| अर्थात हमारा दृष्टिकोण, हमारा लक्ष्य विस्तृत
एवं व्यापक होना चाहिए, किसी नकारात्मकता के भाव पर यानि किसी ऐसे सन्दर्भ पर केन्द्रित
नहीं होना चाहिए| अभी हमें इसी उदाहरण को लेकर मुक्ति को और उसके
क्रियाविधि के प्रभाव को ही समझना है, उसके बाद ही हमें किसी सांस्कृतिक या
सामाजिक “वाद” (ism) या, किसी राजनीतिक दर्शन या “वाद’ से मुक्ति पाने के अर्थ को
समझना चाहिए| हमें जिससे भी मुक्ति पाना होना चाहिए, सबसे पहले उस अवधारणा को
सम्यक रूप से समझना चाहिए, अर्थात उस लक्षित अवधारणा को वैज्ञानिक, तार्किक,
वस्तुनिष्ठ एवं विवेकपूर्ण ढंग से समझना चाहिए, और तब ही उस पर आगे बढ़ने की सोच
रखनी चाहिए| दरअसल हम जिस भी बाधा को पार करना चाहते हैं, उस बाधा का ही
आलोचनात्मक विश्लेषण और मूल्याङ्कन के विमर्श के लिए कोई समय ही नहीं देते हैं| हम
बाद में, यानि इसी आलेख के अंत में “मुक्ति” (Liberty) के व्यापक अर्थ को समझेंगे,
और संवैधानिक आईने में भी देखेंगे|
हम यहाँ यह समझने बैठे
हैं कि हमें मुक्ति पाने का लक्ष्य रखना चाहिए, या नहीं? इस मुक्ति के लक्ष्य का
क्या अर्थ है, अर्थात इस मुक्ति की क्रियाविधि (Mechanism) के क्या क्या निहितार्थ
हैं और इसके प्रभाव की भी एक ‘आलोचनात्मक समीक्षा’ (Critical Examination) होनी
चाहिए| अब हम प्रथम उदाहरण वाक्य - क्या हमें गरीबी से मुक्ति ही चाहिए, या
अमीरी यानि समृद्धि या समृद्ध जीवन ही चाहिए?, का आलोचनात्मक विश्लेषण एवं
मूल्याङ्कन करते हैं| गरीबी से मुक्ति पाना एक
नकारात्मक वाक्य है, क्योंकि इसमें हमारा सारा ध्यान, सारा फोकस, और सारी उर्जा
गरीबी पर ही केन्द्रित रह जा रही है| ध्यान रहे कि, हम जिस चीज पर
भी अपने ध्यान केन्द्रित करते हैं, उस पर हम अपनी उर्जा प्रदान करते है, यानि हम
उसको उर्जा प्रवाहित करते हैं| और हम जिस भी चीज पर उर्जा देते हैं, वह चीज अपने
आकार में, अपने स्वरुप में, अपनी क्रिया में यानि अपनी गतिविधि में बढती जाती है,
यानि वह ज्यादा उर्जामय हो जाता है|
कहने का तात्पर्य यह है
कि इस तरह अपनी गरीबी को ही बढाते हैं, जो हमारा लक्ष्य ही नहीं है और हम अपने लक्ष्य
के ही विरुद्ध परिणाम पाने का क्रियाविधि में लिप्त हो जाते हैं| इसीलिए हमें अपनी अमीरी बढ़ाने के लिए, यानि हमें अपने
व्यक्तित्व के महत्तम विकास के लिए पूर्ण संसाधन संपन्न होना चाहिए और उसके लिए ही
प्रयासरत रहना चाहिए| अर्थात अमीरी का सार्थक
अर्थ हमें अपने व्यक्तित्व के महत्तम विकास के लिए पूर्ण संसाधन संपन्न होना चाहिए|
हमें अपनी सारी उर्जा, समय, ध्यान, संसाधन,
समर्पण एवं युक्ति अमीर बनने के लिए यानि साधन संपन्न होने के लिए ही होनी चाहिए,
किसी को मिटाने के लिए नहीं; वह तो अपने आप ही अस्तित्वहीन हो जायगा|
हमारी सम्पूर्ण योजना, विश्लेषण, मूल्याङ्कन एवं क्रियाविधि साधन संपन्न होने के
लिए यानि अमीरी पाने के लिए होनी चाहिए| यह अमीर होना सकारात्मक कदम है,
क्योंकि हम इसे पाने के लिए करते हैं| गरीबी से मुक्ति पाना एक नकारात्मक कदम
है, क्योंकि हम गरीबी से बचने का प्रयास करते हैं| यहाँ भी थोडा ठहर कर समझने की जरुरत है| ऐसी ही स्थिति बीमारी
एवं स्वास्थ्य के सन्दर्भ के लिए है, और ऐसी ही स्थिति अशिक्षा एवं बुद्धिमत्ता
के लिए भी है, और ऐसी ही स्थिति किसी भी “वाद” (ब्राह्मणवाद, साम्यवाद,
पूंजीवाद या कोई और भी ‘वाद’) से बचने के लिए या उससे भी बहुत आगे जाने के
सन्दर्भ में होना चाहिए|
उपरोक्त एक उदाहरण से यह स्पष्ट
हुआ कि आप जिससे मुक्ति पाना चाहते हैं, वही आपका अंतिम लक्ष्य भी हो जाता है|
अर्थात जब आपको उससे मुक्ति मिल जाती है और तब आपके लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है,
और फिर आप उससे संतुष्ट होकर निष्क्रिय भी हो जाते हैं| जबकि आपका वास्तविक लक्ष्य
उससे भी बहुत आगे जाना था या आगे जाना है| जब हमारा लक्ष्य ही उससे बहुत आगे जाना
है, यानि आधुनिक, वैज्ञानिक चिंतन वाला सुखी, समृद्धमय एवं ऐतिहासिक होना है, तो
हमें मुक्ति के लक्ष्य तक सीमित नहीं होकर, उससे आगे और उससे बहुत बड़ा लक्ष्य जीवन
का होना चाहिए| हमारा जो अंतिम लक्ष्य होता है,
हमारा जो एकमात्र लक्ष्य होता है, वह सदैव व्यापक, विस्तृत, कालजयी और मानवतावादी
होना चाहिए| अर्थात हमारा लक्ष्य सदैव व्यापक मानवता के लिए होना
चाहिए, मानव अस्तित्व के विकास के लिए होनी चाहिए| अर्थात हमारा लक्ष्य सदैव
व्यापक मानवता के सुख, शांति, समृद्धि एवं विकास के लिए होनी चाहिए, जो
निश्चितया न्याय, स्वतंत्रता, समता एवं
बंधुत्व पर आधारित रहेगा| अर्थात हमारा अंतिम लक्ष्य मानवता के लिए एक बेहतर
भविष्य के निर्माण एवं संरक्षण के लिए होना चाहिए, जिसमे अवश्य ही प्रक्रति के
विकास एवं संरक्षा समाहित होगा और एक बेहतर एवं सुन्दर भविष्य का दृष्टि अवश्य ही
सामने होगा| जब हमारा लक्ष्य एक बेहतर भविष्य है, तो हमारा पूरा समय, संसाधन,
उर्जा, उत्साह, समर्पण उसी के लिए होना चाहिए, किसी और तुच्छ और नकारात्मक लक्ष्य
या साध्य के लिए नहीं होना चाहिए| इसी को कहा जाता है कि कोई बड़ा लकीर ही खींच कर ही किसी दुसरे लकीर को बिना छुए और
बिना कुछ बोले ही छोटा कर दिया जाता है|
स्पष्ट है कि हमारा
लक्ष्य ही किसी नकारात्मक एवं तुच्छ के सापेक्ष ही नहीं होना चाहिए| हमारा कोई भी
सन्दर्भ बिंदु कोई भी नकारात्मक और तुच्छ नहीं होना चाहिए| जब हमारा कोई भी
लक्ष्य निर्धारित हो जाता है, स्पष्ट है कि हमें उसे पाना होता है, वह हमारा जीवन
लक्ष्य हो जाता है| तब निश्चितया ही हमारा लक्ष्य किसी नकारात्मक और किसी छोटी चीज
के सापेक्ष नहीं होना चाहिए| जब हमारा लक्ष्य तुच्छ और नकारात्मक नहीं होता है, तब
हम उनमे नहीं उलझते हैं| छोटा और नकारात्मक लक्ष्य उलझन पैदा कर हमारा सभी कुछ
सोख लेता है, और यह लक्ष्य अन्य उलझन के आलावा कुछ और पैदा भी नहीं कर पाता है|
इसीलिए कुछ योजनाकार तथाकथित बुद्धिमान लोगों के समक्ष तुच्छ एवं नकारात्मक लक्ष्य
रख कर खूब आनन्दित होते हैं| तब हम अपना पूरा समय, संसाधन, उर्जा, उत्साह,
समर्पण उसमे देते हैं, जो हमारा वास्तविक लक्ष्य ही नहीं होता है| बल्कि हम अपना पूरा
समय, संसाधन, उर्जा, उत्साह, समर्पण उसमे देते हैं, जो हमारा वास्तविक लक्ष्य ही
नहीं है, अर्थात हम जिससे मुक्त होना चाहते हैं और उसी में उलझे रहते हैं| वे नकारात्मक
एवं तुच्छ विचार वाले लोग जो जाल बिझाते हैं, उनका तो यही ही लक्ष्य होता है कि
उनके आलोचक उनके जाल में उलझ कर ही रह जाय, और आगे का कुछ भी नहीं सोच पाएँ|
वे चाहते हैं कि आपका अंतिम और एकमात्र जीवन लक्ष्य की अंतिम और उपरी सीमा ही उनकी
उलझन भरी जाल ही हो| अर्थात जब आपका लक्ष्य ही उस उलझन भरी जाल से ही मुक्ति पाना
है, उस जाल से ही बहार निकलना आपका अंतिम लक्ष्य है, तब आप उसी स्तर तक ही सोच
पाते हैं| आप ध्यान दें कि बड़े बड़े बौद्धिक भी
कहते हैं कि आप वही बनते हैं, जिस सोच पर आप ठहरे हुए होते हैं| यहो आधुनिक भौतिकी का क्वांटम सिद्धांत भी कहता है
कि आप जिस भी भौतिक पदार्थ का अवलोकन करना चाहते हैं, यानि जो भी चीज अपनी सोच में
रखते हैं, वही वास्तविकता में स्पष्ट अवलोकित होता है| तब हमें रुक कर सोचना होगा|
तब आप ठहर
कर सोच सकते हैं कि आप उन जाल निर्माताओं के उद्देश्य को सफल बना रहे हैं, या खुद
को सफल बना रहे हैं? यहाँ यह
महत्वपूर्ण नहीं है कि आप प्रत्यक्ष रूप से क्या चाहते हैं? यहाँ यह महत्वपूर्ण
नहीं है कि आप जिसकी आलोचना कर रहे हैं, यानि जिस नकारात्मक एवं तुच्छ सोच वाले का
विरोध कर रहे हैं, आप उसका कितना नुकसान कर पा रहे हैं, बल्कि यह महत्वपूर्ण है कि
आप अपने जीवन में क्या पा रहे हैं? आपके इस सोच का, आपके इस लक्ष्य का अंतिम
परिणाम क्या मिल रहा है?,इस पर भी विचार कीजिए| मतलब कि आप उनकी जाल में ही उलझ कर
अप्रत्यक्ष रूप से आप उन नकारात्मक एवं तुच्छ सोच वाले को ही विजयी बना रहे हैं, और आप वहीं तुच्छता एवं नकारात्मकता पर ही ठहरे हुए हैं|
आपको यह सब बड़ा ही अटपटा लग रहा होगा, लेकिन ठहर कर सोचिए, तो आपको समझ में आने
लगेगा|
जब मैंने बार बार
‘मुक्ति’ की नकारात्मक अवधारणा का जिक्र कर ही दिया है, तो इसे भी सम्यक ढंग से
समझ लेना चाहिए| सबसे पहला सवाल
यह उठता है कि हमें
मुक्ति (Liberty) चाहिए या स्वतंत्रता (Freedom) चाहिए? या दोनों ही एक साथ चाहिए? हालाँकि भारतीय संविधान
में दोनों का विशिष्ट एवं अलग अलग स्थानों में प्रयोग करने के बावजूद भी दोनों को
हिंदी में स्वतंत्रता के अर्थ में ही प्रयोग किया गया है| अंग्रेजी के प्रति में Preamble में ‘Liberty’ (मुक्ति) का
प्रयोग है, और हिंदी के प्रति में
उद्देशिका में ‘स्वतंत्रता’ का प्रयोग किया गया है, और दोनों भी
भाषा में यह अधिकृत है| हालाँकि संविधान के भाग चार में, यानि मूल अधिकार के भाग
में ‘Freedom’ यानि स्वतंत्रता की ही चर्चा है, मुक्ति (Liberty) की नहीं| तब हमें
मुक्ति और स्वतंत्रता, दोनों को ही अच्छी तरह समझ लेना चाहिए|
मुक्ति किसी पूर्व से
प्रचलित बंधन से मुक्त होना यानि आजाद होना होता है| अर्थात इसके लिए पूर्व के किसी
प्रचलित बंधन यानि पूर्व के किसी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक, या
अन्य कोई बंधन का शर्त अवश्य है, जिससे ही मुक्ति पाना है| इस मुक्ति के लिए किसी सन्दर्भ
या पृष्ठभूमि का होना चाहिए, और इसी पूर्व के बधन से स्वतंत्र हो जाना है, मुक्त
हो जाना है, आजाद हो जाना है| ऐसा लगता है कि स्वतंत्रता में पूर्व से किसी
बंधन का होना कोई विशिष्ट शर्त नहीं होता है| इस तरह स्वतंत्रता बिना किसी
सन्दर्भ या बिना किसी पृष्ठभूमि के ही स्वतंत्र रहने की अवस्था है| मतलब स्वतंत्रता एक निरपेक्ष अर्थ देता है, और मुक्ति एक
सापेक्ष अर्थ देता है|
इसे किसी उदाहरण से
स्पष्टतया समझा जा सकता है| कोई व्यक्ति किसी ख़ास बीमारी से मुक्ति पा सकता है, और
कोई व्यक्ति सभी बिमारियों या किसी ख़ास बीमारी से मुक्त यानि स्वतंत्र रह सकता है|
इस तरह मुक्ति पाना और मुक्त रहना, दोनों अलग अलग अवस्था है, और दोनों का क्रम भी
निश्चित है| कोई व्यक्ति गरीबी से मुक्ति पा सकता है, और कोई गरीबी से मुक्त रहता
है| स्पष्ट है कि गरीबी से मुक्त रहने का यही एक मात्र अर्थ नहीं हो सकता है कि वह
निश्चितया कभी गरीब ही रहा हो| हो सकता है कि वह पहले भी अमीर था और आज भी अमीर ही
है तथा उसे किसी गरीबी से मुक्ति की जरुरत ही नहीं पड़ी हो| अर्थात आज वह गरीबी से
स्वतंत्र है| अत: मुक्ति एक क्रिया है, जो एक बंधन से स्वतंत्र करता है| स्वतंत्र रहना उस मुक्ति के बाद की अवस्था है,
लेकिन किसी मुक्ति का शर्त हर हाल में अनिवार्य नहीं है| अब हम मुक्ति को समझ गये
हैं|
स्पष्ट है
हमें किसी से मुक्ति पाने का अंतिम लक्ष्य नहीं रखना है, बल्कि हमें स्वतंत्रता से
जीने का लक्ष्य रखना है| आपने भी पढा
होगा कि विख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने भी विकास की परिभाषा स्वतंत्रता के सन्दर्भ में
ही दिया है, जो वैश्विक संगठन – ‘संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम’ (UNDP) को
भी मान्य है| उनके अनुसार किसी को कोई भी कार्य करने
की स्वतंत्रता मिल जाय, यही विकास है| यही
उपगम (Approach) ही विकास का आधार है| तो आइए, हम भी विकसित बनें, अपने समाज को भी विकसित बनाए, और समस्त
मानवता को विकास का आधार दें| स्पष्ट है कि हमें किसी के विरोध को,
किसी की आलोचना को अपना अंतिम जीवन लक्ष्य नहीं बनाना है, बल्कि हमें अपना लक्ष्य
मानवता के महत्तम एवं सुरक्षित विकास में लगाना है| हमें इसी सन्दर्भ में
सोचना है और लक्ष्य भी निर्धारित करना है|
रुकिए, और बताइए, कि आपने क्या सोचा है? अब हम एक सकारात्मक, रचनात्मक एवं सृजनात्मक दुनिया
बनायेंगे, जो न्याय, स्वतंत्रता, समता (एवं समानता) एवं बंधुत्व पर आधारित होगा,
और विश्व के भविष्य में सम्पूर्ण मानवता के लिए स्थायी सुख, शांति, औए समृद्धि
स्थापित करेगा| सादर||
आचार्य
निरंजन सिन्हा
भारतीय
संस्कृति का ध्वजवाहक
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