रविवार, 24 मार्च 2024

‘धर्म’ कैसे एक ‘प्रचलित धर्म’ से अलग है?

ऐसा देखने में लगता है कि मैने शीर्षक में दो बार धर्म लिखकर कोई त्रुटि छोड़ दिया है, लेकिन यह त्रुटि नहीं है, बल्कि एक महत्वपूर्ण अवधारणा में संशोधन के लिए जानबूझ कर किया गया है| लेकिन आपको दोनों में ही प्रथम दृष्टया कोई फर्क नजर आ जाए, इसके लिए एक धर्म के साथ एक विशेषण – ‘प्रचलित’ लगा दिया है, और ‘प्रचलित धर्म’ लिख दिया है|मुझे "धर्म" के लिए "प्राकृतिक धर्म" लिखना चाहिए था, जो मैंने नहीं लिखा है। इसका यह अर्थ हुआ कि ‘धर्म’ शब्द का दो संरचनात्मक एवं अवधारणात्मक अर्थ होता है, अर्थात दोनों के एक ही ‘सतही अर्थ’ (Superficial Meaning) रहने के बावजूद दोनों के ‘निहित अर्थ’ (Implied Meaning) अलग अलग है| स्पष्ट है कि दोनों अर्थों में कोई घालमेल भी है, अन्यथा दोनों अलग अलग संरचना एवं अवधारणा के लिए भिन्न भिन्न शब्द संबोधित होते| या तो यह घालमेल जानबूझ कर किया गया हो सकता है, या ऐसा कोई चूक से हो गया लगता है, लेकिन चूक से इतनी बड़ी गलती होने की संभावना नहीं होनी चाहिए| अत: हमें इसका विश्लेषण (Analysis) एवं मूल्याङ्कन (Evaluation) आलोचनात्मक (Critically) ढंग से करना चाहिए|

तो प्रचलित हिंदी संस्कृत के ‘धर्म’ को ही अंग्रेजी में ‘Religion’ और अरबी फारसी में ‘मजहब’ कहा गया है| और इसी प्रचलित ‘धर्म’ को प्रसिद्ध चिन्तक एवं विचारक कार्ल मार्क्स ने एक नशा ‘अफीम’ से तुलना किया था| मार्क्स ने ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग एक नकारात्मकता के लिए किया था, जो नकारात्मक के लत (आदत) के सन्दर्भ में लिया गया है| हालाँकि यही बात अंग्रेजी के ‘Religion’ और  अरबी फारसी के ‘मजहब’ के लिए भी कहा जा सकता है, क्योंकि अंग्रेजी में ‘Religion’ किसी स्थानीय Region के बहाने सामाजिक व्यवस्था एवं नैतिक उन्नयन के लिए लोकाचार, नैतिकता, परम्परा, मूल्य, प्रतिमान आदि का समन्वित अवधारणा हो सकता है, और अरबी फारसी के ‘मजहब’ भी किसी स्थानीय मजलिश के बहाने सामाजिक व्यवस्था एवं नैतिक उन्नयन के लिए लोकाचार, नैतिकता, परम्परा, मूल्य, प्रतिमान आदि का समन्वित सन्देश हो सकता है| मैं यहाँ यह सपष्ट कर देना चाहता हूँ कि अंतिम दोनों - ‘Religion’ एवं ‘मजहब’ भारतीय भौगोलिक क्षेत्र की उत्पत्ति नहीं है, और इसीलिए इन दोनों पर मेरी जानकारी भी नहीं है| और चूँकि मैं भारतीय हूँ, तथा मुझे अन्य के बारे में नगण्य जानकारी ही है, इसीलिए  मुझे  भारतीय भौगोलिक क्षेत्र में उत्पन्न एवं विकसित ‘धर्म’ एवं ‘प्रचलित धर्म’ तक ही सीमित रहना चाहिए| वैसे भी भारतीय होने के नाते मुझे सर्व प्रथम भारतीय संस्कृति को समझना चाहिए, तभी ही मैं अपने प्राचीनतम, सनातन  एवं गौरवमयी भारतीय संस्कृति की वैश्विक स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए काम कर सकता हूँ|

तो मैं वापस भारत भूमि के ही ‘धर्म’ एवं ‘प्रचलित धर्म’ पर आता हूँ| आपने भी सुना होगा कि यह ‘राष्ट्र धर्म’ है, यह पिता धर्म है, यह स्त्री (Woman) का धर्म है, यह लोहा (Iron) का धर्म है, यह अग्नि (Fire) का धर्म है, यह पानी (Water) का धर्म है, आदि आदि| वैसे भी मानव के उत्तम गुणवत्ता (Virtue) को नीति- विज्ञान (Ethics) में धर्म कहा गया है। इसे थोडा और विस्तारित किए जाने की आवश्यकता है| ‘राष्ट्र धर्म’ में किसी व्यक्ति एवं किसी समाज/ समूह का अपने राष्ट्र के प्रति क्या क्या कर्तव्य और दायित्व है, या हो सकता है, आदि का अभिप्राय सपष्ट होता है| एक पिता का समाज के प्रति, परिवार के प्रति एवं संतान के प्रति क्या क्या कर्तव्य और दायित्व होता है, यह उसके ‘पिता धर्म’ से स्पष्ट होता है| इसी तरह एक स्त्री (पत्नी) का धर्म भी अपने समाज, अपने परिवार एवं यथास्थिति अपने पति या संतान के प्रति कार्य एवं दायित्व निर्धारित है, जिसे मनोयोग से करना उस स्त्री का धर्म हो जाता है| लोहा एक विशिष्ट धातु है, जो ठोस होता है, कडा होता है, विद्युत एवं ऊष्मा का सुचालक होता है, आदि,; यह लोहा का धर्म (Dharm) है, गुण (Property) है, स्वभाव (Tendency) है, व्यवहार (Behaviour) है, प्रकृति (Nature) है| इसी तरह अग्नि भी जलन की प्रक्रिया है, जिसमे प्रकाश निकलता है, धुआं भी निकल सकता है, ऊष्मा निकलती है और उसमे रासायनिक परिवर्तन हो जाता है; यह सब अग्नि का धर्म है, गुण है, स्वभाव है, व्यवहार है, प्रकृति है| इसी तरह पानी एक तरल (Liquid) पदार्थ है, जो अपने संधारित पात्र (Pot) का आकार (Shape) ले लेता है, पात्र में नहीं रखे जाने पर अपने ढलाव (Slope) की दिशा में बह जाता है, अपने उच्चतम तल (Level) को प्राप्त करने की चेष्टा करता है, अपने संपर्क में शीतलता प्रदान करता है; यह सब पानी का धर्म है, गुण है, स्वभाव है, व्यवहार है, प्रकृति है|

उपरोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट  होता है कि ‘धर्म’ से अभिप्राय किसी के कर्तव्य, दायित्व, गुण, स्वाभाव, व्यवहार और प्रकृति का बोध होता है| स्पष्ट है कि जब किसी जीव या निर्जीव वस्तु का एक निश्चित संरचना स्थिर होता है, अस्तित्व निश्चित एवं स्थिर होता है, तो उसका कर्तव्य, दायित्व, गुण, स्वाभाव, व्यवहार और प्रकृति स्थिर भी ही होगा| और यही कर्तव्य, दायित्व, गुण, स्वाभाव, व्यवहार और प्रकृति ही उसका ‘धर्म’ है| अर्थात जबतक कोई जीव या निर्जीव वस्तु सनातन अवस्था में रहेगा, अर्थात अपनी स्वाभाविक निरंतरता यानि स्थिरता में रहेगा, तबतक उसका ‘धर्म’ भी निरंतरता में रहेगा, उसका धर्म सनातन रहेगा| मुझे यहाँ यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि जब कोई जीव एक मानव (Human) है, तब उसका कर्तव्य, दायित्व, गुण, स्वाभाव, व्यवहार और प्रकृति भी एक स्थिरता में ही रहेगा, निरंतरता में ही रहेगा| जब यही उस जीव का, यानि उस मानव का ‘धर्म’ है, तो सभी मानव का कर्तव्य, दायित्व, गुण, स्वाभाव, व्यवहार और प्रकृति भी एक होगा, यानि सभी मानव का ‘धर्म’ भी एक ही होगा| तब यह धर्म सभी काल में और सभी क्षेत्र में सामान परिस्थितियों में एक ही होगा; इसमें विविधता हो ही नहीं सकता है| और फिर भी यदि कोई धर्म में विविधता दिखाता है, बताता है, समझता है और समझाने की कोशिश करता है, तो स्पष्ट है कि उसकी मंशा में कोई स्पष्ट छुपाव है| यदि उसकी मंशा में कोई छुपाव नहीं है, तो वह नादान है, क्योंकि मैं उन्हें कोई अन्य नकारात्मक संज्ञा देना नहीं चाहता|

तो  प्रचलित  धर्म  क्या है, और उपरोक्त वर्णित सर्वकालिक एवं सर्व व्याप्त ‘धर्म’ से यह अलग कैसे है? इसका यह स्पष्ट अर्थ हुआ कि ‘प्रचलित धर्म’ के लिए कोई दूसरा शब्द उपयुक्त है, जिसे प्रचालन (Circulation) में नहीं लाया गया, या अनजाने में लोगों को भ्रमित होने के लिए छोड़ दिया गया| जब हम ‘धर्म’ को समझ लिए हैं कि ‘धर्म एक कर्तव्य है, दायित्व है, गुण है, स्वाभाव है, व्यवहार है और प्रकृति है, और इस मायने में किसी जीव विशेष या वस्तु विशेष के लिए एक ही होगा, यह विविध स्वरूप में हो ही नहीं सकता। इसीलिए यह धर्म सनातन है, स्थिर है, निश्चित है, सर्वव्यापी है, सर्वकालिक है, एवं इस स्वरुप में एक ही है, तो ‘प्रचलित धर्म’ की भी विशिष्टता को देख लिया जाय, समझ लिया जाय|

एक ‘प्रचलित धर्म’ को सम्प्रदाय कहना चाहिए, पंथ कहना चाहिए। एक ‘प्रचलित धर्म’ में निश्चित्तया न्यूनतम एक ईश्वर होगा, या उसका दूत होगा, या उसका सन्देश होगा| चूँकि ईश्वर का कोई स्पष्ट प्रयोजन होता है, और स्पष्ट प्रयोजन में वैश्विक या ब्रह्मांडीय व्यवस्था का सञ्चालन, नियमन एवं नियंत्रण करना भी अवश्य होता है, इसीलिए उसे मानव के कर्मों का हिसाब किताब भी रखना होता है| इन कर्मों के लिए पुरस्कार एवं दंड की भी व्यवस्था होती है| इसी पुरस्कार एवं दंड के लिए ‘स्वर्ग’ एवं ‘नरक’ की भी अवधारणा होती है, भले ही इसके लिए प्रचलित विभिन्न धर्मों के लिए शब्द एवं विवरण भिन्न भिन्न हो| जब ईश्वर को मानव के कर्म का हिसाब किताब रखना है और उसके अनुसार उसका हिसाब होना है, तो निश्चितया ईश्वर व्यक्तियों के लिए यानि व्यक्तियों के समूह के लिए किसी निश्चित आधार पर कर्तव्य निर्धारित किए होंगे|गीता के अनुसार जाति एवं वर्ण ईश्वरीय व्यवस्था है। इस सुनिश्चित कर्म को नहीं किए जाने के लिए दंड का प्रावधान होगा, जो साधारणतया अगले जन्म में दिया जाता है, अर्थात ‘प्रचलित धर्म’ में ईश्वर के आलावा ‘कर्म का सिद्धांत’ होता है, स्वर्ग एवं नरक होता है, पुनर्जन्म होता है, और पुनर्जन्म के लिए “आत्मा’ (Soul) भी होता है| आपको ‘प्रचलित धर्म’ में ‘आत्म’ (Self) और ‘आत्मा (Soul) में भ्रमित कर दिया जायगा| आप Self, Soul, Spirit, Mind एवं चेतना (Consciousness) को एक दुसरे का पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त पाएंगे, और इसी के पीछे सारा खेल खेल दिया जाता है| इतना तमाशा ‘धर्म’ में नहीं है, जो ‘प्रचलित धर्म’से भिन्न है| ‘प्रचलित धर्म’ के लिए ‘धर्म’ का उपयोग करने से यह मानव के लिए कर्तव्य हो जाता है, दायित्व हो जाता है, गुण हो जाता है, स्वाभाव हो जाता है, व्यवहार हो जाता है और प्रकृति बन जाता है, या ईश्वरीय घोषणा हो जाता है, तो इन धर्मों के कर्ताओं का काम सरल, सहज और स्वाभाविक हो जाता है|

प्रचलित धर्म’ के लिए कोई दूसरा उपयुक्त शब्द का प्रयोग किया जा सकता है, जैसे पंथ, सम्प्रदाय या कोई अन्य शब्द| इस पर आप भी अपनी सोच उतार सकते हैं| इसलिए प्रचलित धर्म अपने कई विभिन्न स्वरूपं अर्थात नामों में मौजूद हैं, और इसके अनुयायी एक दुसरे को गलत मानते हुए एक दुसरे के विरोधी भी हो गये हैं, या रहते हैं| जब हम वर्तमान सभी प्रचलित धर्मों का इतिहास के काल में, यानि ऐतिहासिक सन्दर्भ में आलोचनात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन करते हैं, तो हम पाते हैं कि सभी धर्मों का वर्तमान स्वरुप अपने मामूली संशोधनों के साथ मध्यकाल में उदय हुआ| हम जानते हैं कि इतिहासकारों ने प्राचीन काल का समापन सामन्तवाद के उदय के साथ किया है| कहने का तात्पर्य यह है कि सभी प्रचलित धर्मों का मौलिक स्वभाव अपने इस वर्तमान स्वरुप में सामन्तवादी शक्तियों के अनुरूप सामन्त काल में, यानि मध्य काल में विकसित हुआ है|

इसको एक भारतीय उदाहरण से समझें| भारत में बुद्धों का उदय कोई ढाई हजार साल पहले समाप्त हो गया था, और गोतम बुद्ध अंतिम 28वें बुद्ध हुए थे| इस बुद्धों के दर्शन एवं विज्ञान का अंतिम संपादन एवं संवर्धन गोतम बुद्ध ने कोई ढाई हजार साल पहले किया था| लेकिन बुद्ध के धर्म यानि “बौद्ध” धर्म का वर्तमान स्वरुप मध्य काल में आया और उसी समकालिक शक्तियों के अनुरूप संशोधित होकर अनुकूलित हो गया, ढल गया| ध्यान रहे कि बुद्ध ने किसी भी धर्म की स्थापना नहीं किया था| इसी तरह मध्य युग के पहले के सभी वैश्विक महान सामाजिक सांस्कृतिक विभूतियों ने अपने क्षेत्र एवं समाज के अनुकूल जो भी नैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक उन्नयन एवं विकास के लिए जो संहिता (Code) बनाई, सभी को मध्य काल में, थोडा कम या थोडा ज्यादा, संशोधित किया गया, सम्पादित किया गया और संवर्धित किया गया| कहने का तात्पर्य यह है कि मानव के मूल धर्म, यानि प्राकृतिक धर्म के लिए अवधारित की गई शब्द "धर्म" (पालि में धम्म) के नाम को ही स्थिर रख कर सम्प्रदाय यानि पंथ की विशेषताओं को उसमें समाहित कर एवं स्थापित कर 'धर्म' की ही अवधारणा को बदल दिया गया। इस पर रुक कर ध्यान दिया जाए। हालांकि मूल मानवीय ‘धर्म’ को अपने भौगिलिक क्षेत्र, पूर्व से प्रचलित संस्कृति, एवं प्रचलित ऐतिहासिक तथा मिथकीय गाथाओं के अनुरूप संशोधित, सम्पादित, संवर्धित करके सहज, सरल एवं सुगम्य बनाकर नए स्वरूप में प्रस्तुत किया था|

उस समय वैश्विक भौगोलिक बाधाएं थीं, भौगोलिक अलगाव था, लेकिन अब विश्व डिजीटल तकनीक के कारण एक “वैश्विक गाँव” (Global Village) हो गया है| कहने का तात्पर्य यह है कि बदलती हुई और एकीकृत होती हुई दुनिया में अब ‘धर्म’ के मूल स्वाभाव को जानने एवं समझने की अनिवार्यता है, और उसके अनुरूप समीक्षा कर अपेक्षित संशोधन, संपादन एवं संवर्धन की अपेक्षा है| चूँकि आप भी एक सजग बौद्धिक हैं, इसीलिए आप भी इस वैश्विक गाँव को सुखमय, शांतिमय, समृद्धमय, और विकासशील बनाना चाहेंगे, और इसीलिए आप भी अपने विचार को इस दिशा में मोड़ना चाहेंगे|

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक  

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