क्या
शिक्षित होना भी एक गुनाह है?, तो मेरा यह
प्रश्न बेहद ही अटपटा और बेहूदा लग सकता है| तो क्या
शिक्षित होना भी किसी समय, क्षेत्र, स्थिति, पृष्ठभूमि या सन्दर्भ के सापेक्ष सही या गलत, यानि समुचित या अनुचित भी होता है, या हो सकता है? यदि शिक्षित
होना एक सापेक्षिक (Relative) शब्द, या अवधारणा, या संरचना है, तो मेरा यह प्रश्न
महत्वपूर्ण होने के साथ साथ अवलोकनीय अवश्य ही है, साथ ही यह
आलोचनात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन करने योग्य भी है| मैं ट्रेन से नई दिल्ली
से पटना आ रहा था, सुबह हो चुकी थी, इसलिए सहयात्रियों से वार्ता का दौर भी शुरू
हो चुका था| कई तरह की बातें हो रही थी| एक सहयात्री ने कहा कि ‘शिक्षा’ धर्म को ही नष्ट कर देता है| हालाँकि
मैंने तत्काल ही पूछ लिया कि ‘क्या कोई धर्म इतना कमजोर होता है कि किसी की
शिक्षा से ही वह नष्ट हो जाता है, या हो सकता है?’मैंने तो एक वाजिव सवाल खड़ा
तो कर दिया, फिर भी मैं एक गहन चिंतन में डूब गया कि “क्या शिक्षित होना भी एक
गुनाह है?
जब कोई सवाल खड़ा
कर देता है, या सवाल खड़ा हो ही जाता है, और आप उसका उत्तर खोजने लगते हैं, तो आपका मन
कई दिशाओं में तैरने लगता है| जब कोई किसी प्रश्न के उत्तर जानने के लिए ‘ठहर’ (ठिठक जाना)
जाता है, तो वह उसकी ‘गहराइयों’ (Depth) में, काफी ‘गहनता’ (Intensity) से उतर जाता है|
तब आप उन चीजों को भी जानने समझने लगते हैं, जिस पर सामान्य और असावधान व्यक्ति का
ध्यान ही नहीं जाता है, भले ही वह बड़ा पद धारी हो, धन धारी हो, या डिग्री धारी हो|
जब आप किसी भी विषय के किसी ‘बिंदु’ पर यानि सूक्ष्मतम भाग पर ठहर जाते
हैं, यानि केन्द्रित कर जाते हैं, तो आपका “आत्म” (Self)‘ अनन्त प्रज्ञा’ (Infinite
Intelligence) से “आभास” (Intuition) यानि 'अंतर्ज्ञान' पाने लगता है, जिसे शायद
आपसे पहले कोई नहीं जान रहा था| मेरी भी यही स्थिति हो गयी थी| इसका परिणाम आज
आपके सामने इस प्रस्तुति में है|
एक
शिक्षित व्यक्ति क्या कर सकता है कि किसी स्थापित ‘पुरातन’, ‘सशक्त’ और ‘सनातन’
धर्म को भी खतरा हो जाता है? ध्यान रहे कि
यहाँ ‘पुरातन’, ‘सशक्त’ एवं ‘सनातन’ एक विशेषण है, कोई संज्ञा सूचक शब्द नहीं है| एक शिक्षित
व्यक्ति सवाल ही खड़ा कर सकता है| एक शिक्षित व्यक्ति का सवाल बड़ा ही विस्फोटक (Explosive)
और घातक (Lethal) भी होता है, जिससे भारी उथल पुथल होता है और उसके साथ ही उसकी
मारक क्षमता से बहुत से समाप्त ही हो जाते है| इतिहास में गैलीलियो और
चार्ल्स डार्विन ऐसे ही घातक व्यक्ति के उदाहरण हैं, जिन्होंने स्थापित धर्मों की
स्थापित मान्यता को ही नष्ट कर दिया| भारतीय इतिहास में गोतम बुद्ध भी
लोगों से प्रश्नों (Questions) के उत्तर में प्रतिप्रश्न (Counter-Questions) पूछ
कर ही लोगों को उनके संतोषजनक उत्तर तक पहुंचा देते थे| इस सदी के महान वैज्ञानिक स्टीफन हाकिन्स भी सवाल
खड़ा करना ही शिक्षा देने का सबसे महत्वपूर्ण साधन या उपकरण मानते रहे हैं| वे
मानते हैं कि सवाल खड़ा करना ही ज्ञान अर्जन का, यानि बुद्धि के विकास का पहला
कदम है|
इनका
एक सवाल बड़ा ही महत्वपूर्ण है, और चर्चित भी है कि कोई तेरह अरब साल
पहले महाविस्फोट (Big Bang Explosion)
के साथ ही “पदार्थ” (Matter), “उर्जा” (Energy), समय” (Time)
एवं “आकाश” (Space) की उत्पत्ति हुई, यानि इस महाविस्फोट के पहले जब ‘पदार्थ’,
‘ऊर्जा’, ‘समय’, और ‘आकाश’ ही नहीं था, तो तथाकथित “ईश्वर” (God) किस पदार्थ का
बना था?, उसकी क्रियाओं के लिए उर्जा का सृजन ही नहीं हुआ था तो वह कोई कार्य कैसे
करता था? जब कोई ‘समय’ ही नहीं था, तो
इसके पहले कोई कैसे अस्तित्व में था? और जब कोई आकाश यानि दिशाएं ही नहीं थी, तो
वह ईश्वर कहाँ रहता था? यह सवाल कोई शिक्षित व्यक्ति
ही खड़ा कर सकता है? इसीलिए ऐसे सवालों को लोग टाल जाते हैं| शायद इसीलिए
शिक्षा धर्म को क्षति पहुंचता है, या नष्ट कर सकता है| दरअसल शिक्षा तमाम तरह के धुन्धों को साफ कर देता है और इससे कई चतुर चालाक और मूर्ख बेनकाब हो जाते हैं।
लेकिन एक ‘भक्त’
सवाल खड़ा ही नहीं कर सकता| और एक मूर्ख भी सवाल खड़ा नहीं कर सकता है। एक भक्त के पास
कोई विश्लेषण क्षमता और मूल्याङ्कन क्षमता ही नहीं होती, या यदि होती भी है, तो उस
स्तर की नहीं होती कि वह कोई खतरनाक सवाल खड़ा कर सके| कोई धन धारी, या कोई पद
धारी, या कोई डिग्री धारी व्यक्ति साक्षर (Literate)
हो सकता है, लेकिन उसके शिक्षित (Educated)
होने की पुष्टि अन्य कई शर्तों पर ही हो सकती है| अर्थात जो व्यक्ति सवाल खड़ा ही नहीं कर सकता, वह साक्षर होते हुए
भी या तो वह शिक्षित ही नहीं है, या वह डरा हुआ है, या शिक्षित होने के भ्रम में
पडा हुआ है| एक साक्षर व्यक्ति सिर्फ
सूचनाओं (इसे आजकल डाटा भी कहा जाता है) से खेल सकता है, या ‘सूचनाओं का मकडजाल’ (Web of Information) ही एक
साक्षर व्यक्ति को खिलौना बना कर खेलता रहता है| लेकिन एक शिक्षित व्यक्ति उन सूचनाओं की सत्यता, वैधता, उद्देश्यशीलता
एवं प्रभावशीलता का विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन कर सकता है| मतलब एक
साक्षर व्यक्ति सूचनाओं के पीछे दौड़ लगा सकता है, लेकिन उसकी सही सत्यता, वैधता,
उद्देश्यशीलता एवं प्रभावशीलता को नहीं समझ सकता है| एक शिक्षित व्यक्ति तो सब कुछ
समझ कर और विवेकपूर्ण ढंग से निर्णय ले सकता है| तो क्या शिक्षित होना भी एक
गुनाह मान लिया जाना चाहिए?
किसी भी
बात को सूक्ष्मता (Minutely) से समझना और उसमे अंतर करने की योग्यता एवं क्षमता ही
“शिक्षा” है, और यही सूक्ष्मता का स्तर ही शिक्षा का स्तर भी निश्चित करता है| जैसे कोई गाड़ी के प्रकार
में अंतर कर सकता है कि कौन बैलगाड़ी है और कौन रथ है? और कोई “आत्म” (Self) और “आत्मा”(Soul)
में अंतर कर सकता है और कोई नहीं भी कर सकता है| यही अंतर का स्तर ही शिक्षा के
स्तर का अंतर को बताता होता है| मैंने ‘दर्शन’ (Philosophy) के तथाकथित स्तरीय ग्रंथों में अंग्रेजी शब्द
“Self” (जिसका उपयुक्त हिंदी अर्थ ‘आत्म’ होगा) के लिए “आत्मा” शब्द और “आत्म” शब्द
दोनों का प्रयोग एक दुसरे के लिए खूब करते हैं| ऐसे स्तरीय पुस्तकों के लेखक भारतीय
विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर एवं डीन के पदों को सुशोभित करते हुए होते हैं, और
हमलोग विश्वस्तरीय शिक्षा के लिए उन्ही के भरोसे हैं| यह भी शिक्षा का स्तर ही
बताता है| ऐसे भारतीय विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर एवं डीन के पदों को सुशोभित
पहुँच के व्यक्तियों के स्तर पर आपत्ति करना भी निश्चितया एक गुनाह ही होगा|
ऐसे ही एक अन्य उदाहरण है| जब भारत में ‘राजतन्त्र’
नहीं है, यानि यहाँ का राष्ट्राध्यक्ष या शासनाध्यक्ष कोई वंशानुगत नहीं है, यानि यहाँ कोई राजा
या रानी नहीं है, तो भारत की जनता यानि नागरिक किसी की ‘प्रजा’ (Subject) कैसे हो
सकती है? और भारत का तंत्र “प्रजातंत्र” कैसे हो सकता है? ध्यान रहे कि भारतीय
संविधान में शब्द इसीलिए ‘लोकतंत्र’ शब्द है, ‘प्रजातंत्र’ शब्द नहीं है, हालाँकि
दोनों का अंग्रेजी “Democracy” ही है|, फिर भी बड़े बड़े डिग्री धारी या पद धारी
इसके प्रति सावधान नहीं है| यदि आप ऐसे शिक्षितों में कोई संशोधन की मंशा रखते
हैं, तो यह भी एक गुनाह ही है|
एक बात और है, जब
किसी समाज में या किसी देश में “अशिक्षा का आवेग”
(Momentum of Illteracy) बहुत शक्तिशाली है,
तब शिक्षित होना एक क्षम्य गुनाह ही नहीं, दंडनीय अपराध भी हो सकता है| यानि जब किसी समाज में या देश में ऐसे लोगों की बहुलता हो, या
वर्चस्व ही हो, तो एक शिक्षित को अपनी अभिव्यक्ति में सावधान रहना चाहिए| ‘अशिक्षा का आवेग’ भी विज्ञान के आवेग (Momentum) की ही तरह अशिक्षा की गुणवत्ता (Quality) यानि
स्तर (Level) एवं उसके संयुक्त मात्रा (Mass) यानि आबादी और उनकी गति का गुणनफल होता है| मतलब अशिक्षितों की यदि आबादी बहुत बड़ी है, और अशिक्षा का
स्तर भी निम्नतर है, तो ऐसे समाज या देश का “अशिक्षा का आवेग” बहुत शक्तिशाली
प्रवाह में होगा| इस आवेग का मनोविज्ञान "समूह (Mass) का मनोविज्ञान" हो जाता है। इस समूह को 'भीड़' या "भीडतंत्र" भी कह सकते हैं। और ऐसे “अशिक्षा के आवेग” को झेलना शिक्षितों के लिए
हानिकारक ही नहीं, घातक भी होता है, गैलीलियो इसका एक सटीक उदाहरण है|
मैं और ज्यादा विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन में नहीं
जाना चाहूंगा, क्योंकि इस विषय पर एक लम्बा आलेख नीरस भी हो जाता है| वैसे आप स्वयं बौद्धिक है, शिक्षित हैं, मेरी कही हुई और
उनकही हुई, दोनों बातों को आप अच्छी तरह समझ रहें हैं| सादर|
आचार्य
निरंजन सिन्हा
भारतीय संस्कृति
का ध्वजवाहक
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