भगवान शिव को ही "आदि गुरु" कहा गया है और भगवान शिव को ही "महादेव" भी
कहा गया हैं। ऐसा क्यों कहा जाता है, यानि ऐसा क्यों माना जाता है? इसमें
शब्द आया है - भगवान, शिव, आदि गुरु और महादेव। ‘भगवान शिव’ को ही “कल्याणकारी” कहा गया है। शिव का एक अर्थ
‘कल्याण करना’ भी होता हैं। किसी भी व्यक्ति, संस्था और समाज का जो भी नामकरण किया जाता है, उसका
निर्धारण उस समाज की समझ, व्याख्या और लम्बे समय के विरासत के संग्रहण से
किया जाता है, या ऐसा स्वत: होता रहता है। यह विरासत की संग्रहण
या संकलन ही संस्कार और संस्कृति के रूप में समाज में अभिव्यक्त होती है और
इसी कारण इसमें निरंतरता भी बनाए रखती है।
चूंकि प्रत्येक शब्दों का एक ‘संरचनात्मक ढांचा’ (Structural Framework) होता है, और
इसलिए उन शब्दों के ‘सतही
अर्थ’ (Superficial
Meaning) के
अतिरिक्त इन शब्दों के गहरा एवं व्यापक ‘निहित अर्थ’ (Implied Meaning) भी होता है। इसकी स्थिति
किसी तैरते ‘आईस बर्ग’ (हिमखण्ड/ Iceberg) जैसे होती हैं, जिसका सिर्फ उपरी हिस्सा ही दिखता है, जिसे उसका
टिप कहते है| लेकिन दिखने वाले हिस्से का ग्यारह गुणा हिस्सा
पानी में डूबा अदृश्य ही रहता है। इसी तरह
किसी शब्दों के छोटे नाम के पीछे भी एक गहरा, व्यापक
और विस्तृत संरचनात्मक ढांचा होता है। ऐसा ही ‘भगवान’, ‘शिव’, ‘आदि
गुरु’ और ‘महादेव’ शब्द के लिए भी है| इससे संबंधित शब्दों के संरचनात्मक ढांचा को
भी समझ लेने से शब्दों का सम्रगता से, व्यापकता से और सहजता से अर्थ स्पष्ट कर देता
है। इसका निहित अर्थ उनकी अवधारणाओं के उद्विकास (Evolution) से सुनिश्चित होता है। इस अर्थ
में समझाने वाले की मानसिक समझ के साथ साथ उसकी आर्थिक अवस्था और उस समाज, काल एवं
क्षेत्र के सापेक्ष भी अर्थ बदलता रहता है| इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या
उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग की बदलती शक्तियों के अनुरूप, यानि सामन्तवाद,
उपनिवेशवाद, और साम्राज्यवाद की स्थिति इसकी समुचित व्याख्या करता है| अर्थात भगवान शिव
की अवधारणा भी इतिहास की बदलती अवस्थाओं एवं व्यवस्थाओं के अनुरूप बदलती रही है|
अब हमलोग इसमें प्रयुक्त शब्दों के एक एक कर
सभी का निहित अर्थ को समझते हैं। ‘भगवान’ शब्द मूलतः उस व्यक्तित्व के लिए प्रयुक्त होता है, जिसने
मानव और प्रकृति को नुक़सान पहुंचाने वाली प्रवृतियों को ही भग्न कर दिया है। तब, ऐसी प्रवृत्तियों को
नष्ट करने वाले यानि भग्न करने वाला ही भगवान है,
जो सामंतवाद के काल में
ईश्वर (God) का
पर्यायवाची हो गया। हालांकि मानवता और प्रकृति के सापेक्ष दोनों शब्दों के एक ही
उद्देश्यपरक अर्थ होता है, फिर भी निहित अर्थ में मौलिक भिन्नता है। शिव
का अर्थ कल्याण करना है, जो सम्पूर्ण मानवता और प्रकृति का कल्याण करता
है। और किसी के भी कल्याण के लिए बौद्धिकता की उत्कृष्टता और सर्वोच्चता, दोनों
ही की आवश्यकता होती है। बौद्धिकता की उत्कृष्टता और सर्वोच्चता के लिए पराम्परागत
शिक्षा यानि ज्ञान से हटकर ‘नवाचारी’ (Innovative) शिक्षा की आवश्यकता होती है।
इसी तरह हमलोग गुरु शब्द को भी समझते हैं।
साधारणतया गुरु का अर्थ बड़ा या उत्कृष्ट होता है। अतः स्पष्ट है कि तब
गुरु का कार्य नेतृत्व देना यानि मार्गदर्शन करना या ज्ञान देना भी हुआ, क्योंकि बड़ा
या उत्कृष्ट ही दूसरों का मार्गदर्शन कर सकता है| ज्ञान के स्तर यानि गुणवत्ता के
कारण गुरुओं का कई स्तर यानि श्रेणी हो सकता है। ज्ञान प्राप्त करने के दो
तरीके होते हैं। पहले
एवं साधारण तरीके में एक
ज्ञान देने वाला होता है और दूसरा ज्ञान पाने वाला होता है। इस श्रेणी में शिक्षक
के अलावा पुस्तकें, या अन्य डिजीटल स्वरुप या माडल हो सकता है।
लेकिन ज्ञान
प्राप्ति के उत्कृष्ट एवं सर्वोच्च तरीके में शिक्षक और विद्यार्थी एक ही व्यक्ति
होता है। इस विधि में अलग एवं
विशिष्ट ज्ञान का आभास (Intuition) होता है, जो उसमें अनन्त प्रज्ञा (Infinite Intelligence) से आता
है। इसे ही ‘अन्तः प्रज्ञा’ ज्ञान भी कहते हैं। यह ध्यान करने से ही आता है। इस ध्यान स्वरुप में
भगवान शिव ही ऐतिहासिक महत्व के साक्ष्यों में सर्व प्रथम आते हैं। इन्हें ही ‘पशुपति’ भी कहा गया है, जिसे
सिन्धु घाटी सभ्यता में एक सील में पशुओं से घिरा हुआ पाया गया। इसी ध्यान विधि करने का
अनुकरण करने वालों में प्राचीन काल में गोतम बुद्ध, मध्य
काल में गैलेलीयो, और आधुनिक युग में चार्ल्स
डार्विन, अल्बर्ट आइंस्टीन और
स्टीफन हॉकिंग आदि कुछ नाम प्रमुख हुए। ये सभी ध्यानस्थ योगी ही थे,
जिन्होंने अपने आत्म (Self) को
अनन्त प्रज्ञा से जोड़ कर मानव कल्याण के लिए विशिष्ट एवं उत्कृष्ट ज्ञान अर्जित
किया| भले ही इन्हें भारतीय नामकरण के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं हो और
इन्होने ‘स्टीरियोटाइप
ध्यान’
नहीं किया हो। इस कारण शिव ही ऐतिहासिक आदि गुरु हुए।
फिर ‘देव’ और ‘महादेव’ को भी समझ लेना चाहिए। देवों में जो महान हैं, वे
ही महान - देव हुए, यानि महादेव हुए। उद्विकास के क्रम में
स्थापित प्राचीनतम भाषा प्राकृत और पालि में देव उन्हें कहा जाता रहा, जो
कल्याणकारी ज्ञान के उपासक और अनुगामी रहे। अर्थात कल्याणकारी ज्ञान के उपासक
और अनुगामी को ही देव कहा जाता है।
ऐसे देवों में सामान्यतः विशिष्ट एवं उत्कृष्ट ज्ञानी ही होते हैं, जो
अपने इन विशिष्ट एवं उत्कृष्ट ज्ञान की बदौलत बहुत बढ़िया सामाजिक धार्मिक
व्यवस्थापक हुए| देवों के इस श्रेणी में आध्यात्मिक एवं आदि गुरु भी शामिल हो जाते
हैं। भारतीय
ग्रंथों में शिव को ही ‘आदि देव’ कहा गया है| भारत के विभिन्न क्षेत्रों और कालों में देवों को यानि
देवताओं को भगवान बुद्ध, भगवान कृष्ण, भगवान
विष्णु और भगवान राम भी कहा गया है, अर्थात इन सभी को ज्ञानवान
और कल्याणकारी व्यवस्थापक माना गया। इस
तरह ‘शिव’ ‘गुरु’ भी हुए, ‘देव’ भी हुए, ‘आदि
गुरु’ भी हुए और ‘महा देव’ भी हुए।
‘आधुनिक मानव’ यानि ‘वर्तमान
मानव’ यानि ‘होमो सेपियंस’ (Homo
Sapiens) का
जब ‘सामाजिक
मानव’ यानि ‘होमो सोशियस’ (Homo
Socius) और
‘निर्माता
मानव’ यानि ‘होमो फेबर’ (Homo
Faber) में
उद्विकास हो रहा था, उसमें सिर्फ और सिर्फ मानव
की बुद्धि (Wisdom) का ही योगदान है। बुद्धि शब्द से ही चिढ़े हुए लोगों ने ‘बुद्धू’ शब्द बनाया, ‘बुद्धिमान’
भी बना, ‘बौद्धिक’
भी हुआ और ‘बुद्ध’
(विशिष्ट, उत्कृष्ट, सम्यक् तथा सर्वोच्च ज्ञाता की उपाधि) भी हुआ। उत्कृष्ट, सर्वोच्च
और विशिष्ट ज्ञान ही नवाचारी ज्ञान होता है, जिसे ‘Out of Box’ चिंतन एवं ज्ञान से ही प्राप्त किया जाता है।
इसे ही ‘The Structure of Scientific Revolution’ के लेखक थामस सैम्युल कुहन ने ‘पैरेडाईम शिफ्ट’ (Paradigm Shift) भी कहा है। इस तरह का ज्ञान ‘ध्यान’ से ही आता
है और इसके आदि गुरु भगवान शिव ही हुए हैं। इस तरह बुद्धि के, बौद्धिकता
के और समस्त बौद्धिक समाज के आदि गुरु भगवान शिव ही हुए। इसी बौद्धिकता से ओतप्रोत
इस भौगोलिक उपमहाद्वीप क्षेत्र को ‘आभा से रत’ यानि ‘आभारत’ यानि ‘भारत’ देश कहा जाने लगा, जहां
से ज्ञान प्राप्त करने तत्कालीन विश्व से जिज्ञासु साधक आते रहे।
इनके उपासक जिन भवनों में ध्यान करते थे, उनकी
उपरी ढांचा गुम्बदाकार (Dome) होता था। जब ज्ञान और अभियंत्रण
का विकास हुआ, तब ज्ञानी लोग भी नदी घाटी के मैदानों में आबादियों
के बीच केन्द्रित होते गए। गुम्बदाकार संरचना में ‘कास्मिक किरणें’ (Cosmic Rays) उस गुम्बद के केन्द्र पर
अपसारित (Convergent) होता
है और उसका केन्द्रीय स्थान उर्जामय हो जाता है। वैसे गुम्बदाकार संरचना में ‘तनाव
बल’ (Tensile Force) नहीं
होता है और इसलिए उसमे छत के भार वहन के लिए पीलरों की संख्या कम हो जाती है। इसे
ही “स्तूप” कहा गया, जिसकी
खुदाई में ही सिन्धु घाटी सभ्यता प्रकाशित हो सका था। बौद्धिक अनुयायियों में
इन ऊर्जावान स्तूपों की परिक्रमा करने की भी परम्परा स्थापित हो गई, जिससे “परिक्रमा पथ” का उद्भव
हुआ।
मध्यकाल में जब सामान्य बौद्धिकता का ह्रास हुआ,
तब साधारण सामान्य लोगों को
समझने समझाने के लिए ‘अमूर्त’ ज्ञान का स्थान पर ‘मूर्त’ ज्ञान ने
ले लिया। इस
स्तूप और परिक्रमा पथ को जब सांकेतिक और लघु स्वरुप में बनाया गया, तो
कुछ चिढ़े हुए और अज्ञानी लोगों ने इस सांकेतिक लघु स्वरुप के स्तूप को शिव लिंग कहना शुरू
किया। यह
पुरुष लिंग स्तूप स्वरुप है और स्त्री लिंग परिक्रमा पथ है। बाद के कालों में
शिल्पीकारो इसे इसी भावना से ही पत्थरों पर उकेरने लगे और अब यह शिवलिंग बन गया।
हमें किसी भी साधारण या जटिल विषय को सम्यक और
समुचित ढंग से समझने के लिए उसकी व्यापकता में,
उसके विस्तार में और उसकी
गहराई में जाना ही होता है। लेकिन किसी भी साधारण और सामान्य विषय की व्यापकता और
गहनता में समझने एवं समझाने का उपागम (Approach) क्या हो सकता है, यानि इसके लिए कौन-सा उपकरण या अवधारणा अनुकूल हो
सकता है? निश्चित
ही ऐसे किसी भी विषय या अवधारणा को समझने के लिए चार्ल्स डार्विन का ‘उद्विकासवाद’ का
सिद्धांत (Theory
of Evolution), सिग्मंड
फ्रायड का ‘आत्मवाद’ का सिद्धांत (Theory
of Self), कार्ल
मार्क्स का ‘आर्थिकवाद’ का सिद्धांत (Theory of Economic Forces), अल्बर्ट
आइंस्टीन का ‘सापेक्षवाद’ का सिद्धांत (Theory of Relativity) और फर्नीनांड डी सौसुरे का ‘संरचनावाद’ का
सिद्धांत (Theory
of Structuralism) को समझना ही चाहिए। चार्ल्स डार्विन अपने ‘उद्विकासवाद’
के सिद्धांत में समझाते हैं कि सभी चीजों का उद्विकास सरलतम से जटिलतम में हुआ है।
सिग्मंड फ्रायड अपने ‘आत्मवाद’ के सिद्धांत में समझाते हैं कि किसी भी व्यक्ति का
आत्म यानि मन कैसे बदलता है, कैसे समझता है,
कैसे किसी चीज को ग्रहण करता है और कैसे
व्याख्यायित करता है? कार्ल मार्क्स अपने ‘आर्थिकवाद’ के सिद्धांत में
व्यक्ति और समाज की व्यवस्था में बदलाव और रुपांतरण की व्याख्या उत्पादन, वितरण, विनिमय
और उपभोग के साधनों और उनकी शक्तियों एवं उनके अन्तर्सम्बन्धों के आधार पर किया
है। अल्बर्ट आइंस्टीन अपने ‘सापेक्षवाद’ के सिद्धांत में सभी वस्तुओं, ऊर्जा, समय
और दिक् (आकाश) को ही एक दूसरे के सापेक्ष बताया और पूर्व की सारी अवधारणाओं में
उथल-पुथल कर दिया। फर्नीनांड डी सौसुरे अपने ‘संरचनावाद’ के सिद्धांत में सभी
व्यक्त एवं अव्यक्त अभिव्यक्तियों को इस तरह समझाते है कि सभी शब्दों एवं वाक्यों
का निश्चित संरचना होता है। इन पाँचों अवधाराणाओं के आधार पर यहाँ हम किसी भी समाजो,
संस्कृतियों, सम्प्रदायों, देवों इत्यादि
के बदलते स्वरुप को आसानी से समझ सकते हैं| कहने का तात्पर्य महादेव के बदलते
स्वरुप इनसे बेहतर ढंग से समझा जा सकता है|
हमें भी अपने महादेव को
इन्हीं उपकरणों की सहायता से, यानि इन्हीं अवधारणाओं के
दृष्टिकोण से विश्व को समझाना और स्वीकार्य कराना है। हमें महान भारतीय सांस्कृतिक विरासत को 150
करोड़ भारतीय से 800 करोड़ की वैश्विक आबादी तक ले जाना है। इसी से भगवान शिव के बदलते स्वरुप को समुचित
और सम्यक ढंग से समझा जा सकता है। ऐसे ऐतिहासिक महान व्यक्तित्व को भगवान कहा गया
है, शिव
कहा गया है, और
इस तरह यही महादेव भी हुए। इसके लिए हमें शिव की वैज्ञानिकता और दर्शन को
वैश्विक वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मानसिकता के अनुरूप ही परोसना होगा। इसीलिए हमने
उनको आधुनिक ज्ञान और आवश्यकता के अनुरूप ही व्याख्या कर उपस्थापन का प्रयास किया
है।
अगली बार, और विस्तार से।
सादर।।।
आचार्य निरंजन सिन्हा
भारतीय संस्कृति के
ध्वजवाहक
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