शनिवार, 2 मार्च 2024

क्या भारत के लिए लोकतंत्र उपयुक्त नहीं है?

भारत एक लोकतांत्रिक (Democratic) गणराज्य (Republic) है और इसे लोकतंत्र चलाने का सत्तर साल से अधिक का लम्बा अनुभव भी है। भारतीय संविधान के उद्देशिका (Preamble) में यह स्पष्ट उल्लेखित भी हैकि भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है। लेकिन आज भारत के विकास और अर्थव्यवस्था की तुलना जब जर्मनी और जापान या अन्य विकसित देशों के सामान्य लोगों से की जाती हैतब भारत के सामान्य तथाकथित बुद्धिमान लोगों की गुमवत्ता का बड़ा ही निराशाजनक तस्वीर बनती है। भारत के तथाकथित बुद्धिमान लोगों की गुणवत्ता यानि इन लोगो की सम्पूर्ण मानसिक बौद्धिकता एवं कौशल प्रदर्शन किसी भी विकसित देशों के सामान्य साधारण औसतन लोगों से तुलनीय नहीं है। जापान की आबादी भारतीय गणराज्य के एक प्रान्त बिहार की आबादी से भी कम हैअर्थात भारतीय आबादी का लगभग आठ प्रतिशत भाग भी, यानि भारतीय आबादी का तथाकथित सर्वोच्च बौद्धिक बुद्धिमान लोगों की एक बड़ी आबादी भी जापान की सामान्य साधारण औसतन आबादी की गुणवत्ता के समकक्ष नहीं है, यदि शेष अन्य 92% आबादी के योगदान को नगण्य मान लिया जाय| इसी तरह जर्मनी की आबादी भी भारतीय आबादी का चार प्रतिशत भी नहीं है। मतलब यह है कि भारत की समेकित 150 करोड़ की आबादी भी मिलकर जर्मनी जैसे नगण्य आबादी वाले देश (भारत की चार या आठ प्रतिशत की आबादी वाले देश) की मानसिक बौद्धिकता एवं कौशल प्रदर्शन के गुणवत्ता (Quality/ स्तर) की नहीं है| ऐसी ही तुलना जर्मनी और जापान की तरह अन्य विकसित छोटे छोटे देशों की औसतन सामान्य लोगों से की जा सकती है। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। तब यह प्रश्न उठना या उठाया जाना अनुचित नहीं होगा कि भारत जैसे देश में लोकतांत्रिक गणराज्य की व्यवस्था असफल हो गयी ?

यहां एक बार लोकतंत्र और गणतंत्र की अवधारणा को भी पुनः स्पष्ट किया जाना चाहिएताकि सामान्य जन इस अवधारणा को स्पष्टतया समझ सके। ''गणतंत्र''' (Republic) राज्य की वह शासन व्यवस्था हैजिसमें उस राज्य का राज्याध्यक्ष (Head of the State – राज्य प्रमुखजनता में से निर्वाचित होता है। लोकतंत्र' (Democracy) राज्य की वह शासन व्यवस्था हैजिसमें शासनाध्यक्ष (Head of the Government – शासन प्रमुखजनता में से निर्वाचित होता है। इसी कारण भारत और ब्रिटेन में Democracy (भारत के लिए लोकतंत्र एवं ब्रिटेन के लिए प्रजातंत्र) होते हुए भी भारत एक गणतंत्र हैलेकिन ब्रिटेन गणतंत्र नहीं है। अब्राहम लिंकन ने तो लोकतंत्र को जनता कीजनता के लिएजनता के द्वारा सरकार के रूप में परिभाषित किया। भारत में कुछ लोग "लोकतंत्र" को "प्रजातंत्र" भी बोलते हैंजो भारत के संदर्भ में पूर्णतया ग़लत है। ऐसे लोग इस बात का ख्याल नहीं करते कि भारत में कोई  'राजतंत्र' (Monarchy) नहीं है और इसीलिए भारत में कोई 'राजा' (King) नहीं है और कोई उसकी 'प्रजा' (Subject) भी नहीं है। प्रजातंत्र शब्द ब्रिटेन के लिए उपयुक्त हैलेकिन भारत के लिए नहीं। इसीलिए भारतीय संविधान में 'लोकतंत्रशब्द है, 'प्रजातंत्रनहीं हैजबकि दोनों का ही अंग्रेजी अनुवाद 'डेमोक्रेसी' (Democracy) ही है।

चूंकि लोकतंत्र जनता की और जनता के द्वारा ही सरकार होती हैइसलिए 'जनमत' (Public Opinion) को सरकार के पक्ष में करना या रखना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। इस तरह सरकार का निर्धारणयानि सरकार का चुनाव लोगों के वोट (Vote/ मत) के बहुमत से होता है। मतलब सरकार बनानेया बचानेया चलाने के लिए  राजनीतिक दल को भी सामान्य लोगों को अपने पक्ष में लुभानायानि आकर्षित करना बहुत जरूरी हो जाता है। ऐसी स्थिति में किसी भी राजनीतिक दल के लिए सरकार को बनानाया बचानाया चलायमान रखना ही सर्वोच्च प्राथमिकता हो जाती है। तब सरकार को लोकप्रिय बनाने के लिए और जन समर्थन पाने के लिए जनता को अकर्मण्य रख कर भी उन्हें सुविधाओं की झड़ी लगा दी जाती  है| उन्हें राज्य की ओर से सब शारीरिक सुविधाएँ सुनिश्चित कराई जाती है, लेकिन लोगों की बौद्धिक विकास यानि मानसिकता को वैज्ञानिक, तार्किक एवं विवेकशील बनाने के लिए समुचित प्रयास नहीं करने से ही विकास एक तमाशा बन जाता है| न्यूनतम जीवन स्तर को बनाने के अतिरिक्त उनके मानसिक उन्नय के लिए समुचित प्रयास नहीं किया जाना ही दुर्भाग्यपूर्ण है| और तब राज्यया जनताया जन कल्याणयानि शासन यानि सम्यक विकास भी किसी भी राजनीतिक दलो की सूची में सर्वोच्च प्राथमिकता की नहीं रह जाती| ऐसी स्थिति में राज्य भी बर्बादी की ओर अग्रसर दिखने लगता है, क्योंकि तब सभी राजनीतिक दल या संगठन शासन पर प्रभावशाली नियंत्रण के लिए ही सारे राजनीतिक दांव-पेंच चलाते रहते हैं। राजकोष पर कर्ज लेकर भी बुनियादी सुविधाओं के नाम कार्य होते हैं, लेकिन बौद्धिक विकास की प्राथमिकतायें पीछे रह जाती है| विधायी सदन में स्पष्ट बहुमत नहीं रहने की स्थिति में तो सारा समय और ध्यान राजनीतिक उलझनों को ही सुलझाने में लगा रहता है और शासन की ओर समुचित ध्यान नहीं जा पाता है|

जिन देश यानि राज्य की अधिकांश यानि बहुमत से बहुत अधिक जनता अपनी मानसिकता में वैज्ञानिक नहीं होजिसमें कोई तार्किकता (Logic) नहीं होऔर कोई आलोचनात्मक विश्लेषण (Critical Analysis) की क्षमता नहीं होवह समाज या वर्ग कभी भी विवेकशील (Rational) हो ही नहीं सकता। यदि बहुसंख्यक जनता ढोंगपाखंडअन्धविश्वास और कर्मकांड में डूबा हुआ लकीर का फकीर बना हुआ हैतब ऐसे लोगों की तुलना किन जीवों से की जा सकती हैपशुओं में विचार और चिंतन प्रणाली विकसित नहीं होती है और वह शारीरिक आवश्यकताओं तक ही सीमित रहता है। उसकी प्रतिक्रिया भी इन्हीं आवश्यकताओं से प्रेरित होती हैं और इसीलिए इनकी क्रिया एवं प्रतिक्रिया भी 'स्वत स्फूर्त अनुक्रिया' (रिफ्लेक्स एक्सन- Reflex Action) से ही नियंत्रित होते हैं। जिस देश यानि राज्य की अधिकाँश जनता शारीरिक आवश्यकताओं से ही संचालित एवं नियमित होते हैं, और उनकी बौद्धिक क्षमता या स्तर लगभग शून्य ही हो, तो ऐसे जनमानस को उचित एवं अनुचित की समुचित समझ भी नहीं होती| ऐसा व्यक्ति या समूह कभी भी स्वंय का , या समाज का, या राष्ट्र या मानवता का सम्यक हित के बारे में जागरूक हो ही नहीं सकता| ऐसे में इनकी मानसिक स्थिति, स्तर एवं दशा उस व्यक्ति की तरह ही होती है, जिनको कोई मानसिक रोग हो गया है| ऐसे व्यक्ति को बिना उनसे परामर्श लिए ही उनका मानसिक उपचार किया जाना होता है| स्पष्ट है कि शारीरिक आवश्यकताओं से संचालित, नियंत्रित एवं नियमित व्यक्त या समाज कभी भी बौद्धिक हो नहीं सकता है| ऐसे में लोकतान्त्रिक मूल्यों एवं व्यवस्थाओं का कोई मतलब भी नहीं रह जाता|

 तब यह स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि ऐसे लोगों का मानसिक विकास कैसे हो और इनकी गुणवत्ता बढ़ाकर इन्हें बेहतर एवं ज्यादा उत्पाक मानव संसाधन कैसे बनाया जाएइनकी ‘मानसिक जड़ता’ (Mental Inertia) कैसे दूर हो और इनमें वैश्विक गति की गत्यात्मकता (Dynamism) कैसे आएक्या समाज या राष्ट्र को संचालित करने वाला सॉफ्टवेयर ही त्रुटिपूर्ण या अनपयुक्त है? क्या इससे यह माना जाय कि राज्य की लोकतांत्रिक व्यवस्था ही असफल हो गयी हैया लोकतांत्रिक प्रयास इसके लिए ऐतिहासिक समय ले रहा है, जो अनुचित भी है, जब इसके अन्य विकल्प उपलब्ध है| ध्यान रहे कि समाज या राष्ट्र को संचालित करने वाला सॉफ्टवेयर को “संस्कृति” भी कहते हैं, जिस पर ही अनिवार्यत: विचार किया जाना चाहिए| लेकिन इस पर विचार करने की हिम्मत या ऐसे सूझ की ओर ध्यान क्यों नहीं ध्यान दिया जा रहा है? यह लोकतंत्र सफलता पाने के लिए अभी तक उब- डूब ही कर रही हैयदि किसी समाज की गत्यात्मकता को किसी पुरातन गौरवशाली विरासत के नाम ठहराया हुआ हैतो यह भी प्रश्न खड़ा हो ही जाता है कि क्या लोक्तंत्र उस देश यानि राज्य में असफल हो गया हैउपरोक्त सारे विश्लेषण और मूल्यांकन से तो यही स्पष्ट है कि भारत के लिए लोकतंत्र उपयुक्त नहीं है। तो यह स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि इसका समुचित और सम्यक विकास का विकल्प क्या हो सकता है?

तब लोकतंत्र का एक प्रमुख विकल्प तानाशाही ही हो सकता हैजिसे अपने मस्तिष्क में लाने मात्र पर ही  विभत्स स्वरुप ही आंखों के सामने उभर कर दस्तक देने लगता है। लेकिन इस तानाशाही  के विभत्स स्वरुप और प्रचलित लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के बीच भी राज्य व्यवस्था या शासन पद्धति के कई स्वरुप (Form/ Type) और प्रतिरुप (Pattern) भी मानव इतिहास में देखने को मिला है। इस पर भी विचार करना समुचित होगा। तानाशाही का एक व्यवहारिक अर्थ होता है - अपने मनमौजी सेयानि अपनी इच्छा अनुसार ही शासन करना। जब एक ही व्यक्ति की तानाशाही वंशानुगत हो जाती हैतब वह राजतंत्र कहलाता है। लेकिन मानव इतिहास में किसी राजनीतिक पार्टी की तानाशाहीया किसी संगठन की भी तानाशाही रही है और वही राज्य व्यवस्था और शासन चलाईं है और इनमें से बहुत सफल भी रहे हैं। तय है कि उस राजनीतिक पार्टी में या उस संगठन में भी लोकतांत्रिक मूल्यों एवं प्रतिमानों का ध्यान रहता हैअन्यथा वह भी वंशानुगत हो सकता है। ध्यान रहे कि यहां भी लोकतांत्रिक मूल्यों एवं प्रतिमानों की बात की गई हैलेकिन यह संगठन के लिए है, नहीं सामान्य जनता के लिए| तब शासन नीति निर्धारण की प्रक्रिया में अवैज्ञानिकअतार्किक और अविवेकी लोगों को शामिल नहीं किया जाएगा, लेकिन इसकी सुनिश्चितता कैसे होगी? इन अवैज्ञानिकअतार्किक और अविवेकी लोगों का निर्धारण कैसे किया जायगा और किन लोगो के द्वारा किया जाएगाभारत के अधिकांश सर्वोच्च बुद्धिजीवी लोग भी सामान्य लोगो एवं विशिष्ट लोगों का वर्गीकरण उनकी गुणवत्ता के आधार पर नहीं कर उनकी वंशानुगत तथाकथित जातिवर्ण और धर्म के आधार पर ही करते हैं।

जिस राज्य या देश में किसी व्यक्ति या समाज की उत्पादकता, कौशल क्षमता एवं समेकित गुणवत्ता के लिए वंशानुगत तथाकथित जातिवर्ण और धर्म के आधार को ही तार्किक, वैज्ञानिक एवं आधुनिक माना जाता हो, तब ऐसी स्थिति तानाशाही व्यवस्था को ही भयावह बना देती है| भारत के लगभग सभी बुद्धिजीवी जाति, वर्ण और धर्म की व्यवस्था को ऐतिहासिकप्रामाणिकसनातन और पुरातन विरासत मानते हैं, जबकि यह सब मध्य युगीन व्यवस्था है| आधुनिक एवं वैज्ञानिक व्याख्या यही साबित करती है कि जाति, वर्ण और धर्म की व्यवस्था अपने वर्तमान स्वरुप (Form) में, प्रकार (Type) में एवं प्रतिरूप (Pattern) में मध्य युग जनित एवं विकसित व्यवस्था ही है| लेकिन तथाकथित आदुनिक  एवं वैज्ञानिक विद्वान् भी इस जाति, वर्ण और धर्म की व्यवस्था को मजबूत बनाने में लगे हुए हैं और इसको हटाने की दिखावटी प्रयास में अपने को जूझते हुए भी साबित करना चाहते हैं|

लेकिन मेरा सवाल अभी भी अधुरा ही रह गया कि क्या भारत के लिए लोकतंत्र उपयुक्त नहीं है? मैं किसी स्पष्ट निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया, लेकिन उपयुक्त आलोचनात्मक विश्लेषण एवं उसके उपयुक्त मूल्याङ्कन के लिए कई प्रश्न अनुत्तरित ही छोड़ दिया है| संविधान सभा में भी सांवैधानिक नैतिकता (Constitutional Morality) की बात गयी, जो आजतक शायद व्यावहारिकता में नहीं ही आ सकी| फिर भी मैं इस सवाल के बहाने आपको भविष्य की ओर देखने समझने को उत्सुक करता हूँ, ऐसा मेरा मानना है|

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक 

2 टिप्‍पणियां:

  1. तथ्यपरक, तार्किक एवं सार्थक विश्लेषण। साधुवाद!

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  2. चाहे राजनीतिक विषय हो या दार्शनिक या सामाजिक या आर्थिक, सब पर गहन जानकारी और सामान्य से अलग सोच के साथ लिखते हैं। अद्भुत है।

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