सोमवार, 21 अगस्त 2023

आधुनिक इतिहास लेखन कैसा हो ?

यदि आप इतिहास लिखने चले हैं, या कोई इतिहास लिखने वाले हैं, या पढ़ने वाले हैं, तो आपको सबसे पहले यह जानना समझना होगा कि इतिहास क्या है? इतिहास क्यों आवश्यक होता है? इतिहास लेखन कैसे किया जाय? आधुनिक यानि वैज्ञानिक इतिहास लेखन क्या है? चाहे आप इतिहास किसी व्यक्ति का, किसी वर्ग का, किसी जाति का, किसी संस्कृति का, किसी राष्ट्र का, किसी अर्थव्यवस्था का, या किसी विज्ञान इत्यादि का लिख रहे हैं, आपको उपरोक्त बिन्दुओ एवं अवधारणाओं को अच्छी तरह से जानना और समझना चाहिए|

वर्तमान एवं भविष्य की नींव इतिहास में है, इसलिए इतिहास पढ़ें, इतिहास जानें, इतिहास समझें, और इतिहास को सुधारें, ताकि आप का, समाज का, राष्ट्र का एवं मानवता का वर्तमान एवं भविष्य को सँवारा जा सके| लेकिन इतिहास को आधुनिक और वैज्ञानिक होना चाहिए| आइए, इतिहास को आधुनिक, वैज्ञानिक और पुरातात्विक दृष्टिकोण से समझें|

यहाँ महान लेखक जार्ज ऑरवेल को एक बार याद कर लें| उन्होंने कहा था - “जो इतिहास पर नियंत्रण रखता है, वह वर्तमान और भविष्य पर भी नियंत्रण रखता है|”                                                              

इतिहास क्या है? (What is History?)

‘इतिहास मानव समाज का सामाजिक सांस्कृतिक रूपान्तरण का क्रमानुसार व्यवस्थित ब्यौरा है, जो तथ्यों, तर्कों एवं साक्ष्यों पर आधारित होता है’| यानि किसी भी काल एवं किसी भी क्षेत्र में मानव का सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूपांतरण का कालबद्ध एवं क्रमबद्ध ब्यौरा ही ‘इतिहास’ है| इसे दुसरे शब्दों में कहा जा सकता है, कि “इतिहास मानव का सामाजिक सांस्कृतिक रूपांतरण का क्रमानुसार विश्लेष्णात्मक मूल्याङ्कन का विवरण है”|  अर्थात इसमें मानव समाज का सामाजिक रूपांतरण भी शामिल है, और सांस्कृतिक रूपांतरण भी शामिल है| लेकिन इस रूपांतरण का विवरण या ब्यौरा विश्लेष्णात्मक (Analytical) भी होना चाहिए, और प्रकृति एवं मानवता के सापेक्ष यानि भविष्य के सापेक्ष इसका मूल्याङ्कन (Evaluation) भी होना चाहिए| इस पक्ष को शामिल किए बिना कभी भी एक सम्यक इतिहास रचा नहीं जा सकता है|

इस रूपांतरण को तत्कालीन ‘बाजार की शक्तियां’ (Market Forces) निर्धारित करती है, जो इतिहास के सन्दर्भ में ‘ऐतिहासिक शक्तियां’ (Historical Forces) कहलाती है| इसे ही वर्तमान में तत्कालीन यानि तात्कालिक शक्तियाँ भी कहते हैं| इन बाजार की शक्तियों यानि ऐतिहासिक शक्तियों में उत्पादन (Production), वितरण (Distribution), विनिमय (Exchange) एवं उपभोग (Consumption) के साधनों एवं शक्तियों एवं उनके अंतर्संबंधों की ही भूमिका प्रमुख है| इसी के कारण मानवीय संस्था, मूल्य, विचार, प्रतिमान, दृष्टिकोण, संस्कार, संस्कृति एवं इससे सम्बन्धित भौतिक स्वरुप भी बदल जाते हैं| मानवीय (मानव निर्मित) संस्था में विवाह, परिवार, समुदाय, राज्य, राष्ट्र, मुद्रा, बाजार, व्यापार, आस्था, आदि में परिवर्तन होता है, जिसे इतिहास के रूप में याद किया जाता है| समाज में इन ‘संस्थाओं के द्वारा किए गए क्रिया कलापों एवं उनके अंतर्संबंधों की शक्तियों एवं प्रभावों के कारण समाज में हुए परिवर्तन का क्रमबद्ध ब्यौरा ही इतिहास है’|

इस तरह, “मानव एवं उसके द्वारा निर्मित संस्थाओं (Institutions) के द्वारा प्रकृति में हस्तक्षेप से हुए सामाजिक सांस्कृतिक रूपांतरण (Social Cultural Transformation) के क्रमबद्ध ब्यौरा (Chronological Details) को ही इतिहास” कहा जाता है| ये सब संस्था मिलकर इतिहास को प्रभावित करते हैं, और स्वयं भी इनसे प्रभावित होते हैं| इस तरह इतिहास में मानव समाज के समुदाय’, ‘समूह’, ‘परिवार’, ‘संगठन’, ‘संघ’, ‘वर्ग’, ‘जाति’ आदि के मूल्य, विचार, प्रतिमान, दृष्टिकोण, संस्कार, संस्कृति में परिवर्तन होता है, और इससे विवाह, परिवार, समुदाय, राज्य, राष्ट्र, मुद्रा, बाजार, व्यापार, आस्था, आदि में रूपांतरण भी होता है| इन्ही सब का विस्तृत एवं व्यवस्थित क्रमबद्ध विवरण ही इतिहास होता है| जब परिवर्तन अपेक्षाकृत स्थायी होता है, तो वह रूपांतरण कहलाता है|

दुसरे शब्दों में, ‘विचारों’ (Thoughts) एवं ‘चेतनाओं’ (Consciousnesses) के ‘उद्विकास’ (Evolution) की व्याख्या ही ‘इतिहास’ है| पुरे इतिहास में मानवीय विचारों एवं चेतनाओं का ही क्रमिक विकास का व्यवस्थित विवरण है, जो विचारों एवं चेतनाओं का ही प्रातिफल है| मानव की सभी गतिविधियाँ विचार एवं चेतना की अवधारणाओं की सीमाओं में समाहित हो जाती है, और इस तरह यह इतिहास को समेकित रूप में व्याख्यापित कर लेता है|

इतिहास में व्यक्तियों, शासकों, राज्यों आदि के नाम, तथ्य (Facts), तिथियाँ, और विवरण तो इतिहास के उदाहरण होते हैं, स्वयं इतिहास नहीं होता है| कोई विशेष राजा, उसका राज्य, उसकी शासन प्रणाली, युद्ध, तिथियाँ इत्यादि इतिहास के तथ्य हैं, इतिहास के उदाहरण मात्र हैं| ये तथ्य किसी बदलाव का, बदलाव की प्रक्रिया का एवं बदलाव के परिणाम का उदाहरण होता हैं| इसीलिए इतिहास के व्यक्तियों के नाम एवं घटनाओं के ब्यौरे तथा तिथियों की बारीकियां इतिहास में महत्वपूर्ण नहीं होती है| इसे स्थिरता से एवं गंभीरता से समझा जाय| इसी कारण इतिहास की आधुनिक पुस्तकों में सामाजिक सांस्कृतिक रूपांतरण, उसके कारक शक्तियां, उनके क्रिया कलाप एवं प्रभाव तथा परिणाम का अध्याय होता है, शासकों के नाम का अध्याय नहीं होता है|

किसी का ‘इतिहास का बोध’ (Perception of History) ही उसकी संस्कृति के स्वरुप को निर्धारित करता है, यानि कोई अपने इतिहास को कैसे अपनाता है, यानि अपने इतिहास को कैसे समझता और स्वीकार करता है, और यही ‘समझ’ उसके संस्कृति के स्वरुप को निर्धारित करता है| इसके लिए इतिहास की प्रस्तुतिकरण भी महत्वपूर्ण है| यही संस्कृति 'मानसिक प्रक्रियाओं, अनुभवों, एवं व्यवहारों' यानि “सोचने एवं क्रियान्वयन के सॉफ्टवेयर” के रूप में व्यक्ति को, परिवार को,  समाज को, राष्ट्र को, और मानवता को तथा अन्य संस्थाओं को संचालित एवं नियंत्रित करता रहता है| ‘इतिहास का बोध’ संस्कृति के रूप में इन सबों को यानि विचारों, भावनाओं एवं व्यवहारों को चेतनता (Consciousness), अचेतनता (Un Consciousness), अवचेतनता (Sub Consciousness) और अधिचेतनता (Super Consciousness) के स्तर पर संचालित और प्रभावित करता है| इस तरह, ‘इतिहास का बोध’ किसी के वर्तमान की नींव है और भविष्य को स्वरुप देता है| अर्थात इतिहास की समझ ही वर्तमान एवं भविष्य को निर्धारित एवं निश्चित करता है यानि वर्तमान स्वरुप देता है|

प्रो० एडवर्ड हैलेट कार ने ऐक्टन को उद्धृत करते हुए कहा है कि – “हम अपने जीवन में ‘अंतिम इतिहास’ नहीं लिख सकते, लेकिन हम ‘परम्परागत इतिहास’ को रद्द कर सकते हैं|” मतलब कि कोई भी इतिहास अन्तिम रूप में लिखा नहीं जा सकता है, परन्तु इतिहास के वर्तमान स्वरुप में सदैव परिवर्तन किया जा सकता है, या सदैव परिवर्तन किया ही जाना चाहिए| ऐसा इसलिए कि समाज का सन्दर्भ बदलते परिस्थिति एवं आवश्यकता के अनुरूप सदैव बदलता रहता है, यानि समाज की आवश्यकताएं सदैव बदलती रहती है, और इसीलिए इतिहास के वर्तमान स्वरुप को भी सदैव बदलते रहना चाहिए| चूँकि इतिहास भी एक सापेक्षिक विषय है, और इतिहास भी एक जैविक जीव की तरह ही है, इसीलिए एक इतिहास को भी सन्दर्भ एवं परिस्थितियों के अनुरूप बदलती रहनी चाहिए|

'ऐतिहासिक तथ्य' स्वयं 'इतिहास' के लिए कच्चा माल (Raw Material) नहीं होता, बल्कि  'इतिहासकार' के लिए कच्चा माल होता है| इन ऐतिहासिक तथ्यों की व्याख्या एवं निर्धारण उन इतिहासकारों के पूर्वग्रहों एवं मान्यताओं से सुनिश्चित होता है| एक इतिहासकार को अपनी रचना के द्वारा जनता यानि समाज की सोच, विचार, संस्कार, आदर्श, मूल्य, मंतव्य, आशय (Intention), प्रयोजन (Purpose), लक्ष्य (Target), राय (Opinion), अवधारणा और दृष्टिकोण आदि को प्रभावित करना होता है| इसे प्रभावित करने का सबसे असरदार तरीका यह है कि वह इतिहासकार जो प्रभाव उत्पन्न करना चाहता है, उसी उद्देश्य एवं लक्ष्य के ही अनुरूप ही उपलब्ध तथ्यों एवं प्रक्रियाओं का उपस्थापन (Presentation) और व्याख्या (Explanation) करें| ध्यान रहे, तथ्य वही बोलता है, जो वह इतिहासकार उन तथ्यों से बोलवाना चाहता है|

जब तक आप एक इतिहासकार की मंशा (Intention) नहीं समझ लेते हैं, तब तक आप उस इतिहास को नहीं समझ सकते हैं| यह इतिहासकार कौन है और उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि क्या है? किसी तथ्य या प्रस्तुतीकरण अपने आप में तबतक इतिहास नहीं बन जाता है, जब तक कि ये मानव के सामाजिक, संस्कृतिक एवं आर्थिक विकास यानि उन्नयन की गाथा में प्रासंगिक नहीं बन जाता| इतिहास का अर्थ सिर्फ यह नहीं है कि वह तथ्यों की व्याख्या करें, जो उसने समझा है या जो वह बताना या समझाना चाहता है, बल्कि वह समग्र समाज को मानवता एवं प्रकृति के भविष्य का भी ध्यान रखें| एक इतिहासकार अपने युग के साथ अपने मानवीय अस्तित्व के सुनहरे भविष्य की शर्तों पर जुड़ा  होता है| एक इतिहास में विश्लेषण (Analysis) भी होता है, मूल्याङ्कन (Evaluation) भी होता है, सभी संभाव्य प्रश्नों यानि शंकाओं (Inquiry) का समाधान भी होता है, इन सभी का एक सामान्यीकृत एवं सर्वव्यापक (Openness) स्वरुप भी होता है, और उपरोक्त सभी कुछ एक में संयोजित या संगठित (Unite) होता है| किसी इतिहासकार को वर्तमान की सर्वव्यापक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उसे अतीत के सन्दर्भ में लिखना होता है|

इतिहास महत्वपूर्ण क्यों? (Why History is Important?)

इतिहास क्यों महत्वपूर्ण है अर्थात इसका अध्ययन क्यों किया जाता है, या क्यों किया जाना चाहिए? इतिहास वह विषय है, जो मानव को और ज्यादा बुद्धिमान बनाता है| और यदि कोई ‘इतिहास लेखन’ मानव को और ज्यादा बुद्धिमान नहीं बनाता है, तो निश्चितया वह ‘लेखन’ इतिहास नहीं है, अपितु एक कथा वर्णन है| अर्थात इतिहास हमें विश्लेषण करना सीखाता है, तर्क करना भी समझाता है, विवेकशीलता भी बढाता है और वैज्ञानिक समझ भी विकसित करता है| किसी भी समाज की वर्तमान सोच, समझ, व्यवहार, मूल्य, प्रतिमान, आदर्श, संस्कार, संस्कृति, एवं गतिविधियों को अच्छी तरह समझने के लिए हमें उसके इतिहास को समझना होता है|

 “विचारों का जड़त्व” यानि ‘सांस्कृतिक जड़ता’ किसी को वही देखने या समझने को बाध्य करता है, जो वह आदतन अभी तक देख या समझ रहा होता है, या वह देखना एवं समझना चाहता है| एक अध्येता का उद्देश्य उसे उसी समय समझ में आता है, जब वह सावधान एवं सजग होता है| यानि इतिहास के अध्ययन में तीक्ष्ण, गहन, गहरा, सूक्ष्म एवं व्यापक विश्लेषण क्षमता के साथ साथ उसमे कार्य कारण सम्बन्ध और उपने सम्यक उद्देश्य की समझ के लिए आवश्यक विवेक भी होनी चाहिए| यह पाया गया है कि बहुत से क्रान्तिकारी व्यक्ति या समूह सामाजिक, या सांस्कृतिक, या आर्थिक, या शैक्षणिक क्रान्ति करना तो चाहते हैं और उसके लिए समर्पित भी हैं, परन्तु इसके लिए उन्हें कैसा इतिहास चाहिए, उसकी समझ ही नहीं है| वे इसके लिए किसी का विरोध करना ही क्रान्ति की कार्य विधि यानि प्रक्रिया का पर्यार्य समझ लेते हैं| ‘इतिहास’ की भूमिका किसी भी व्यक्ति एवं समाज में सृजनात्मक सोच एवं कार्य कैसे पैदा करता है? इस विषय पर कभी स्थिरता एवं गंभीरता से विचार एवं विमर्श किया ही नहीं जाता| जबकि यह सब अनिवार्य है|

कहा जाता है कि ‘कथानक (Narrative) ही जन समुदाय पर शासन करते हैं’| ‘कथानक’ क्या है? किसी भी विषय या सन्दर्भ में एक विश्वास करने योग्य कहानी ही कथानक है| चूँकि एक कथानक को विश्वास करने योग्य होना चाहिए, इसलिए यह विश्वास कथानक बनाने वाले की योग्यता एवं सुनने यानि मानने वाले की योग्यता के स्तर पर निर्भर करता है| यानि एक कथानक निर्माता को चतुर एवं श्रोता को नादा यानि नासमझ होना चाहिए, इससे एक कथानक की विश्वसनीयता अच्छी तरह से स्थापित होती है| एक कथानक एक मिथक के रूप में एक काल्पनिक कहानी हो सकता है, एक कथानक एक इतिहास के रूप में सत्य के निकट हो सकता है, या एक कथानक इतिहास एवं विज्ञान का आवरण ओढ़े एक महज कल्पना हो सकता है| कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी कहानी में 'इतिहास का सुगंध' यानि 'इतिहास का छौंक' ही उस कहानी यानि कथानक को विश्वसनीय बनाता है|

अक्सर एक कथानक इतिहास बन कर समाज को प्रभावित करता रहता है, और इसीलिए एक कथानक को इतिहास के रूप में प्रस्तुत होना होता है| कथानक काल्पनिक हो, या ऐतिहासिक हो, उसे इतिहास के प्रसंग के रूप में ही आना होता है, या उसे इसी रूप में मान लिया जाता है| मतलब एक कथानक को इतिहास के रूप में प्रस्तुत किया जाता है| इतिहास के एक हिस्से या प्रसंग के रूप में प्रस्तुत होने से इसके प्रवाह में अच्छे अच्छे बुद्धिजीवी की ‘तथाकथित’ वैज्ञानिकता, प्रज्ञाशीलता एवं विद्बता बह जाता है| यह कथानक उनको बहा ले जाने या उड़ा ले जाने का बहुत ही आसान तरीका है|

किसी भी समय में किसी व्यक्ति, समाज एवं व्यवस्था की अवस्था उसकी सभ्यता एवं संस्कृति का समेकित (Integrated) परिणाम होता है| किसी भी समाज या व्यवस्था की संस्कृति उस समाज या व्यवस्था की वह मानसिक अवस्था (Mental Status) होती है, जो उसके विचारों (Thoughts), आदर्शों, संस्कारों (Rituals/ Impressions), मूल्यों, प्रतिमानों (Norms) एवं व्यवहारों (Behaviors) के समुच्चय (Set) से निर्मित होती है| और किसी भी संस्कृति की अवस्था या स्तर उस समाज एवं व्यवस्था के बारे में उन समाज के ‘इतिहास के बोध’ (Perception of History) से निर्मित एवं निर्धारित होता है| इस तरह किसी भी समाज एवं व्यवस्था का वर्तमान एवं भविष्य का विकास, समृद्धि, सफलता आदि भी उसके ‘इतिहास बोध’ से निर्मित एवं निर्धारित होता है|

इससे स्पष्ट है कि किसी भी समाज के विकास एवं समृद्धि के स्तर की जड़े उसकी इतिहास की व्याख्या पर निर्भर करती है| अपने वर्तमान संस्कृति में यानि लोगों के वर्तमान सोचने एवं विचारने के प्रतिरूप (Pattern) में अपने दृष्टिकोण के पक्ष में ‘पैरेडाईम शिफ्ट’ (Paradigm Shift) करना पड़ता है| ‘पैरेडाईम शिफ्ट’ किसी भी अवधारणा, विचार, दृष्टिकोण एवं अभिवृति में बहुत बड़ा परिवर्तन है| इसे आप नए आधार यानि नए अवधारणा यानि नए सन्दर्भ पर आधारित होना भी कह सकते हैं| किसी भी वर्तमान को समझने के लिए उसके इतिहास को समझना होता है, क्योंकि किसी भी वर्तमान का स्वरुप या प्रतिरुप उसकी इतिहास की जड़ों से ही सिंचित एवं निर्मित होता है| कोई भी वर्तमान उनकी इतिहास की जड़ों (Roots) पर टिका होता है| इस तरह हम वर्तमान की जड़ों को समझ कर ही वर्तमान को सही, आवश्यक एवं समुचित ढंग से समझ सकते हैं| इसे समझ कर ही कोई भी वर्तमान की समस्यायों को सुलझा सकता है| इसी तरह हमें अपने भविष्य को बदलने के लिए भी वर्तमान में अपने इतिहास बोध को बदलना होगा| इसके लिए हमें नीव की क्षमता एवं संरचना को जानना एवं समझना होता है| इसी कारण अपने सुनहरे भविष्य के लिए हमें अपने इतिहास बोध को मानवीय, वैज्ञानिक, समुचित ,सम्यक, समेकित, न्यायपूर्ण एवं विस्तृत बनाना पड़ता है|

क्रोशे ने घोषणा की कि “सभी इतिहास ‘समसामयिक इतिहास’ होते हैं”| इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि इतिहास का लेखन ही वर्तमान की समस्यायों को सुलझाने के लिए होता है| इस तरह कोई अपने अतीत को यानि अपनी जड़ों को देख कर और समझ कर ही अपने वर्तमान को समझता है| अर्थात जैसे वर्तमान बदलता रहता है, उसी तरह इतिहास भी समय के साथ बदलता रहता है| एक इतिहासकार का मुख्य कार्य किसी घटना या व्यक्ति का ब्यौरा या विवरण (Details/ Description) देना ही नहीं है, अपितु उस समय के उस क्षेत्र विशेष की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक पहलुओं एवं प्रतिफलों का मूल्याङ्कन (Evaluation) करना होता है और जनता को अपनी मनोवांछित इच्छा या व्याख्या से सहमत कराना होता है|

इतिहास वही है, जो एक इतिहासकार इतिहास के रूप में रचता है या बनाता है| एक इतिहासकार अतीत में जाकर वर्तमान और भविष्य को बनाता है और निर्धारित करता है| इस तरह एक इतिहास यानि अतीत सामाजिक एवं सांस्कृतिक संरचना का वह आधार (Foundation/ Base) होता है, जिस पर समाज का वर्तमान एवं भविष्य की अधिसंरचना (Infrastructure) खड़ा किया जाता है| इतिहास को तर्क एवं तथ्यों की व्याख्या का संयुक्त स्वरुप माना जाता है| एक इतिहासकार भी उस इतिहास की जड़ता का शिकार होता है, यानि उस 'ऐतिहासिक जडत्व' (Historical Inertia) से बंधा हुआ होता है| लेकिन वह इस बन्धन को महसूस भी कर सकता है या नहीं भी कर सकता है|

इतिहास स्पष्टतया एक विज्ञान है| इसमें पहले तथ्यों की जांच होती है, फिर निष्कर्ष निकाले जाते है और इसे कुछ ऐतिहासिक सिद्धांतों पर कसा जाता है| लेकिन यहाँ इतिहासकार उन तथ्यों को वैसा ही समझता है, जिसे वह अपनी पृष्ठभूमि, अपनी पसंद, अपने दृष्टिकोण से देखता एवं समझता है| एक व्यक्ति, एक समुदाय, एक समाज, एवं एक राष्ट्र जैसा सोचता और समझता है, उसी के अनुरूप उसकी वास्तविकता एवं उसकी भौतिकता रूपांतरित होकर अपना भौतिक स्वरुप लेता होता है| इनकी सोच एवं समझ इनकी ऐतिहासिक संस्कृति से निर्धारित होता है, जिसका निर्माण उसके अपने इतिहास बोध (Perception of History) से होता है| संस्कृति किसी व्यक्ति, समाज, एवं राष्ट्र का समेकित एवं सम्पूर्ण मानसिक निधि है, जो उसे उसके परम्परा एवं पर्यावरण से प्राप्त होता है| यह परम्पराओं एवं संस्कारों के निर्धारित एवं निश्चित प्रतिरूपों से समाज में सीखा जाता है| कोई भी संस्कृति किसी समाज को संचालित, प्रभावित, नियंत्रित करने वाला एक साफ्टवेयर है| किसी भी सांस्कृतिक बोध की जड़ें उसकी ऐतिहासिक बोध में होती है| इसलिए संस्कृति रूपी साफ्टवेयर को बदलने एवं समझने के लिए इतिहास का अध्ययन किया जाता है| यह सब ही इतिहास का वैज्ञानिक दृष्टिकोण है| इसी दृष्टिकोण से किसी भी समाज, संस्कृति, क्षेत्र या राष्ट्र का इतिहास - लेखन होना चाहिए, ताकि वह अपने मानवीय एवं प्राकृतिक संसाधनों का महत्तम एवं समुचित विकास कर सके|

संक्षेप में, हमारी संस्कृति ही हमारे विचारों, संस्कारों एवं व्यवहारों को नियमित एवं संचालित करती है, और यही संस्कृति हमारे इतिहास बोध से उत्पन्न एवं निर्मित होती है| और हमारा इतिहास बोध हमारे इतिहास के अध्ययन एवं हमारी समझ से बनती है| इसीलिए हमें इतिहास के लेखन एवं अध्ययन को जानना एवं समझना चाहिए| इस तरह ‘इतिहास’ किसी भी व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं मानवता के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है|

यदि कोई भी उपरोक्त विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन को समझता है, तो वह अवश्य ही आधुनिक एवं वैज्ञानिक इतिहास लिख सकता है, जो पुरातात्विक एवं प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्यों एवं तथ्यों पर आधारित तर्कपूर्ण, वैज्ञानिक एवं विवेकशील होगा| जहां पुरातात्विक एवं प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्यों एवं तथ्यों को शोधों एवं अनुसंधानों में शामिल नहीं किया जाता है, वहाँ कथानक यानि मिथक ही शासन करता है| इसी सब के आधार पर इससे सम्बन्धित शोध एवं अनुसंधान किए जा सकते हैं|

जातीय इतिहास क्यों?

जाति एक भारतीय जमीनी वास्तविकता है, जिसके सामानांतर विश्व में कोई दुसरा उदाहरण नहीं है| इसीलिए बहुत से समाजशास्त्री ‘जाति’ का अंग्रेजी अनुवाद पुर्तगाली अवधारणा पर आधारित अंग्रेजी ‘Caste’ को सही नहीं मानते हैं, और ‘जाति’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘Jaati’ (Jati) ही रखने के पक्ष में हैं| जाति को भारतीय समाज में परिवार नामक संस्था का विस्तारित स्वरुप माने जाने के कारण ही एक जाति को ‘विस्तारित परिवार’ (Extended Family) भी माना जाता है| जाति समाज को विभाजित करने वाली जन्माधारित एक स्तरीकृत (Stratified) एवं पदानुक्रमण (Hierarchy) व्यवस्था है, जिसे एक जन्म काल में कभी बदली नहीं जा सकती है| यह जाति की मौलिक प्रकृति है|

जाति एवं वर्ण का कोई भी पुरातात्विक एवं प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य प्राचीन काल से सम्बन्धित नहीं है, अर्थात किसी भी तथाकथित जाति एवं वर्ण का कोई भी अस्तित्व प्राचीन काल में नहीं था| यानि जाति एवं वर्ण की उत्पत्ति ही मध्ययुगीन है, जिसे ऐतिहासिक सामन्ती शक्तियों ने मध्य काल में जन्म दिया है| मध्य काल में जाति व्यवस्था एवं वर्ण व्यवस्था एक दुसरे के पूरक और एक दुसरे पर आधारित सामानांतर व्यवस्था थी| वर्ण व्यवस्था सामन्ती शासन की कार्यपालिका व्यवस्था थी, जो अपने अस्तित्व के लिए सर्वव्याप्त ‘गतिशील जाति व्यवस्था’ में कार्यरत भारतीय समाज पर आधारित थी|

प्रथम विश्व युद्ध की आहट ने प्रत्येक राष्ट्रों में जन समर्थन पाने के लिए ‘वयस्क मताधिकार’ की आवश्यकता को गहराई एवं गंभीरता से रेखांकित कर दिया| ब्रिटेन की संसद में उसी समय इसके सम्बन्ध में घोषणा की गयी| समाज के यथास्थितिवादी प्रबुद्ध लोगों को इस आहट एवं सुग्बुगाहट की समझ सबसे पहले हुई, जैसे पेड़ की फुनगी को हवा का रुख सबसे पहले पता चल जाता है| संभावित लोकतंत्र में वयस्क मताधिकार की शक्ति एवं आवश्यकता ने भारतीय विभाजित समुदायों को भावनात्मक रूप में गोलबंद करने की अनिवार्यता को स्पष्ट कर दिया| अब नए स्वरुप में इतिहास लेखन कर प्रथम तीन वर्ण को जाति बना कर और विलुप्त हो चुकी ‘शुद्र’ वर्ण को पुनर्स्थापित कर जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था का सम्मिश्रण तैयार किया गया| 'शुद्र' सामन्ती व्यवस्था में सेवक थे, जो अपनी क्षुद्र भूमिका एवं क्षुद्र (नगण्य) संख्या के कारण ब्रिटिश साम्राज्यवाद के काल में लुप्त हो गए थे| इस नए एवं सम्मिलित  सम्मिश्रित स्वरुप को इतिहास के अप्रचलित हो चुके अवधारणा “हिन्दू” का बहुप्रसारित उपयोग एवं प्रयोग किया गया| ध्यान दिया जाय कि जो सल्तनत काल में "वैदिक संस्कृति" हो गयी, मुग़ल काल में "ब्राह्मणी संस्कृति" हो गयी, फिर वही संस्कृति ब्रिटिश साम्राज्यवाद में "आर्य संस्कृति" हो गयी, प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति पर "हिन्दू संस्कृति" हो गयी, और वही अब "सनातनी संस्कृति" कहला रही है| सामाजिक सांस्कृतिक रूपांतरण की इस क्रियाविधि  की गत्यात्मकता (Dynamism of Mechanics) को समझे बिना इसे नहीं समझा जा सकता है|  

हिन्दू व्यवस्था को मजबूत करने के लिए ‘जाति व्यवस्था’ को मजबूत करना, और जाति व्यवस्था को ऐतिहासिक साबित करना जरुरी हो जाता है| यही जाति व्यवस्था ही इस तथाकथित हिन्दू संस्कृति की निर्माण ब्लाक (Building Block) है| इसीलिए इस हिन्दू संस्कृति को गौरवशाली बनाना और सनातन स्थापित करना आवश्यक हो गया है| इसके लिए इतिहास को मिथक से मिलना आवश्यक हो जाता है। यदि यह सब नहीं किया गया, तो हिन्दू व्यवस्था का संरचनात्मक ढाँचा ही ध्वस्त हो जायगा| हिन्दू व्यवस्था का आधारभूत संरचनात्मक ढाँचा ‘ईश्वर’, ‘आत्मा’, ‘पुनर्जन्म’, 'करमवाद', ‘जाति एवं वर्ण’ पर आधारित है, और जाति एवं वर्ण व्यवस्था इसका महत्त्वपूर्ण स्तम्भ है| इसीलिए व्यवस्था भी जाति को गौरवमयी बनाने का, इसके लौकिक व्यक्तित्व को अलौकिक बनाने का, जाति को सभ्यता एवं संस्कृति के उदय से सनातन, पुरातन एवं स्थायी साबित करने के अभियान का समर्थन करता है, और सहयोग भी करता है| इसे ही और इसे ही समझना जरूरी होगा|

इस अभियान में हम और हमारा समाज कहाँ है, इसका विश्लेष्णात्मक मूल्यांकन आपको करना होगा| सभी तथाकथित प्रगतिशील एवं क्रान्तिकारी वैचारिक्ताएं अपने विरोधियों द्वारा उपलब्ध कराये गए ढाँचे में ही और उन्ही के द्वारा परोसे गये सामग्रियों में विकल्प तलाश रही है| यानि उसी के मकडजाल में उलझी हुई और मृगतृष्णा में दौड़ दौड़ कर मंजिल पाने का विभ्रम पाले हुए है| इसका समाधान नवाचार और नवाविष्कार में ही है, जिसे प्रो० थामस सम्युल कुहन ने ‘पैरेड़ाईम शिफ्ट’ कहा है|

अन्त तक बने रहने के लिए आपको सादर धन्यवाद |

आचार्य निरंजन सिन्हा 

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