सत्य (Truth)
सदैव सही नहीं होता है| 'सही' का अर्थ यहाँ ‘Correct’ भी है, समुचित (Proper) भी है,
और उपयुक्त (Appropriate) भी है, क्योंकि ‘शब्दों का अपना कोई अर्थ नहीं होता है’|
‘शब्दों का अर्थ पाठक का होता हैं’, जो उनकी संस्कृति, उनके पारितंत्र (Ecosystem)
एवं उनके इतिहास बोध (Perception of History) से अक्सर निर्धारित होता है| प्रसिद्ध
भाषा विज्ञानी फर्डीनांड डी सौसुरे तो शब्दों के ‘सतही’ (Superficial) अर्थ,
‘निहित’ (Implied) अर्थ, ‘भावात्मक’ (Emotional) अर्थ और ‘संरचनात्मक’ (Structural)
अर्थ की ओर स्पष्ट रूप से ले जाते हैं| अर्थात प्रत्येक ‘सत्य’ का सतही अर्थ भी
होता है, कुछ विशिष्ट लक्षित (Targeted) निहित अर्थ भी होता है, कुछ किसी की भावना
को उकेरता हुआ या किसी गहराई से उखाड़ता हुआ और अपने बहाव में ‘उड़ा’ ले जाता हुआ अर्थ
रखता है, या अपने संरचनात्मक बनावट के ढाँचे (Frame – Work) में डुबाता हुआ या
उलझता हुआ अर्थ भी देता है|
अर्थात सत्य
कभी भी एक स्थान और एक समय पर स्थिर नहीं होता है, लेकिन यह भी वस्तुओं की प्रकृति
के अनुसार बदल भी जाता है| कहने का तात्पर्य यह है कि ‘भौतकीय’ सत्य एक स्थान और
एक समय पर स्थिर हो सकता है, लेकिन ‘चेतनता’ युक्त वस्तुओं अर्थात जीवों का सत्य एक
स्थान और एक समय पर स्थिर नहीं होगा| आप चेतनता को किसी के ‘मन’ (Mind) के रूप में
समझ सकते हैं| आप भी जानते हैं कि किसी का मन उसके दिमाग (Brain) से अलग होता है,
लेकिन किसी का दिमाग ही किसी के मन यानि आत्म (Self) का Modulator (मौडूलेटर –
समझने योग्य अर्थ देने वाला) का काम करता है, और इसीलिए मन का दिमाग से अलग होते
हुए भी एक दुसरे से पूरी तरह सम्बद्ध है|
अल्बर्ट
आइन्स्टीन ने तो ‘सापेक्षवाद’ (Relativity) का सिद्धांत दे कर सभी कुछ को
सापेक्षिक बना दिया| यानि परिस्थितियाँ (Situation) बदल दीजिए, सन्दर्भ (Reference)
बदल दीजिए, पृष्ठभूमि (Background) बदल दीजिए, पारितंत्र (Ecosystem) यानि
पर्यावरण बदल दीजिए, नजरिया (Attitude) बदल दीजिए, परिप्रेक्ष्य (Perspective) बदल
दीजिए, किसी का सभी अर्थ ही बदल जाता है| जब एक ही सत्य के इतने रूप या स्वरुप
उपलब्ध हैं, तो यह भी स्पष्ट है कि इसकी उपयोगिया, इसकी ग्राह्यता, इसकी
स्वीकार्यता का स्तर भी भिन्न भिन्न होगा ही| तो सत्य के स्वरुप या प्रकार इतने
क्यों हो जाते हैं, यह अभी तक पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो पाया है|
क्योंकि किसी
भी सत्य को व्यक्ति, वर्ग,
समाज और संस्कृति की अनुमोदन (Approval) की आवश्यकता
होती है और उसके बाद ही वह सही साबित हो सकता है| इसीलिए सत्य सदैव सही नहीं हो पाता
है, यानि सत्य सदैव कारगर यानि असरदार नहीं हो पाता है| सत्य अक्सर सामान्य लोगों के लिए कठोर, निष्ठुर और
विचलित करने वाला भी होता है,
क्योंकि यह परम्परागत मान्यता यानि सोच यानि अवधारणा से भिन्न होता है, और इसीलिए सामन्य जनों की
सामान्य आदत से भिन्न या विपरीत भी हो जाता है| इसी कारण एक सत्य हर व्यक्ति, हर वर्ग, हर समाज और
हर संस्कृति को सहजता से,
सरलता से और स्वभाव से स्वीकार्य भी नहीं होता है। एक अलग और भिन्न सत्य को जानने
एवं समझने के लिए उसमे विश्लेष्णात्मक मूल्याङ्कन की क्षमता एवं स्तर चाहिए, जो
सामान्यत: सामान्य लोगों मे होता ही नहीं है| इसी आवश्यक विशेषता को आजकल आलोचनात्मक
चिंतन (Critical Thinking) भी कहते हैं|
यह धारणा एक
महज मिथक है, एक
महाझूठ है कि सत्य हमेशा कारगर होता है और
इससे सदैव हर समस्या का समाधान पाया जा सकता है। लेकिन यह धारणा सदैव ग़लत भी नहीं
है। यह भौतिक वस्तुओं के संदर्भों में है, यानि यह भौतिकीय वस्तुओं एवं
इंजीनियरिंग के लिए पूर्णतया सही ही है| यह सत्य निश्चित ही है और इसी कारण इस पर आज विज्ञान,
इंजीनियरिंग (अभियंत्रण) एवं तकनीक (Technology) का इतना विकास हो चुका है। सत्य
सदैव भौतिक वस्तुओं के संदर्भ में पूर्णतया सही होता हैं, लेकिन जहाँ मन
है, चेतना
है, वहाँ भावना है और इसीलिए वहाँ स्थिति बदल जाती है।
इसीलिए यह भी
कहा जाता है कि लोकतंत्र (Democracy) के भविष्य का निर्णय इस बदलते समय में लोकतंत्र
के मतदाता वास्तव में नही करते हैं, बल्कि इस बदलते तकनिकी युग में मतदाता के मत का निर्णय उसकी संस्कृति (सम्प्रदाय/ पंथ),
बाजार (Market), सत्ता (राज्य/ Authority), एवं तकनीक (डिजीटल तकनीक सहित) के
ध्वजवाहकों का संयुक्त गठबंधन या ‘महासत्ता’ करता है| यानि यह महासत्ता मतदाता के मन को ही उड़ा ले जाता है, या बहा ले जाता है| अर्थात इस बदलते युग में मतदाता
अब गणतंत्र (Republic) एवं लोकतंत्र का वास्तविक नियामक नहीं रह गया है, वैसे सभी
कोई अपने अपने भ्रम (Illusion) या विभ्रम (Delusion) में जीने के लिए या मानने के
लिए स्वतंत्र हैं|
‘विचारों के
उपनिवेशीकरण’ के लिए यानि लोगों को ‘मानसिक गुलाम’ यानि दास बनाने के लिए यानि ‘अंधभक्त
अनुयायी’ बनाने के लिए इतिहास, मनोविज्ञान एवं संस्थान का सक्रिय एवं उत्साही
समर्थन की आवश्यकता होती है| संस्थान में सरकार सहित व्यवस्था एवं संस्कृति भी समाहित होता है| हमारी संस्कृति ही हमारे विचारों, संस्कारों, आदर्शों
एवं व्यवहारों का नियामक एवं सञ्चालन कर्ता है, और हमारी संस्कृति हमारे इतिहास के
बोध (Perception of History) से निर्मित होता है| यह मानवीय मनोविज्ञान की
अनिवार्यता है कि अज्ञानी (डिग्रीधारी भी इसमें शामिल हैं) समाज में एवं अवैज्ञानिक
संस्कृति में इतिहास का मिथकीकरण करना पड़ता है| किसी को भी नई या अलग सामाजिक एवं
सांस्कृतिक अवधारणाओं या प्रस्थापनाओं के स्वीकार्यता के लिए इतिहास को ढाल यानि
बंकर यानि छत के रूप में सहारा लेना पड़ता है, और इसीलिए मिथक को एक इतिहास के रूप
में प्रस्तुत होना होता है| इतिहास को सनातन, पुरातन, और गौरवमयी बनाया जाता है,
या बताया जाता है, लेकिन इतिहास के आड़ में मिथक ही इतिहास बन जाता है|
इतिहास को
मानव मन के अनुकूल या मतदाता के मन के अनुकूल ढालने में या ‘अंधभक्त’ बनाने में ही
मिथक काम आता है| मिथक अपने लक्षित मानव मन या मतदाता मन या अनुयायियों के ज्ञात
सोच, संस्कार एवं संस्कृति के इतिहास के अनुरूप तैयार कर उसे सहज, सरल एवं
स्वीकार्य बनाता है| यह सब उन लोगों पर लागू होता है, जिनमे आलोचनात्मक चिंतन का
स्तर एवं क्षमता नहीं होता है| अर्थात जो लोग साक्षर एवं डिग्रीधारी तो होते हैं,
परन्तु वे तार्किक, तथ्यपरक, विवेकशील एवं वैज्ञानिक मानसिकता के नहीं होते हैं, और
इसीलिए उनमे आलोचनात्मक चिंतन नहीं ही होता है| अर्थात उनमे विश्लेष्णात्मक
क्षमता, मूल्यांकन क्षमता और शंका करने की या प्रश्न- प्रतिप्रश्न करने की क्षमता
एवं स्तर नहीं होता है, तब उनके लिए मिथक ही वास्तविक इतिहास का काम करता है| मिथक को समझना सरल होता
है और सत्य को समझना कठिन होता है। सत्य तार्किक एवं तथ्यात्मक होता है| मिथक के बेसिर
पैर का होने के बावजूद मिथक को समझना मानना आसान होता है, क्योंकि मिथक वाचक समाज
के प्रतिष्ठित, सम्मानित एवं आदरणीय होते हैं|
इसलिए सिर्फ
सत्य के सहारे आप सदैव विजयी नहीं हो सकते। सत्य सर्वव्यापक हो सकता है, परन्तु स्थानीयता
और इसलिए उसकी भौगोलिकता, संस्कृति, मान्यता, परम्परा, आदर्श, मूल्य एवं प्रतिमान
आदि को महत्वपूर्ण बनाने के लिए ही इतिहास के स्थान पर मिथक को आना पड़ता है| मिथक
इतिहास को मानने एवं समझने में सरल,
साधारण एवं सहज बना देता है, और इस तरह मिथक की स्वीकार्यता एवं मान्यता बढ़
जाती है| इसीलिए मानव मन या मतदाता मन या अंधभक्त अनुयायियों के लिए सत्य प्रभावी
नहीं हो पाता है| आपसे अनुरोध है कि इसके अग्रेतर चिंतन आप स्वयं करे, और मुझे भी
अपनी टिपण्णी से लाभान्वित करें|
आचार्य निरंजन सिन्हा
(मेरे अन्य आलेख niranjan2020.blogspot.com पर देख सकते
हैं)
अति सुन्दर आलेख।
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