रविवार, 31 दिसंबर 2023

"विरोध करने" का मनोविज्ञान

(The Psychology of 'to Oppose')

आज हमलोग भारत के तथाकथित कई बौद्धिक सामाजिक सांस्कृतिक आन्दोलनों के उद्देश्यों के विपरीत उनको हो रही प्राप्ति का विश्लेषण गहराई से करेंगे और समझेंगे| ये आन्दोलनकर्ता जिस बात या अवधारणा का जबरदस्त विरोध करते दिखते हैं, कुछ दशकों से वही अवधारणा और ज्यादा मजबूत होकर उभरी है| हमलोग किसी का विरोध क्यों करते हैं?  और विरोध करने के स्पष्ट उद्देश्य और स्पष्ट मंशा के होते हुए भी विरोध के तरीकों की भिन्नता एवं विविधता से अलग अलग अर्थ कैसे निकलता हैक्या कभी कभी या अक्सर विरोध करने के कई तरीकों से उसी विरोधी लक्ष्य का समर्थन होता हैंजिसका वे विरोध करने चले हैभारत में कई सामाजिक और सांस्कृतिक आन्दोलनया अधिकतर आन्दोलन भी इसी विरोध के निहितार्थ को साबित कर रहे हैं, कि वे जिसका विरोध करते दिखते हैंवस्तुत: वे उसका ही जबरदस्त ढंग से समर्थन कर रहे हैं? यह बात पूर्णतया सही है और इसीलिए यह बात विचित्र भी लगती हैलेकिन है पूर्ण सत्य। 

जानबूझकर तीख़ा विरोध दर्ज कर अपने काम को आगे ले जाने का एक उदाहरण भारतीय फिल्मों से लिया जा सकता है। जिन किसी फिल्म को यदि आम जन में दिलचस्प बनाकर उनमें उत्सुकता पैदा कर देने के लिए कई तरकीब सोची जाती है और उसमें सबसे ज्यादा कारगर तरीका  कोई "विरोध जताना" होता है। विरोध करने की मात्रा बढ़ाने और उसे सर्वोच्च स्तर पर ले जाने के लिए विरोध को माननीय न्यायालय मे भी ले जाया जाता है और उसके बाद मीडिया का सहारा लिया जाता है। इसमें फिल्म के निर्देशक या निर्माता के साथ मिलकर काफी विचार विमर्श कर निर्देशक या निर्माता अपने विरुद्ध उसी फिल्म के हीरो या हीरोईन से यौन उत्तेजना संबंधित कोई संवेदनशील आरोप किसी भी स्थिति में लगवा दिया जाता है और इस आधार पर विरोध दर्ज किया जाता है। इस तरह यह सामान्य दर्शकों के लिए उत्सुकता की वजह बन जाती है| फिर इन दोनों यानि पक्ष एवं विपक्ष मिलकर मीडिया के समर्थन से उस फिल्म को हिट करा दिया जाता है। यह विरोध दर्ज कर फिल्म प्रचार का अद्भुत प्रचार का तरीका है। इसमें सामान्य जनों के मनोवैज्ञानिक उपयोग के लिए सिग्मंड फ्रायड के 'मनोविश्लेषणात्मक अवधारणा' (Psycho Analytical Concept) और कार्ल जुंग के 'गहरे मनोविज्ञान' (The Depth Psychology) का उपयोग किया जाता है। 

ऐसे ही तरीके कुछ उच्च स्तरीय बौद्धिक लोग अपने सामाजिक और सांस्कृतिक आयोजनों को क्रियान्वित करने में प्रयोग और उपयोग करते हैं। ऐसे उच्च स्तरीय बौद्धिक लोग अपने विरोधियों से ही जबरदस्त विरोध करवा कर अपने एजेंडे को उन्हीं से क्रियान्वित कराते हैं और सफल बनाते हैं। यह अद्भुत और कारगर तरीका हैजिसे साधारण आंखों से नहीं देखा जा सकता। इसे सही रूप में समझने के लिए मानसिक दृष्टि अवश्य चाहिएजो सामान्य जन में तो नहीं ही होती है और यह उनके नेतृत्व में भी नहीं ही होती है। यदि यह सब समझ किसी नेतृत्व में है भीतो वह नेतृत्व भी बिक गया हुआ होता है, जिसे बिके हुए लोग कहते हैं।  ये बिके हुए नेता अपने मुद्दे के ही विरोधियों के हाथों में बिके हुए होते हैं और ऐसे नेता अपने अनुयायियों को भेड़ बकरी समझकर नेतृत्व देता रहता है। समाज के पके हुए और थके हुए लोगों से इसे समझने की कोई उम्मीद भी नहीं होती है। पके हुए लोगों की श्रेणी में वैसे ही लोग शामिल हैंजिन्हें लगता है कि उनकी जानकारी समुचित और पर्याप्त है और उन्हें नया एवं अलग कुछ भी जानने की जरूरत ही नहीं है। थके हुए लोगों की श्रेणी में वैसे लोग शामिल हैंजिन्हें लगता है कि ये सामान्य जन इतने जाहिल है कि इन्हें बदला ही नहीं जा सकताऔर ऐसे लोग अब अपने को थके हुए पाते हैं। इन लोगों को न तो इतिहास और संस्कृति की समझ होती है और न ही मनोविज्ञान की समझ होती है। अतः ऐसे नादान लोग अपनी अज्ञानता को सामान्य जन की अज्ञानता समझकर छुपाने का प्रयास करते हैं। अब उम्मीद तो मात्र "विचारों के युवाओं" से ही हैचाहे उनकी शारीरिक उम्र कुछ भी हो।

जिसे हम गलत समझते हैंया अनुचित मानते हैंया अनावश्यक पाते हैउसका विरोध करना हमारी मानसिकता होती है। अर्थात यह मनोविज्ञान का विषय है। चूंकि विरोध करना मन का विज्ञान हुआऔर इसीलिए यह व्यक्ति के विचारोंभावनाओं और व्यवहारों का विज्ञान हो गया। मानव अपने मन से संचालित होता है और मन उसके पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा होता है। अर्थात मानव मन अपने पर्यावरण और परिस्थिति को जैसा देखता और समझता हैउसी से उसके मन की भावनाएंविचार और व्यवहार निर्धारितनियंत्रितसंचालित और प्रभावित होता है। इसमें उनके ज्ञान के स्तर की भूमिका महत्वपूर्ण होती है और इसीलिए इसमें उसके आलोचनात्मक और विश्लेषणात्मक मूल्यांकन की क्षमता और स्तर की बात शामिल हो जाती है। इसके लिए उसे शारीरिक आंखों सहित सभी ज्ञानेन्द्रियो के अतिरिक्त मानसिक दृष्टि की जरूरत होती है। सामान्य जनों के पास शारीरिक आंखें तो होती हैलेकिन मानसिक दृष्टि एक कौशल और योग्यता होता हैजिसे विकसित करना होता है और हर कोई इसे अपेक्षित मात्रा तक विकसित नहीं कर पाता है। इसीलिए विरोध किए जाने के निहितार्थ को समझने के बावजूद भी उससे प्राप्त प्रतिफल के विपरीत हो जाने को वे समझ नहीं पाते हैं।

इसे भी एक उदाहरण से समझते हैं। भारतीयों का एक प्रमुख त्योहार है - होलीप्रकृति परिवर्तन यानि नए फसलों के घर आगमन के अवसर पर रंगों का पर्व या आयोजन। इसके शुरुआती दिन में घर- मुहल्ले के कूड़े कचडों को एकत्रित कर और अतिरिक्त ईंधन देकर जला दिया जाता है, जिसे “होली का दहन” यानि “होलिका दहन” कहा जाता है। तब अगले दिन सूखे गीले रंगों के साथ उमंगित हुआ जाता है। इसके साथ ही भारतीय पारंपरिक नव वर्ष की शुरुआत होती है। इसे आजकल कुछ तथाकथित बौद्धिक लोग इसे मिथकीय कहानियों को जोड़ कर इसे ऐतिहासिक मान लेते हैं और तब अपनी बौद्धिकता प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं। ऐसे तथाकथित बौद्धिक लोग इससे जुड़े ईश्वरीय नामों की ऐतिहासिकता से इंकार करते हैं और इन ईश्वरीय नामों के ऐतिहासिक अस्तित्व का सख्त विरोध करते हैं, फिर भी वे उनकी ऐतिहासिकता को ही प्रमाणित करते रहते हैं। मैंने एक परिचित को रंगों के त्योहार - होली की शुभकामनाएं भेजी। तुरंत एक तथाकथित बौद्धिक उत्तर आया - 'मैं (वह परिचित) एक महिला के दहन किए जाने के अवसर पर आपकी (लेखक निरंजन सिन्हा की) शुभकामनाएं स्वीकार नहीं कर सकता' मैंने उन्हें तुरंत उत्तर भेजा - "यदि होलिका एक ऐतिहासिक व्यक्ति थीतो उसे बचाने वाला नरसिंह अवतार अवश्य ही एक ऐतिहासिक व्यक्ति रहा होगा और वह भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। तब आप ईश्वरीय नामों के अस्तित्व भगवान श्रीराम की ऐतिहासिकता से कैसे इंकार करते हैं?" उन्होंने मोबाइल फोन का कनेक्शन ही काट दिया। यह भी विरोध करने की तथाकथित बौद्धिकता का नमूना हैजिन्हें इसका पता ही नहीं है कि वे किसका विरोध कर रहे हैं और किसका समर्थन कर रहे हैं| यह भी विरोध करने के मनोविज्ञान को स्पष्ट करता है।

आजकल जाति व्यवस्था के विरोध का प्रचलन है, या फैशन हो गया है, और उसके विरोध के लिए ही जाति आधारित संगठन बनाया जाता है। ये तथाकथित बौद्धिक जाति आधारित "सामाजिक पूंजी" (Social Capital) का निर्माण कर रहे हैं और अपने को जाति व्यवस्था विरोधी भी बता रहे हैं। ये अपने जाति की परम्परा को गौरवान्वित करने के अथक प्रयास में लगे हुए हैं और अपने को जाति व्यवस्था के विरोधी भी बताते हैं। वास्तव में जाति आधारित सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था अवैज्ञानिक है, अलोकतांत्रिक है, मानवता विरोधी है और अनुचित भी है, जिसे समाप्त किया ही जाना चाहिए। लेकिन  इन संगठनों और गतिविधियों के परिणाम जो आ रहे हैं, वह इनके उद्देश्य के विपरीत है, यानि आज जाति आधारित सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था ही और मजबूत होती जा रही है। आज जाति व्यवस्था के विध्वंस के जो उदाहरण मिल रहें हैं, वे बाजार की शक्तियो (Market Forces) के फलस्वरूप है। इसी तरह ब्राह्मणवाद के विरोध करते दिखने वाले ही सख्त  ब्राह्मणवादी हो गए हैं, क्योंकि इन्हे ब्राह्मणवाद के मूलभूत तत्वो यथा जाति आधारित ऊंच नीच में विश्वास, ईश्वर में विश्वास, कर्मकांड, अंधविश्वास, पाखंड में विश्वास आदि बहुत ज्यादा है। 

इसी तरह तथाकथित "मूल निवासी" की कहानी पर उछलने और विरोध करने की बौद्धिकता के आन्दोलन का मनोविज्ञान समझने योग्य है। वैश्विक मानव वैज्ञानिकों (Anthropologists) की एक ही मत है कि होमो सेपियंस सेपियंस की उत्पत्ति अफ्रीका के बोत्सवाना  के मैदान में कोई एक लाख साल पहले हुआं था। होमो के अन्य प्रजातियों का अस्तित्व बहुत पहले ही समाप्त हो गया था। अतः आज सभी मानव एक ही व्यक्ति की संतानें हैं। प्राक इतिहास और इतिहास के काल में आव्रजनों की कई धाराएं भारत आती रही हैतो तथाकथित मूल निवासी के सापेक्ष किसी एक ही धारा की चर्चा क्यों हैइसके सापेक्ष राजनीति को समझने के लिए शारीरिक आंखें पर्याप्त नहीं है और इसके लिए आलोचनात्मक (Critical) एवं विश्लेषणात्मक (Analytical) मानसिक दृष्टि चाहिए। इस संबंध में कई कथा कहानियों को इतिहास साबित करने का प्रयास जारी है। ऐसे मूल निवासी के समर्थक यह साबित करना चाहते हैं कि वे तथाकथित मूल निवासी कई हजार वर्षों से अपनी जाति और वर्ण के अनुसार काम करते आ रहे हैं (और शोषण के शिकार हैं)अर्थात इन्हें अपनी जाति के अनुसार कार्य करने की विशेषज्ञता और कुशलता विगत पांच हजार वर्षों से प्राप्त है। तब मूल निवासी का निहितार्थ यही है कि मूल निवासी समर्थकों के अनुसार इन्हें अपनी तथाकथित जाति के अनुसार ही कार्य का सम्पादन करना चाहिएताकि समाज और राष्ट्र को महत्तम योगदान हो सके एवं यही राष्ट्र हित में होगा| तब वे राष्ट्र को अपने इतने सर्वोत्तम योग्यता के आधार पर योगदान का विरोध क्यों करते हैं? यह भी विरोध करने के मनोविज्ञान की क्रियाविधि का एक स्पष्ट उदाहरण है। हालांकि तथाकथित मूल निवासियों की अपने पक्ष की और इसके विपरीत पक्ष की सभी कहानियाँ महज़ कहानियाँ ही है और उसमें कोई ऐतिहासिक वैज्ञानिकता नहीं है। दरअसल ये जातियाँ और वर्ण व्यवस्था मध्य काल की सामंतवादी व्यवस्था की भारतीय संस्करण है। 

ऐसे ही उदाहरण मनुस्मृति के विरोध का है 

और शूद्र वर्ण के विरोध का है।

किसी के विरुद्ध लगातार लगे रहना किसी आन्दोलन की सफलता का आवश्यक शर्त हो सकता है, जब उसके संभावित परिणामों को भी देखने समझने की मानसिक दृष्टि वे रखते हैं, लेकिन अपने विरोधियों के आव्यूह (Matrix) में ही उलझ कर उसी में समाधान खोजना भी मूर्खता होता है| किसी बिंदु पर ठहर जाना भी उसकी गहराइयों में उतरने का मौका देता है, दौड़ते रहना तो सतह पर फिसलना ही होता है| इस फिसलन का परिणाम यह होता है, कि आपको जाना कहाँ होता है और आप कहीं दूसरी अवांछित जगह पहुँच जाते हैं| जिसका आप विरोध कर बदलाव करना चाहते हैं, आज वही जबरदस्त ढंग से मजबूत होता जा रहा है| आज उपरोक्त “मूल निवासी” के स्पष्ट किया गया अर्थ के ही निहितार्थ को समझिए, मनुस्मृति के विरोध का और शूद्र वर्ण के विरोध का निहितार्थ और उसका मनोविज्ञान को कभी बाद में समझा जायगा|

 आचार्य निरंजन सिन्हा  

 

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