गुरुवार, 4 जनवरी 2024

किसी राष्ट्र का विकास या विनाश

(The Development or Destruction of any Nation)

आज़ हमलोग किसी भी राष्ट्र या समाज के विकास के लिए आवश्यक सैद्धांतिक शर्तों की चर्चा करेंगे, लेकिन संदर्भ भारत का होगा। कोई भी राष्ट्र, या राज्य, या संस्था, या संगठन कब विकसित होता हुआ होता है, या विनाश की ओर लुढ़कता हुआ होता है, या विकास एवं विनाश के बीच संतुलन बनाते हुए दोलित (झूलता हुआ) होता रहता है? इसके लिए एक और एक ही शर्त पर्याप्त होगा कि उसके सभी सदस्यों की गुणवत्ता का स्तर क्या है और वे उसके प्रति कितना समर्पित हैं। ध्यान रहे कि मानव ही किसी भी राष्ट्र का सबसे महत्वपूर्ण संसाधन होता है, जो अन्य संसाधनों का सृजन करता है| अर्थात विकसित होने या अग्रणी होने के लिए उनके अधिकतम सदस्यों या उसके सामान्य जनों में गुणवत्ता का उच्च स्तर हो और उनके प्रति समर्पण में कोई कमी भी नहीं हो।

बहुत से राष्ट्रों में बहुत से समूह या वर्ग गुणवत्ता पूर्ण होते हैं, लेकिन उनकी निष्ठा और समर्पण अपने छोटे हित समूह (यानि जातीय समूह) तक सीमित होता है। ये बातें तो करेंगे बड़ी बड़ी, लेकिन वे "सांस्कृतिक जड़ता" (Cultural Inertia) के शिकार होते हैं। ये अपनी सामाजिक सांस्कृतिक वर्चस्व की निरंतरता के हितों के लिए राष्ट्र हित को भी प्रमुखता नहीं देते, यानि अपनी सामाजिक सांस्कृतिक वर्चस्व में कोई संशोधन को तैयार नहीं होते हैं। इसीलिए ये यथास्थितिवाद को ही विकास की अवस्था के रूप में व्याख्यापित करने का तमाम जुगत लगाते रहते हैं। ये अपने कार्य एजेंडा में बड़ी बड़ी आदर्श की बातें रखेंगे, लेकिन उसे क्रियान्वित नहीं करना चाहेंगे।

इस क्रियाविधि को जानने और समझने के लिए किसी को सामान्य ज्ञानेन्द्रियो के अतिरिक्त उच्चतर मानसिक क्षमता एवं स्तर की आवश्यकता होगी, ताकि कोई इन आवश्यक शर्तों का आलोचनात्मक एवं विश्लेषणात्मक मूल्यांकन कर सके। मीडिया भी इस उपलब्धि का मूल्यांकन उनमें लगे लोगों, यानि इन तथाकथित बौद्धिक लोगों के द्वारा धारित अकादमिक उपाधियों, पदों और संबंधित प्रतिष्ठित संस्थानों के ओज की पृष्ठभुमि में ही प्रस्तुत करते हैं, ताकि सामान्य जन इन लोगों को स्थापित विद्वान कह सके। ऐसे तमाम तथाकथित स्थापित विद्वान सभी सामान्य लोगों में गुणात्मक परिवर्तन की आवश्यकता जताएंगे, लेकिन इस गुणात्मक परिवर्तन को स्थापित "सांस्कृतिक साम्राज्यवादी ढांचे" (Frame work of Cultural Imperialism) के घेरे के दायरे में ही रखे रहेंगे। सांस्कृतिक साम्राज्यवादी अवधारणा, यानि जन्म आधारित ऊंच नीच की अपरिवर्तनीय अवधारणा के अवैज्ञानिक, अतार्किक और अविवेकी होते हुए भी उसे झूठी विरासत के नाम पर ‘सांस्कृतिक जड़ता’ को समाप्त नहीं करना चाहते हैं। भारतीय अर्थशास्त्री चीन की अवस्थाओं की तुलना भारतीय अवस्थाओं से करते रहे हैं। लेकिन उसकी ‘सांस्कृतिक क्रांति” (Cultural Revolution) का उद्धरण जानबूझकर छोड़ देते हैं, क्योंकि तब इन्हें भी तथाकथित भारतीय प्राचीनतम  सांस्कृतिक जड़ता को समाप्त करने पर विचार करना होगा। चीन की सांस्कृतिक क्रांति 1966 से 1976 तक बहुत गहनता से चली, जिसका परिणाम आज का चीन है।

कई अर्थशास्त्री भारतीय अर्थव्यवस्था के 'एस- कर्व' (S- curve) में प्रवेश करने और उस पर आधारित मूल्यांकन में बड़ी बड़ी बातें एवं दावे कर रहे है। इसमें शहरीकरण, औद्योगीकरण, घरेलू आय और ऊर्जा खपत सबसे तेजी से बढ़ते बताते हैं। यह सही है कि यह अवस्था निवेश, तकनीकी प्रगति और उत्पादकता में बड़े सुधार से आता है। अर्थशास्त्री मानते हैं कि इस कर्व अवस्था के बाद अर्थव्यवस्था का बहुत तेजी से विकास होता है। यह एक बचकाना तुलनात्मक अध्ययन है, जैसे किसी एक मानव की बुद्धिमत्ता की तुलना किसी अन्य स्तनपायी पशुओं की बुद्धिमत्ता से उसके बचपन की अवस्था से करके उसके प्रौढ़ावस्था की बुद्धिमत्ता का अनुमान कर लिया जाए। यहां ध्यान देने की बात है कि स्तनपायी पशुओं के बच्चे शुरू से ही मानवों की तुलना में ज्यादा क्रियाशील होते हैं, लेकिन जल्दी ही मानव बहुत आगे निकल जाता है।  यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि लोगों की गुणवत्ता महत्वपूर्ण है| इन अर्थशास्त्रियों का मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था और जनसांख्यिकी 1990 के दशक में चीन से मिलती जुलती है, और उसी के साथ उसने लम्बी छलांग लगाई थी। 

कुछ अर्थशास्त्री गोल्डमैन सैक्स, मार्गन स्टेनली, मूडीज समेत कई वैश्विक वित्तीय संस्थानों के उद्धरण देकर बताते हैं कि अगले 25 बरसों में वैश्विक अर्थव्यवस्था का केन्द्र होगा। किसी भी राष्ट्र को अर्थव्यवस्था का केन्द्र बनना उत्साहपूर्ण अवस्था हो सकता है, लेकिन यह भी समझना होगा कि वह अवस्था किस रुप में होगा। किसी भी राष्ट्र को अर्थव्यवस्था के केन्द्र आने के लिए क्या कुछ अलग और विशिष्ट किया जा रहा है, उसको भी रेखांकित किया जाय। यदि कोई राष्ट्र उपभोक्ता (Consumer) मात्र ही यानि उसके 'खाने और पचाने' (Consumption) के रूप में होती है, तो यह अवस्था उस राष्ट्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा। भारत 2030 तक जापान (जिसकी आबादी भारत के एक प्रान्त बिहार से भी कम है) को भी पीछे कर देगा। अभी जापान की आबादी भारत की आबादी का सात प्रतिशत के लगभग है, अर्थात भारत की कोई सात प्रतिशत आबादी भी जापान की आबादी की गुणवत्ता नहीं रखता। यह भारत का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है और इस स्थिति को कोई भी  रेखांकित नहीं करता है। मानव संसाधनों में गुणवत्ता पूर्ण बदलाव की तो बात तो सैद्धांतिक रूप में किया जा रहा है, लेकिन जमीनी स्तर पर यह किसी भी दृष्टिकोण से नहीं दिखता है। स्पष्ट है कि "एस -कर्व" आदि का आधार भ्रामक है और यह भ्रम देश को नुक़सान पहुंचा रहा है, किसी विदेशी शक्तियों को नहीं।

भारत के तीव्र और ऊंची छलांग के दावे के आधार का भी अवलोकन किया जाय। अर्थशास्त्री बताते हैं कि भारत आज़ वहां है, जहां से चीन ने उड़ान भरी थी। भारत में आज़ प्रति व्यक्ति क्रय शक्ति (पी पी पी) 5.9 लाख रुपए है और यह चीन में वर्ष 2007 में थी। भारत में आज़ जो कामकाजी लोगों अर्थात 15- 64 वर्ष आयु वर्ग की लोगो की आबादी है, यह अवस्था चीन में बीस वर्ष पहले ही थी। भारत में आज उर्जा की खपत प्रति व्यक्ति 26 गीगा जूल बतायी जाती है और यह खपत दर चीन में बीस वर्ष पहले ही थी। इसी तरह शहरीकरण की वर्तमान स्थिति (35%) भी चीन में बीस साल पहले ही थी। इसमें महिलाओं के बढ़ते कदम को भी गहराई से रेखांकित किया गया है। शिक्षाविदों के अनुसार स्टेम (Science, Technology, English n Mathematics) विषयों में महिलाओं की भागीदारी लगभग आधी हो गई है ‌और यह स्थिति विश्व में सर्वाधिक है। इस क्षेत्र में अमेरिकी भी दूसरे स्थान पर है। इतने सुनहरे आंकड़ों के साथ लोगों की मानसिकता को वैज्ञानिक, आधुनिक, तार्किक और विवेकशील बनाने के किसी भी सजग सतर्क और समर्पित प्रयास की कोई चर्चा नहीं है। स्पष्ट है कि ये अर्थशास्त्री अपने राष्ट्र को, समाज को और मानवता को धोखा दे रहे हैं। ऐसे अर्थशास्त्रियों को भविष्य कभी माफ नहीं करेगा। ये अर्थशास्त्री अपने आंकड़ों में साक्षरता और शिक्षा में गड्ड-मड्ड कर रहे हैं और आंकड़ों को यथास्थितिवाद को बनाए रखने के लिए व्याख्यापित करते हैं।

लेकिन भारत में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI - Artificial Intelligence) और तकनीक - 4.0 (Technology 4.0) की स्थिति दयनीय है। इस वैज्ञानिकता की स्थिति के लिए जो आवश्यक है, उसका सम्पूर्ण ब्यौरा और विवरण “नई शिक्षा नीति 2020” के दर्शन में है, लेकिन धरातल पर जो क्रियान्वयन हो रहा है, उससे इस दर्शन का कोई प्रत्यक्ष संबंध परिलक्षित नहीं होता है। इस दर्शन में आलोचनात्मक चिंतन (Critical Thinking), समस्या समाधान (Problem Solving), पैरेडाईम शिफ्ट (Paradigm Shift - Out of Box Thinking), वैज्ञानिक मानसिकता (Scientific Temper) आदि आदि उच्च स्तरीय अवधारणाओं का प्रयोग किया गया है, लेकिन उसे व्यवहारिक रूप में पाने के जमीनी सच्चाई अलग है। तय है कि इसके लिए सामान्य जन के सोचने विचारने की अभिवृति (Attitude), प्रतिरूप (Pattern) और संरचनात्मक ढांचा (Structural Frame work) को बदलना होगा। सामान्य जन के इसी सोचने विचारने की अभिवृति, प्रतिरूप और संरचनात्मक ढांचा को ही एक शब्द में संस्कृति (Culture) कहते हैं। बात फिर सांस्कृतिक जड़ता पर आकर ठहर जाती है, जिसे हम पुरातन, सनातन, विरासत के नाम पर कोई बदलाव नहीं चाहते हैं। हमें अपने पुरातन, सनातन और विरासत को भी बदलने या संशोधित करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन इसे वैज्ञानिक और आधुनिक दृष्टिकोण से व्याख्यापित किए जाने की अनिवार्यता तो है हीइस संस्कृति को संशोधित यानि इसे वैज्ञानिक एवं आधुनिक बनाए बिना भारतीय कोई नवाचार (Innovation) नहीं कर पा रहे हैं। सिर्फ "प्रस्तुति की विविधता" (Diversity in Presentation) दे रहे हैं, लेकिन कोई "पैरेडाईम शिफ्ट" (Paradigm Shift) इतनी बड़ी आबादी के अनुपात में नहीं है। इस वैज्ञानिक और आधुनिक दृष्टिकोण के बिना कोई भी समाज वैश्विक नेतृत्व नहीं दे सकता।

भारतीय अर्थशास्त्रियों की किसी भी प्रसंग में वित्तीय साम्राज्यवाद (Financial Imperialism) की अवधारणा परिलक्षित नहीं हुआ है। इनमें इस साम्राज्यवाद की समझ है, या नहीं है, मैं नहीं जानता। लेकिन इनमें सांस्कृतिक साम्राज्यवाद (Cultural Imperialism) की समझ यदि है भी, तो वह उनकी सांस्कृतिक जड़ता (Cultural Inertia) के कारण दिखती नहीं है। वे वणिक साम्राज्यवाद, (Mercantile Imperialism), औद्योगिक साम्राज्यवाद (Industrial Imperialism), आर्थिक साम्राज्यवाद (Economic Imperialism), को तो समझते होते हैं, लेकिन निवेश (Investment) भी वित्तीय साम्राज्यवाद का ही एक सरल स्वरुप है, को रेखांकित नहीं करते होते हैं। भारतीय इतिहासकारों ने भी वित्तीय साम्राज्यवाद के आगमन और उपस्थिति को कभी भी भारतीय राजनीतिक स्वतंत्रता के संदर्भ में नहीं समझाया है। आदरणीय इतिहासकार श्री रजनी पाम दत्त, "इंडिया टुडे" (आज़ का भारत) के लेखक इसके अपवाद हो सकते हैं। पश्चिमी विद्वानों का समाज तो इस वित्तीय साम्राज्यवाद का लाभार्थी है, तो उसे इस पर लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है। ऐसे अर्थशास्त्रियों के द्वारा भारत को लेकर किए गए प्रक्षेपण (Projection) यानि पूर्वानुमान को मैं अतिरंजित और भ्रामक मानता हूं।

विज्ञान की मौलिक और मूलभूत शर्तें यथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण (Scientific Attitude), आलोचनात्मक चिंतन (Critical Thinking), विश्लेषणात्मक अध्ययन (Analytical Studies), पैरेडाईम शिफ्ट, वस्तुपरकता (Objectivity) आदि आदि जैसे तत्वों में आवश्यक बदलाव किए विकास की बातें बेमानी हैकोई अर्थशास्त्री वैश्विक बाजार की शक्तियों (Forces of  World Market) के प्रभाव का मूल्यांकन अपने राष्ट्र, या समाज, संस्कृति में उसके तथाकथित विकास के संदर्भ में नहीं करता है और उस तथाकथित विकास का श्रेय वहां की व्यवस्था, या सत्ता, या राजनीतिक विचारधारा को दे दिया जाता है। यदि बाजार की शक्तियों के प्रभाव का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन किया जाए, तो भारत में विकास की वास्तविक गति में व्यवस्था या सत्ता के विशेष अतिरिक्त प्रयास की उपलब्धि का मूल्यांकन किया जा सकता है।

उपरोक्त विवेचना से प्राप्त जानकारियों एवं तथ्यों से आप इस अवस्था में आ ही जाएंगे कि आपके अपने संदर्भ के समाज या देश या संस्कृति वास्तविक विकास की ओर कदम बढ़ा रहा है, या विनाश की ओर बढ़ रहा है, या इन दोनों के बीच दोलन कर रहा है? इसका निर्णय आपको करना है|

आचार्य निरंजन सिन्हा

 

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