रविवार, 17 दिसंबर 2023

मानवीय उलझन का मनोविज्ञान

  (The Psychology of Human Entanglements)

आज़ हमलोग मानव मन की उलझनों का विश्लेषण और उसका भिन्न-भिन्न संदर्भों, पृष्टभूमियों, परिस्थितियों एवं पारिस्थितिकीय परिवेशों में मूल्यांकन करना चाहेंगे। मानव की हर उलझन मनोवैज्ञानिक होती है, इसीलिए जिसके पास "मन" (Mind) नहीं होता है, उसके पास सुलझाने के लिए कोई उलझन भी नहीं होता है। अतः हमें सबसे पहले मानव को, मन को, उलझन को और मनोविज्ञान को समझ लेना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें, तो हमें मानव के मनोविज्ञान की क्रियाविधि का आलोचनात्मक चिंतन (Critical Thinking), यानि विश्लेषणात्मक मूल्यांकन (Analytical Evaluation) करना चाहिए। 

हम "मानव" (Man) उस स्तनपायी (Mammal) पशु (Animal) को कहते हैं, जो अपनी 'सोच' पर भी 'सोच' कर सकता है, और उसके 'सोच' में उसके निजी जीवन के अतिरिक्त अन्य का भी जीवन शामिल रहता है। इसी "सोच" के कारण एक होमो सेपियंस (Homo Sapiens) नामक दो पैरों वाला स्तनपायी पशु भी एक सामाजिक मानव (Homo Socius) और निर्माता मानव (Homo Faber) बन सका। यदि किसी मानव की सोच में यानि उसके जीवन में उसके अतिरिक्त कोई और परिवार, समाज, मानवता या प्रकृति शामिल नहीं है, तो वह महज़ एक पशु है, भले ही वह दो पैरों पर खड़ा है और कपड़े पहने हुए हैं। जो जीव बच्चे पैदा करता है, उसे पालता पोसता हुआ और उसे देखते हुए अपना जीवन व्यतीत कर लेता है, उसे ही पशु कहते हैं। एक मानव के जीवन मूल्य (Value of Life) में उसका समाज और मानवता के अतिरिक्त उसका प्राकृतिक पारिस्थितिकी भी शामिल होता है।

किसी का भी "मन" (Mind) उस जीवन इकाई का एक 'ऊर्जा का आव्यूह' (Matrix of Energy) होता है, जो उसके भौतकीय शरीर से सम्पोषित तो होता है, लेकिन उसके भौतकीय शरीर से बाहर होता है और उस व्यक्ति को संचालित, नियमित और नियंत्रित करता रहता है। किसी व्यक्ति का दिमाग (Brain) उसके 'मन' का मोड्यूलेटर (Modulator) होता है, जो उस व्यक्ति की भावनाओं, विचारों और व्यवहारों के लिए उसके मन और शरीर के मध्य एक अनुवादक की भूमिका अदा करता रहता है। मन को आप किसी का चेतना (Consciousness), या आत्म (Self) भी कह सकते हैं, लेकिन इसे भारतीय अवधारणा का आत्मा (Soul) कदापि नहीं कहा जाना चाहिए। किसी का आत्मा एक बार निर्मित तो होता है, परन्तु वह उसके जन्म मरण से परे होकर अपना अस्तित्व सदैव बनाए रखने का अवैज्ञानिक दावा करता है। मन किसी के जीवन में इतना महत्वपूर्ण है कि मन की अवस्था को बदल कर ही कोई अपना जीवन बदल सकता है। इसे ही कई विद्वानों ने भिन्न-भिन्न तरह से वर्णित किया है, यानि अभिव्यक्त किया है।

'उलझन' (Entanglement/ Complications /Tangles) मन की उस अवस्था को कहते हैं, जब 'मन' किसी भी भावना (Emotion), विचार (Thought), व्यवहार (Behaviour) यानि उसकी क्रियाविधि (Mechanism) को अच्छी तरह समझना चाहता है, लेकिन उसे अपने महत्तम संतुष्टि तक नहीं समझ पाता है। इसी उलझन को ही कोई समस्या का स्वरूप समझता है। वैसे भी समस्या उसे कहते हैं, जिसका समाधान नहीं मिल पा रहा है। अतः किसी चीज को नहीं समझ पाना, यानि पूर्ण संतुष्टि तक नहीं जान पाना ही "उलझन" होता है। 

जब बात मनोविज्ञान की आती है, तब कोई भी इसे मन का विज्ञान समझता है, सही ही समझता है। अतः मनोविज्ञान मानव मन द्वारा संचालित, नियंत्रित और नियमित भावनाओं, विचारों और व्यवहारों का समुचित और सम्यक व्याख्या करता है। विवेकपूर्ण और व्यवस्थित ज्ञान ही विज्ञान है, अर्थात वैसा ज्ञान जो तार्किक भी हो, तथ्यात्मक भी हो, विवेकपूर्ण भी हो और व्यवस्थित भी हो, विज्ञान है। तार्किक अर्थात कार्य कारण पर आधारित हो। तथ्यात्मक अर्थात अवलोकन एवं परीक्षण योग्य हो और कल्पना आधारित नहीं हो। विवेकपूर्ण अर्थात उसमें वृहत् मानव कल्याण की भावना निहित हो, यह सब विज्ञान का एक अनिवार्य शर्त है। व्यवस्थित अर्थात क्रमानुसार एवं सरल, सहज और स्वाभाविक रूप में प्रस्तुति भी हो। इसी समेकित सम्पूर्णता को ही विज्ञान कहते हैं। विज्ञान सदैव अपने स्थापनाओं के विरुद्ध विचार भी आमंत्रित करता रहता है, ताकि वह बदलते संदर्भों, पृष्टभूमियों, परिस्थितियों और पारिस्थितिकीय परिवेशों में भी वास्तविकताओं की समुचित और सम्यक व्याख्या कर सके। अतः विज्ञान आस्थाओं का विरोधी भी होता है।

मानव मन को समझने में यदि आपने महान मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रायड की "मनोविश्लेषणात्मक" (Psycho Analytical) अवधारणा को नहीं समझा, तो मानव मन को समझना अधूरा रह जाएगा। यहां हम संक्षेप में फ्रायड के "Id," "Ego" और "Super ego" की अवधारणा को और उसकी क्रियाविधि को ही समझेंगे। मैं इन तीनों शब्दावली के हिन्दी अनुवाद के फेर में नहीं पड़ने जा रहा, ताकि आपको कोई भ्रम नहीं हो। यहां हम उसकी "रक्षा क्रियाविधि" (Defence Mechanism) को भी नहीं समझने जा रहें हैं।

मानव मन की तीन अवस्थाएं होती है। पहली अवस्था Id की होती है, जो एक मानव मन में सहज, स्वाभाविक रूप में, यानि प्राकृतिक रूप में उत्पन्न होती है। इसे पाशविक प्रवृत्ति भी कह सकते हैं, क्योंकि यह सभी स्तनपायी पशुओं में स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है। यह शरीर के भौतिक अस्तित्व बनाए रखने के लिए अनिवार्य होता है। इसमें भोजन और यौन आनंद (Sex Pleasure) की सबसे प्रमुख भूमिका है। प्रकृति ने यौन आनंद के माध्यम से ही मानव की उत्तरजीविता (Survival) का सुनिश्चयन किया है। किसी व्यक्ति की Super Ego की अवस्था उस समाज की सांस्कृतिक मूल्यों एवं प्रतिमानों (Values n Norms) के अनुरूप उस व्यक्ति से उसके समाज को अपेक्षाएं (Expectations) होती है। इसे हम उस व्यक्ति के समाज की सामाजिक सांस्कृतिक भावनाओं, विचारों और व्यवहारों के उम्मीदों की अवस्था कह सकते हैं। एक मानव को अपने मन की पाशविक सहज प्रवृत्तियों  (Basic Instinct) और सामाजिक सांस्कृतिक आवश्यकताओं के बीच एक आवश्यक संतुलन बनाना होता है, जिसे ही Ego (अहम्) कहते हैं।

अर्थात एक मानव, जिसमें स्वाभाविक है कि इसमें महिला भी और इसके अन्य स्वरुप (Third Gender n Trans Gender) भी शामिल हैं, की भावनाओं, विचारों और व्यवहारों की व्याख्या इसी आधार पर किया जाना सम्यक, समुचित, वैज्ञानिक और आधुनिक होगा। इसीलिए यह व्याख्या संतोषप्रद भी होगा। बाकी अन्य व्याख्याएं भी इसी मूल अवधारणा की व्युत्पत्ति ही है। आप इस सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों एवं प्रतिमानों को समझने के लिए अब्राहम मैसलो का "अभिप्रेरणा सिद्धांत" (Theory of Motivation) को देख समझ सकते हैं, जो मानव मन को संचालित करने के लिए, यानि अभिप्रेरित करने के लिए प्रस्तुत है। लेकिन किसी व्यक्ति के जिद्द को यानि उसके बेवकूफी भरी हरकतों को समझने के लिए अब्राहम मैसलो का ही "हथौड़ा सिद्धांत" (Hammer Theory) को भी समझना चाहिए। यह जिद्द प्राधिकार प्राप्त व्यक्तियों के लिए लागू है, जिस पर हथौड़ा सिद्धांत स्पष्ट प्रकाश डालता है।

अब हम मानव मन की उलझनों को समझने के लिए एक सरलीकृत प्रस्तुति दे रहे हैं। आप भी अब्राहम मैसलो की पांचों अभिप्रेरक अवस्थाओं को जान समझ रहे हैं। तय है कि बच्चों की मानसिकता एवं व्यवहार संबंधी उलझनों को समझने के लिए यौन आनंद की अपेक्षा उसके भोजन और स्वास्थ्य सुरक्षा की आवश्यकता ज्यादा महत्वपूर्ण है। लेकिन जब कोई व्यक्ति युवा और प्रौढ़ावस्था में होता है, तो उसकी यौन आनंद की अनिवार्यता भी महत्वपूर्ण हो जाती है। हमें अब्राहम मैसलो की प्रेरक और बाध्यकारी अन्य अभिप्रेरक (Motive Drivers) आवश्यकताओं का ध्यान स्थिरता से रखना होता है। ध्यान रहे कि एक व्यक्ति अपने स्वीकरण (Self Actualization), आत्म संतुष्टि (Self Esteem), सुरक्षा, शारीरिक आवश्यकताओं और उसके सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों एवं प्रतिमानों के बीच संतुलित करने का प्रयास करता है। इसमें यौन आनंद यानि यौन संतुष्टि पर कई तरह के सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों एवं प्रतिमानों की कठोर संस्थागत ढांचा (Framework) और संरचना (Structure) का जाल (Web) बना हुआ होता है। परिणामस्वरूप लोगों को यौन आनंद की इच्छा या प्रवृत्ति को दबाना पड़ता है, या छिपाना पड़ता है। 

कभी कभी वैवाहिक जीवन में भी कार्य अधिकता, भौगोलिक दूरी, या अन्य कई कारणों से वैधानिक यौन साथी को पर्याप्त समय नहीं दिया जाता है। कभी कभी उच्च प्राधिकारों को बेहतर और सुविधाजनक यौन संतुष्टि का विकल्प भी मिल जाता है। तो ऐसी अवस्था मे किसी उच्चस्थ प्राधिकारों के Ego (अहम्) की क्रियाविधि की व्याख्याओं में इस महत्वपूर्ण कारक का ध्यान रखना होता है। अपराध अन्वेषण में भी जब कोई सूत्र स्वाभाविक रूप से और सहजता से स्थापित करना संभव नहीं होता है, तो अन्वेषक का ध्यान इस यौन आनंद के कारकों की ओर चला जाता है। जब कभी डिप्लोमेटिक संबंधों को भी समझने में उलझने आती है, तो यही सूत्र काम करता है।

अतः यदि आपके मानव मन को अपने आसपास या आपके किसी संज्ञान में आई किसी उलझन को समझने में कठिनाइयां हो रही है, तो आप उन उलझनों को समझने में महान मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रायड के मनोविश्लेषणात्मक अवधारणा को, अब्राहम मैसलो के अभिप्रेरणा सिद्धांत एवं हथौड़ा सिद्धांत, और इसमें यौन आनंद की प्रक्रिया को अवश्य ध्यान में रखिए, यह आपकी सारी उलझनों को सुलझा देगी। बशर्ते आपका विचाराधीन पात्र अपने यौवन की किस अवस्था में है। यहां यह भी ध्यान रहे कि यौन आनंद की अवस्था का शारीरिक उम्र की अपेक्षा मन की अवस्था यानि उमंग से ही है। 

अब आपकी किसी भी चीज को समझने की सभी उलझनों का समाधान मिल गया होगा।

आचार्य निरंजन सिन्हा

  स्वैच्छिक सेवानिवृत्त

राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना।

  

 

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