आज
महान क्रान्तिकारी एवं राष्ट्र निर्माता लेनिन का जन्मदिन है, और उनके बहाने भारत के प्रसंग में उनसे जुड़ी कुछ बातो का विश्लेषण ज़रूरी
है| विश्व मानवता को
प्रभावित करने वाले दो महानायक में एक तथागत बुद्ध है और दूसरे कार्ल मार्क्स है। कार्ल मार्क्स एक जर्मन दार्शनिक थे, जो कई
प्रमुख मानविकी विषयों में गहराई से अध्ययन कर कई तथ्य और अवधारणाएं विश्व को
दिया। पूंजीवाद अपने चरम पर था और कामगारों का कष्ट भी चरम पर था। पूंजीवाद एक राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक अवधारणा
है, जिसमें पूंजी के निवेशको को महत्तम लाभांश उपलब्ध कराना
एकमात्र लक्ष्य होता है। इस लक्ष्य के साथ अन्य
मूल्यों को कोई महत्व नहीं दिया जाता है, मानवीय, सामाजिक एवं अन्य मुद्दों को गौण कर दिया जाता है। इस अवस्था में बदलाव के
लिए मार्क्स ने अध्ययन और बदलाव के तरीके पर काफी प्रकाश डाला है। लेनिन पहले ऐसे
व्यक्ति थे, जो मार्क्स के दर्शन से काफी प्रभावित थे और
किसी भी राज्य में सत्ता परिवर्तन कर शासन के नेतृत्व को सम्हाला।
मार्क्स
का दर्शन एक ऐसी व्यवस्था के लिए था, जहां औद्योगिक विकास काफी हो चुका था, आबादी का
प्रभावशाली हिस्सा कामगार था और पूंजीवाद भी चरम पर था| लेकिन
रुस में वैसी स्थिति नहीं थी। लेनिन को रुसी जमीनी हकीकत को समझना था, इसका आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं
को जानना था, और उसके अनुसार मार्क्स के अवधारणाओं में
व्यापक बदलाव करना था। इन्होंने जो व्यापक बदलाव किए, उसे
लेनिन के जीवनोपरांत लेनिनवाद के नाम से जाना जाता है। इसी तरह मार्क्स और लेनिन के विचारधाराओं को चीन
में माओ त्से तुंग ने चीन की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुरूप संशोधित कर चीन में सफल
परिवर्तन किया। इसी कारण माओ त्से तुंग के विचारधारा को माओवाद कहा जाता है।
भारत
में मार्क्स, लेनिन और माओ के विचारधाराओं से प्रभावित अनेक व्यक्ति और समूह इन
विचारधाराओं को भारत भूमि पर क्रियान्वित करना चाहते हैं, बदलाव लाना चाहते हैं। लेकिन वे यह नहीं समझ पाते हैं, कि यहां न तो उस हद तक औद्योगिक विकास हुआ, न
पूंजीवाद स्थापित है, न ही संगठित कामगारों की आबादी
है। भारत न तो रुस है, भारत न तो चीन है और भारत न तो
पश्चिम यूरोप ही है। मार्क्सवाद वर्ग संघर्ष पर आधारित है, और भारत में वह वर्ग या
क्लास नहीं है, जो दूसरे देशों में है। भारत में जाति और
वर्ण है, जो विश्व के किसी भी समुदाय के लिए अनूठी व्यवस्था
है।
इन
लोगों के सन्दर्भ में भारतीय सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था को ही नहीं समझा गया। भारतीय विद्वानों ने भी
यूरोपीय परिवेशो और भारत की सांस्कृतिक आवश्यकताओं को ठीक से व्याख्यापित नहीं कर
पाएं। बिना मौलिक अध्ययन के आन्दोलन खड़ा करने से भारत में अन्य संसाधनों के
अतिरिक्त मानव संसाधन का भारी विनाश हुआ है। भारत में प्रजातंत्र है और विचारों के
सम्प्रेषण के लिए वैधानिक साधन उपलब्ध है। भारत यूरोपीय देशों की तरह छोटी आबादी
वाला देश नहीं है, अपितु एक यूरोप की तरह एक महादेश
तुल्य राष्ट्र है। यहां औद्योगिकीकरण उस स्तर तक नहीं हुआ है और इसी कारण नगरीकरण
भी नहीं हुआ है। भारतीय विद्वानों और दार्शनिकों को समझना चाहिए, कि परिस्थितियों में परिवर्तन समय के अनुसार होता रहता है और उसका सम्यक
अवलोकन एवं अध्ययन होना चाहिए। ये भारतीय विद्वान अपने इष्ट को इतना सम्मान देते
हैं कि उन्हें पथ-प्रदर्शक रहने ही नहीं देते हैं, उन्हें ईश्वर तुल्य बना
देते हैं। ईश्वर मान लेने पर उनके विचारों की आलोचनाओं को बर्दाश्त नहीं किया जाता
है और विचारों के विकास की प्रक्रिया वहीं बाधित हो जाती है। कभी कभी तो उन्हें देव मानकर
उनसे कृपा बरसाने की उम्मीद भी करने लगते हैं।
विचारों
के सम्यक अवलोकन, अध्ययन के साथ साथ आवश्यक आलोचनाओं से ही विचारों का सम्यक विकास होता है।
उसमें भौगोलिक स्थिति, ऐतिहासिक विरासत, सामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं एवं राजनीतिक आर्थिक परिस्थितियों को
ध्यान में रखकर विश्लेषण करने से ही विचारों में ‘अनुकूलन
क्षमता’ (Adaptation Capacity) मजबूत होती है। आप एक शताब्दी और उससे
पहले नहीं जाइए। मैं आधी शताब्दी ही पहले की बात करना चाहता हूं। आधी शताब्दी पहले
जो विचार दर्शन भारत के भविष्य के लिए गढ़े गए, क्या आज
उसी अवस्था में अनुकूल है, या अपेक्षित संशोधन चाहता है?
यहां
मैं ‘एपल’ कम्प्युटर के संस्थापक श्री स्टीव जॉब्स को भी स्मरण करता हूं। उसने एक ग्राफ के द्वारा “सामाजिक परिवर्तन की गति”
को समय और तकनीकी सुधार के सन्दर्भ में समझाया और भविष्य का
प्रक्षेपण (projection) भी किया। उन्होंने बताया कि
विगत पांच हजार वर्षों में तकनीकी सुधार या विकास के कारण जितना सामाजिक रुपांतरण
हुआ है, तकनीकी सुधार के वर्तमान गति के कारण आगामी कुछ
दशकों में उससे भी कई गुणा सामाजिक रुपांतरण हो जाएगा। इसके द्वारा मैं यह कहना चाहता हूं कि विगत आधी शताब्दी में भारत में तीन स्पष्ट
परिवर्तन हुए हैं। सर्वप्रथम, इसमें जीवन से संबंधित
सभी विधाओं में विज्ञान और प्रौद्योगिकी में शोध एवं आविष्कार द्वारा काफी बदलाव
हुए हैं, पुराने कई अवधारणाएं ध्वस्त हो गई, कई नवीन अवधारणाएं अवतरित हुए। दूसरा बदलाव, संचार
सेवाओं में डिजिटल क्रांति आई है, अर्थात विचारों के प्रसार
प्रचार के लिए परंपरागत साधनों के अलावे न्यूनतम खर्च के साधन ज्यादा असरदार हो गए
हैं। तीसरा भारत के लिए विशेष महत्वपूर्ण है, कि जनांनकीय (Demographic) आंकड़े में युवाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका बनी है। जब आधी शताब्दी पहले की
अवधारणाओं और विचारों में यथावश्यक संशोधन की आवश्यकता है, तो शताब्दी या शताब्दियों पूर्व की अवधारणाओं और विचारों का क्या होगा? इसलिए अपने श्रद्धेय की पूजा नहीं कीजिए, उनके
विचारों और अवधारणाओं की समालोचना करना शुरू कीजिए। इससे आपको संशोधित अनुकूलित
अवधारणा मिलेगा। उन्हें मार्गदर्शक ही रहने दीजिए।
आस्था
(Faith) ही
देश एवं समाज का दुश्मन है। आस्था ही बाधा है, अवरोध
पैदा करता है। आस्था सामंतवादी अवधारणा है। आस्था विश्वास (Belief) से अलग है| आस्था ज्ञान (तर्क) के आधार के बिना ही
किसी चीज को सत्य मान लेता है, जबकि विश्वास ज्ञान के साथ
सही मानना होता है| अत: हम प्रश्न करें, विचारों का विकास होगा, समाज और देश का
नवनिर्माण होगा, मानवता स्थापित होगा।
भारत
के संदर्भ में एक ध्यान देने योग्य बात है। भारत में वर्ग यानि क्लास (Class) क्या जाति या वर्ण के
समतुल्य है? भारतीय विद्वानों ने भारत की इस
अनूठी व्यवस्था - जाति और वर्ण को विश्व के सामने किस रुप में उपस्थापित किया है? इन विद्वानों ने ‘वर्ण’ का
अंग्रेजी रुपांतरण तो ‘वर्ण’ (Varn) ही
किया, जैसे साड़ी, धोती, बड़ी आदि का अंग्रेजी रुपांतरण में इसे ऐसे ही रहने दिया। ऐसा इसलिए किया
गया कि इन विशिष्टताधारी वस्तुओं (साड़ी, धोती आदि) को
यूरोपीय लोगों को समझाने के लिए इसे इन्हीं नामों में रखना समुचित था।
पर इन भारतीय विद्वानों ने “जाति” के
अंग्रेजी अनुवाद या रुपांतरण में बहुत बड़ी गड़बड़ी कर दी। इन्होंने जाति का अनुवाद
‘कास्ट’ (caste) में कर दिया। कुछ
लोग तो इस अनुवाद को ही एक शातिर बौद्धिक साजिश मानते हैं| ‘कास्ट’ मूलत: एक पुर्तगाली शब्द है, जो पुर्तगाल के एक परिवर्तनीय सामाजिक वर्ग को सूचित करता है| परन्तु भारतीय ‘जाति’ एक “बन्द वर्ग” है, जिसे ताउम्र
बदला नहीं जा सकता। “जाति” एक जीवन में
नहीं बदल सकता, पर “कास्ट” जीवन में बदल भी सकता है। “जाति” (Jati) को यदि अंग्रेजी में भी ‘जाति’ (Jati) ही रखा जाता, तो पश्चिमी बौद्धिक लोगों को इस नए
अवधारणा को समझने में कोई भ्रम नहीं होता। इनका ग़लत अनुवाद तो हुआ है, गलती से हुआ या सजिशतन जानबूझकर, यह अलग विषय हो
सकता है। इसी कारण पश्चिमी बौद्धिक विचारक भारत के संदर्भ में मार्क्स, लेनिन और माओ के विचारों को व्यक्त नहीं कर पाए।
लेनिन:
भारत के लिए सीख
इन्होंने
यूरोप के विशाल परन्तु अति पिछड़ा देश को सीमित समय में ऐसा स्वरुप दिया कि रुस
विकास की तेज गति से आगे निकल गया। इनकी बुनियाद पर खड़ा यह देश तीन दशक के अन्दर
संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे सशक्त देश के बराबर पहुंच गया। आज रूस की आबादी
पन्द्रह करोड़ ही है, परन्तु शक्ति के मामले में पश्चिमी देशों को NATO का
गठन करना पड़ा|
ऐसे
में “बुनियाद के
सिद्धांतों” (Principles for Foundation) का अवलोकन और
अध्ययन करना भारत के संदर्भ में सम्यक प्रतीत होता है। उस समय रुस यूरोप में हर
स्तर पर पिछड़े देशों की श्रेणी में था। उनके कार्य प्रणाली का अध्ययन बहुत
महत्वपूर्ण है। लेनिन का संगठनात्मक ढांचा नीचे ग्रामीण स्तर से शुरू होकर मास्को
तक पिरामिड के स्वरुप में था। ग्रामीण स्तर पर विकास एवं अन्य कार्य विचार पर
प्रस्ताव तैयार कर उपरी कमिटी को भेजा जाता रहा। इसी तरह अन्तिम प्रारुप पर
केन्द्रीय पोलित ब्यूरो में विचार कर अंतिम निर्णय लिया जाता था। पोलित ब्यूरो में
खुलकर बहस करने की पूरी छूट रहता था, परन्तु अंतिम निर्णय के
बाद मतभिन्नता कदापि स्वीकार्य नहीं होता था। अंतिम निर्णय के बाद राष्ट्र की
ऊर्जा का एक ही दिशा में जाना कई विशेषताओं को बनाता था। विकास के लिए यह कार्य
प्रणाली महत्वपूर्ण है।
सभी
कृषकों को भूमि उपलब्ध कराने के लिए बड़े जागीरदारों और धार्मिक संस्थाओं की
सम्पति सहित सभी भूसम्पत्ति पर राष्ट्र का स्वामित्व स्थापित कर दिया गया। सभी
किसानों को कृषि योग्य भूमि उपलब्ध कराया गया।
सभी
को आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए परिवहन और बैंकों का भी राष्ट्रीयकरण किया
गया। खेतों को पानी और औद्योगिक गति के लिए बिजली पर बहुत जोर दिया गया। इसे ‘बिजली क्रान्ति’ भी कहा गया। बड़े बड़े पनबिजली परियोजनाएं, ताप
बिजली घर एवं परमाणु बिजली संयंत्र स्थापित किए गए। विश्व के सबसे बड़े भौगोलिक
विस्तार वाले देश में परिवहन तंत्र का सम्यक विकास किया गया।
छोटे
छोटे जोतों को मिलाकर सहयोग समितियों के आधार पर फार्म स्थापित किया गया, ताकि उनका समुचित यंत्रीकरण
किया जा सके। इससे आधुनिक प्रविधियों को अपनाने में सहायता मिली। समाज में वर्ग, रंग और लिंग के आधार पर भेदभाव की समाप्ति सिर्फ कानूनों में ही नहीं, जमीनी स्तर पर किया गया। शिक्षा को सर्वव्यापक और सर्वसुलभ बनाया गया।
कार्य
करने का अधिकार सुनिश्चित कराया गया। इससे युवा शक्तियों का सकारात्मक उपयोग हुआ
और भटकाव एवं दुरुपयोग को रोका गया। सारे लोगों को रोजगार देने के लिए एक विस्तृत
समावेशी योजना को बनाया गया। इसका परिणाम विश्व देख रहा है।
" जो काम नहीं कर सकता, उसे खाने का अधिकार नहीं
है" के सिद्धान्त पर बल देने से श्रमिकों को सम्मान मिला। द्वितीय विश्व
युद्ध के बाद ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि स्टालिन की
पत्नी भी एक कारखाने में श्रमिक थी, उस समय भी जब
स्टालिन सोवियत प्रमुख था।
लेनिन
की बुनियादी ढांचे का अध्ययन आज भी नवनिर्माण के लिए दृष्टि देता है, जिसके आधार पर त्वरित विकास
किया जा सकता है। हमारे यहां कुछ प्रभावशाली यथास्थितिवादी संस्कृति की तथाकथित
गौरवशाली अतीत के नाम पर मौलिक परिवर्तन नहीं होने देते हैं। ये यथास्थितिवादी
येन-केन प्रकारेन तथाकथित प्रजातांत्रिक मूल्यों के नाम पर यथास्थितिवाद बनाएं
रखने में सफल रहे हैं। इन्हे तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का भी मूर्खतापूर्ण
समर्थन मिलता रहता है। हमें निष्पक्ष भाव से मानवता और देश के विकास के लिए फिर से
इनका अध्ययन करना होगा। विश्व अग्रणी की भूमिका में आना भारत का अधिकार भी है, क्षमता भी है, संभावनाएं भी है।
बस, सिर्फ सोच शुरू होनी
है।
निरंजन
सिन्हा
(www.niranjansinha.com)
आलेख तथ्यपरक, विचारपरक, विश्लेषण पूर्ण, सारगर्भित और संदर्भ युक्त है।मेरे विचार में थोडा आलोचनात्मक होना चाहिए था।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा आलेख।
जवाब देंहटाएंNice
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