शनिवार, 27 नवंबर 2021

हिन्दू धर्म की आलोचना क्यों?

उमेश जी हमेशा हिन्दू धर्म और संस्कृति की आलोचना करते रहते हैं। एक दिन मैं भी उखड़ गया। पूछ बैठा - आप हिन्दू हो कर हिन्दू धर्म और संस्कृति के इतने विरोधी क्यों हैं? आप हमेशा हिन्दू संस्कृति की आलोचना करते हैं, मानों दूसरे धर्मों में कोई गड़बड़ी है ही नहीं ।

उमेश जी ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा - बैठिए सर। आपको बताता हूं।  अपने जूते के अंदर का कंकड़-पत्थर जितना कष्ट देते हैं, उतना कष्ट जूते के बाहर का कंकड़-पत्थर नहीं देता है। मेरी संस्कृति महान है, लेकिन इसका ढोंग, पाखंड, अन्धविश्वास और अनावश्यक कर्मकांड कंकड़-पत्थर की तरह हमलोगों को चुभते रहते हैं। अपने धर्म से मुझे पग-पग पर कष्ट मिलता है, कभी जाति की निम्नता के नाम पर और कभी पाखंड, आडम्बर, अंधविश्वास, ढोंग के नाम पर| दूसरे के धर्म में मैं अपना माथा क्यों लगाऊं?

यह एक बुद्धिजीवी का उत्तर था। मुझे चुप हो जाना पड़ा। उनकी बात सही है| दूसरे का घर कितना देखें, जब अपना ही घर दुरुस्त नहीं है? रहना इस घर में है, तो सुधारना और सजाना भी तो इसी घर को है। इन्हें अपने इस धर्म से घृणा रहता, तो वे अब तक अपना धर्म बदल लिए होते। मतलब कि इन्हें अपने जन्मजात धर्म से प्यार भी है और गहरी पीड़ा भी| ये इसे छोड़ना भी नहीं चाहते| ये तो इसे ही सुधारना और सजाना चाहते हैं| इसीलिए मैंने भी इन्हें सुनने का मन बना लिया|

फिर भी मैंने उन्हें छेड़ने के ख्याल से पूछ ही बैठा। क्या दिक्कत है आपको इस धर्म और संस्कृति से? क्या दूसरे धर्मों में पाखंड, आडम्बर, अंधविश्वास, ढोंग नहीं है? उन्होंने बताया कि इस धर्म में न्याय, समानता, स्वतंत्रता और भाई चारा तो है ही नहीं| इस धर्म में जाति के नाम और आधार पर ही योग्यताएं और निर्योग्यताएं निश्चित हैं| इसमें व्यक्ति की योग्यता और गुणवत्ता का महत्व ही नहीं है, बल्कि जन्म के परिवार और वंश का ही महत्व है|

उन्होंने कहा कि आप ही बताइए कि आपको जाति में वैज्ञानिकता दिखती है? जाति में तो सामंतवादी भाव दिखता है, सांस्कृतिक जड़ता रहती है| जाति में जन्म के आधार पर योग्यता का निर्धारण होता है, और ऐसा उदहारण विश्व के किसी भी धर्म में हो तो बताइए? मेरे पास तो कोई उत्तर नहीं था| अब तो विश्व के वैज्ञानिक भी 'यूनेस्को घोषणा पत्र' में मान चुके हैं, कि 'होमो सेपिएन्स' मानव में जाति, धर्म और संस्कृति के आधार पर योग्यता एवं गुणवत्ता में भिन्नता नहीं है| मुझे भी मानना पड़ा कि इस 'जाति व्यवस्था' में कोई वैज्ञानिकता नहीं है|

मैंने टोका कि आपने दूसरे धर्म के पाखंड, आडम्बर, अंधविश्वास, ढोंग के बारे में कुछ नहीं कहा| तब उन्होंने कहा- इस सम्बन्ध में दो बाते हैं| एक, मुझे दूसरे धर्म की परवाह नहीं| और दूसरा यह कि, बाकि धर्मों में ठगी का आधार जन्म के वंशज - आधार पर नहीं होता| जबकि 'हिन्दू' धर्म में  ठगी का एकाधिकार जन्म के वंश के आधार पर ही तय होता है| इस मामले में अब मुझे चुप हो जाना पड़ा|

लेकिन अचानक मुझे भारत के गौरव की याद आ गयी| मैंने उन्हें इस धर्म की सनातनता, प्राचीनता और गौरव की याद दिलाया| तब वह कुछ उल्टा ही बोलने लगे| वह बोलने लगे कि कैसी सनातनता, कैसी प्राचीनता और कैसा गौरव? वे कहने लगे सभी धर्मों का वर्तमान स्वरूप दसवीं शताब्दी के बाद ही आया, चाहे आप उसे किसी भी प्राचीन नाम से जोड़ दें|यह तत्कालीन "सामंतवादी व्यवस्था" की आवश्यकता रही, और उसी के अनुरूप उपरोक्त चीजें बनी एवं ढलीं| वे बताने लगे कि हिन्दू धर्म का यह स्वरूप ही दसवीं शताब्दी के बाद ही आया| वे कहने लगे कि आप लंबा- लंबा दावा चाहे जो कर लें, क्या कोई ढंग का साक्ष्य आपके पास है, इसकी सनातनता और प्राचीनता के समर्थन में? मुझे चुप हो जाना पड़ा| मुझे याद आया कि भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद् के संस्थापक अध्यक्ष प्रोफ़ेसर रामशरण शर्मा ने भी ऑक्सफ़ोर्ड यूनिनेर्सिटी प्रेस से प्रकाशित अपनी पुस्तक भारत का प्राचीन इतिहास में वैदिक सभ्यता के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया है, जिसकी नीव पर आज के 'हिन्दू धर्म' की पूरी इमारत खड़ी है। अपने समर्थन में उन्होंने काफी तथ्य, तर्क, साक्ष्य और सन्दर्भ भी दिया है| मेरे पास उमेश जी के सवालों का तो कोई जवाब नहीं था, परन्तु यदि आपको कोई जवाब सूझे तो मुझे अवश्य बताइयेगा|

अब मैंने भी अपना रंग बदला| मैंने कहा उमेश जी, फिर आपके और एक देशद्रोही की भाषा में क्या अंतर रह गया? उन्होंने आश्चर्य से कहा एक देशद्रोही से मेरी तुलना? आप सठिया तो नहीं गए हैं सर ? मैंने प्यार से कहा - आप नाराज क्यों हो गए? क्या इसका जवाब आपको नहीं सूझता है? तब उन्होंने कहा सर, देशद्रोही तो वे हैं, जो अपने निजी स्वार्थ में 'जाति और धर्म' के नाम पर समाज और देश को बांटते हैं, और उसे तोड़ते हैं| वे लोग देशद्रोही हैं, जो लोगों को गैर संवैधानिक ढंग से "जाति और धर्म" का  भक्त बनाते हैं| जिस चीज का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं हो, और जो वैज्ञानिकता के बिल्कुल विरुद्ध हो, उसी जाति व्यवस्था का समर्थन कर देश को हजारों खंड में जो बांटता हो, वही वास्तव में  देशद्रोही है| वे पूरी तरह से भड़क गए थे| कहने लगे कि इतना बड़ा देश, इतना अपार संसाधन, इतनी बड़ी आबादी और उस पर भी हमारे भारत देश की यह दुर्गति? क्या हमें दुख नहीं है? लेकिन इन आधारों (जातियों) को तोड़ने वाली कोई पहल अभी तक किसी व्यवस्था ने नहीं किया|

मैंने कहा मतलब यह कि आप समझदार हैं, और बाकि के लोग मुर्ख और धूर्त हैं? उन्होंने कहा सर, रुकिए| आप मूर्ख और धूर्त से क्या समझते हैं? मैंने कहा आप ही समझाइए| उन्होंने कहा जो अज्ञानी हैं, जो चीज़ों को ढंग से नहीं समझते, वे मूर्ख हैं| दूसरी तरफ, जो ज्ञानी हैं, जो चीजो को अच्छी तरह और उचित संदर्भों में समझते हैं, लेकिन फिर भी अपने निजी स्वार्थ में अंधे होकर 'जाति और धर्म' का दुरूपयोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थ में करते हैं, वे ही लोग धूर्त हैं| ये लोग कानून की नजर में अपराधी यानि क्रिमिनल हैं, क्योंकि  उनका प्रत्येक कार्य और उनकी प्रत्येक गतिविधि सदैव गलत इरादे (Intention) से प्रेरित होती है| इन लोगों को तो सजा मिलनी चाहिए| मैंने स्पष्ट करने के लिए कहा कि आपके अनुसार जो जाति व्यवस्था के समर्थक हैं, वे इसकी अवैज्ञानिकता को जानते हुए भी देश और समाज के व्यापक हितों के विपरीत अपने जन्म आधारित लाभों को बनाये रखने के लिए ऐसा कर रहे हैं, वे अपराधी हैं| ऐसे अपराधी लोगो पर तो मुकदमा चलना चाहिए, और उन्हें कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए।इस पर उन्होंने सहर्ष अपनी सहमति दी|

उमेश जी ने मुझसे पूछा क्या आप किसी गैर हिन्दू व्यक्ति को हिन्दू बना सकते हैं? मैं हाँ कहने ही वाला था, कि मुझे याद आया कि उस पुराने धर्म को छोड़ कर हिन्दू धर्म में आने वाले को कौन सी जाति दी जाएगी? बिना जाति के तो आजकल कोई हिन्दू ही नहीं सकता, और कोई उसे सर्वोच्च जाति का नाम या स्थान दे भी नहीं सकता| मुझे तो दूसरों को हिन्दू धर्म में लाने के बारे में असहमति दिखानी पड़ी| उन्होंने पूछा कि क्या किसी दूसरे धर्म में ऐसी व्यवस्था है? इसके लिए मैं भारत के अन्य धर्मों को दोष नहीं दे सकता था|

अब बात समाप्त हो गई थी। लेकिन अचानक उमेश जी बोले कि मेरे एक सवाल पर गौर किया जाए। मैंने पूछा कि बताइएगा। उन्होंने कहा कि हिन्द की इस धरती की संस्कृति को हिन्दू कहा जाता है, यह एक भौगोलिक अर्थ देता हुआ एक सामासिक संस्कृति तो है, लेकिन इसके पीछे कौन-कौन खिलाड़ी है, जो इसके नामकरण और मूल को बार-बार संशोधित करते रहते हैं और बदलते रहते हैं? इसका कोई प्रमाणिक प्राथमिक साक्ष्य प्राचीन काल में नहीं है। यह पहली बार साक्ष्यात्मक रुप में मध्य काल में आया। मध्य सामंती प्रारम्भिक काल में यह वैदिक संस्कृति के नाम से आया, जिसे बिना किसी पुरातात्विक और ऐतिहासिक प्रमाण के प्राचीनतम बताया गया। फिर मुगल काल में यह ब्राह्मण संस्कृति हो गया, जो ब्रिटिश काल में आर्य संस्कृति हो गया। प्रथम विश्व युद्ध के समय वैश्विक लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक व्यवस्था के शानदार आगाज की आहट में हिन्दू संस्कृति हो गया, जिसे अब सनातनी संस्कृति कहा जाने लगा। इतना बदलाव - वैदिक से ब्राह्मणी, फिर आर्य, फिर हिन्दू और अब सनातनी। इतना मनमानी बदलाव क्यों हुआ, यही बता दीजिए। मैं तो निरुत्तर हो गया, आप भी मेरे समर्थन में आइए और कुछ बताइए।

अंत में मैंने उनसे इसका समाधान भी पूछ ही लिया, कि आपके पास इसका कोई समाधान है तो बताया जाय| उन्होंने कहा, यदि ईमानदार शुरुआत हो तो एक दिन में ही जाति व्यवस्था का समाधान हो जायेगा| एक दिन में? मैंने आश्चर्य किया|

उन्होंने कहा हाँ सर, एक दिन काफी है|

कैसे?

उन्होंने कहा सभी को अपना नाम और परिवार का नाम कभी भी बदलने की स्वतंत्रता होनी चाहिए| जब कोई चाहे तो अपना नाम एवं उपनाम बदल सकता है| यह नाम आधार” (ADHAAR) से जुड़ा होगा| शायद आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं होगी| यदि आरक्षण की आवश्यकता हुई भी तो, आरक्षण के प्राधिकारी ही इस गोपनीय जानकारी को पा सकते हैं| इसी तरह पुलिस प्राधिकारी भी अपराधों के मामलों में सही और मौलिक जानकारी पा सकते हैं| किसी की वास्तविकता को जानने का अधिकार बहुत ही सीमित होगा, जो लिखित कारणों से इसे जान सकेंगे| किसी का नाम ही तो समाज में किसी का पहचान है, और हर इंसान का यही वैज्ञानिक आधार है| मुझे लगा कि यह एक विचारणीय समाधान हो सकता है| इस सन्दर्भ और इस दिशा में आगे बढ़ने की आवश्यकता है|

अब मुझे समझ में आया कि किसी का स्वस्थ आलोचना उसी के हित में होता है, और उसी के सम्यक विकास के लिए होता है| इसीलिए मुझे उमेश जी की आलोचना में कोई खराबी नहीं दिखाई दी| वैसे आप विद्वान पाठक गणों का मत और सुझाव अलग हो सकता है, पर यदि आप कुछ बताएँगे तो हम लोग एक अच्छे समाधान की ओर बढ़ सकते हैं| हम लोग आपके अमूल्य विचारों और सुझावों की प्रतीक्षा में है|

(मेरे अन्य आलेख niranjan2020.blogspot.com पर देखा जा सकता हैं।)

निरंजन सिन्हा

9 टिप्‍पणियां:

  1. Very practical,factualand perfect analysis. Each and every must go through the questionnaire mentioned in this article. Congrats!

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  2. बहुत बढ़िया सर। एक चीज बहुत अच्छा लगा कि दूसरे धर्म के व्यक्ति को अपने धर्म में नहीं ला सकते, क्योंकि उसकी आखिर जाति क्या होगी?
    निष्कर्ष है कि यहाँ जाति ही वास्तविक आइडेन्टिटी। हिन्दू तो आर्टिफिशियल रूप से बाद में बनाया गया है। जिस तरह धर्म को तोड़ना मुश्किल है, उसी तरह जाति को।

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  3. बहुत बढ़िया विश्लेषण सर ..... आपकी लेखनी को सलाम👍💐🙏

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  4. एक उपाय ये हो सकता है कि कोई भी अपना उपनाम अर्थात जाति को नही लिखे या सरकार इसे अवैध घोषित कर दे।आप ने हमेशा की तरह बहुत अच्छा विषय चुना है।

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  5. Very knowledgeable and please make a small 2-3min video on this blog, so that we can share to those people who doesn't know Hindi.

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  6. बहुत सुंदर विचार है और तर्कशक्ति है

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  7. बहुत ही सही सोंच है। इसके लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद।

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