हर
किसी को सफलता चाहिए| हर किसी को अपने लक्ष्य
में सफलता मिलनी ही चाहिए| क्या सफलता का कोई विज्ञान भी है, या सफलता जन्म पर
आधारित है, यानि वंशानुगत होता है, या किसी पूर्वजन्म का फल है, या किसी ईश्वरीय
शक्ति की इच्छा का परिणाम है? क्या कोई भी साधारण आदमी इस सफलता की क्रिया विधि (Process/
Mechanics) को समझ कर और उसका अनुकरण/ अनुपालन कर इसे पा सकता
है? क्या इसे समझ कर कोई भी एक कौशल की तरह इसे विकसित
कर सकता है? यदि हाँ में उत्तर है, तो कैसे? इसे जानने एवं समझने के लिए ही यह संक्षिप्त आलेख प्रस्तुत है -
इसके
लिए आपको अपने सोच में कुछ मूलभूत एवं मौलिक अवधारणात्मक (Conceptual) बदलाव लाना होगा| आपको सफलता के पथ पर अग्रसर होने के
लिए निम्न पांच बातें समुचित ढंग से समझनी होगी। यही पांच बातें समझना ही “सफलता के विज्ञान” (The Science of Success) का मूल और
मौलिक आधार है, जो निम्न है --
1. ईश्वर
में अविश्वास: इसके लिए आपको ईश्वर (God) की अवधारणा (Concept), उस अवधारणा का उद्देश्य (Purpose) यानि मंशा, उसकी क्रिया विधि (Mechanics) और उसकी आवश्यकता (Necessity) को समझना होगा| हमारे कहने का सीधा तात्पर्य यह है, कि आपको ईश्वर के होने के
विश्वास को खंडित (Destroy) करना होगा| इसके बाद ही आप अपने ऊपर विश्वास करेंगे और आगे बढ़ेंगे| इससे आप अनन्त
प्रज्ञा (Infinite
Intelligence), यानि
प्राकृतिक शक्तियों की प्रकृति, स्वाभाव एवं क्रिया विधि को समझने
को प्ररित होंगे| ईश्वर में विश्वास नहीं करने के बाद
ही आप अपने सोच, कर्म एवं व्यवहार की उपयोगिता तथा उसकी
क्रिया विधि पर विचार कर सकते हैं| हां, ध्यान रखें,
अनन्त प्रज्ञा यानि प्राकृतिक शक्तियों
का मानवीयकरण (Personification) को ही ईश्वर कहा जाता है,
जो स्पष्टतया एक बौद्धिक घोटाला है। स्पष्ट है कि ईश्वर और
अनन्त प्रज्ञा यानि प्राकृतिक शक्ति, दोनों अलग अलग अवधारणा है, जो एक दुसरे से
मिलता जुलता हुआ दिखने के बाद भी बहुत बारीक़ ढंग से अलग है| इस अनन्त प्रज्ञा यानि प्राकृतिक शक्तियो के मानवीयकरण की
आवश्यकता किसी व्यक्ति को ईश्वर और मानव के बीच मध्यस्थ (Middle Man) बनने/ बनाने के लिए
ही होती है। जब आप ईश्वर की व्यवस्था में विश्वास नहीं करते, तब आप विश्व व्यवस्था की नैतिक जिम्मेवारी को गंभीरता से समझते हैं| तब ही आप अपनी प्रकृति, दूसरे आदमी (समाज) एवं
स्वयं आत्म के सबंध को समझते एवं मानने में सक्षम हो पाते हैं|
2. पुनर्जन्म एवं आत्मा में अविश्वास: आत्मा (Soul) और पुनर्जन्म (Reincarnation/
Rebirth) दोनों एक ही सिक्के के दो पक्ष हैं, अर्थात यह दोनों एक दूसरे से घनिष्ठ रूप में जुड़े हुए हैं| आत्म (Self) तो होता है, परन्तु इससे मिलता जुलता शब्द 'आत्मा' (Soul)
एक सांस्कृतिक शोषण का उपकरण (Tool) है और एक सांस्कृतिक षड़यंत्र है। कुछ लोग अंग्रेजी के Spirit एवं Self का अनुवाद धूर्तता से "आत्मा" करते हैं। आत्मा एवं पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करने से आपको अपने वर्तमान जन्म के सोच, कर्म, एवं व्यवहार के लिए किसी पूर्वजन्म की निर्भरता
की आवश्यकता नहीं होगी| मतलब यह कि यदि आपको सफलता इस जन्म
में चाहिए, तो आपको पुनर्जन्म एवं आत्मा में विश्वास
नहीं करना होगा| इस ‘आत्मा’ एवं ‘पुनर्जन्म’ में विश्वास के कारण आप बेमतलब के लम्बे समय
के इन्तजार (अगले जन्म) में समय बर्बाद नहीं करेंगे। इसके बाद ही आप इस जन्म में अपने सोच, कर्म और
व्यवहार पर विचार-विमर्श करने के लिए सही मायनों में प्रेरित होंगे| वैसे आपको पूर्व के किसी जन्म के आधार वाली ठगी या अन्य दूसरे प्रकार वाली
ठगी के आधार पर सफलता नहीं मिलती है। यदि आपको दूसरो को भ्रमित (Confuse) करने यानि ठगने (Cheat) के लिए अपनी सफलता का
कारण अपना पुनर्जन्म या पूर्व आत्मा का कर्म एवं फल बताना है, तो आप उसको ठगने के
लिए प्रयोग कर सकते हैं| नादान इस पर बहुत ही आसानी से
विश्वास भी करेंगे| इस पुनर्जन्म एवं आत्मा में विश्वास
से परंपरागत 'व्यवस्था' को
भी अपनी यथास्थिति
( Status quo) बनाये रखने में कामयाबी
मिलती है, जो उसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य भी होता
है। आत्मा और पुनर्जन्म की कहानी से ही कर्मवाद सिद्धांत को स्थापित किया गया है,
जो इस जन्म के कर्म को अगले जन्म तक ले जाता है।
3. नित्यता में अविश्वास : नित्यता (Eternity) में विश्वास का अर्थ हुआ कि सब कुछ स्थायी (Permanent) है, और इसमें कोई बदलाव संभव नहीं है| नित्यता में विश्वास करने
से आप निराशा में डूब जाते हैं, क्योंकि तब फिर आपको अपनी स्थिति में बदलाव की कोई आशा नहीं दिखती| आज इस वैज्ञानिक युग में यह
स्थापित है कि इस चार विमीय (Four Dimensions – t, x, y एवं z अक्ष) ब्रह्माण्ड (गणितीय आधार पर
कुल 12 विमाएँ मान्य है) में सब कुछ सदैव बदलता रहता है, कुछ भी स्थिर एवं स्थायी नहीं है, क्योंकि कोई विमा तो सदैव स्थिर नहीं रह
सकती है| यह सत्य और तथ्य आपके भविष्य की सफलता की
संभावना को दिखाता है, और उसे सुनिश्चित भी करता है| नित्यता के नियम के द्वारा ईश्वर और ईश्वरीय नियमों को स्थायी साबित करने
की कुचेष्टा होती है, या की जाती है।
4. भाग्य एवं जादू में अविश्वास : भाग्य (Fate) एवं जादू /करिश्मा
(Magic/ Miracle) में आपका विश्वास किसी भी 'कार्यो' या 'परिणामों'
के किसी पूर्व की कारण के (Cause/ Reason) होने की आवश्यकता को समाप्त कर देता है| अर्थात जब आप भाग्य या
जादू/ करिश्मा में विश्वास करते हैं, तब आपको अपने या किसी दुसरे के द्वारा किये
गए कारणों को जानने या करने की आवश्यकता नहीं होती है| जब कोई आदमी किसी कार्य/परिणाम ( Effect /Result) के वास्तविक कारण को नहीं समझ पाता है, तो वह
उसे भाग्य एवं जादू/ करिश्मा से होना समझता है| जब आप
इस भाग्य एवं जादू/ करिश्मा में विश्वास करते हैं, तो
आप 'कार्य-कारण'(Cause & Effect) के वैज्ञानिक
सिद्धांत एवं उसकी प्रक्रिया को नहीं समझ पाते हैं| इसी
कारण आप ढोंग, पाखंड, अन्धविश्वास
एवं कर्मकांड में उलझ जाते हैं, और आप ठगे जाते हैं| जब आप इनमे विश्वास नहीं करते हैं, तो आप कार्य
/परिणाम का वैज्ञानिक कारण खोजते एवं समझते हैं| यही
मानसिकता (Mentality) विज्ञान का आधार है, और उसकी उत्पत्ति एवं विकास का कारण है|
5. सोच/ विचार की शक्ति में विश्वास: जब आप किसी ख़ास चीज या
विषय पर मन को स्थिर कर उसके विभिन्न पक्षों का अध्ययन करते हैं, तो इसे उस चीज या विषय पर
सोचना कहते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जब आप कहीं या किसी विषय पर ठहर जाते हैं,
तब आप उसके गहराई में उतर जाते हैं| ‘सोचने’
की श्रृंखला को ही ‘विचार’ कहते हैं| आज आप और हम जो कुछ भी हैं, अपने पूर्व के सोच का
परिणाम ही हैं| अपने सोच को बदल कर ही आप और हम अपने
लक्षित उद्देश्य को पा सकते हैं| भौतिकी के क्वांटम क्षेत्र सिद्धांत (Quantum Field
Theory) का 'प्रेक्षक सिद्धांत' (Observer Theory) यही स्थापित करता है| यह सिद्धांत यह स्पष्ट करता है कि कोई सोच एवं विचार ऊर्जा का एक स्वरूप है, जिसके स्थिर अवलोकन से वह ऊर्जा पदार्थ में बदल जाता है, प्रेक्षक का सिद्धांत है। जब आप अपने सोच की शक्ति पर विश्वास करते हैं, तो
आप अपने सोच को नियंत्रित नियमित एवं परिवर्तित करते हैं, या कर सकते हैं| तब आपका आपके भविष्य पर भी नियत्रण होता है|
उपरोक्त
को जानने एवं समझने से यह स्पष्ट है कि यह संसार किसी दैवीय शक्ति या अन्य समतुल्य
व्यवस्था पर निर्भर नहीं है| यह संसार वस्तुत: निम्न 'त्रि-संबंध' (Tri – Relations) पर निर्भर है ---
1. यह संसार 'आदमी' एवं 'प्रकृति' (Nature) के सम्बन्ध पर निर्भर करता है। (चार्ल्स डार्विन)
2. यह संसार 'आदमी' एवं 'आदमी' (समाज) के सम्बन्ध पर निर्भर करता है। (कार्ल मार्क्स)
3. यह संसार 'आदमी' एवं उसके 'आत्म'
(Self) के सम्बन्ध पर निर्भर करता है| (सिग्मंड फ्रायड)
इसीलिए
आदमी का प्रकृति से सम्बन्ध संतुलित, सौहार्दपूर्ण एवं सामंजस्यपूर्ण अवश्य होना चाहिए, जिसे हम “पारिस्थितिकी न्याय” (Ecological Justice) भी कहते हैं| इसमें अन्य जीवों एवं वनस्पतियों सहित उस पर्यावरण में उर्जा प्रवाह के
महत्व को समझना और उसे न्यायपूर्ण स्थान देना जरूरी है| आदमी और आदमी के सम्बन्ध को आधुनिक, वैज्ञानिक एवं प्रगतिशील बनाने के लिए
ही समाज में सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा, मैत्री, एवं
दान आदि की भावना एवं व्यवहार की जरूरत होती है| आदमी और
आदमियों (समाज) के संबंध उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों एवं शक्तियों तथा उनके अंतर्संबंधों से
प्रभावित एवं संचालित होती है। अपने “आत्म” को जानने एवं समझने और उसकी गत्यात्मकता (Dynamism) को समझने के लिए ही 'आत्म अवलोकन' (Self
Observation) जरूरी है| इस आत्म-अवलोकन की विधि को ही “विपस्सना” कहते हैं|
यदि
आप ऐसा नहीं करके भी सफलता पा रहे हैं, तो आप अपनी संभावित क्षमता के एक छोटे से अंश पर ही सीमित हैं, और आप अपने को धोखा (Deception) दे रहे हैं|
जब
आप उपरोक्त बातों को समझते हैं, तो आप में ‘सामान्य बुद्धिमता’ (General Intelligence), ‘भावनात्मक बुद्धिमता’ (Emotional
Intelligence), ‘सामाजिक बुद्धिमता’
(Social Intelligence), एवं ‘बौद्धिक (विवेकी) बुद्धिमता’ (Wisdom Intelligence) का उत्पादन, विकास एवं सम्वर्द्धन होता है| इसे ही 'ज्ञान का उत्पादन' भी कहते हैं| इसी ज्ञान साधना को प्राप्त करने के लिए ही बुद्ध का “आष्टांगिक मार्ग” है|
सफलता
के विज्ञान के लिए आपको समझना होगा कि ........
मनुष्य में ज्ञान का अभाव ही
उसके सभी प्रकार के दुखों का कारण है|
ज्ञान ही सभी दुखों का निदान है|
किसी
भी दुःख का एक ही कारण है कि उस व्यक्ति की आन्तरिक अवस्था उसकी बाह्य अवस्था के अनुकूल
नहीं होती है। और दोनों अवस्थाओं में सामंजस्य ही दुखों का निवारण है।
यही तथागत बुद्ध के 'धम्म' का
सार (Essence) है|
और यही सफलता का शुद्ध
विज्ञान है|
ज्ञान
का उत्पादन, विकास, सम्वर्द्धन एवं
नियंत्रण करना ही मानव का वास्तविक “धम्म” है| बुद्ध के 'धम्म' के बारे में अन्य सभी प्रचलित बातें सतही (Superficial) है, बाजारू (Marketable) है, आंशिक (Partial) और दिखावटी (Showy) हैं| बुद्ध के धम्म को प्रचलित धर्म के रूप में
प्रस्तुत करना बुद्ध के प्रति एक महान नाइंसाफी (Injustice) है| वस्तुत: सभी धर्मों की उत्पत्ति ही मध्यकालीन है।
सफलता
के इस विज्ञान को धर्म के वर्तमान किसी भी स्वरूप से कोई लेना-देना नहीं है| आज के प्रचलित सभी
धर्मों (बौद्ध
धर्म सहित, बौद्ध धम्म नहीं) का वर्तमान स्वरूप नौवीं
शताब्दी के बाद अर्थात सामन्तवाद की उत्पत्ति के साथ ही आया| अत: सफलता के इस विज्ञान को किसी भी रूप में किसी भी धर्म से नहीं जोड़ा
जाना चाहिए| यदि व्यवस्थित एवं विवेकपूर्ण ज्ञान ही
विज्ञान है, तो यही सफलता का विज्ञान है|
निरंजन सिन्हा
www.niranjan2020.blogspot.com
Very nice article
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लेख।।
जवाब देंहटाएंSo nice article.
जवाब देंहटाएंविज्ञान के समझ को तार्किकता के साथ और निचोड़ में समझाने के लिए बहुत ही आभार
जवाब देंहटाएंBeautiful explanation of facts
जवाब देंहटाएंThnk u..
Bahut upyogi lekh
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक लेख है। धर्म में मंदबुद्धि और शरारती बुद्धि लोग भी घुस जाते हैं। प्रचलित लोक धर्म में अज्ञान ऐसे ही लोगों के कारण है।
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा लेख सर। अपने भारतीय संस्कृति में जड़ तक फैले बीमारी को झकझोर कर ज्ञान रूपी फल का रसास्वादन करवाये सर।
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा और तथ्यपरक लेख है। अगर संसार के सभी वर्ग के लोग आपके लेख के अनुसार वैज्ञानिक ढंग से अपने कार्यों का व्यवस्थापन और अनुपालन करना सुनिश्चित करें तो हर कोई सफलता प्राप्त कर अपने सपनों को पूरा कर सकता है।
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा एवं बिल्कुल नया अप्रोच and exceptional Sir. Keep it up sir.
जवाब देंहटाएंNice Information.
जवाब देंहटाएं