सर, आप धर्म (Religion) और धम्म (Dhamma) में कन्फ्यूज कर रहे हैं। आप धम्म
को आज के प्रचलित धर्म से फेंट (Mix) रहें हैं। उमेश जी कुछ उल्टा पुल्टा (Disorderly) बता रहे थे। धर्म और
धम्म, दोनों अलग-अलग। एक नई बात। वैसे तो मैं यह जानता था कि
‘धम्म’ को ही हिंदी और संस्कृत
में धर्म कहा जाता है। लेकिन ये कुछ अलग बता रहे थे।
उमेश जी टैक्स के आफिसर है, और इसीलिए कभी कभी उनकी बातों को बेमन (against own will) से
भी सुनना पड़ता है। वे बुद्ध के ‘धम्म’
को बुद्ध के ‘धर्म’ से अलग बताना चाह
रहे थे। पर मुझे भी उत्सुकता हो गई कि धर्म और धम्म में क्या अंतर है?
वैसे तो मैं धर्म से हिन्दू हूं और इसलिए मुझे बुद्ध धर्म
से कोई मतलब नहीं है। पर इन्होंने ‘धम्म’ और ‘धर्म’ शब्द का इस्तेमाल किया और बस इसी बात ने मुझमें उत्सुकता पैदा कर दिया।
मैंने कहा - उमेश जी, आप ज्यादा मत बताइए। बस, आप बुद्ध के धम्म का सार
ही बता दीजिए। हम बहुत कुछ धर्म और धम्म के बारे में समझ जाएंगे। मैंने भी उनके
प्रवचन को समाप्त करना चाहा।
तो सुनिए सर, उमेश जी ने कहा। मुझे बैठाया और अपने घर में फीकी (बिना
चीनी) चाय लाने को कह दिया। मुझे बैठना पड़ा, वे टैक्स के आफिसर जो थे।
देखिए सर, पहली बात यह है कि धर्म का
वर्तमान स्वरूप ही नौवीं शताब्दी के बाद आना शुरू हुआ। बुद्ध का धम्म बुद्ध
के ही समय से शुरू हो गया, जबकि बुद्ध का धर्म भी अन्य धर्मों की तरह नौवीं शताब्दी के बाद अस्तित्व में
आया|
मतलब कि उमेश जी के अनुसार, ईसा
मसीह, मुहम्मद पैगम्बर साहब और तथागत बुद्ध ने किसी धर्म की स्थापना नहीं
की| उमेश जी ने समझाया कि बुद्ध, ईसा मसीह और मुहम्मद पैगम्बर साहब ने उस समय के अव्यवस्थित
और पिछड़े समाज को मात्र आवश्यक सामाजिक और प्रगतिशील व्यवस्था दिया।
मैंने कहा - उमेश जी, आपके अनुसार इन महान समाज
व्यवस्थापको का नाम सामन्ती काल में उस क्षेत्र की परंपरा से जोड कर वर्तमान धर्म
का स्वरुप दे दिया गया| नौवीं शताब्दी के बाद के अवधि में सामंतवादी व्यवस्था की
आवश्यकताओं के अनुरूप उन क्षेत्रों में प्रचलित व्यवस्था, संस्कार, परम्पराओं और संस्कृति में संशोधन, परिवर्तन और विरुपण (Distortion) होता गया। इसमें पाखंड, ढोंग, अन्धविश्वास और कर्मकाण्ड गुंथता (Intermingle)
चला गया और यही बदला स्वरुप ही वर्तमान धर्म है।
उमेश जी फिर धम्म को छोड़ धर्म पर आ गए थे| मैंने कहा कि आप
धम्म का सार यानि धम्म का मुख्य बात बताने वाले थे|
अब उमेश जी शुरू हुए| कहा – बुद्ध
के धम्म में मुख्य बात ईश्वर (God), आत्मा (Soul), पुनर्जन्म (Rebirth), नित्यता (Eternity) और भाग्य-जादू-करिश्मा की अवधारणाओं का खंडन है| इसके साथ ही उन्होंने
जीवन का आधार उस व्यक्ति के सोच (Thought) को बताया| इतना ही बात उनके धम्म का
आधार है| बाकी अन्य बात इसी का व्युत्पन्न (Derivative) है|
उमेश जी के बात में आश्चर्यजनक यह थी कि उसने सत्य, अहिंसा,
प्रेम, मैत्री, करुणा आदि का नाम ही नहीं लिया| उसने दुःख और उसके समाधान की भी
चर्चा नहीं की| लेकिन उनकी बात पूरी नहीं हुई थी, इसलिए चुपचाप सुन रहा था|
उमेश जी की एक बात अच्छी थी| उन्हें मेरे उम्र का ख्याल था
और मुझे सम्मान के साथ सर कह रहे थे| कहा – सर, जब हम ईश्वर
के अस्तित्व को इनकार (Reject) कर देते हैं, तो हम विश्व व्यवस्था (World Order) को किसी ईश्वरीय शक्ति के सहारे नहीं
छोड़ देते हैं| तब हमलोगों की नैतिक जिम्मेवारी बनती है कि हमलोग विश्व व्यवस्था को
समुचित ढंग से चलावें| इसी व्यवस्था के लिए हमें सत्य, अहिंसा, प्रेम, मैत्री,
करुणा आदि का सहारा लेना पड़ता है| “पारिस्थितिकी
न्याय” (Ecological Justice) की अवधारणा इसी पर आधारित है| जब हम
ईश्वर के अस्तित्व को मन से नकार देते हैं, तो हमें अपने सोच, व्यवहार एवं कर्म पर
भरोसा करना पड़ता है| मुझे भी याद आया कि सर्न
(CERN) के वैज्ञानिकों ने भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हुए एक कण
(Particle) – हिग्स बोसॉन (Higgs – Boson)
का नाम ही ‘गॉड पार्टीकल’ रख दिया है|
इतना कहने के बाद उमेश जी "आत्मा" और "पुनर्जन्म" पर आ गए| उन्होंने आत्मा को साजिश बताया और पुनर्जन्म
को धोखा कहने लगे| उसने कहा - "कर्मवाद" का सिद्धान्त भी आत्मा और पुनर्जन्म की मान्यता का ही विस्तार (Extension) है। मेरा मन अब बेचैन होने लगा, वे हमारी तथाकथित महान परम्परा की जड़ें
खोद रहे थे| फिर भी मैं कुछ नया सुनने की उम्मीद में चुप था| उन्होंने कहा- “आत्म” (Self) होता है, परन्तु आत्मा (Soul) एक साजिश है|
इनके अनुसार पूर्व प्रचलित आत्म (Self) का धर्म के उदय के समय सजिश्तन उपयोग कर
पुनर्जन्म में ‘आत्मा’ के साथ स्थापित कर दिया गया| अब आदमी का सुख, दुःख, समृद्धि और सम्मान आदि सभी चीजें आत्मा
एवं पुनर्जन्म के सहारे जाति और वर्ण से जुड़ गया| अब आप भी इसका खेल
समझ गए होंगे|
मैं चुप ही था| वे अनित्यता
(Non Eternity) पर यानि नित्यता के खंडन पर आ गए थे| इसका अर्थ समझाते
हुए उन्होंने कहा – इस संसार में कुछ भी नित्य (Eternal) नहीं है अर्थात कुछ भी
स्थिर (Constant) नहीं है| सब कुछ बदलता रहता है| मुझे भी याद आया कि अल्बर्ट आइंस्टीन ने किसी भी वस्तु के स्थान
निर्धारण (Position) में “समय” (Time) को भी एक
विमा (Dimension) बता कर स्थान निर्धारण को चार विमीय (फोर Dimensional) बना दिया|
इस बदलने के कांसेप्ट से कोई भी कुछ भी पा लेने का विश्वास कर सकता है|
वे अब भाग्य, जादू और करिश्मा
पर आ गए| मैं भी इसके आधार जानने को उत्सुक था| उन्होंने बताया कि सर, हर घटना का कोई तार्किक कारण अवश्य होगा| इन
जादू, भाग्य आदि में भी “कार्य – कारण” सम्बन्ध
(Cause – Effect Relation) होता है| लेकिन जादू में कारण का प्रभाव
इतना तेजी से घटित होता है कि लोग उसे समझ नहीं पाते और कारण के परिणाम को जादू
करिश्मा पर ‘वाह वाह’ करने लगते हैं| इसी तरह भाग्य में कारण का प्रभाव इतना धीमी
गति वाला होता है, कि लोग कारण के परिणाम को भाग्य का फल समझ बैठते हैं| समझदार ठग इन्ही मनोवैज्ञानिक तथ्यों का उपयोग कर पाखंड,
ढोंग, अंधविश्वास और कर्मकांड जीवन के हर मोड़ पर घुसा देते हैं|
अंत में उन्होंने “सोच की
शक्ति” को धम्म का केंद्र बताया| उनके अनुसार हर व्यक्ति का आज का जीवन उसके अब तक के सोच का प्रतिफल है|
अब सोच बदल कर ही आगे का जीवन बदला जा सकता है| यह आज भी सत्य है| मैं
भी विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ| आधुनिक भौतिकी
के क्वांटम फील्ड सिद्धांत के “प्रेक्षक सिद्धांत” (Observer Theory) भी
इसका समर्थन करता है|
मैं तो सन्न (Stunned) रह गया| इसमें
कहीं भी कोई धर्म नहीं आया| यह तो सिर्फ विज्ञान है, एक शुद्ध विज्ञान|
स्पष्ट हो गया कि यही आधुनिकता और विकास का आधार है| बाकी बातें तो लोगो को मुर्ख बनाने के लिए सजायी गयी लगने
लगीं| फिर भी मैंने उन पर ब्रेक लगाने के उद्देश्य से पूछ ही बैठा – इन
बातों का क्या आधार है? आप यह सब कहाँ से बोल रहे हैं? मेरा प्रश्न वाजिब था|
उन्होंने बताया कि उन सभी के सम्यक अध्ययन से यही मूल बातें
निकलती है| “ज्ञान का उत्पादन ही मानव का धम्म
है|” मुझे भी याद आया कि ‘तथागत’ के महापरिनिर्वान के एक सौ साल बाद ही
उनके विचारों को संकलन हुआ था| उस समय के लोगों ने जो समझा था, उसी रूप में संकलित
किया था| ये भाई साहब भी अपनी समझ से बता रहे थे| लेकिन इनकी सभी बातें पूर्णतया
तार्किक है, और आधुनिक विज्ञान से संपुष्ट है|
अब मुझे मानना पड़ा कि बुद्ध
का धम्म बुद्ध के नाम से प्रचलित धर्म से
भिन्न है| मैं तो मान लिया कि सभी वर्तमान धर्मों का वर्तमान स्वरुप
सामन्त काल (Period of Feudalism) यानि नौवीं शताब्दी के बाद विकसित हुआ| तत्काल
मुझे उमेश जी से सहमत होना पड़ा। लेकिन यदि आपके पास उमेश जी के विचारों के विरुद्ध
कोई वाजिब तर्क, साक्ष्य
और तथ्य हो, तो
मुझे भी बताइगा। मैं उन तर्क, साक्ष्य और तथ्य के साथ उमेश जी को मुंह तोड जबाव देना
चाहता हूं। लेकिन ध्यान रहे कि सिर्फ भावनाओं का सहारा मत लीजिएगा।
(आप मेरे अन्य आलेख www.niranjansinha.com या niranjan2020.blogspot.com पर देख सकते हैं।)
निरंजन सिन्हा|
ज्ञान का उत्पादन ही मानव का धम्म है|” very right sir
जवाब देंहटाएंसर मेरी समझ में उमेश सर की बातें आंशिक रूप से ही सही लेकिन सत्य है। बौद्ध धर्म जैन धर्म और ऐसे बहुत सारे संप्रदाय छठी सदी ईसा पूर्व में एक वैचारिक क्रांति ही थे। कोई भी धर्म प्रणेता अपने विचार देता है बाद में उसके विचारों पर पुनर्विचार और परिमार्जन होता रहता है।
जवाब देंहटाएंबुद्ध के धम्म को बहुत सरल भाषा में समझाया है 👍👍
जवाब देंहटाएंबहुत क्लिस्ट कंसेप्ट को सरल बना कर समझायें हैं सर। nice
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