(Institute for Improvement of Indian Spirituality and Culture)
आज मैं ‘भारतीय
अध्यात्म’ और ‘संस्कृति’ के संवर्धन के लिए स्थापित एक संस्थान पर प्रकाश डालने जा
रहा हूँ|
यह ‘भारतीय अध्यात्म’ और ‘संस्कृति’ का ‘संवर्धन क्यों? यह ‘अध्यात्म’ और ‘संस्कृति’
क्या होता है और इसकी प्रभावोत्पादकता क्या है? यह ‘अध्यात्म’ किसी व्यक्ति के
“आत्म” (Self, मन, चेतना) से सम्बन्धित होता है, या किसी के “आत्मा” से? इसी तरह
‘भारतीय अध्यात्म’ और ‘संस्कृति’ के ‘वृद्धि’ (Growth) या ‘विकास’
(Development) की बात नहीं कर, मैं ‘अध्यात्म’ और ‘संस्कृति
के ‘संवर्धन’ (Improvement) की बात क्यों कर रहा हूँ? तो इन
सबों की अनिवार्यता क्यों है?
आज यदि वैश्विक
‘राज्यों’ (States, not Provinces) या ‘राष्ट्रीय राज्यों’ (Nation –States) का
वर्गीकरण
उनके आर्थिक विकास और उनकी सांस्कृतिक अवस्थाओं एवं आध्यात्मिक दशाओं के साथ किया
जाय, तो इनके वर्गीकरण में विभाजन की एक स्पष्ट लकीर उभर जाती है| जिन वैश्विक ‘राज्यों’ या ‘राष्ट्रीय राज्यों’ ने अपने
‘सांस्कृतिक अवस्थाओं’ एवं ‘आध्यात्मिक दशाओं’ को आधुनिक वैज्ञानिकता के आधार पर
विश्लेषण एवं समीक्षात्मक मूल्याङ्कन कर अपने को सजग, सतर्क तथा समर्पित प्रयास कर
अपनी दिशा और दशा को बदलना चाहा है, वे ‘राष्ट्रीय राज्य’ आज वैश्विक जगत के
परिदृश्य में विकास के पैमाने पर अग्रणी बने हुए हैं| ‘आर्थिक रूप से अविकसित’ संस्कृतियों के ढाँचा (Framework),
संरचना (Structure), विन्यास (Orientation) में “आस्था”
(Devotion) ही ‘आस्था’ भरा पड़ा होता है, और
“वैज्ञानिकता” (Scientism) को कोई भी सम्मानजनक स्थान या अवसर नहीं मिला होता है|
विकसित राज्यों की संस्कृति में ‘आस्था’ के विपरीत ‘वैज्ञानिकता’ ही ‘वैज्ञानिकता’
भरी पड़ी होती है| मैंने यहाँ सिर्फ ‘आर्थिक रूप से अविकसित’ संस्कृतियाँ’ इसलिए
लिखा है, क्योंकि “विकासशील” शब्द एक भ्रामक अवस्था है, जो उनको ‘रिझाने’ के लिए प्रयुक्त
किया जाता है, जिन राज्यों की क्षमता वैश्विक बाजार में सिर्फ ‘खाने और पचाने (Use
n Consume)’ में बहुत बड़ी होती है| और इसीलिए ऐसे राज्यों के लिए “विकासशील”
शब्द का प्रयोग कर दिया जाता है|
एशिया के इस (भारतीय) उपमहाद्वीप
का नाम “आभा” (Aura) से “रत” (Full) अर्थात “ओज” (Light) से
‘परिपूर्ण’ का शाब्दिक अर्थ है, और इसीलिए प्राचीन काल में विश्व को
प्रकाशित करने वाले इस भू भाग का नाम “आभारत” पड़ा|
समय के साथ “आभारत” का ‘आ’ शब्द तो विलुप्त हो गया है,
और सिर्फ “भारत” ही रह गया है| आज भारत के लोगों की ज्ञान एवं क्षमता का स्तर एवं
गुणवत्ता यह है कि भारत की सम्पूर्ण आबादी का महज
पाँच प्रतिशत आबादी वाला देश जर्मनी भी अर्थव्यवस्था में भारत से आगे स्थान
रखता है| यदि आंकड़ों का सम्यक विश्लेषण किया जाय, तो भारत का सर्वोच्च दो प्रतिशत आबादी
भी एक सामान्य जर्मन आबादी के ज्ञान एवं क्षमता के स्तर एवं गुणवत्ता का नहीं है,
अन्यथा आज भारत अर्थव्यवस्था में जर्मनी से ऊपर ही रहता| और यह ज्ञान एवं क्षमता का स्तर एवं गुणवत्ता में कमी का कारण
सिर्फ और सिर्फ संस्कृति’ और ‘आध्यात्मिकता’ में ही है| भारत को यदि फिर से प्राचीन गौरव एवं गरिमा प्राप्त करना
है, तो यही संस्थान उसे उस भूमिका में फिर से ला सकेगी|
‘अध्यात्म’ किसी
व्यक्ति के ‘आत्म’ (Self) का ‘अधि’ (ऊपर) से यानि ‘अनन्त प्रज्ञा’ (Infinite
Intelligence) से जुड़ने की प्रक्रिया एवं अवस्था होती है| इस प्रक्रिया में एक
व्यक्ति अपना ज्ञान ‘अनन्त प्रज्ञा’ से प्राप्त करता है, और इसे ही अंतर्ज्ञान (Intuition)
कहते हैं| हर ‘नवाचारी’ (Innovative) ज्ञान इसी विधि
से प्राप्त किया जाता है| यदि आप कुछ आध्यात्मिक
व्यक्ति का नाम मुझसे जानना चाहते हैं, तो मैं उनमे ‘गोतम बुद्ध’, अल्बर्ट आइंस्टीन और स्टीफन हाकिन्स
का नाम उदाहरण स्वरुप लेता हूँ| ‘आत्म’ यानि ‘चेतना’
(मन – Mind) तो वैज्ञानिक शब्द है, लेकिन इसी से मिलता –जुलता शब्द ’आत्मा’ का
विज्ञान में कोई स्थान नहीं है| इसी तरह अध्यात्म’ शब्द के अन्य
तात्पर्य का विश्लेषण एवं समीक्षा आप स्वयं कर सकते हैं| इसी आध्यात्मिकता के अभाव
के कारण सामान्य लोगों और इसीलिए ऐसे समाज का हर प्रतिनिधि “दोहरा चरित्र” जीता हैं, अर्थात उनके विचारों,
व्यवहारों एवं कार्यों में कोई संगतता (Consistency) नहीं होती है, और इसीलिए ऐसे
समाज का ‘उच्चतर विभव’ (Higher Potential) तक विकास नहीं हो पाता है| इन गुणों एवं
स्वभावों को आप ‘नैतिकता’ में शामिल कर सकते हैं| यहाँ हमलोग भारतीय सन्दर्भ में ‘आध्यात्मिकता’
का अध्ययन करेंगे, और इसीलिए ‘भारतीय
अध्यात्म’ शब्द का प्रयोग किया है|
मैंने किसी भी व्यवस्था
के ‘पिछड़ेपन में सबसे प्रमुख कारक उसके सांस्कृतिक मूल्यों (Values), प्रतिमानों (Norms)
एवं मानकों (Standards) में समझा है| ‘संस्कृति’
किसी भी समाज का वह ‘मानसिक निधि’ (Mental Treasure) है, जिसे कोई भी उस समाज के
सदस्य के रूप में साथ रहने से पाता है, और यह उस समाज की व्यवस्था (Machinery) यानि
तंत्र (System) को एक ‘साफ्टवेयर’ की तरह अदृश्य रहकर स्वत: संचालित करती रहती है|
किसी भी संस्कृति का ढाँचा, संरचना, विन्यास या स्वरुप में ‘वैज्ञानिकता’ या ‘आस्था’
के अंश से ही उसकी गुणवत्ता का पता चलता है| किसी भी ‘संस्कृति’ का निर्माण उस
समाज के ‘इतिहास – बोध’ (Perception of History) से ही आता है| ‘बाजार की शक्तियाँ’ (Market Forces) सामाजिक संस्थाओं (Institutions)
को भी प्रभावित, नियमित एवं संचालित करता रहता है, और इस तरह यह विवाह, परिवार,
समाज, जाति, धर्म, नैतिकता, अदि के साथ साथ ‘संस्कृति’ और ‘अध्यात्म’ को भी
प्रभावित करता रहता है| ‘बाजार की शक्तियाँ’ ही ऐतिहासिक काल खंड
में ‘ऐतिहासिक शक्तियाँ’ कहलाती है, और इस रूप में सभी समाजिक, सांस्कृतिक एवं
आर्थिक संस्थाओं को सशोधित एवं परिमार्जित करती रहती है| बाजार की इन्ही शक्तियों
ने प्राचीन बौद्धिक संस्कृतियों को मध्य काल में सामन्ती संस्कृतियों में बदल दिया था, जिसके
समीक्षात्मक मूल्याङ्कन की अनिवार्यता है|
इसलिए मैं संस्कृतियों के या में ‘वृद्धि’ या ‘विकास’
की बात नहीं कर, इसके ‘संवर्धन’ की बात की है| किसी भी विषय में ‘वृद्धि’ या ‘विकास’
उसकी स्थिति या दशा बदलने का प्रयास तो करती है, लेकिन उसकी मूल एवं मौलिक ‘दिशा’
बदलने का प्रयास नहीं करता है| ‘वृद्धि’ एक रेखीय गमन है, तो ‘विकास’ सर्व
देशीय गमन या वृद्धि है, जबकि किसी का ‘संवर्धन’
सदैव सकारात्मक एवं रचनात्मक दिशा एवं दशा में होता है| इस तरह ‘संवर्धन’
में किसी विषय की स्थिति, दशा, एवं दिशा में, अर्थात सम्यक रूप में इसका सकारात्मक
एवं रचनात्मक रूपांतरण होता है, अर्थात नव जीवन प्राप्त करता है, सिर्फ कोई संशोधन
नहीं होता है|
इस तरह आपको भी यह स्पष्ट हो गया होगा कि इस संस्थान का एक मात्र उद्देश्य “एक विश्व, एक मानवता” की
स्थापना करना है, और यह सब भारत के ‘मार्ग- दर्शन’
(Philosophy for Ways) में ही संभव है| इसके ही साथ भारतीय उपमहाद्वीप की गौरवपूर्ण ऐतिहासिक विरासत को अपना
मौलिक स्थान दिलाना भी है|
यह सब कुछ आपकी
सहभागिता के साथ ही सम्भव है|
आचार्य प्रवर निरंजन जी
अध्यक्ष
‘भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान’|
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