‘विकास’ और ‘संस्कृति’
एक दूसरे से इतना गुंथा हुआ है, कि ‘संस्कृति के संवर्धन’ के बिना कोई भी विकास
अपनी सम्पूर्णता को कभी नहीं प्राप्त कर सकता है| फिर
भी यह आश्चर्यजनक है कि ‘विकास’ के सन्दर्भ में शायद ही ‘संस्कृति’ का अध्ययन किया
गया हो? शायद इस सन्दर्भ में महान
अर्थशास्त्री प्रो० अमर्त्य सेन भी चूक गए लगते हैं| यहाँ हमें ‘विकास’, ‘संस्कृति’,
‘संस्कृति का संवर्धन’ और ‘प्रो० अमर्त्य सेन की विकास अवधारणा’ का विश्लेष्णात्मक
एवं समीक्षात्मक मूल्याङ्कन करना चाहिए|
मैं यहाँ सामान्य विकास की बात करूँगा, किसी विशेषीकृत
विकास जैसे शारीरिक विकास, आर्थिक विकास, भौतिक विकास आदि की बात नहीं करूँगा| वैसे
विकास के सामान्य अर्थ में किसी भी वस्तु या विषय में उसके वर्तमान अवस्था, या दशा, या
दिशा, या व्यवस्था, या क्रियाविधि के सापेक्ष में वृद्धि, प्रगति, सम्यक सकारात्मक
परिवर्तन या योग (जोड़) से लिया जाता है| यह एक बेहतर होने की अवस्था
में रुपांतरित होने की गत्यात्मकता की तरह समझा जाता है| यह विकास किसी के विचारों, या क्रियाविधि, या व्यवस्था के
सन्दर्भ में मानवता एवं प्रकृति को लक्षित कर भविष्य को भी समाहित करता हुआ एक
प्रक्रिया होता है| यह सामान्य लोगो के जीवन स्तर में बेहतरी उपलब्ध
कराने का एक उपागम (Approach) माना जा सकता है| इसीलिए यह धारणीय (Sustainable) भी
होगा और संवर्धित (Improved) जीवन सुविधाओं को उपलब्ध करता हुआ भी होगा| इस तरह यह एक गतिशील और बहु आयामी संकल्पना होता है, जो मानव जीवन,
समाज, संस्कार, संस्कृति, अर्थव्यवस्था या पर्यावरण के विभिन्न आयामों में
सकारात्मक एवं रचनात्मक सुधार लाता हुआ रहता है| यह विकास अपनी
प्रक्रिया में वर्तमान आबादी की आवश्यकताओं के साथ साथ भविष्य की पीढ़ियों की भी आवश्यकताओं
का ध्यान रखती होती है|
तय है कि यह विकास अपनी सम्पूर्णता
में सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक ढाँचा, संरचना, गठन, विन्यास में
मौलिक बदलाव उत्पन्न करता हुआ एक स्थायी प्रगतिशीलता का आधारभूत ‘पारिस्थितिकी’ (Ecosystem)
बनाता है| विकास के सम्यक पक्षों पर एक विहंगम दृष्टि डालने से ऐसा लगता है कि विकास का प्रत्यक्ष सम्बन्ध प्रति व्यक्ति
आय में वृद्धि या प्रति व्यक्ति की खरीद क्षमता में वृद्धि से है, लेकिन यह पूरी तरह से भ्रामक है| बहुत सी
सरकारें समाज के विशेष एवं विशेष वर्गों के कल्याण के नाम पर विभिन्न योजनाओं के रुप में कई प्रकार के दान,
अनुदान, सहयोग दे कर उनकी ‘आय’ बढाते हुए विकास का दावा करता हुआ दिखता है| यह
सब ‘वोट बैंक’ के लिए उचित हो सकता है, लेकिन जनता की क्षमताओं के निर्माण के लिए घातक
ही होता है|
विकास किसी एक ख़ास दिशा
में मात्र वृद्धि नहीं है, बल्कि यह सर्वदेशीय एवं सम्यक वृद्धि होती है, या हो सकती है| इसीलिए
विकास को मात्र सीमेंट की खपत में वृद्धि से, यानि मात्र आधारभूत संरचनात्मक ढाँचे
के बनावट में वृद्धि से नहीं समझा जा सकता है| यह विकास
सामाजिक सांस्कृतिक संबंधों में संरचनात्मक बदलाव के बिना संभव ही नहीं है|
इसीलिए सामाजिक सांस्कृतिक संरचनात्मक बदलाव के बिना किसी भी विकास का दावा विकास
के नाम महज एक ‘तमाशा’ ही है| आपने भी देखा होगा कि बहुत से केन्द्रीय, क्षेत्रीय
एवं स्थानीय सरकारें भी सिर्फ सड़के, पूल, भवन, आदि आदि का निर्माण कर वास्तविक विकास
करने का दावा करता दिखता है, जबकि उनमे विकास की सम्यक दृष्टि का अभाव झलकता है|
प्रो० अमर्त्य सेन की ‘विकास अवधारणा’ में किसी को “अपने जीवन के विभिन्न पक्षों
के संबंधों में निर्णय लेने की स्वतन्त्रता में वृद्धि” से माना है| प्रो० अमर्त्य सेन की इसी
‘विकास अवधारणा’ के लिए उन्हें 1998 में अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार भी मिला है|
इसी कारण विकास के मानकीकरण में ‘स्वास्थ्य’, ‘बौद्धिकता’
यानि ज्ञान स्तर, एवं ‘जीवन स्तर’ को शामिल किया जाता है| इनका ‘मानव विकास
सूचकांक’ (HDI – Human Development Index) तो वैश्विक संगठन ‘संयुक्त राष्ट्र विकास
कार्यक्रम’ (UNDP) ने भी अपनाया है| प्रो० अमर्त्य सेन ने इसीलिए विकास को ‘सक्षमता उपागम’ (Capability Approach) के रुप में
देखा है| इसी कारण विकास के कारक में वैज्ञानिक
ज्ञान एवं तकनीकी कौशल अवश्य ही शामिल रहता है, और इसके लिए ‘विज्ञान
आधारित शिक्षा’ की आवश्यकता होती है| इस ‘विकास’ में ‘आस्थाओं’ पर
आधारित ज्ञान या शिक्षा की भूमिका तो नकारात्मक ही नहीं होती, अपितु विध्वंसक ही
होती है|
अर्थात विकास के लिए सामान्य जनों में ऐसी ही
सकारात्मक एवं रचनात्मक मानसिकता या अभिवृति बनानी होती है| इस तरह विकास व्यक्ति को 'उच्च विभव की क्षमता' तथा 'आत्म- विश्वास' पैदा करने के साथ साथ 'जीवन को गरिमामयी' बनाने के साथ साथ 'जीवन की आकांक्षाओं को
साकार' करने वाला भी बनाता है| इस तरह यह किसी भी आवश्यकता (Need) से और किसी
भी प्रकार के शोषण के भय से मुक्ति दिलाती है| इस रुप में यह व्यक्ति एवं समाज को
स्वतन्त्रता, समता (एवं समानता), एवं बंधुत्व पर आधारित “न्याय” सुनिश्चित कराता
है, जिससे वह व्यक्ति और समाज अपने को गरिमामयी महसूस करता हो|
अब यदि प्रो० अमर्त्य सेन की ‘विकास अवधारणा’ के
नजरिये से तथाकथित विकासशील एवं अविकसित देशों की सरकारों और वहां की बौद्धिकों की
विचारधारा को देखा समझा जाय, तो बहुत अफ़सोस होता है| इनके किसी भी उपागम में
सामाजिक सांस्कृतिक संरचना एवं विन्यास को बदलता हुआ कोई भी सजग, सतर्क एवं
समर्पित प्रयास नहीं दिखता है| कभी भी ऐसा नहीं लगता है कि सरकार या व्यवस्था ने
कभी भी जन मानस की अभिवृति (Attitude) यानि मानसिकता (Mentality) को संवर्धन की दिशा में
बदलना चाहा हो| सरकारों का ध्यान सिर्फ आय में वृद्धि की रही है, जो उन्हें एक
सस्ती लोकप्रियता तो दिलाती है, लेकिन उन व्यक्तियों की उत्पादकता बढ़ाने की ओर
गंभीर नहीं दिखती है| दरअसल किसी बौद्धिक समूह ने भी स्पष्ट रुप में ऐसा रेखांकन नहीं
किया है| यही मानसिकता, यानि अभिवृति, यानि स्थायी सोच –विचार ही तो संस्कृति
है, जो कोई भी एक सामाजिक सदस्य होने के कारण समाज में सीखता है|
संस्कृति मानवीय
व्यवहारों, मूल्यों, विश्वासों, विचारों, अभिवृतियों इत्यादि का एक जटिल आव्यूह (Matrix)
है, जो एक व्यक्ति सामाजिक सदस्य के रूप में समाज से स्वत: ग्रहण करता है| यह सामाजिक सांस्कृतिक
तंत्र का एक साफ्टवेयर की तरह होता है, जो अदृश्य रह कर भी मानव जीवन को नियमित
एवं नियंत्रित करता रहता है|
संस्कृति का सकारात्मक एवं रचनात्मक भूमिका की
दिशा में आगे बढना ही ‘संस्कृति का संवर्धन’ (Improvement of Culture) कहलाता है|
ध्यान रहे
कि मैंने संस्कृति में किसी बदालव की यानि
किसी मौलिक उलटफेर की बात नहीं किया है| जब यह संस्कृति मानव जीवन में इतना
महत्वपूर्ण भूमिका में होता है, तब स्पष्ट है कि यह मानव के विकास में भी
महत्वपूर्ण भूमिका में रहेगा| फिर भी विकास के
सन्दर्भ में संस्कृति का विश्लेषण एवं समीक्षात्मक मूल्यांकन नहीं किया जाना
रहस्यमयी लगता है| पता नहीं क्यों प्रो० सेन ने संस्कृति को विकास से प्रत्यक्षतः नहीं जोडा?
वैसे ‘सत्ता’ सदैव ‘रूपान्तरण’
विरोधी होती है, यानि ‘यथा स्थितिवादी’ होती है| वैसे ऐसा लगता है कि ‘सत्ता’ कोई व्यक्ति
समूह नहीं है, लेकिन यह तो ‘व्यक्तियों का समूह’ ही होता है, और उसके निहित
स्वार्थ भी होता है| किसी भी समाज के सांस्कृतिक
गठन में कोई समूह प्रभावशाली रहता है, और उसी पर राष्ट्र निर्माण एवं विकास की सारी
जबावदेही रहती है| अधिकतर तथाकथित
विकासशील एवं अविकसित देशों में तथाकथित बौद्धिक लोगों को अपनी समूह, जाति, पंथ
एवं धर्म में ही इतना समर्पण होता है, कि वे अपने इसी ‘विश्वास’ को अपना ‘राष्ट्र’
समझ लेते हैं| शायद इन्हें ‘राष्ट्र’ की समझ
ही नहीं है, या ये अपने दोहरे चरित्र से बाहर नहीं
निकल पा रहे हैं| ये तथाकथित सत्तासीन बौद्धिक लोग अपने ही समूह,
जाति, पंथ एवं धर्म को अपना ‘सामाजिक पूंजी’ (Social Capital) समझते हैं, और उसी को मजबूत करने में
सक्रिय हैं और समर्पित हैं|
ऐसे में किसी भी देश की गौरवपूर्ण सांस्कृतिक विरासत
का पुनरोद्धार कैसे होगा?
यह एक गंभीर और विचारणीय प्रश्न है| आप भी विचार
कीजिए|
आचार्य
प्रवर निरंजन जी
अध्यक्ष,
भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|
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