मंगलवार, 7 जनवरी 2025

राष्ट्र का विखंडन और संस्कृति

कोई भी राष्ट्र विखंडित होता है, या विखंडन की ओर अग्रसर है, तो क्यों? संस्कृति इतनी सामर्थ्यवान होती है कि किसी भी देश को एकजुट रख कर एक सशक्त राष्ट्र बना दे सकती, या किसी देश को खंडित कर कई खंडों में विभाजित भी कर दे सकती है| भारत को ही यदि आधुनिक युग में देखा जाय, तो यह देश भारत और पकिस्तान में खंडित हुआ| यहाँ राष्ट्र निर्माण का मूलाधार धर्म आधारित संस्कृति को ही माना गया| लेकिन यह पकिस्तान भी संस्कृति के दूसरे ही आधार पर फिर से खंडित होकर ‘बंगलादेश’ बना| हालाँकि विभाजित होने वाले अपना सांस्कृतिक आधार खोज ही लेते हैं| कोई संस्कृति का मूल आधार ‘भाषा’, कोई ‘धर्म’ या ‘पंथ’ या कोई क्षेत्र ही मान लेता है, लेकिन अधिकतर लोग ‘प्राकृतिक न्याय’ को संस्कृति का आधार नहीं मान पाते हैं| ‘प्राकृतिक न्याय’ का सामान्य अर्थ ‘मानवतावादी’ होना होता है|

यदि वैश्विक राजनीति को संस्कृति के नजरिए से देखा जाए, तो अनेक वैश्विक राजनीतिक विचित्रताएं उभर आती है। कई वैश्विक संघर्षों का होना या किसी ऐतिहासिक राष्ट्र का विखंडित हो जाना, यह सब संस्कृतियों की समझदारी और उसके प्रबंधन की सफलता या असफलता का खेल है। किसी ने रोमन साम्राज्य की, किसी ने आटोमन साम्राज्य की स्थापना की, तो प्राचीन काल में किसी ने भारतीय साम्राज्य की भी स्थापना की थी, यह सभी संस्कृतियों का ही प्रबंधन रहा| आज फिर ‘बाजार की शक्तियाँ’ एक ‘वैश्विक संस्कृति’ का सृजन करने लगी है| ‘भूगोल’ पर ही ‘आर्थिक शक्तियों’ की क्रिया से ‘संस्कृतियों’ का सृजन होता है| फिर यह भी आश्चर्यजनक है कि इतने महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली सामाजिक सांस्कृतिक साफ्टवेयर यानि संस्कृति का इन संदर्भों में सम्यक अध्ययन नहीं किया गया है, या नहीं किया जा रहा है।

यदि किसी भी व्यक्ति या समाज  की उपलब्धि में उसके व्यक्तित्व का अध्ययन किया जाए, तो संस्कृति की ही महत्वपूर्ण भूमिका उभर कर स्पष्ट हो जाती है। यह संस्कृति ही व्यक्ति एवं समाज की अभिवृति, मानसिकता और दिशा –दशा निर्धारित एवं नियमित करती रहती है| कोई भी व्यक्ति अपने विचारों के सृजन में, भावनाओं की अभिव्यक्ति में, और व्यवहार यानि क्रिया करने में स्वत: स्फूर्त रुप में संस्कृति से ही संचालित होता है। कोई भी व्यक्ति अपने प्राप्त सूचनाओं को अपनी सांस्कृतिक समझ में उसे संसाधित (Process) कर ही उसके अनुरूप कार्य करता है। मतलब कि इसमें पहला चरण सूचनाओं का आगमन है, दूसरा चरण उन सूचनाओं का अपने समझ के अनुसार संसाधित करना या होना है और अंतिम चरण में उन संसाधित सूचनाओं के अनुसार ही कार्यान्वयन किया जाना होता है। इसीलिए किसी भी कर्ता के द्वारा कुछ भी किया जाना ही पर्याप्त नहीं होता है, बल्कि  कर्ता के विषयों (व्यक्ति या जनता) की संस्कृति को सम्यक रुप में समझना और उसके अनुरूप ही कार्य किया जाना भी अपेक्षित होता है। यहाँ व्यक्ति की समझ से आशय उसकी संस्कृति से ही है|

जोसेफ स्टालिन समझाते हैं कि “ऐतिहासिक रुप से एक साथ रहने से उत्पन्न एकापन की भावना ही राष्ट्र है”, अर्थात ऐतिहासिक रुप से एक साथ रहने समझने की साझेदारी से ही राष्ट्रीयता की भावना जन्मती है और मजबूत भी होती है। ध्यान रहे कि संस्कृति का भी यही आधार है, अर्थात राष्ट्र और संस्कृति का आधार एक ही है| स्पष्ट है कि एक सशक्त राष्ट्र के निर्माण में सिर्फ संस्कृति की ही भूमिका महत्वपूर्ण है। यदि यह भावना खंडित कर दिया गया, तो कोई शक्ति देश को तो बचा ले सकती है, लेकिन एक राष्ट्र को नहीं बचा सकता है। यह ‘तथाकथित राष्ट्रीयता की भावना’ अपना उचित मौका देख कर कभी भी विस्फोट कर जाता है|

यदि सोवियत संघ के सर्वोच्च सत्ता  के विचारक -मंडल पूर्व के सोवियत राजनीतिज्ञ जोसेफ स्टालिन की राष्ट्र संबंधित भावना और अवधारणा को बेहतर ढंग से समझते होते, तो सांस्कृतिक आधार पर सोवियत संघ का राष्ट्रीय विखंडन नहीं होता। ये विचारक -मंडल कभी भी उच्चतर संस्कृतियों में व्याप्त सामान्य तत्वों की पहचान करने और उसे मजबूत करने पर गंभीर नहीं रहे। वे शुरु से ही सांस्कृतिक एकीकरण पर सजग, सतर्क और समर्पित प्रयास नहीं किया। और इसी कारण एक सशक्त राष्ट्र का खंड खंड विभाजन हो गया। आज भी विश्व के कई तथाकथित विकासशील और अविकसित देशों में ऐसा ही संकट गहराता जा रहा है। इन राष्टों में विचारक -मंडल राष्ट्र की अवधारणा संस्कृति के सापेक्ष समझते ही है और इनके द्वारा अपनी जाति और धर्म को ही राष्ट्र समझने की भयानक भूल कर दी जा रही है। इन विचारक -मंडल  के सदस्य गण अपनी जाति/ कबीले और धर्म आधारित "सामाजिक पूँजी" (Social Capital) को और  मजबूत करने के लक्ष्य में अपने राष्ट्र को ही बर्बाद कर रहे हैं। ऐसे देश एक राष्ट्र बनने को छटपटा रहा है। ऐसे देशों में विचारक -मंडल अपनी अपनी जाति/ कबीले और पंथ/ धर्म के ही प्रति समर्पित है। यह समस्या उन सभी  देशों में है, जहॉ की संस्कृति अपने ऐतिहासिक विरासत के परिणामस्वरूप आज विशिष्ट स्वरुप में मौजूद है। इसी कारण भारतीय संविधान की ‘उद्देशिका’ (Preamble) में भी ‘राष्ट्र’ (Nation) की एकता एवं अखंडता की बात की गयी है, किसी ‘देश’ (Country), या ‘प्रान्त’ (Province), या ‘राज्य’ (State) की एकता एवं अखंडता की बात नहीं की गयी है। इसका एकमात्र कारण संस्कृति का राष्ट्र  से जुडा होना है। 

वैसे सभी संस्कृतियों को उनके भौगोलिक, ऐतिहासिक और वैज्ञानिक मानसिक विरासत के अनुरूप होने के कारण तुलनीय नहीं माना जाना चाहिए, लेकिन यह तो स्पष्ट है कि सभी संस्कृतियों को 'न्यायवादी' होना ही चाहिए, अन्यथा उन संस्कृतियों को एक साथ नहीं रहना चाहिए। 'न्यायवादी' का अर्थ हुआ कि वह संस्कृति अपने सभी सदस्यों को स्वतंत्रता, समता व समानता और बंधुत्व की भावना के साथ साथ मानवीय गरिमा सुनिश्चित करता हुआ होता है। इस तरह हर संस्कृति को आधुनिक और वैज्ञानिक होना ही चाहिए। यहॉ संस्कृति क्या है, बड़ा ही बहुत महत्वपूर्ण है। संस्कृति किसी भी समाज की मानसिक निधि है, जो ऐतिहासिक काल में विकसित होता है और यह सामाजिक सदस्य के रुप में सभी को प्राप्त होता है। इस तरह संस्कृति समाज को स्वत: स्फूर्त  संचालित और नियमित करने वाले साफ्टवेयर की तरह होता है। अतः ऐसे महत्वपूर्ण साफ्टवेयर को संशोधित और परिमार्जित करने की ज़रूरत होती है।

यदि हम अपने राष्ट्र को आगे ले जाना चाहते हैं और सशक्त, समृद्ध एवं विकसित बनाना चाहते हैं, तो हमें सजगता, सतर्कता और समर्पण से राष्ट्र का अध्ययन संस्कृति के संदर्भ में अवश्य करना चाहिए। ऐसा ही अपील विश्व के सभी जनगण से है।

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

1 टिप्पणी:

  1. संस्कृतियों का न्यायवादी होना भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरूप है। कृपया विभिन्न संस्कृतियों का तुलनात्मक रूप से न्यायवादी पैमाने पर भी एक लेख प्रकाशित करें

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