मंगलवार, 21 जनवरी 2025

क्या कर्मकाण्ड को समाप्त किया जा सकता है?

क्या ‘कर्मकाण्ड’ (Ritualism) को मानव जीवन में समाप्त  किया जा सकता है, या समाप्त नहीं किया जा सकता है? इस प्रश्न के सम्यक उत्तर पर पहुँचने से पहले हमें कर्मकाण्ड की अवधारणा को समझना होगा, इसकी प्रकृति और क्रियाविधि को भी समझना चाहिए। इसके ही साथ हमें यह भी समझना चाहिए कि क्या इसकी कोई सामाजिक सांस्कृतिक अनिवार्यता भी है? यदि कर्मकाण्ड की सामाजिक एवं सांस्कृतिक अनिवार्यता है, तो इसे कम किया जा सकता है, लेकिन शायद एकदम ‘शून्य’ नहीं किया जा सकता है|

‘कर्मकाण्ड’ एक स्थापित ऐसी ‘सामाजिक सांस्कृतिक’ ‘प्रक्रिया’ (Process) है, जो किसी भी ‘सामाजिक सांस्कृतिक’ ‘संस्थाओं’ (Institutions) के सम्बन्ध में एक अनिवार्य ‘उद्घोषणा’ (Declaration) करने से सम्बन्धित है। यह एक ‘काण्ड’ (Event) है, यानि एक घटना है, और इसमें एक निश्चित एवं स्थापित कर्म यानि विधि तथा व्यवहार किया जाता है। तो प्रश्न यह उठता है कि एक सुनिश्चित एवं स्थापित कर्म को किसी खास समय में क्रियान्वित करने की आवश्यकता या अनिवार्यता क्यों है? इसे समझना चाहिए|

यह ‘कर्मकाण्ड’ “सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं” की घोषणा का ‘काण्ड’ है, जो एक निश्चित एवं निर्धारित क्रियाविधि से सम्बन्धित होता है। अर्थात कर्मकाण्ड किसी भी सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं से संबंधित ‘सामाजिक घोषणा’ (Social Declaration) करती है। यह या तो किसी नवनिर्मित संस्थाओं के निर्माण से संबंधित घोषणा हो सकती है, या किसी पूर्ववर्ती संस्थाओं में संशोधन, परिमार्जन, संवर्धन या समापन संबंधित या इनका मिश्रण घोषणा हो सकती है। तो इन सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं के कुछ उदाहरण के साथ स्पष्ट किया जाना चाहिए।

सामाजिक सांस्कृतिक जीवन में कई प्रकार के संस्थाओं का निर्माण होता है, या नए सदस्यों का आगमन या सम्मिलन के कारण पूर्व से स्थापित संस्थाओं का पुनर्गठन होता है, या किसी पुराने सदस्यों की मृत्यु के उपरान्त भी ‘उत्तराधिकारी’ सम्बन्धी सामाजिक संस्थाओं के पुनर्गठन की आवश्यकता होती है| संस्थाओं के इन स्वरूपों की समाज में विधिवत घोषणा करनी होती है, और इसी क्रम में इन कर्मकान्डों की आवश्यकता हो जाती है| इसे और स्पष्टता से समझते हैं| किसी भी समाज में एक स्त्री और एक पुरुष के बिना किसी औपचारिकता (कर्मकाण्ड) के मिलने और एक साथ रहने से भी ‘यौन इच्छाओं’ की पूर्ति किए जा सकते हैं, बच्चे पैदा किए जा सकते हैं, उनका पालन पोषण भी जा सकता है| तब इसमें किसी भी कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं होगी| ध्यान रहे कि किसी कार्यालय में विवाह सम्बन्धी ‘वैधानिक घोषणा’ करना यानि वैवाहिक ‘निबंधन’ कराना भी एक कर्मकाण्ड (औपचारिकता) ही है|

लेकिन यदि इन दोनों स्त्री पुरुष के एक साथ रहने, एवं बच्चे सहित समाज के अन्य सदस्यों के प्रति कुछ निश्चित कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों को जानने, समझने एवं स्वीकार्य करने की सामाजिक घोषणा करना आवश्यक है, तो यही ‘विवाह’ नामक सामाजिक संस्था का निर्माण होता है, और समाज में घोषणा सम्बन्धित एक निश्चित एवं स्थापित कर्मकाण्ड किया जाना होता है| ‘विवाह’ नामक संस्था के निर्माण सम्बन्धी घोषणाओं के साक्षी बनने एवं जानने के लिए परिवार, रिश्तेदार, मित्र- बंधू एवं समाज के मान्य गणमान्य लोगों की उपस्थिति अनिवार्य हो जाती है| किसी दो व्यक्ति के ‘विवाह’ नामक संस्था का निर्माण हुआ, के घोषणा में शामिल लोगों को ठहराने, खिलाने एवं अन्य सम्मान की व्यवस्था भी किया जाना भी अपेक्षित हो जाता है| इसी तरह समाज के सन्दर्भ में कई कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों की घोषणाएँ प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप में करनी होती है, ताकि समाज के प्रति और उस परिवार या व्यक्ति के प्रति समाज की सामाजिक एवं सांस्कृतिक कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों की सामाजिक समझ व्यापक हो सके| किसी परिवार का कोई सदस्य यदि मृत्यु को प्राप्त होता है, तो इनके जाने की और इनके प्रतिस्थानी की विधिवत सूचना यानि घोषणा समाज में करनी होती है| इन सभी में कुछ निश्चित कर्म एवं विधि किए जाने होते हैं, और इन्हें ही कर्मकाण्ड कहा जाता है| ये तथाकथित घोषणाएँ अति संक्षिप्त हो सकती है, या उपस्थित लोगों की सुविधानुसार लम्बी भी हो सकती है| पुराने समय में, कृषि प्रधान व्यवस्था में समय की उपलब्धता अनुसार, परिवहन के धीमी साधनों के कारण उपस्थित लोगों को व्यस्त रखने के लिए भी व्यापक कर्मकाण्ड होता था, जो आज की बदली हुई समय में अनुकूल नहीं रह जाता है|   

ये सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाएं ही सामाजिक सांस्कृतिक तंत्र एवं व्यवस्था की ढांचे भी है और आधार भी है। यदि ये सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाएं ही नहीं हो, तो हमारा वर्तमान आधुनिक मानव जीवन का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है, और तब सामान्य पशु से हालत भिन्न नहीं हो सकता है| कुछ तथाकथित बौद्धिकों को लगता है कि सरकारी कार्योलयों में इन सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं के गठन के लिए निबंधन करा लेना इन ‘कर्मकांडों’ का विकल्प है, जैसे विवाह का निबंधन करा लेना| परन्तु ऐसे बौद्धिकों को यह समझना चाहिए कि यह ‘निबंधन’ की प्रक्रिया भी एक कर्मकाण्ड (औपचारिकता) ही है| अत: एक कर्मकाण्ड सामाजिक सांस्कृतिक जीवन का एक अनिवार्य क्रिया या विधि है|

इस तरह यह स्पष्ट होना चाहिए कि ‘कर्मकाण्ड’ एक सापेक्षिक, लेकिन अनिवार्य घटना है| अर्थात कोई कम कर्मकाण्ड से काम चला सकता है, और कोई विस्तृत एवं व्यापक कर्मकाण्ड भी करता है| कोई सरल एवं साधारण तरीके से भी कम खर्च कर कर्मकाण्ड की औपचारिकताएँ पूरी कर सकता है| दरअसल लोग ‘अंधविश्वास’, ‘ढोंग’ एवं ‘पाखंड’ की अवधारणाओं से भ्रमित हो जाते हैं| ये तीनो ‘अंधविश्वास’, ‘ढोंग’ एवं ‘पाखंड’ किसी के अज्ञानता या मूर्खता से सम्बन्धित हो सकता है, लेकिन एक कर्मकाण्ड सामाजिक संस्थाओं की अनिवार्यता हो जाती है| किसी व्यक्ति का ‘अंधविश्वास’ उसके द्वारा बिना कोई तर्क या विचार कर सत्य के रूप में ‘विश्वास’ कर लिया जाना है, और यह इस तरह जल्दबाजी का परिणाम, या अज्ञानता के कारण या तार्किकता के अभाव में हो सकता है| ‘ढोंग’ करना वह अवस्था है, जिसमे कोई ‘व्यक्ति’ अपने को ‘वह’ दिखाना चाहता है, जो वह वास्तव में नहीं होता है, जैसे कोई फर्जी अधिकारी| इस तरह ‘ढोंग’ किसी व्यक्ति विशेष का होता है| इसी तरह ‘पाखंड’ किसी कर्मकाण्ड से सम्बन्धित अवांछित एवं अवैज्ञानिक क्रिया या विधि है| स्पष्ट है कि किसी व्यक्ति या समाज या संस्कृति से सम्बन्धित ‘अंधविश्वास’, ‘ढोंग’ एवं ‘पाखंड’ को कम या समाप्त करने के लिए उस सम्बन्धित को तार्किक यानि ज्ञानी बना कर ही संभव करा सकते हैं, लेकिन मात्र आन्दोलन चला कर इसे समाप्त नहीं किया जा सकता है|

सामान्यत: लोग ‘कर्मकाण्ड’ के ‘संस्थानिक पक्ष’ (Institutional Aspects) समझे बिना विरोध करने लगते हैं| किसी ‘कर्मकाण्ड’ में खर्च करना या अनावश्यक दिखावा करना एक सापेक्षिक आवश्यकता हो सकता है, लेकिन ‘कर्मकाण्ड’ को समाप्त नहीं किया जा सकता है| मानव जीवन में सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं का विकल्प नहीं हो सकता है| मानव एक सामाजिक प्राणी है, और ‘समाज’ “संबंधों का जाल” होता है, जो पशुओं में नहीं होता है|

मानव जीवन ‘सम्बन्धों का जाल’ (Web of relations) ‘भावना’ (Emotion) प्रधान होता है, और यह ‘कार्य- कारण’ (Cause n Effect) प्रधान नहीं हो सकता है|

ठहरिए, और इस पर विचार कीजिए| इसलिए सांस्थानिक आवश्यकताओं के कारण ‘कर्मकाण्ड’ समाज में बना रहेगा|

इसीलिए

इसके ‘संस्कारक’ भी अपने विविध स्वरूपों में  समाज में बनें रहेंगे|

और इसीलिए

इसके ‘संस्कारक’ बनिए|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

The Mistakes in the Upbringing of Children

Upbringing is the way parents guide and treat their children to help them understand the changing world and eventually lead it. It is the p...