मानव समूहों को नियंत्रित कैसे करें, एक अहम सवाल है? कोई भी मानव समूह अपनी संस्कृति से नियंत्रित, नियमित एवं संचालित होता हैं। अतः मानव समूहों को नियंत्रित करने और मनमाफिक दिशा एवं स्थिति में ले जाने के लिए ‘संस्कृति’ को ही परिमार्जित करने की आवश्यकता होती है। ऐसे सफल प्रयासों के उदाहरणों से मानव का इतिहास भरा पडा हुआ है|
हमें सांस्कृतिक परिवर्तन
एवं सांस्कृतिक रूपांतरण के विविध उदाहरणों से इसकी क्रिया विधि समझनी है और बड़ी
सजगता से इच्छित दिशा में ले जाना है| हमलोग यदि किसी भी संस्कृति को नियंत्रित
करना चाहते हैं, यानि उसे अपेक्षित दिशा में मोड़ना चाहते हैं, या उसमे कोई संशोधन
या परिमार्जन करना चाहते हैं, या उसे संवर्धित करना चाहते हैं, तो उसकी स्थिति,
प्रकृति एवं उसकी क्रियाविधि को समझना होगा| वर्तमान में तेजी से बदलती इस दौर
में संस्कृति ‘और गतिमान’ हो गयी है, तो इस ‘गतिमान संस्कृति’ (Dynamic Culture)
को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है, हालाँकि संस्कृतियाँ
सदैव गतिमान ही रहती है| संस्कृति की
गतिशीलता विज्ञान एवं तकनीक, बाजार की शक्तियों एवं अन्य स्थापित संस्कृतियों के
संपर्क में आने या रहने के समय अवधि एवं उसके गति से प्रभावित होती रहती है| इस तरह हर संस्कृति चेतन अवस्था में रहती
है, और उस संस्कृति के मानव स्वाभाव एवं मनोवृति के अनुसार सदैव गतिशील भी रहती
है|
कुछ लोग किसी तंत्र (System), या व्यवस्था (Organisation), या समाज (Society), या
संस्कृति (Culture), यानि मानसिकता (Attitude/
Mentally) या किसी यन्त्र (Machine) पर नियंत्रण करना चाहते हैं, और
सबकी ‘नियत्रण विधि’ एक सी ही रहती है| जिस पर नियंत्रण पाना है, उस पर
नियंत्रण विधि को जानने समझने में हमें उसके कई स्वभावों, स्थितियों, संरचनाओं एवं
ढांचों के स्वरूपों आदि का ध्यान रखना होता है| वह चीज जिस पर नियंत्रण पाना है,
वह चेतन या अचेतन हो सकता है, वह स्थिर या गतिमान हो सकता है, उसका द्रव्यमान कम
या अधिक हो सकता है, उसका ढाँचा खोखला या ठोस हो सकता है, आदि आदि| यहाँ संस्कृति
के सन्दर्भ में उसका द्रव्यमान से तात्पर्य उसमे समाहित आबादी की मात्रा, उस आबादी
की गुणवत्ता यानि उनकी बौद्धिक स्तर एवं उसकी व्यापकता से है| किसी संस्कृति को उस समय ‘खोखला’ कहा जा सकता है, जब उस
संस्कृति के सभी तत्व, आधार एवं संरचना सिर्फ “आस्था” (Faith) पर टिकी हुई होती
है| ‘आस्था’ के लिए किसी भी तर्क, साक्ष्य, तथ्य एवं विज्ञान की
आवश्यकता नहीं होती, सिर्फ ‘कुतर्को’ के आधार पर सत्य मान लेना होता है| किसी संस्कृति को उस समय ‘ठोस या मजबूत’ कहा जा सकता है, जब
उस संस्कृति के सभी तत्व, आधार एवं संरचना सिर्फ “विज्ञान, तर्क एवं सक्ष्यात्मक
प्रमाण” पर टिकी हुई होती है|
हमलोग यहाँ ‘संस्कृति’ पर नियंत्रण चाहते हैं, और अन्य
व्यवस्था, या तंत्र, या यन्त्र पर नही| इसीलिए यहाँ इसी संस्कृति तक ही सीमित
रहेंगे| संस्कृति पर नियंत्रण पाना है, और संस्कृति चेतनशील है, तब इसकी नियंत्रण
विधि को समझने में सम्बन्धित आबादी के सामान्य ‘मन’ को ‘मनोविश्लेषणवाद’ (Psychoanalysis)
से अवश्य समझना होगा| लेकिन अचेतन चीजों में इसकी आवश्यकता ही नहीं होती है| संस्कृति पर नियंत्रण पाना है, और यह गतिमान अवस्था में होता
है, इसीलिए उस संस्कृति के आवेग (Momentum) को भी ध्यान
में रखना चाहिए,
और यदि स्थिरावस्था में है, तो उसके जड़त्व (Inertia) को ध्यान में रखना है| यदि गतिमान संस्कृति में लोगो की मात्रा यानि संख्या अधिक है, और
ज्यादा लोग अतार्किक और आस्थावादी हैं, तो उस ‘मूढ़ता’ और ‘बहुसंख्य्ता’ के कारण उस
संस्कृति का आवेग भी ज्यादा होगा| ध्यान रहे कि चलती हुई ट्रेन से
उतरना और ट्रेन की गति के विपरीत दिशा में होना अत्यन्त घातक होता है, आपको उसी
दिशा में दौड़ पड़ना सुरक्षित होता है| यदि गतिमान वस्तु गुणवत्ता या मात्रा में
खोखला होगा, तो उसका आवेग भी कम होगा, और स्वभाव भी अलग ही होगा| ज्यादा आवेग की संस्कृति को नियंत्रित करने में ज्यादा
संसाधन एवं ऊर्जा चाहिए| लेकिन “नियंत्रण
के उपगम” (Approach to Control) को बदल कर नियंत्रण को सरल, साधारण एवं सुविधाजनक
बनाया जा सकता है|
आज संस्कृतियों के स्वरुप में परिवर्तन हो रहा है, और
उसके लिए कुछ तथाकथित आदोलनकारी अपनी वाहवाही लेना चाहते हैं| उन्हें इसका ध्यान
ही नहीं है कि ये सांस्कृतिक परिवर्तन ज्ञान, तकनीक एवं बाजारी शक्तियों के
प्रभाव में ही हो रहा है| ये तथाकथित आन्दोलनकारी सिर्फ सतही तर्क रखना जानते
हैं, और इनकी रणनीति में मानव मन के ‘मनोविज्ञान’ का कोई भी तत्व या पक्ष नहीं
होता है| वैसी कोई सांस्कृतिक वाहन, जो सामान्य
हितों के विपरीत लक्ष्य रखता हो, के सामने चीख चिल्ला कर उस वाहन की दिशा को
नियंत्रित नहीं कर सकता है| सामान्य हितों के विपरीत लक्ष्य से
तात्पर्य होता है – न्याय, स्वतंत्रता, समता (एवं समानता) एवं बंधुत्व का भाव या
मान नहीं रखना|
ऐसे सांस्कृतिक वाहन को नियंत्रित करने का तरीका यह नहीं हो सकता है कि आप सिर्फ आवाज देकर उस वाहन को नियंत्रित करें, क्योंकि वाहन चालक आपके लक्ष्यों के विपरीत की मानसिकता रखता है| आप यदि उस वाहन में सवार हैं, और यदि आपकी पहुँच उस वाहन के ‘चालक सीट’ होती है, तो उस प्रभावकारी वाहन को आपके द्वारा नियंत्रण में रखना सरल और साधारण बात होगी| ‘सांस्कृतिक वाहन’ के ‘चालक सीट’ पर नियंत्रण करना ‘संस्कृति’ के नियंत्रण का सबसे सरल, साधारण, सहज एवं सबसे उत्तम तरीका होता है| अर्थात आप जिस सांस्कृतिक वाहन को अपनी इच्छानुसार मोड़ना या बदलना चाहते हैं, तो सबसे पहले आप उसमे सवार हो जाएँ, और फिर उस वाहन के ‘संचालन सीट’ (Driving Seat) पर नियंत्रण कर लें|
"सांस्कृतिक वाहन" (Cultural Vehicle) के
‘संचालन सीट’ (Driving Seat) पर बैठा व्यक्ति ही
अपने मनचाहे 'कथानकों' (Narratives) के सहारे
अपने श्रोताओं के "विश्वास तंत्र" (Belief System) को बदल सकता है, दूसरा कोई नही|
‘सांस्कृतिक रूपांतरण या परिवर्तन’ की यह प्रक्रिया मानव इतिहास की सबसे प्रचलित विधि रही है, क्योंकि यह सरल होती है, साधारण होती है, मामूली परिवर्तन दिखता है, और इस परिवर्तन का कोई विरोध भी नहीं होता है|
‘सांस्कृतिक वाहनों’ को अपने प्रभाव में लेने का एक
साधारण तरिका है, कि उस वाहन के मौलिक सिद्धांत में परिवर्तन कर देना, या उसके कुछ
या सभी प्रमुख पार्ट - पुर्जों को ही गलत साबित कर देना होता है| जिस सांस्कृतिक वाहन के यंत्र को सामान्य हितों के विपरीत
जाने के लिए ही डिजायन किया गया है, उन्ही सिद्धांतों एवं पार्ट - पुर्जों को सही
मान कर उसमे सुधार करते रहना भी एक स्पष्ट मूर्खता है| इसे तीन बार
पढ़ें, यह बहुत ही महत्वपूर्ण है| ऐसी मूर्खता के उदाहरण आधुनिक युग में भरे पड़े हैं|
इस विधि में उनकी मौलिक अवधारणाओं की पहचान कर ‘उसे ध्वस्त करना” भी एक सरल एवं
सुगम तरीका है|
समाज के कमजोर वर्गों को आर्थिक लाभ
देकर या आर्थिक लाभ का प्रलोभन देना भी औपनिवेशिक काल के इतिहास के उदाहरण माने जाते
हैं| राजनीतिक विजय एवं राजनीतिक शासन के लिए भी सांस्कृतिक
परिवर्तन मध्य युग की एक ख़ास विधि के उदाहरण मिलते हैं| अपमानित एवं दयनीय स्थिति में रहने वाले सांस्कृतिक लोगों
को मानवीय गरिमा सुनिश्चित कराता हुआ सांस्कृतिक ढांचा एवं संरचना भी उन्हें
आकर्षित करता रहा है| कुछ लोग भारत में जातीय
समानता स्थापित कर भी सांस्कृतिक ढांचा एवं संरचना में परिवर्तन कर पाने में सफल
रहे हैं, जबकि उस संदर्भित काल में ‘जाति व्यवस्था’ के कोई भी प्राथमिक
प्रमाणिक प्रमाण नहीं हैं|
अब तो आर्थिक यानि
भौतिक सम्पन्नता से मुखर संस्कृतियाँ भी ‘अन्य संस्कृतियों’ के लिए मानक उदाहरण दे
रहे हैं और उन्हें आकर्षित ही कर रहे हैं| यही आधुनिक संस्कृतियों को वैश्विकता भी
दे रही है|
यहाँ ‘अन्य संस्कृतियों’ से तात्पर्य में आर्थिक रूप से कमजोर संस्कृतियों से है| इस
विधि में अपनी संस्कृतियों को आर्थिक एवं तकनिकी रूप में इतना मुखर बनाना होता है,
कि अन्य संस्कृतियों के लोग भी इस मुखर संस्कृतियों का अनुकरण करें|
तो हमलोग अपनी महान विरासत
की संस्कृतियों के ध्वजवाहक बने, और अपनी संस्कृतियों को मानवतावादी बना कर सबके
लिए अनुकरणीय बनाएँ|
आचार्य प्रवर निरंजन
जी
अध्यक्ष, भारतीय
अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|
आचार्य प्रवर ने मानो - गागर में सागर भर दिया है!
जवाब देंहटाएंविज्ञान / तर्क समझने वाले महानुभाव अवश्य समझ जायेंगे ❗
"यदि गतिमान संस्कृति में लोगो की मात्रा यानि संख्या अधिक है, और ज्यादा लोग अतार्किक और आस्थावादी हैं, तो उस ‘मूढ़ता’ और ‘बहुसंख्य्ता’ के कारण उस संस्कृति का आवेग भी ज्यादा होगा| ध्यान रहे कि चलती हुई ट्रेन से उतरना और ट्रेन की गति के विपरीत दिशा में होना अत्यन्त घातक होता है, आपको उसी दिशा में दौड़ पड़ना सुरक्षित होता है|"
सादर 🙏💐❤️