आपको लगता है कि मैंने इस
शीर्षक को कुछ अटपटा बना दिया है, लेकिन ऐसा नहीं है| ऐसा इसलिए लगता है कि क्योंकि धर्म के
बारे में हमारी दृष्टि मौलिक, मूलभूत एवं आधारभूत रुप में स्पष्ट नहीं हैं| प्रचलित एवं परम्परागत धर्म अब खतरे में हैं, चाहे उसको सुरक्षित रखने का कोई भी
प्रयास कर लिया जाय| धर्म बाजार के गुणात्मक विस्तार एवं वृद्धि में बाधक बनता है। वैश्विक जगत पर ठहर कर देखने समझने की जरुरत है| आज अमेरिका, चीन, रूस आदि शक्तियाँ एक सुर में आकार क्या
बताना चाह रही है? समझने की जरुरत है । लेकिन
इन सभी को समझने के लिए हमें धर्म की उत्पत्ति, क्रियाविधि एवं उद्देश्य को समझना
होगा, और पूँजीवाद को भी वैज्ञानिक विधि से समझना होगा, तो सभी चीजें स्पष्ट होने
लगेगी|
यह भी स्पष्ट है कि किसी एक ही शब्द का 'भाव
सहित अर्थ' संस्कृतियों की भिन्नता के साथ बदलता जाता है| पुरातात्विक
साक्ष्यों से समर्थित भारत की प्राचीनतम भाषा ‘पालि’ में इस प्रचलित एवं
परम्परागत ‘धर्म’ को ‘धम्म’ बताया गया, जो संस्कारित अवस्था
में ‘धर्म’ कहलाया| यह ध्यान रखना है कि पहले धम्म आया, और उससे ही धर्म बना। इसी तरह यूरोप के किसी रीजन (Region)
की परम्परा एवं संस्कृति रिलीजन (Religion) है, और इसी तरह मध्य पूर्व
के किसी मजलिश की ‘सामूहिक अचेतन’ (Collective
Unconscious) ‘मजहब’ कहलाया| ऐसे ही शब्दों
के सतही अर्थ एवं निहितार्थ समझने में महान भाषाविद फर्डीनांड डी सौसुरे का ‘संरचनावाद’
(Structuralism) और प्रसिद्ध दार्शनिक जाक देरिदा का ‘विखंडनवाद’ (Deconstructionism)
आता है| अर्थात किसी एक संस्कृति की “सांस्कृतिक
पदावली” (Cultural Term) का सम्यक अर्थ दूसरी संस्कृति में बदल जाता है| भारत में ‘धम्म’ के बारे में कहा गया है – ‘धारेति ति धम्मो’, यानि ‘जो धारण करने योग्य है, वही धम्म
है’| इस तरह प्राचीन काल में यह ‘धम्म’ किसी का प्राकृतिक गुण,
स्वाभाव, प्रकृति हुआ| इसी ‘धम्म’ से यह परंपरागत ‘धर्म’ शब्द आया, जिसका नाम
तो वही रहा, परन्तु सब कुछ बदल गया,
अर्थात बाह्य ढाँचा स्थिर होते हुए भी आन्तरिक संरचना एवं विन्यास बदल गया,
और ‘सतही’ अर्थ स्थिर रखते हुए भी ‘निहित’ अर्थ पूरा ही बदल गया| पति का (धर्म) धम्म, आग का धर्म,
माता का धर्म, आदि आदि| लेकिन हमलोग यहाँ प्रचलित परंपरागत ‘धर्म’ को मानकर आगे
बढ़ते हैं|
चूँकि वर्तमान सभी प्रचलित परंपरागत धर्म अपने
सभी प्रचलित स्वरूपों में अपने भौगोलिक सांस्कृतिक उत्पाद होते हैं, इसीलिए ‘भाव’
(Essence) की समानता के बावजूद इन धर्मों के बाह्य स्वरुप एवं आंतरिक संरचना एवं
विन्यास भिन्नताएँ रखती हैं| दरअसल वर्तमान सभी धर्म
अपने सभी प्रचलित स्वरूपों में सामन्ती स्वरूपों में विद्यमान होते हैं, यानि वर्तमान
सभी धर्म अपने सभी प्रचलित स्वरूपों में मध्य काल में ही ‘आकार’ (Shape) लिया है|
इन सभी धर्मों से जुड़े सभी व्यक्तियों के व्यक्तित्व एवं अधिकतर स्थानों के नाम
भले ही प्राचीन काल के हों, लेकिन सभी में सामन्ती व्यवस्था के अनुरूप या सामन्ती
व्यवस्था का विरोध – स्वरुप भाव अवश्य ही रखता है| सभी धर्म को सर्व स्वीकार्य
कराने के लिए इसकी सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्थाओं की व्याख्या के लिए प्राचीनतम
संस्कृतियों को ही आधार बनाया जाता है| और इसी आवश्यकता की पूर्ति ने सभी नव
सामाजिक- सांस्कृतिक परम्पराओं की व्याख्याओं, यानि कथानकों, यानि आख्यानों (Narratives)
को ‘सांस्कृतिक खोल’ ओढना पड़ता है, और सभी कथानक, यानि आख्यान प्राचीनतम होने
का दावा करती है| ‘धम्म’ में जहाँ अप्राकृतिक शक्तियों
को कोई स्थान नहीं होता है, वहीं धर्म के सभी प्रचलित स्वरुपों में उस अप्राकृतिक
शक्तियों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहारा लिया गया है| ‘अप्राकृतिक
शक्ति’ से तात्पर्य ‘अप्राकृतिक शक्ति को मानवीकृत स्वरुप में प्रस्तुत करना, जो
किसी विशिष्ट मानव से बात कर सकता है, सुन समझ सकता है, और कार्य भी करता हुआ माना
जाता है| स्पष्ट है कि ‘अप्राकृतिक शक्ति के मानवीकृत
स्वरुप को ही सामान्य साधारण जनता ‘ईश्वर’ (God) कहते हैं|
यूरोप में
पुनर्जागरण के साथ ही ‘भौतिकवाद’ का उद्भव हो रहा था| प्रकृति को एवं उसके
गतिविधियों को तार्किक विधि से तथ्यों एवं साक्ष्यों के आधार पर समझना ही विज्ञान
कहलाया, यानि वैज्ञानिक विधि का आगमन हुआ| इस तरह विज्ञान
एक विषय नहीं होकर, यह ‘अध्ययन की विधि’ (Methodology) हो गयी| प्राचीन काल में तत्कालीन दुनिया में ‘बुद्धि’
का उद्विकास हुआ था, जो मध्य काल के सामन्तवाद में ध्वस्त हो गया था| फिर से उसी ‘बुद्धि’
के विकास काल को ‘पुनर्जागरण’ कहा गया|
‘भौतिकवादी’ दृष्टिकोण ने ही ‘प्राकृतिक विज्ञान’
को वैज्ञानिक आधार दिया, जिससे विज्ञान ने अभूतपूर्व विकास किया| कार्ल मार्क्स पहले आधुनिक दार्शनिक थे, जिन्होंने सामाजिक सांस्कृतिक
रूपांतरण को समझने के लिए भी उसी “वैज्ञानिक भौतिकवाद’ का सहारा लिया,
जिसके आधार पर आधुनिक विज्ञान इस स्थिति तक आ सका था| इसी के आधार पर उन्होंने
पूँजीवाद के चरित्र का विश्लेष्णात्मक मूल्याङ्कन किया| इसके लिए ‘द्वंदवाद’ को
वैज्ञानिक आधार पर विकसित किया| इन्ही सामाजिक सांस्कृतिक उद्विकास के कारण यूरोप
में धर्म (चर्च) का भौगोलिक क्षेत्र एवं सामाजिक सांस्कृतिक गतिविधियाँ सीमित होकर
सिकुड़ती चली गयी| इस द्वन्दवाद में आत्मवाद और भौतिकवाद में अन्तत: भौतिकवाद ही जीतता है। आज पश्चिमी जगत में धर्म (चर्च) की गतिविधियाँ इतनी सीमित हो
गयी है, कि इन संस्थानों को अपने भौतिक संरचना यानि भवन (चर्च की इमारत) की भी गौरवमयी
विरासत को संरक्षित एवं सुरक्षित रखने के प्रयास में बेदम हो रहे है| आज सभी
विकसित प्रदेश ऐसे ही स्थान या क्षेत्र की श्रेणी में आते हैं|
लेकिन धर्म जैसे संस्थाओं के साथ ऐसा क्यों हो
रहा है? मानव का सामाजिक सांस्कृतिक अस्तित्व ही
उसके चेतनाओं के सभी स्तर के स्वरुप को निश्चित करता है| आज जहाँ भी पूँजीवाद
है, वह समृद्ध है, भले ही उसका स्थानीय नामकरण जो है| वहाँ धर्म अपने प्रचलित एवं
परम्परागत स्वरुप में निष्क्रिय या मृत प्राय: है| जो
समाज आज ज्यादा ‘आत्मिक’ या ‘आत्मा’ से प्रभावित है, वह संस्कृति विकास के दौड़ में
अत्यधिक पिछड़ी हुई है, भले ही वह अपने को विकासशील समझ कर ‘आत्ममुग्ध’ होता रहे|
जो ‘धन’ (Wealth)
उत्पादक होता है, वही धन ‘पूँजी’ (Capital) कहलाता है| और इसी ‘पूँजी’ के हित में,
इसी के संवर्धन के लिए जो व्यवस्था का तानाबाना संचालित होता है, उसी व्यवस्था को
पूँजीवाद कहते हैं| दुनिया की तमाम
विकसित कही जाने वाली व्यवस्था इसी पूँजी के संवर्धन की व्यवस्था में लगी हुई है,
भले वह अपने को किसी भी ‘वाद’ का समर्थक माने| और इसी लिए ऐसी व्यवस्थाओं में प्रचलित
एवं परम्परागत धर्म का नाश हो गया है, या
हो रहा है| बिना मानसिकता बदले हुए भौतिक उपलब्धि पाना ‘वृद्धि’ (Growth) कहला
सकता है, लेकिन ‘विकसित’ (Developed) की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है|
तो पूँजीवाद की कौन सी अनिवार्यता होती है, जो प्रचलित एवं परम्परागत धर्म का नाश करता है? मतलब यह है कि प्रचलित एवं परम्परागत धर्म का चरित्र एवं स्वाभाव ही पूँजीवाद का विरोध कर देता है| प्रचलित एवं परम्परागत धर्म ‘आस्था’ का विषय होता है। लेकिन ‘धम्म’ ‘आस्था’ का ही विरोध कर देता है, और यह सब कुछ समझ कर ही अनुगामी होने का सलाह देता है| आस्था बौद्धिकता के मौलिक विकास में बाधक बनता है और इस तरह वह समाज अपनी अर्थव्यवस्था में भी पिछडी हुइ होती है। ऐसे लोग पूँजीवाद के विकास में सहायक नहीं हो सकते।
द्वंदवाद (Dialectism) किसी सत्य की खोज करने
की वाद- प्रतिवाद की विधि है| यही विधि भौतिकवाद के विकास के परिणाम को समझने
के लिए किया गया| प्रकृति की तरह समाज भी निरन्तर परिवर्तनशील है, और इसके
परिणामस्वरूप परिस्थितियाँ बदलती रहती है| बदली हुई परिस्थितियों में अनुकूलित
कर जाने वाले बचे रह जाते है, और संवर्धित भी होते हैं, जबकि इसके आलावा अन्य नष्ट
हो जाने को बाध्य हो जाते हैं| ये परिवर्तन जटिल होते हैं, और इनके छोटे परिवर्तन
भी बड़े गुणात्मक परिवर्तन कर देते हैं| ऐसे
परिवर्तनों के लिए किसी व्यक्ति विशेष की इच्छा शक्ति पर्याप्त नहीं होता है,
बल्कि ‘भौतिक स्थितियाँ’ (Material conditions) ही नियामक एवं निर्धारक होता है|
इन शक्तियों को भौतिक शक्तियाँ कहते हैं, जो ऐतिहासिक काल में ‘ऐतिहासिक शक्तियाँ’
कहलाता है|
पूँजीवाद चाहता है कि
प्रत्येक पूँजी अपना महत्तम प्रतिफल दे, और यह उस समय संभव है, जब लोगों में बढ़ते ‘उत्पादन’ (Production)
के अनुरूप लोगों की ‘उपभोग’ (Consumption) क्षमता एवं क्रय क्षमता बढ़ता रहे| जब
जनता का स्तर ‘पशुवत’ होती है, यानि भूख, प्यास, यौन सम्बन्ध जैसे मूलभूत ‘सहज
प्रवृति’ (Basic Intincts) तक सीमित होती है, तब उसकी आवश्यकताएँ भी ‘पशुवत’ ही
रहती है| तब उपभोग का स्तर भी प्राथमिक स्तर का होता है, लेकिन जब उपभोग का स्तर उच्चतर होता है, तब खपत के लिए अधिक धनराशि
की जरुरत हो जाती है, यानि सामान्य जनता का उच्चतर क्रय क्षमता होना चाहिए|
जनता के उच्चतर क्रय क्षमता के लिए उसकी आय भी उच्चतर स्तर का होना चाहिए| इसके लिए
उनके बौद्धिक स्तर को भी उच्चतर होना चाहिए| किसी
भी गुणात्मक शिक्षा का मूलभूत आधार ‘सवाल खड़ा करना’ ही होता है, और ‘आस्था’ किसी भी गुणात्मक शिक्षा की नीव के ही विरुद्ध हो
जाता है| इसीलिए ‘आस्था’ पर आधारित सभी संस्कृतियाँ कोई मौलिक उत्पादन या योगदान नहीं करती है,
भले ही जो दावा करता रहे| इसीलिए पूँजीवादी व्यवस्था
में ऐसी ‘आस्था’ पर आधारित संस्थानों’ को अवश्य ही नष्ट होना होता है, जैसे पश्चिम
जगत में हुआ| ‘प्रचलित एवं परम्परागत धर्म भी एक सांस्कृतिक संस्था है|
यदि आप
आधुनिक एवं विकसित देशों, या समाजों, या संस्कृतियों का अवलोकन करते हैं, तो आप
पाते हैं कि वहाँ ‘आस्था’ पर आधारित कोई सांस्कृतिक संस्था वजूद में नहीं है| यदि आप ऐसा नहीं देख पा
रहे हैं, आपको आपकी अपनी ‘आलोचनात्मक चिंतन (Critical Thinking)’ के स्तर
का एक बार समुचित मूल्याङ्कन करने की आवश्यकता है| आप क्या कर पा रहे हैं, यह आप
ही जानें, लेकिन यही सत्य है, यही आज के संदर्भ में सत्य है| तब आपको गंभीरता से
ठहर जाना चाहिए|
स्पष्ट है कि पूँजीवाद का
द्वन्द ही इस प्रचलित एवं परम्परागत धर्म का नाश करेगा|
आचार्य
प्रवर निरंजन जी
अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म
एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|
अभी कुंभ के भीड़ में सराबोर भारत को आस्था के हकीक़त को। डिकोड कर, बहुत शानदार जानकारी दिए सर । Keep it up Sir
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