गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

सामाजिक एवं सांस्कृतिक उद्विकास के सफ़र की कहानी

सामान्यत: लोग सामाजिक उद्विकास या सांस्कृतिक उद्विकास के सफ़र की भिन्न भिन्न कहानियाँ सुनते रहते हैं| इस उद्विकास के सफ़र को कहानियाँ इसलिए कहा गया, क्योंकि ये कहानियाँ बिना सिर पैर की भी होती है| यह बिना किसी सम्पूर्ण तार्किकता एवं वैज्ञानिकता के होती है, और समर्थन में उनका कोई सम्यक साक्ष्य एवं तथ्य भी नहीं होता है| हालाँकि सभी संस्कृतियों एवं समाजों की कहानियाँ अलग अलग होती है, लेकिन हमलोग भारत भूमि के सन्दर्भ में बात करेंगे| फिर भी भारत के बहाने वैश्विकता की व्यापकता एवं सामान्यीकरण के सिद्धांतों पर भी नजर रहेगी| लोग बिना आधार पर ही कहते हैं, कि हमारा समाज आर्कटिक प्रदेशों से, बाल्टिक प्रदेशों से, आस्ट्रोनेटिक प्रदेशों से या किसी अन्य क्षेत्रों से भारत आया है, या भारत में ही विकसित हुआ है|

इन सब प्रसंगों में कई सवाल उभरते हैं, लेकिन मौलिक (Original), मूल (Core) एवं मूलभूत (Basic/ Fundamental) सवाल एवं उत्तर भी उभरने चाहिए, लेकिन इन मौलिक, मूल एवं मूलभूत सवाल एवं उत्तर को छोड़ कर बाकि सभी थोथले सवाल एवं उत्तर ही बहस या विमर्श के हिस्से होते हैं| सबसे पहले तो यह स्पष्ट होना चाहिए कि समाज एवं संस्कृति से तात्पर्य क्या होता है? क्या कोई झुण्ड या समूह ही समाज कहलाता है, या इसके अतिरिक्त इसमें कोई और शर्त होता है? यदि यह मानव का झुण्ड मात्र ही है, तो फिर समाज शब्द की आवश्यकता क्यों हुई? समाज मानवीय ‘संबंधों का जाल’ (web of relashionship) होता है| दूसरे सब्दों में, समाज कुछ “संस्थाओं” (Institutions, not Institutes) का ‘पारितंत्र’ (Eco system) होता है| कहने का तात्पर्य यह है कि सामाजिक उद्विकास का सफ़र ऐसे संस्थाओं के निर्माण के बाद ही शुरू होता है, और इसके पहले की सामाजिक उद्विकास की कहानी मात्र स्वप्निल कहानी मानी जानी चाहिए| मतलब यह कि आठ हजार साल से पहले की सभ्यता एवं संस्कृति की सारी कहानियाँ थोथली ही हैं| संस्कृति सामाजिक सदस्य होने से संस्कारित स्वरूप है। 

मानवविज्ञानियों ने यह स्थापित कर दिया है कि वर्तमान सभी मानव होमो सेपियन्स सेपियन्स हैं, और होमो के बाकि उत्पन्न सभी प्रजातियाँ समय के साथ नष्ट होते गये हैं| इससे आपकी असहमति हो सकती है, लेकिन इसका संतोषजनक उत्तर तो स्थापित सर्वमान्य मानवविज्ञानियों से ही पाया जा सकता है, वैसे असहमति के लिए कोई भी स्वतंत्र है| वर्तमान सभी मानव अफ्रीका के वोत्सवाना के घाटी के मैदान में एक ही आदि परिवार समूह से उत्पन्न माने जाते हैं| मतलब यह है कि जब सभी वर्तमान मानव एक ही आदि परिवार से उत्पन्न हैं, तो मानव समाजों के विभिन्न प्रदेशों से उत्पन्न सामाजिक समूहों की कहानी पूर्णतया बेईमानी है, और कोई घटिया उद्देश्य या उद्देश्यविहीन भावों से परिकल्पित है| इस आधार पर कोई भी देशज और विदेशी नहीं है, चूँकि सभी एक ही परिवार से उत्पन्न हैं| तो आप यह कह सकते हैं कि समय के सन्दर्भ में लोग भिन्न भिन्न क्षेत्रों से आए हैं, यह सही हो सकता है, या है, लेकिन इससे हम क्या स्थापित करना चाहते हैं, जब सभी एक ही परिवार और संस्कृति से उत्पन्न हैं| बाहय शारीरिक भिन्नता तो ‘भौगोलिक अनुकूलन’ (Geographic Adoptation) के मात्र परिणाम हैं| जीनीय रूप में यह भिन्नता फेनोटाइप (Phenotype) संरचना है, लेकिन जीनोटाइप (Genotype) संरचना एक सामान रहता है| सतही भिन्नता का आधार सिर्फ भौगोलिक अनुकूलन होता है| भौगोलिक एवं सामाजिक विभाजन के आधार से जीनीय पूल में भिन्नता ‘जीनीय प्रवाह’ (Genetic Flow) एवं ‘जीनीय विस्थापन’ (Genetic Dispalcement) से आता है|

स्पष्ट है कि कोई भी व्यक्ति मानव समाज के उद्विकास को इस उत्पत्ति स्थान को छोड़कर किसी भी सामाजिक एवं सांस्कृतिक उद्विकास की कहानी रचता है, या कहता है, तो वह चटपटा हो सकता है, और आकर्षक भी हो सकता है, लेकिन वह एक ऐतिहासिक चुटकुले से ज्यादा कुछ नहीं है| सामाजिक एवं सांस्कृतिक उद्विकास के इस कड़ी को छोड़कर, यानि इस तारतम्यता को छोड़कर कोई कहीं और से, किसी अन्य क्षेत्र से सामाजिक एवं सांस्कृतिक उद्विकास की कहानी बताना शुरू करता है, तो उसे उद्विकासवाद की मूलभूत समझ नहीं है, और इसीलिए उसकी कथाएँ महज एक तमाशा हो सकता है, इतिहास का कोई हिस्सा नहीं हो सकता है| उद्विकास किसी जीव का हो, किसी भाषा का हो, किसी समाज का हो, या किसी संस्कृति का हो, संरचनात्मक एवं प्रकार्यात्मक (Functional) विन्यास में सदैव ही सरलतम से जटिलतम अवस्था की ओर अग्रसर होगा, यानि साधारणतम स्तर से से उच्चतर स्तर की ओर अग्रसर होता है| यह उद्विकासवाद किसी भी दैवीय या चमत्कारिक उत्पत्ति या विकास की किसी भी अवधारणा को कोई भी स्थान नहीं देता है, इसे दुबारा फिर से, एवं स्थिरता से पढ़ें|

सामाजिक एवं सांस्कृतिक उद्विकास समाज का एक ऐसा विकास सिद्धांत है, जिसके अनुसार मानव समाज समय के साथ परिवर्तित परितंत्र के अनुकूलन के साथ साथ उच्चतर विकास की ओर बढ़ता जाता है| यह नई दिशाओं में नई संभावनाओं को भी आधार देता है| तय है कि इनके सदस्यों की प्रारंभिक संख्या भी नगण्य ही होगी| वर्तमान मानव अपनी उत्पत्ति के समय यानि कोई सत्तर हजार साल पहले एक छोटा सा मानव समूह ही मात्र था| जनसंख्याविदों का मानना है कि कोई पचास हजार साल पहले तक इनकी सम्पूर्ण जनसंख्या कोई दस हजार के ही आसपास थी, और उसी समय वर्तमान मानव के पूर्वज अफ्रीका से बाहर निकलने लगे| कोई पांच हजार साल पहले विश्व की सम्पूर्ण आबादी कोई पचास लाख अनुमानित है| तय है कि ऐसी स्थिति में भौगोलिक संपर्क संभव -स्थानों के लोग एक दूसरे से मिलते रहते रहते थे, और प्रवासन का दौर आज की ही तरह जारी था| सिर्फ मध्य काल की सामन्ती शक्तियों के कारण यह प्रवासन बाधित रहा था| ऐसी स्थितियों में संस्कृतियों के प्रवासन की बात अपने ठोस अवस्था में एवं सम्पूर्णता की स्थिति में करना बेमानी है| संस्कृतियाँ आपसी सम्पर्क में सदैव एक दूसरे को प्रभावित करती रही है|

जब किसी भी सामाजिक उद्विकास के सफरनामा का अध्ययन करते हैं, और उससे सम्बन्धित परिभाषाएँ और अवधारणाएँ ही पूर्णतया स्पष्ट नहीं हो, तो सारा विमर्श या बहस बकवास हो जाता है| तो हमें ‘समाज’, ‘संस्था’, ‘परिवर्तन’, ‘प्रक्रिया’, ‘क्रियाविधि’, ‘रूपांतरण’, ‘वृद्धि’, ‘विकास’, ‘उद्विकास’, ‘प्रगति’, ‘अनुकूलन’, की अवधारणा को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए|

एक “समाज” (Society) मानव संबंधों का एक जाल या व्यवस्था है|

कोई भी “संस्था” (Institution) एक मूल एवं मौलिक उद्देश्य या दर्शन (Essence) के लिए स्थापित होती है, और इसके बिना यह संस्था जीवित नहीं रह सकती| परिवार, विवाह, राज्य आदि सभी संस्थाएँ हैं|

“परिवर्तन” (Change) में संरचना, या प्रकार्य, या दोनों में अंतर आता है। इसे बदलाव भी कहते हैं| 

प्रक्रिया” (Process) एक निरंतर परिवर्तन होते रहने की अवस्था है| यह सामान्यत: एक देशीय होता है, और यह अवधारणात्मक बदलाव की दशा है|

“क्रियाविधि” (Mechanism) वह प्रक्रिया है, जो किसी भी तंत्र में उनके ‘छोटे भागों’ (उप तंत्रों) के मध्य होता रहता है, और यह द्विदेशीय दिशा में भी हो सकता है| यह ‘प्रक्रिया’ से ज्यादा व्यापक अवधारणा है|

“रूपान्तरण” (Transformation) स्थायी निश्चित परिवर्तन होता है, और यह परिवर्तन आसानी से अपने मूल स्वरुप में वापस  नहीं आ पाता है|

“वृद्धि” (Growth) किसी निश्चित दिशा में अग्रगमन या निरन्तर परिवर्तन है| इसे एकदेशीय बढ़ोतरी (increament) कहा जा सकता है, जैसे सीमेंट के खपत में वृद्धि|

“विकास” (Development) में बहुदेशीय गुणात्मक एवं सकारात्मक बदलाव होता है| यह सामान्य वृद्धि नहीं है| यह आपसी संबंधों में सकारात्मक एवं रचनात्मक सृजन की अवस्था है| इस तरह यह ‘वृद्धि’ से बहुत व्यापक है| इसे 'क्षमता निर्माण' (Capability Formation) भी माना जाता है|

“प्रगति " (Progress) में किसी व्यवस्था या किसी प्रक्रिया में गुणात्मक दृष्टि से प्रकृति का सकारात्मक बदलाव होता है|

“उद्विकास” (Evolution) धीमी गति से, लेकिन निरन्तर ढाँचागत, या संरचनात्मक, या विन्यास सम्बन्धी सकारात्मक रूपान्तरण होने की प्रक्रिया है|  

“अनुकूलन” (Adoptation) किसी के जीवित रहने या और बेहतर करने के लिए एक प्रक्रिया या क्रियाविधि है, जिसमे कोई इसके लिए स्वयं एवं अपने आसपास में बदलाव लाता रहता है| यह उसके जीवन काल में सदैव चलता रहता है|

अब आप ऐसी कहानियों को कहने वाले से उपरोक्त आधारित प्रश्न कीजिए| उपरोक्त मानव के उद्विकास से भिन्न कोई और कड़ी है, तो उसके उत्पत्ति का आधार और साक्ष्य क्या है? जब सभी वर्तमान मानव ‘होमो सेपियंस सेपियंस’ ही हैं, तो उनके भिन्न भिन्न स्थानों से उत्पत्ति को मानव वैज्ञानिक समूह क्यों नहीं मानता? जब पांच हजार साल पहले और उसके बाद भौगोलिक संपर्क से जुड़े हुए लोग आपस में मिलते रहे, और एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रवसन करते रहे, तो भिन्नताओं एवं समानताओं को तलाशना कौन सी मकसद को पूरा करता है? तय है कि संस्कृतियों का भी यदि प्रवाह हुआ है, तो वह अवश्य ही पानी की तरह उच्चतर विभव (Potential) से निम्नतर विभव की ओर प्रवाहित होगा|

और सबसे अन्त में,

ऐसी कहानियों को सम्यक रूप में पूर्णता में, और लिखित में मांग की जाय, जो ‘होमो सेपियंस सेपियंस’ की उत्पत्ति से अब तक की कड़ियों की, यानि उद्विकास की सम्पूर्ण व्याख्या करता हो| अन्यथा वह मात्र कथा ही है| उद्विकासवाद इसमें बहुत ही महत्वपूर्ण तार्किक आधार है|  

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

3 टिप्‍पणियां:

  1. अत्यंत सारगर्भित एवं तार्किक आलेख।
    आचार्य जी को ऐसे प्रखर वैज्ञानिकता वाले आलेख की रचना के लिए, जो मनुष्य के तमाम सारे अंधविश्वासों और भ्रमों का तत्क्षण विनाश कर देता है, बहुत बहुत आभार।
    यह आलेख वैश्विक मानव एकता तथा विश्व में मनुष्यों के बीच आपसी सौहार्द, भाईचारा
    और समरसता को बढ़ावा देने में मील का पत्थर साबित होगा।

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