गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

समस्त मानवता का कल्याण कैसे हो?

यदि आप सबका यानि समस्त मानवता का कल्याण करना चाहते है, तो वह कैसे किया जा सकता है? यानि यह भी एक अहम् सवाल है कि यदि कल्याण पाने वालों की संख्या हजारोंमें हैं, या करोड़ों में हैं, या अरबोंमें शामिल हैं, तो इसे कैसे किया जा सकता है? स्पष्ट है कि लाभार्थी की संख्या के अनुसार कार्यान्वयन का तरीकाभी बदल जाता है| कल्याण करने वाला व्यक्ति, या संस्थान, या व्यवस्था, या समूह, या सरकार हो सकता है, लेकिन यह एक अहम् सवाल है कि तरीका क्या हो? यह भी सही है कि इस कल्याण की अवधारणा भी समय, स्थिति, पृष्ठभूमि, एवं सन्दर्भ के सापेक्ष बदलता हुआ होगा, परन्तु ऐसे कल्याण के लिए क्या करना समुचित, पर्याप्त एवं उत्तम माना जाना चाहिए? हमलोग इसी सवाल के विश्लेषण, मूल्याङ्कन एवं समीक्षात्मक निर्णय को लेकर आगे चलते हैं

बिना किसी भूमिका के, मैं यह कहना चाहता हूँ किस्पष्ट सवाल यह है कि मैं अरबों की संख्या में मौजूद सभी लोगों का कल्याण  करना चाहता हूँ, तो मुझे कैसे आगे बढ़ना चाहिएयह सवाल आपसे ही है|

कोई भी व्यक्ति, या संस्थान, या व्यवस्था, या सरकार आर्थिक सहयोग का कल्याण” (Welfare of Economic Cooperation) कुछ सीमित’ (Limited) लोगों तक ही पहुंचा सकती हैइसी तरह, कोई भी व्यक्ति, या संस्थान, या व्यवस्था ज्ञान आधारित सहयोग का कल्याण” (Welfare of Knowledge based Cooperation) कुछ असीमित’ (Unlimited) लोगों तक ही पहुंचा सकती है| लेकिन यदि कोई अपने कल्याण की पहुँच विश्व की समस्त मानवता तक पहुँचाना चाहता है. तो उसे अवश्य ही जीवन दर्शन” (Philosophy of Life), यानि संस्कृतिके उपागम का ही सहारा लेना होगा| और यही जीवन दर्शनसमस्त मानवता को प्रभावित एवं नियमित करता होगा| तो हमें क्या करना चाहिए?

यह तो स्पष्ट है कि यदि कोई किसी का कल्याण करना चाहता है, और वह आर्थिक सहयोग ही देना चाहता है, तो वह सहयोग कुछ हजार व्यक्तियों तक का ही का कल्याण कर सकता है| इस विधि से उससे अधिक का कल्याण करना व्यवहारिक रूप में संभव नहीं दिखता है| यदि वह कल्याण करने वाला कोई सरकार या अन्य संस्थान है, यानि उसके पास सामान्य जनता से संग्रहित किया गया अत्यधिक धनहै, तो वह सरकार या अन्य संस्थान करोड़ों एवं अरबों लोगों पर कुछ भी मात्रा में धन लुटा सकता है|

तो क्या आर्थिक दान या सहयोग किया जाना समुचित, पर्याप्त एवं उत्तम माना जाना चाहिए? इसी कड़ी में, एक सवाल यह है कि क्या धार्मिक प्रतिष्ठानों में या धार्मिक प्रतिष्ठानों के बाहर भक्तों द्वारा याचको को दिए जाने वाले दान या सहयोग समुचित, पर्याप्त एवं उत्तम माना जाना चाहिए? या जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में या विभिन्न कदमों पर दिए जाने वाले आर्थिक सहयोग या भीखदेना समुचित है? लेकिन इससे से ऐसे याचकों की संख्या भी नहीं घटती, या इनकी हालात भी नहीं बदलते और इनका मांगनाएक धंधा ही बन जाता हैतब आर्थिक सहयोगकी अपेक्षा रखना एक लोक संस्कृतिही बन जाती है| यह सहयोग सभी को सामान्य आँखों से भी दृष्टिगोचर हो जाता है, और यह तत्काल राहतपूर्ण होता है| यह देनेवाले को भी कल्याण करने का आत्मतुष्टि का भाव भी देता हैलेकिन क्या आर्थिक सहयोगकी सदैव ही अपेक्षा रखना समाज में कोढ़पनको बढ़ावा देना नहीं है? ऐसे कार्यों में आजकल लोकप्रिय सरकारे भी समाज में भीखमंगीका कोढ़ बढ़ाने में प्रमुख आरोपी साबित हो रहे हैं| ‘आर्थिक सहयोगदेकर या प्रत्यक्ष राशि देकर किसी के आय में वृद्धिकर सकता है, लेकिन उसका समुचित या किसी भी प्रकार का विकास नहीं कर सकता है?

प्रख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने सक्षमता उपगम” (Capability Approach) को ही विकास का आधार माना है, क्योंकि आर्थिक दान देकर किसी की आय तो बढ़ायी जा सकती है, लेकिन इससे किसी का विकास नहीं हो सकता| इसीलिए संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) द्वारा अपनाए गये मानव विकास सूचकांक’ (HDI) के अवयवों में सिर्फ आय की बढ़ोत्तरी शामिल नहीं हैइसमें भी सबसे प्रमुख व्यक्ति का जीवन दर्शन’ (संस्कृति) ही है, जो उसके जीवित रहने की प्रत्याशा’, ‘शिक्षाएवं आय सृजनसे परिलक्षित होता है|

कल्याण करने का एक अन्य प्रमुख उपागम ज्ञान का प्रसारकरना है, जिसके द्वारा कोई कल्याणकारी व्यक्ति या एजेंसी अपने कल्याणकी पहुँच कुछ असीमितसंख्या तक, यानि कुछ करोड़ों तक पहुंचा सकता है| इसी ज्ञान के प्रसारउपागम में ज्ञान आधारित नवाचारी तकनीक भी शामिल कर लिए जाते हैं| बहुत से तकनिकी उत्पादों ने मानव के जीवन यापन को बहुत से क्षेत्रों में सरल एवं आसान कर दिया है|

लेकिन यह नवाचारी ज्ञान एवं नवाचारी तकनीक भी समस्त मानव का कल्याण करने में अभी तक समर्थ नहीं हो सका है| इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि कोई भी व्यक्ति उपयोगी एवं हितकर ज्ञानऔर तकनीकदे तो सकता है, लेकिन इसका सदुपयोग या दुरूपयोग करना तो उस लाभार्थी के मानसिकता एवं निर्णय पर निर्भर करता है| इसीलिए कहा गया है कि अभिवृति (Attitude) यानि मानसिकताही जीवन में सब कुछ है|” इसी को दुरुस्त करने के लिए ही जीवन दर्शनकी वैज्ञानिक व्याख्या की आवश्यकता होती है| और इसी जीवन दर्शनको सामान्य एवं साधारण शब्दों में संस्कृतिभी कहते हैं| इन सभी दर्शनोंको सकारात्मक, रचनात्मक, हितकारी, विकासात्मक एवं उपयोगी होना चाहिए|

इस विश्व में मानव जीवन दर्शन को प्रभावित करने एवं नियमित करने वाले कई दर्शन “पंथ” के रूप में प्रचलित है, लेकिन इनमे अधिकांश प्राचीन मानव जीवन दर्शन का आधुनिक उपयोग मानव को बांटने में, दबाने में और उत्पीडित करने में किया जा रहा है| ये सभी मानव जीवन दर्शनयानि उन संस्कृतियों के मूलाधार अपने उत्पत्ति एवं कार्यन्वयन के समय तो समुचित, उपयुक्त, उपयोगी एवं उत्तम थे| उस समय की विभिन्न वैश्विक संस्कृतियाँ अपनी अपनी भौगोलिक सीमाओं के अन्दर बाधित थे, और उन्ही भौगोलिक परिस्थितियों एवं शक्तियों से नियमित, नियंत्रित, निर्देशित एवं संचालित थे| आज भौगिलोक बाधाएँ सीमित एवं नियंत्रित हो गयी है, तकनिकी प्रसार से परिवहन एवं सूचना संचरण सरल, आसान, साधारण एवं सुविधाजनक हो गया हैअब उन विभिन्न वैश्विक संस्कृतियाँ अपने बदलते सन्दर्भों के सापेक्ष अपनी आवश्यकताओं की मौलिकता खो दी है, लेकिन इन प्राचीन मानव जीवन दर्शन के वर्तमान मठाधीशों को इस वैज्ञानिक आधुनिक युग में संकटका आभास हो रहा हैऐसे मठाधीश यथास्थितिवाद बनाए रखने के लिए वह सब कुछ कर रहे हैं, या करना चाह रहे हैं, जो समस्त मानवता के कल्याण के विरुद्ध जाता दिखता है|

इसी सन्दर्भ मेंमेरी भी दो पुस्तक जल्द आने वाली है, जो इस मानव जीवन दर्शन को वैज्ञानिक एवं आधुनिक आयाम देते हुए सब कुछ की व्याख्या स्पष्ट कर देगा| इस एक पुस्तक नाम  – मानव जाति का सफ़र पेशा, जाति एवं कास्ट तक” है

प्राचीन मानव जीवन दर्शन ही संस्कृतिकहलाती है, और अपनी गतिशीलता के कारण यही संस्कृति आधुनिक परिस्थितियों का अनुकूलन कर आधुनिक संस्कृतिभी बनती है| यह प्राचीन मानव जीवन दर्शन उस समाज के इतिहास बोध से उत्पन्न एवं विकसित होता है, जिसे इतिहास के वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही दुरुस्त कर सकता है| इसी सन्दर्भ में मेरी दूसरी पुस्तक – इतिहास का विज्ञान” (The Science of History) भी जल्द ही आ रहा है|

इस आलेख पर गंभीरता से विचार लिए जाने का सादर अनुरोध है| इसके ही साथ यह भी अनुरोध है कि आप अपने बहुमूल्य सुझावों से भी अवगत करावें| मेरा ईमेल ब्लॉग पर उपलब्ध है|

आचार्य प्रवर निरंजन  

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