शनिवार, 28 दिसंबर 2024

क्या किसी प्राचीन संस्कृति का पुनर्स्थापन संभव है?

यदि किसी को ऐसा लगता है कि कोई भी संस्कृति स्थिर रहती है और स्थायी प्रकृति बनाए रखती है, तो वह स्पष्टतया गलत होते हैं| कुछ लोग किसी प्राचीन या प्राचीनतम संस्कृति के गौरव एवं गुणवत्ता का काफी गुणगान करते हैं, वे ऐसा अवश्य करें, और मैं उन्हें गलत भी नहीं बता रहा हूँ| लेकिन कोई उसी संस्कृति को उसी स्वरुप एवं संरचना में आज फिर से पुनर्स्थापित करना चाहता है, तो स्पष्ट है कि उसे संस्कृति एवं उसके क्रियाविधियों की कोई ख़ास समझ नहीं है| ये प्राचीनतम या प्राचीन संस्कृति गौरवपूर्ण एवं गुणवत्ता से भरपूर थे, या हो सकते हैं, लेकिन ऐसा उस सन्दर्भ में, उस पृष्टभूमि में, और उस काल खंड के सापेक्ष में ही संभव होगा| क्या आज के बदले हुए सन्दर्भ में, पृष्टभूमि में, और वर्तमान काल खंड में वही संस्कृति सम्यक, उपयुक्त एवं समुचित होगी? ध्यान रहे कि आर्थिक शक्तियाँ निरन्तर गतिशील रहती है और समाज एवं संस्कृति सहित सब कुछ को नए तरीके से सदैव रूपान्तरित करती रहती है| इस विषय पर एक गहन विचार किया जाना चाहिए|

मानव समाज एवं संस्कृति के सन्दर्भ में, क्या आज के बदलते वैज्ञानिक युग में कोई भी एक निष्पक्ष एवं परम ‘वैज्ञानिक सत्य’ हो सकता है? किसी भी पक्ष का कोई भी एक अन्तिम सत्य नहीं होता है, बल्कि अनेक होता है, और प्रत्येक सत्य अपने आप में अपूर्ण भी होता है| सापेक्षवाद भी यही कहता है| एक ही विषय, या घटना, या प्रक्रिया के कई आयाम होते हैं, और इनकी समुचित व्याख्या एवं इनकी स्थिति का निर्धारण इन्ही आयामों के सापेक्ष किया जा सकता है, या किया जाना चाहिए| इन आयामों में प्रकृति, आत्म (अवलोकनकर्ता का मन), काल, सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, परिस्थिति, आर्थिक शक्तियाँ, बाजार की शक्तियाँ आदि आदि हो सकते हैं, और संस्कृति को इन आयामों के सापेक्ष ही देखने समझने की आवश्यकता होती है| इन आयामों के या इन आयामों के संयुक्त प्रभाव में समाज एवं संस्कृति को अपना स्वरुप, संरचना, ढाँचा, आंतरिक विन्यास, क्रियाविधि, गतिशीलता, एवं प्रभावशीलता बदलना पड़ता है| इसी क्रियाविधि से समाज एवं संस्कृति अपने बदलते हुए प्रकृति, आत्म (Self), काल, सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, परिस्थिति, आर्थिक शक्तियाँ, बाजार की शक्तियाँ आदि के अनुकूल या अनुरूप प्रतिक्षण अपना समायोजन करता रहता है, अनुकूलन करता रहता है, और अपने अनुकूलित यानि परिमार्जित स्वरुप में निरन्तरता बनाए रखता है|

आज समाज और संस्कृति को नियमित एवं नियंत्रित करने में बाजार की शक्तियाँ ही प्रमुख आर्थिक शक्तियाँ हैं| यही शक्तियां ही उस कालखंड में समाज और संस्कृति के सापेक्षिक आयामों यथा अवलोकनकर्ता के आत्म/ मन (Observor’s Self/ Mind), पारिस्थितिकी, सन्दर्भ, पृष्ठभूमि, परिस्थिति को नियमित, नियंत्रित, प्रभावित, संशोधित, एवं परिवर्तित करती रहती है| और इसीलिए इन आयामों के बदलने से समाज और संस्कृति भी बदलती रहती है| आज बाजार एक शक्तिशाली संस्था के रूप में सामाजिक एवं सांस्कृतिक आयामों को नए स्वरुप (Form), संरचना (Structure), ढाँचा (Framework), आंतरिक विन्यास (Internal Matrix), क्रियाविधि (Mechanics), गतिशीलता (Dynamics), एवं प्रभावशीलता में परिभाषित कर रही है| यह वह सब कुछ बदल दे रहा है, जिसकी कल्पना कुछ समय पहले तक नहीं की जा सकती थी| आज कोई भी समाज और संस्कृति बाजार की इन शक्तियाँ के प्रभाव परिणाम से अछूता नहीं है, और नहीं रह सकता है|

इसी कारण आप यह कह सकते हैं कि जिन शक्तियों का ‘बाजार की शक्तियों’ पर प्रभावकारी नियंत्रण होता है, वही शक्तियाँ ही सामान्य जनों के मानसिकताओं, यानि विचारों, यानि अभिवृतियों की व्यवस्था पर भी नियंत्रण रखता है| अर्थात वही बाजार की शक्तियाँ ही सामान्य जनों के मानसिकताओं, यानि विचारों, यानि अभिवृतियों के उत्पादन पर भी, यानि “बौद्धिक वैचारिक उत्पादन” पर भी नियंत्रण रखता है| स्पष्ट है कि ‘बाजार की शक्तियाँ’ अवश्य ही किसी भी समाज और संस्कृति को बदल सकती है, और बदल भी रही है, और आप कुछ भी अन्यथा नहीं कर सकते हैं| 

तो आज कोई भी पुरानी संस्कृतियों के पुनर्स्थापन के लिए  बेवजह अपना माथा क्यों पीट रहा है? आज पूरी दुनिया एक वैश्विक गाँव में बदल गया है और ‘वैश्विक आर्थिक शक्तियाँ’ ही ‘बाजार की शक्तियों’ को भी नियंत्रित कर रही है| आज कोई भी एक सत्ता (Authority) यानि स्थानीय शक्ति वैश्विक ‘बाजार की शक्तियाँ’ को नियंत्रित एवं नियमित नहीं कर सकता| और इसी कारण वह संस्कृति के गतिशील चक्र को भी नियंत्रित नहीं कर सकता है, यानि कोई भी ऐसा कर पाने का भ्रम भी नहीं पाले| 

इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि बाजार की शक्तियाँ ही विचारों एवं उनके सह उत्पादों के उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग को भी नियंत्रित करता हुआ होता है, आप इसे मानें या नहीं मानें| अर्थात बाजार की शक्तियाँ ही लोगों की सोच, अभिवृति, मानसिकता एवं उन्मुखता (Orientation) को, यानि वैचारिकी को आकार (Shape) दे रहा है| मैं इसे यहाँ इसलिए स्पष्ट कर दे रहा हूँ, क्योंकि यदि आपको किसी समाज एवं संस्कृति के पुनर्स्थापन के सम्बन्ध में जो करना है, कीजिए, लेकिन सारी स्थिति को अच्छी तरह समझ कर कीजिए| इसीलिए बाजार की शक्तियाँ को पहचानिए, समझिये, और तब आगे रणनीति तय करने को सोचिए|

‘समाज’ और ‘संस्कृति’ के ‘व्यवस्थित उद्गम’ कोई दस हजार साल पहले माना जा सकता है| ‘समाज’ और ‘संस्कृति’ के ‘व्यवस्थित उद्गम’ मानव की पत्थरों पर से निर्भरता समाप्त होने और कृषि कार्य प्रारम्भ होने से ही शुरू हुआ| इसके ही साथ ‘बुद्धि की संस्कृति’ यानि ‘बौद्धिक संस्कृति’ का आगमन हुआ| यह आर्थिक शक्तियों का ही परिणाम एवं प्रभाव रहा| हर युग में ‘आर्थिक शक्तियों’ ने इन्हें परिमार्जित कर नए रूपों में ढाल दिया है, जैसे मध्य युग में सामन्तवादी समाज एवं संस्कृति, आधुनिक युग में पूँजीवादी एवं समाजवादी समाज एवं संस्कृति| वर्तमान युग में ‘डाटावाद’ समाज एवं संस्कृति को प्रभावित कर रहा है| इन सभी युगों का उदय एवं विकास भी ‘आर्थिक शक्तियों’ ने ही, यानि “बाजार की शक्तियों” ने ही किया है और ये अभी भी कार्यरत हैं|

‘समाज’ और ‘संस्कृति’ क्या है? ‘समाज’ लोगों के समूह का एक संस्था है, जो आपसी सम्बन्धों के नेटवर्क से गुंथा हुआ होता है| तो क्या कोई संस्कृति मूर्ति एवं स्थापत्य है, गीत एवं संगीत है, नृत्य एवं चित्रकला है, लोकभाषा एवं लोकाचार है, या धार्मिक आस्था एवं लोक परम्परा है? नहीं, यह सब ‘संस्कृति’ की “विशिष्ट अभिव्यक्तियों” के कुछ उदाहरण मात्र है, यह स्वयं संस्कृति नहीं है| यह संस्कृति कुछ खास चिन्हों, जैसे भाषा, धर्म –पंथ, जाति या प्रजाति या विशिष्ट आर्थिक संबंधों में अभिव्यक्त होता है| वास्तव में, संस्कृति एक खास पद्धति से जीवन जीने का कौशल है, उपक्रम है, और इस तरह संस्कृति उस समाज का एक निश्चित ‘मानसिक निधि’ है, जो समय के साथ विकसित होता रहता है| संस्कृति एक विशिष्ट जीवन शैली है, जिसे कोई भी व्यक्ति उस समाज के सदस्य होने एवं उसमे समय व्यतीत करने से सीखता है| संस्कृति अपने समाज के लिए कुछ ख़ास मूल्य, प्रतिमान, रीति, मानक इत्यादि निर्धारित करता है, और जिसका अनुपालन सभी से किये जाने की अपेक्षा रखता है| इस तरह संस्कृति समाज को ‘स्वयं – नियंत्रण मोड’ में संचालित एवं नियमत करने वाला एक ‘साफ्टवेयर’ है|

चूँकि संस्कृति मानवीय भावनाओं को स्वत: संचालित करती रहती है, इसीलिए सांस्कृतिक पहचानें बहुत ही उग्र एवं प्रबल होती है| ये भावनाएँ लोगों में उसके प्रति भावावेश पैदा कर उसे एकत्रित भी करती है, आन्दोलित भी करती है और इसीलिए संस्कृति का राजनीतिक उपयोग एवं दुरूपयोग भी बहुत होता है| किसी का भी उपयोग एवं दुरूपयोग होना, एक स्थिति सापेक्ष माना जाता है|

संस्कृति चूँकि एक मानसिक निधि है, और इसीलिए यह लोगों के मन में निवास करता है| चूँकि संस्कृति कोई भौतिक अस्तित्व में नहीं होती है, इसीलिए यह किसी सभ्यता की तरह मरती- मिटती नहीं है, बल्कि यह ‘समाज की निरन्तरता’ के साथ ही अपनी निरन्तरता बनाये रखती है| ‘माया’ सभ्यता के लोग समाप्त हो गये, इसीलिए उनकी संस्कृति भी विलुप्त हो गयी, लेकिन सभ्यता के अवशेष आज भी मौजूद हैं| भारत में सांस्कृतिक निरन्तरता बनी हुई है, भले यह तत्कालीन आर्थिक शक्तियों के प्रभाव में अपना स्वरुप बदल दी है, और यह अपने अनुकूलित किये गये स्वरुप में जीवित बनी हुई है| संस्कृतियों का विलोपन नहीं होता है, बल्कि इनके स्वरुप में रूपांतरण या परिवर्तन होता है| इसी तरह कोई भी किसी प्राचीन संस्कृति को उसी स्वरुप में आज पुनर्स्थापित नहीं किया जा सकता, क्योंकि उससे सम्बन्धित सन्दर्भ, पृष्टभूमि, कारक, काल, प्रकृति, बाजार आदि सब कुछ बदल गया है|

आप भी ठहर कर विचार कीजिए| अपनी भावनाओं को किसी के बहाव में मत उड़ने दीजिए| और संस्कृति के तथाकथित पुनर्स्थापन के खेल को समझिये| आप तो बौद्धिक हैं, और इसीलिए विमर्श में शामिल होइए|

आचार्य प्रवर निरंजन   

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