पुरोहित प्रशिक्षण एवं शोध मिशन (भाग – 26)
‘पुरोहित’ एवं ‘पुरोहिताई’
को लेकर उत्कृष्ट समझे जाने वाले बुद्धिजीवियों में बहुत कुछ भ्रमात्मक अवधारणाएँ जमी हुई
हैं, और उन्हीं के भ्रम निवारण हेतु यह संक्षिप्त आलेख है| लेकिन इन पुरोहित की भूमिका एवं उनके महत्त्व को
सम्यक ढंग से समझने के लिए हमें संस्कृति एवं सामन्तवाद को समझना होगा, और इनके
अन्तरसम्बन्धों के क्रियाविधि को भी समझाना चाहिए| तब हम ‘पुरोहित की गत्यामकता’
(Dynamism of Priest) के भ्रम को समझ पाएंगे|
“संस्कृति” सामाजिक विकास, संवर्धन
एवं मानव कल्याण सम्बन्धी व्यवस्था को बनाये रखने का एक सामाजिक -सांस्कृतिक प्रक्रम है, जिसके
द्वारा समाज अपनी समझ से “सामाजिक -सांस्कृतिक मूल्य एवं प्रतिमान” (Socio-
Cultural Values n Norms) के मानक निर्धारित करता है, और सभी सदस्यों के द्वारा इसके अनुपालन
किए जाने की अपेक्षा होती है| इन ‘सामाजिक
सांस्कृतिक मूल्य एवं प्रतिमान’ के मानकों (Standards) के अनुरूप व्यवहार एवं
कार्य करने वाले ही ‘सुसंस्कृत व्यक्ति’
कहलाते हैं, सभ्य कहलाते हैं| इन्हीं मानको के
अनुरूप सभी सामाजिक –सांस्कृतिक संस्थाओं का निर्माण होता है, पुनर्गठन होता है,
संचालन होता है एवं नियमन होता है| इस तरह समाज
के हितवर्धन के लिए सामाजिक –सांस्कृतिक संस्थाओं के उपयुक्त नियमन के लिए ही “पुरोहित” की भूमिका आती
है|
तय है कि इन ‘सामाजिक
–सांस्कृतिक संस्थाओं’ (Socio – Cultural Institutions) की प्रासंगिकता के
बने रहने के लिए इन्हें बदलती हुई शक्तियों के अनुरूप अनुकूलित होकर बदलते रहना
पड़ता है, और इसीलिए संस्कृति को गतिमान रहना होता
है| प्राचीन काल में
“बुद्धिवाद” का उदय एवं विकास हुआ|
इसीलिए ऐसे काल में एक पुरोहित की भूमिका ‘सकारात्मक’
एवं ‘रचनात्मक’ रही, और इस तरह एक पुरोहित का नाम ‘पुर’ का हित करने
वाला के रुप में सार्थक साबित हुआ|
लेकिन मध्य काल के सामन्तवाद
में ऐतिहासिक शक्तियों के प्रभाव में सामाजिक –सांस्कृतिक संस्थाओं में संरचनात्मक एवं प्रकार्यात्मक परिवर्तन हुआ, तो ‘पुरोहितों’ की भूमिका ही पूरी तरह बदल गयी दिखने लगी| सरलतम रुप में, ‘समानता’ के ‘अन्त’ को ही सामन्तवाद (= समानता + अन्त) कहते
हैं| जिन ऐतिहासिक शक्तियों ने ‘बुद्धिवाद’ के काल का समापन किया,
उन्हीं शक्तियों के “पुरोहिताई की संरचना, प्रकृति
एवं व्यवहार” को भी बदल डाला|
‘योग्यता’ आधारित ‘पद’ एवं
‘कार्य’ की समानता के अवसर का अन्त हो गया, और
‘जन्म’ आधारित ‘पद’ एवं ‘कार्य’
के अवसर सुनिश्चित कर दिया गया|
यह सब ‘भौतिक शक्तियों’ के प्रभाव थे, जिन्हें
इतिहास के काल में ‘ऐतिहासिक शक्तियाँ’ कहा हाता है| इस सामन्तवाद के काल
में ‘पुरोहिताई’ का भी कार्य स्वरुप बदल गया| आज
के वर्तमान ‘विज्ञानवाद’ के युग में, ‘जन्म’ आधारित ‘पद’ एवं ‘कार्य’ के अवसर ‘मानवतावाद’
एवं ‘विज्ञानवाद’ का विरोधी घोषित कर दिया गया|
इस तरह ‘सामन्ती काल का पुरोहिताई’
का कार्य अपने ‘सांस्कृतिक जड़ता’ के कारण वर्तमान सन्दर्भ में नकारात्मक एवं
विध्वंसात्मक भूमिका में दिखने लगा| यह मध्ययुगीन परम्परा के वर्तमान
काल में निरंतरता के कारण दिखती है| यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि ‘पुरोहिताई का
कार्य’ नकारात्मक एवं विध्वंसात्मक हुआ, लेकिन
इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि ‘पुरोहित’ का पद ही नकारात्मक एवं विध्वंसात्मक
हो गया|
चूँकि पुरोहित का पद ही समाज के हितवर्धन
में सामाजिक –सांस्कृतिक संस्थाओं के उपयुक्त नियमन के लिए हैं, इसीलिए एक पुरोहित का पद सभी
आदिम संस्कृतियों में, सभी धार्मिक एवं सांप्रदायिक व्यवस्थाओं में, तथा सभी
वैधानिक संरचनाओं में उपलब्ध रहता है|
आप
एक पुरोहित के कार्य विधि, कार्य पद्धति, कार्य संरचना, एवं कार्य संपादन की
सामग्री पर आपत्ति कर सकते हैं, विवाद कर सकते हैं, लेकिन आप पुरोहित के पद एवं
भूमिका पर आपत्ति नहीं कर सकते हैं|
इसे समझिये और पुरोहित
बनिए|
आचार्य प्रवर निरंजन
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