शुक्रवार, 13 दिसंबर 2024

संस्कृति में बदलाव और पुरोहित

पुरोहित प्रशिक्षण एवं शोध मिशन   (भाग – 24

जब तक किसी क्षेत्र की आबादी जीवित रहती है,

उसकी संस्कृति की निरन्तरता भी बनी रहती है,

जबकि सभ्यताएँ मिटती और बनती रहती है। 

संस्कृति की निरन्तरता अपने मौलिक स्वरूप और स्वभाव में अपनी ‘प्राथमिक प्रकृति’ (प्राकृतिक शक्तियों द्वारा) और ‘द्वितीयक प्रकृति’ (मानवी शक्तियों द्वारा) के प्रभाव में संतुलन बनाती रहती है। इस तरह यह संस्कृति जीवित भी रहती है,

निरन्तरता भी बनाए भी रखती है,

परिमार्जित होकर अनुकूलित होती रहती है।

इसी अनुकूलन की प्रक्रिया को "सांस्कृतिक गत्यात्मकता" (Cultural Dynamism) कहते हैं। 

यह “सांस्कृतिक गत्यात्मकता” सामाजिक सांस्कृतिक ढांचा, संरचना एवं विन्यास के द्वारा सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं के निर्माण, संशोधन, समापन आदि में भूमिका निभाती रहती है। समय के साथ सामाजिक सांस्कृतिक विधियाँ, इनकी विषय वस्तु और प्रक्रियात्मक स्वरूप ऐतिहासिक शक्तियों के प्रभाव से बदल सकता है, या बदलता रहता है, लेकिन एक पुरोहित की अनिवार्यता बनी रहती है। 

आखिर सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओ का निरन्तरता तो बनी रहेगी ही, अन्यथा इसी अव्यवस्था से ही सभ्यताओं का पतन हो जाता है। 

अतः कोई ‘पुरोहित’ पद का नाम बदल सकता हैं,

उसके कार्य- सामग्री को, या

कार्य स्वरूप को, या

कार्य- विधियों को बदल सकता है,

लेकिन

समाजिक संस्थाओं के निर्माण, संशोधन, बदलाव, या परिमार्जन करने के लिए एक वैधानिक या सामाजिक -सांस्कृतिक कर्ता की आवश्यकता होती है,

और उसी को “पुरोहित” कहते हैं। 

आप उसका नाम बदल सकते हैं और

उसकी विधि सामग्री बदल सकते हैं,

उसकी भूमिका बदल सकते हैं, और

तरीका बदल सकते हैं;

लेकिन सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं को समाप्त नहीं कर सकते।

और इसी कारण पुरोहित रहेंगे ही। आप भी मूल्यांकन कर लीजिए। 

आप तो बौद्धिक और समझदार भी है।

इसी के लिए आप भी पुरोहित बनने की जवाबदेही स्वीकार कीजिए। 

आचार्य प्रवर निरंजन

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

राष्ट्र का विखंडन और संस्कृति

कोई भी राष्ट्र विखंडित होता है, या विखंडन की ओर अग्रसर है, तो क्यों? संस्कृति इतनी सामर्थ्यवान होती है कि किसी भी देश को एकजुट रख कर एक सशक्...