शनिवार, 31 मई 2025

“हिटलर” सिर्फ हिटलर में ही नहीं होता!

आपने सही पढ़ा है – ‘“हिटलरसिर्फ हिटलर में ही नहीं होता’, बल्कि यह हिटलरकिसी और में भी होता है, या हो सकता है| स्पष्ट है कि शीर्षक का पहला शब्द हिटलरएक विशेषण है, जो एक कुख्यात जर्मन तानाशाह के चरित्र, प्रकृति, स्वभाव, कार्य- प्रणाली एवं विचारधारा की विशेषताओं को स्पष्ट करता हुआ होता है, और शीर्षक का दूसरा शब्द हिटलर एक व्यक्ति है और इसीलिए यह व्यक्तिवाचक संज्ञा है , जो एक सिपाही से जर्मनी का शासक बना थाउस हिटलर के आदर्शों एवं विचारधाराओं को इतिहासकार और दार्शनिक नाजीवाद कहते हैं| मतलब जो भी शासक अपने प्रकृति, स्वभाव, चरित्र एवं कार्य में उस नाजीवाद का अनुकरण करता हुआ समझा जायगा, या उसी नाजीवाद के आदर्शों से मिलता जुलता पद चिन्हों पर यानि उस नाजीवादके आदर्श पर चलता हुआ समझा जायगा, यानि उस नायक के व्यक्तित्व से समरूप व्यक्तित्व अपनाता हुआ या दिखता हुआ माना जायगा, उसे भी हिटलरही कहा जायगा|

हिटलर का उदय और शुरुआत एक सिपाही के द्वारा राष्ट्रवादके उभार पर, यानि राष्ट्रवाद के घोड़ेपर सवार होकर शुरू हुआ, और अंध राष्ट्रवाद में बदल गयायह राष्ट्रवाद’ बिस्मार्क के द्वारा जर्मनी के एकीकरण के समय से शुरू हुआजो जातीय (प्रजातीय) सर्वश्रेष्टता  के रूप मी आया था| उसने जर्मन लोगों को दुनिया सर्वोत्कृष्ट जाति का समुदाय बता कर उनके मनोबल मजबूत कर दिया था, और उसी मनोबलके उभार पर सवार होकर हिटलर हिटलरबन गया था| विश्व विज्ञान ने मानव के जीनीय भिन्नताओं के जेनेटिक आधार को अमान्य कर दिया है, क्योंकि विश्व के सभी वर्तमान मानव एक ही परिवार समूह से उत्पन्न है। लेकिन भारत में तो बहुसंख्यक आबादी के मनोबलको तोड्ने के लिए क्षुद्रिकरण यानि शुद्रीकरण का महान अभियान चलाया जा रहा है, और इसी पर राष्ट्रवादको सवार करने का प्रयास जारी है| उस नाजीवादका आवश्यक परिणाम यह हुआ कि जर्मनी के तो दो टुकडे हो गये, हिटलर का अंत मौत में हुआ, और विश्व ने भयानक त्रासदी झेली| आज हिटलर का नाम आदर्शके रूप लेने वाला कोई  नहीं है, आज कोई भी अपने को उसका उत्तराधिकारी या वंशज होने का दावा खुलकर नहीं करता हैयह सभी हिटलरोंकी भी खासियत हो जाती है|

हिटलर के अंत के साथ विश्व से औद्योगिक साम्राज्यवादऔर उपनिवेशवादका भी समापन हो गयाऔद्योगिक साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का स्वरुप, कार्य प्रणाली एवं प्रतिफल सामान्य ज्ञानेन्द्रियों से देखा समझा जा सकता हैलेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया से साम्राज्यवाद समाप्त हो गया, ऐसी बात नहीं हैबल्कि वह औद्योगिक साम्राज्यवादऔर उपनिवेशवादअब वित्तीय साम्राज्यवाद में बदल कर कार्यरत हो गया| द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद साम्राज्यवाद के इसी बदलते स्वरुप के परिणामस्वरुप दुनिया के अनेक औद्योगिक साम्राज्यवादऔर उपनिवेशवादसमाप्त हुआ तथा अनेक देशों को तथाकथित संप्रभुतामिली हैवित्तीय साम्राज्यवादका स्वरुप, कार्य प्रणाली एवं फलाफल को देखने एवं समझने के लिए मानसिक दृष्टि चाहता है| ‘वित्तीय साम्राज्यवादके आगमन के बाद और कंपनियों के स्वरुप एवं प्रकृति के कारण इन वित्तीय साम्राज्यवादियोंकी राष्ट्रीयताओं को खोजना एवं समझना असम्भव हो गया हैवैश्वीकरण की आर्थिक आवश्यकताओं ने राष्ट्रीयताओं की विश्व व्यवस्थामें किसी स्थान की संकल्पना को ही ध्वस्त कर दिया है| लेकिन कुछ नादानखिलाड़ी अब भी राष्ट्रीयता के घोड़े पर सवार होना चाहते हैं| आज के इन आर्थिक शक्तियों एवं साधनों की क्रियाविधियों के समक्ष ये राष्ट्रीयता के घोड़ेही बिदकने लगे है और उस भूमि की फसलों को ही कुचलने लगे हैं|

मैं बात हिटलरकी कर रहा था| यहाँ यह भी ध्यान में रहना चाहिए कि हिटलरसिर्फ व्यक्तिही नहीं होता है, बल्कि हिटलरसंस्थागत भी होता है, यानि यह हिटलरसंस्था (Institution, not Institute) भी होता है| किसी व्यक्ति शासक’ (Person Ruler)’ के मरने के बाद, या प्रभावित होकर बदल जाने के बाद, या हट जाने के बाद  उसकी प्रकृति, विचार एवं कार्यप्रणाली समाप्त हो जा सकती हैलेकिन ऐसा किसी संस्था शासक’ (Institution Ruler)’ के साथ नहीं होता है| किसी संस्थाके मामले किसी व्यक्ति शासकके मरने, हटने, या प्रभावित होने के बाद भी वह शासन व्यवस्थाजीवित होता है और कार्य करता हुआ होता है, क्योंकि एक संस्था शासकऐसे जैवकीय कारकों से नियमित एवं नियंत्रित नहीं होता हैयह भी देखना महत्वपूर्ण है कि संस्थगत हिटलरके मामलों हिटलरकी भूमिका में रहने वाला व्यक्ति मात्र कठपुतली भी हो सकता है, जो सिर्फ अपने आकाओं की भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को ही अभिव्यक्त करता हुआ होता है, और उस नादान व्यक्ति का अपना कुछ नहीं होता हैऐसा सभी देशों में, चाहे वह पूंजीवादी व्यवस्था का देश हो, चाहे वह साम्यवादी व्यवस्था का देश हो, या कोई अन्य सामान्य व्यवस्था वाला देश हो, हो सकता है|

लेकिन, पुन: लेकिन, ऐसा नहीं होता है, कि किसी ‘’संस्था शासकका नाश ही नहीं होता है, या किसी संस्था शासकको नष्ट ही नहीं किया जा सकता हैयदि कोई विचारवान है, यानि बौद्धिक है, तो किसी संस्थाको नष्ट करना, यानि मिटा देना किसी भी व्यक्तिके विचारों को नष्ट करने की अपेक्षा बहुत आसान, सरल एवं साधारण होता हैकिसी भी प्राचीनतम या स्थापित संस्था को समाप्त करने के लिए उनके आदर्शों को मात्र काल्पनिक, मिथक एवं अवैज्ञानिक ही साबित करना होता है वह संस्थागत शासकसमाप्त| बिना किसी आदर्श एवं विचार के कोई संस्था हो ही नहीं सकता है, भले ही किसी को किसी संस्था के मूल आदर्श देखने समझने की क्षमता या योग्यता नहीं हो|

हिटलर का उदय हिटलरके रूप में हुआ था, क्योंकि वह जर्मन भू- राजनीति” (Geo politics) की आवश्यकता हो सकती थी, लेकिन आज के युग में भू- राजनीतिकी अवधारणा ही भूगोल और राजनीति से बाहर कर दी गयी, और आज सिर्फ राजनीतिक भूगोल” (Political Geography) ही प्रचलित रह गया है| “यह भू -राजनीति उस हिटलर के साथ ही समाप्त हो गया, क्योंकि तब साम्राज्यवाद का दृश्य स्वरुप भी बदल कर वित्तीय साम्राज्यवादमें बदल गया था| मुझे यह समझ नही है कि आज के बहुत से तानाशाह ऐसे क्यों हैं, जिनके आर्थिक सलाहकारों को इस वित्तीय साम्राज्यवादकी क्रियाविधि एवं अस्तित्व की समझ नही है

संभवत: हिटलरआगे भी आते रहेंगे, और जाते रहेंगे, लेकिन सभी हिटलरउस जर्मन जैवकीय हिटलर की ही तरह मरेंगे, या नहीं, यह कहना मुश्किल है| लेकिन यह तो स्पष्ट है कि विश्व के तमाम हिटलरको उसके जैवकीय मौत के बाद मानव- इतिहासमें कोई भी सम्मानजंक स्थान नहीं मिलता है| उनके अंध भक्त समर्थकों को भी ग्लानि होने लगता है, कि वे कैसे डिग्रीधारी थे, कैसे पदधारी थे, और कैसे बौद्धिक थे, जो उन्हें समय रहते समझ में क्यों नहीं आयायह पता नहीं किया जा सकता कि कोई जैवकीय हिटलरकब समाप्त होगा, लेकिन यह सब को पता होता है कि उस हिटलरका अंत अंत्यंत दुखदायी ही होता है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्षभारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

शुक्रवार, 30 मई 2025

हम विमर्श क्यों नहीं करना चाहते?

आपने भी देखा होगा कि आबादी का बहुसंख्यक हिस्सा विमर्श नहीं करता है, और शायद इसीलिए ये लोग मुख्य धारा से बाहर रहते हैं, यानि कटे हुए होते हैं, यानि समाज का पिछला हिस्सा बने होते हैं| समाज के ऐसे लोगों की बैठकों में तालियाँ खूब बजती है, लच्छेदार भाषण होते हैं, तीखी बयानबाजी होती है और दोषारोपण एक सामान्य बात होती है, लेकिन उनमे ‘विमर्श’ बैठक’नहीं होती है| वहां एक ही घिसी पिटी बात, जो सभी जानते हुए होते हैं, दुहरायी जाती है, और शोषण, उत्पीडन, अभाव का खूब रोना रोया जाता है| लेकिन उस शोषण, उत्पीडन, अभाव के निराकरण के लिए कोई भी रचनातमक एवं सकारात्मक समाधान देने वाले किसी भी योजनाबद्ध कार्यक्रम पर विचार नहीं होता है|

ऐसी ही आबादी को समाज का पिछड़ा या वंचित हिस्सा समझा जाता है|ऐसे लोग अपनी शोषण, उत्पीडन, अभाव के लिए समाज के दूसरे लोगों पर ‘दोषारोपण’ तो खूब करेंगे, लेकिन अपने हिस्से का कोई ‘दीपक’ जलाने का कोई प्रयास भी नहीं करेंगे| ऐसे लोग सिवाय शोषण, उत्पीडन, अभाव के लिए दोषारोपण करने के, अपनी या तथाकथित अपने लोगों के चेतना (बुद्धि) के विकास के लिए किसी कार्यक्रम पर विमर्श नहीं करेंगे| ध्यान रहे कि मैं किसी ‘जाति’ या ‘धर्म’ की बात नहीं कर रहा हूँ| यदि किसी आबादी की चेतनता, यानि समझ, यानि बुद्धि के स्तर के अनुसार सामाजिक वर्गीकरण किया जाय, तो कोई भी समाज को तीन भागों में स्तरीकृत कर सकता है| चूँकि चेतना का उच्चतर विकास आपसे समय, संसाधन, ऊर्जा, धन, समर्पण र आपकी वैचारिकी माँगता है, इसीलिए चेतना के उच्चतम स्तर पर बहुत ही कम लोग होते हैं और इसी कारण ऐसे लोग सम्पूर्ण आबादी का समेकित स्वरुप पिरामिड- स्वरुप  का ‘शिखर’ (Top) बन जाता है|

कोलंबिया विश्वविद्यालय में एक बार डा० आम्बेडकर अपने शोध सम्बन्धित भाषण में बता रहे थे कि अधिकतर लोग कहीं भी वही बातें सुनना पसंद करते हैं, जिसे वे पूर्व से जानते एवं मानते हुए होते हैं|अधिकतर मामलों में श्रोताओं (पाठको को भी) को उनकी पूर्व की धारणाओं के विपरीत कोई भी विचार, या कोई भी नयी संकल्पना प्राय: अजूबा लगता है, यानि अटपटा लगता है| ऐसे लोग अपनी विचारों की जड़ता” के कारण ‘जड़’ रहते हैं, और इसी को ‘पूर्वाग्रह’ कहते हैं| शायद इसीलिए हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध प्रोफ़ेसर थामस सैम्युल कुहन कहते हैं, कि किसी भी व्यवस्था, या विचार, या संकल्पना में क्रान्तिकारी बदलाव के लिए अवधारणात्मक, यानि संकल्पनात्मक संरचना या ढाँचा में नवाचार (Innovation) लाना, यानि उसे नए दृष्टिकोण से देखना समझना अनिवार्य हो जाता है| इसके बिना बदलाव होता ही नहीं है, या बड़ी सुस्त गति से चलती रहती है|

यह भी एक तथ्य है, और इसीलिए यह सत्य भी है, कि यदि हम आजतक किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर पा रहे हैं, ती अवश्य ही उस समय की उपलब्ध सभी अवधारणाओं या संरचनाओं मे कोई भारी त्रुटि है| नित नए अनुसंधान हो रहे हैं, नयी नयी बातें एवं तथ्य समाने आ रही है, कई तकनीक बदल गए है, वैश्विक व्यवस्था एवं संरचना बदल गये है, कई उपागम (Approach) की विधियाँ बदल गयी है, और साधारणतया लोग महापुरुषों के नाम पर दशकों एवं सदियों पुरानी विचारों और अवधारणाओं से ही चिपके हुए हैं| इनके विरोधी भी इन्ही महापुरुषों के नाम पर उनके विचारों एवं उनके दर्शन को मरोड़ देते हैं, जिस ‘मरोड़’ को ही समझने के लिए उन्हें’ विमर्श’ करना चाहिए| लेकिन ये विमर्श करना ही नहीं चाहते हैं| लेकिन क्यों? यह आलेख इसी विषय पर है|

जिस समाज या संगठन का नेतृत्व समाज का ‘पका’ (जिसमे कोई बदलाव संभव नहीं) हुआ लोग दे रहा है, वे अपने को उस विषय का सम्पूर्ण ज्ञानी मानता है| वैसे नेतृत्व की समाज से एक ही मांग रहती है कि उसे उसका तथाकथित समाज उनके नेतृत्व में अपना सब कुछ, यानि अपना  समय, संसाधन, ऊर्जा, धन एवं वैचारिकी उनको ही समर्पित कर दे, और तब वह नेतृत्व क्रान्तिकारी परिवर्तन कर देगा| ध्यान रहे कि ‘विचार परिवर्तन’ के बिना ‘व्यक्ति परिवर्तन’ से ‘व्यवस्था में परिवर्तन’ हो जाना एक भ्रम है| ऐसे लोगों से तो उनकी ;नेतागिरी’ तो चमक सकती है, लेकिन सामाजिक व्यवस्था या संरचना में कोई परिवर्तन नहीं होता है| उनकी बातों में जो भी ‘भावनातमक’ हुआ, वह अपना और अपने परिवार को बर्बाद कर देता है| ऐसे नेतृत्व को किसी ‘विमर्श’ की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि वे ‘पके’ हुए होते हैं, यानि उनके दिमाग का ‘प्याला’ तथाकथित ज्ञान’ से भरा पडा होता है, और उसमे ‘और ज्ञान’ डालने से वह ज्ञान झलक कर बर्बाद हो सकता है| ऐसे ‘पके’ हुए लोग विमर्श से बचते हैं, ताकि उनकी नेतागिरी खतरे में नहीं पद जाय|

यह भी एक मनोविज्ञान है कि एक सामान्य साधारण आदमी एक सामान्य साधारण बात से संतुष्ट नहीं होना चाहता, बल्कि वह एक विशिष्ट ज्ञान से संतुष्ट होना चाहता है| यह भी एक तथ्य है कि एक सामान्य साधारण बात ही किसी भी सत्य की तर्कसंगतता स्थापित कर सकता है, और विशिष्ट बात एक ‘सत्य’ को छिपा कर ‘मिथ्या’ को ही सत्य साबित कर देता है| आप किसी को भी किसी साधारण बातों से बहुत आसानी से समझा और संतुष्ट करा सकते हैं| प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्सटीन भी कहते हैं, कि यदि कोई आदमी किसी भी दस वर्षीय सामान्य बच्चा को कोई बात या सिद्धांत समझाना चाहता और वह बच्चा उसे समझ नहीं पा रहा है, तो यह स्पष्ट है उस समझाने वाले को ही वह बात या सिद्धांत की स्पष्ट समझ नहीं है| इसी कारण ऐसी ही ‘विशिष्ट ज्ञान’ को कुछ लोग ‘दैवीय’ कारण भी कहते हैं| इसीलिए सामान्य ज्ञान का सामान्य उपयोग कारना नेतृत्व को असहज लगता है| और इसीलिए ऐसे लोग ‘विमर्श’ नहीं करते हैं, ‘विमर्श’ से बचना चाहते हैं|

वैसे प्रकृति का यह नियम है कि सभी वस्तु समय और ऊर्जा बचाना चाहता है, और शायद इसीलिए सभी आकाशीय पिंड गोलाकार होते हैं| चूँकि सभी नेता समय और ऊर्जा बचाना चाहते हैं, और इसीलिए ऐसे नेता समय और ऊर्जा बचाने के नाम पर घिसी पिटी लकीरों पर ही चलते रहते है,| उन्हें इससे कोई वास्ता नहीं होता, कि नए शोधों एवं अनुसंधानों से कई पुरानी स्थापित एवं सत्यापित अवधारणाएँ एवं मान्यताएँ अब ध्वस्त हो चुकी है, नित नए उभरते एवं सुधरते तकनीकों ने सोचने, विचारने, समझने एवं प्रसारित करने के कई आयाम विश्व पटल पर उपलब्ध करा चुके हैं, समाज की संख्यात्मक एवं बौद्धिक संरचना एवं ढाँचा बदल गया है, और तेजी से हो रहे वैश्वीकरण की आवश्यकताओं ने शक्ति संतुलन एवं प्रभावीकारण को उलट दिया है| ऐसी स्थिति में पुराने विचारों,, पुरानी अवधारणाओं, पुरानी मान्यताओं, और पुराने तौर तरीकों को बदल देने की आवश्यकता है| और इसी के लिए “विमर्श” की अनिवार्यता है| और कोई भी अन्य भाषणबजी इसका विकल्प नहीं हो सकता है|  

बुद्ध का ‘अनित्यवाद’ भी कहता है कि सब कुछ समय के साथ बदलता रहता है| इसीलिए बदलते हुए समय के अनुकूलन में समाज, स्थितियाँ, विधियाँ, अवधारणायें, और विचार भी बदलने चाहिए| जो कल प्रासंगिक था, हो सकता है कि वह आज संशोधन एवं परिमार्जन चाहता है| और यह विमर्श से ही संभव है| ध्यान रहे कि मैं ‘विमर्श’ की बात कर रहा हूँ, किसी बहस की बात नहीं कर रहा|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

बुधवार, 28 मई 2025

व्यवस्था परिवर्तन और संस्कृति का दर्शन

यदि कोई व्यवस्था बदलना चाहता है, या कोई सदियों के लिए स्थायी नव परिवर्तन करना चाहता है, या कोई सहस्त्राब्दियों की राजनीति करना चाहता है, तो उसे अवश्य ही ‘संस्कृति के दर्शन’ को समझना और जानना चाहिए| इस ‘सांस्कृतिक दर्शन’ के बिना तो कोई पांच साल भी सत्ता में बना नहीं रहता है, और यदि कोई सत्ता में बना भी रहता है, तो वह व्यवस्था में कोई स्थायी रूप से बदलाव लाने की समझ नहीं रखता एवं व्यवस्था को बदल पाने में पूरी तरह नाकाम ही रहता है| इसीलिए व्यक्ति बदलने से व्यवस्था नहीं बदलती है| बहुत से शासकों को लगता है कि वे सीमेंट की खपत बढ़ा कर, यानि ठेकेदारी बढ़ा कर व्यवस्था को बदल दे रहे हैं या बदल देंगे, तो उन्हें ‘संस्कृति के दर्शन’ की समझ भी नहीं है, और इसीलिए वे ‘विकास’ एवं ‘बदलाव’ के भ्रम में जी रहे होते हैं|

चूँकि संस्कृति व्यवस्था का, समाज का, राष्ट्र का, राजनीति का, जीवन दर्शन एवं विश्व दर्शन का ‘साफ्टवेयर’ है, इसीलिए यह संस्कृति व्यवस्था को, समाज को, राष्ट्र को, और राजनीति को ‘स्व- चालित मोड” (Automated Mode) में रखता है| मतलब तब व्यवस्था या सत्ता को ज्यादा कुछ नहीं करना होता है, और लोग अपने जीवन से संतुष्ट रहते है, और अपने पिछले जन्म को दोष देकर अगले जन्म का इन्तजार करते होते हैं| यह सब ‘संस्कृति का खेल’ होता है, और इस खेल को समझने एवं नियंत्रित करने के लिए ‘संस्कृति के दर्शन’ को जानना समझना अनिवार्य हो जाता है|

‘संस्कृति का दर्शन’ भी ‘दर्शन’ (Philosophy) की एक शाखा है, जो संस्कृति की प्रकृति (Nature), अर्थ (Meaning), क्रियाविधि (Mechanisn) और मूल्य (Value) की खोज करती है। यह दर्शन संस्कृति को  सम्यक् तरीके से और पूर्णता में देखने, समझने और जानने के लिए एक समुचित विधि देता है, कुछ उपकरण देता है, और एक वैज्ञानिक नजरिया देता है। यह दर्शन यह भी समझाती है कि यह किसी सांस्कृतिक पहचान को कैसे आकार देते हैं और इसमें मानव की सृजनात्मकता, तर्कसंगतता और सामूहिक अनुभव की क्या भूमिका होती है? यह दर्शन संस्कृति के प्रतीकात्मक, संरचनात्मक, संगठनात्मक और व्यवहारिक पहलुओं पर गहराई से विचार करता है, ताकि मानवता के वर्तमान और भविष्य को सुधारा और सम्हाला जा सके। इससे सत्य, सौंदर्य और दक्षता के बारे में भावनाओं, विचारों, और व्यवहारों को समझा जाता है। इन भावनाओं, विचारों, और व्यवहारों की अभिव्यक्ति के प्रतिरुप, संगठन और संरचना ही किसी सामाजिक सदस्यों को सामाजिक रूप से विरासत में मिलता है और उसके जीवन के तरीकों को आकार देता है।  

‘संस्कृति का दर्शन’ संस्कृति की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए संस्कृति के स्वरुप को स्पष्ट करता है कि किसी भी समाज की संस्कृति का उद्गम (Origin) एवं उद्विकास (Evolution) उस समाज के "इतिहास के अवबोध"  (Perception of History) से होता है, जो उसके साझा विश्वास, मूल्य (Value), प्रतिमान (Norm), मानदंड (Standard), प्रतीक, भाषा आदि में व्यक्त होता रहता हैं। चूँकि किसी समाज के ‘स्वयं का इतिहास बोध’ ही ‘संस्कृति’ का निर्माण करता है, इसीलिए चतुर लोग अपनी स्वार्थ हित की कहानियों को ही इतिहास बता देते हैं, और उन नव रचित कहानियों को प्राचीनतम, सनातन और ऐतिहासिक भी बता दिया जाता है| तब ‘प्राचीनतम संस्कृति’ की जड़ें गहरी एवं गंभीर मान ली जाती है, जबकि वह तथाकथित संस्कृति सतही एवं छिछली ही होती है| इसी संस्कृति को नियमित, नियंत्रित एवं संचालित करने के लिए इतिहास को बदलने की आवश्यकता हो जाती है| इस दर्शन से कोई भी ‘संस्कृति के खेल’ को बखूबी समझ सकता है|

यह दर्शन यह भी स्पष्ट करता है कि संस्कृति के इन तत्वों को एक समूह में एकीकृत स्वरूप में सीखने और साझा करने की क्रियाविधि कैसे काम करता है? स्पष्ट है कि संस्कृति एक सीखा हुआ व्यवहार होता है, जिससे एक व्यक्ति या समूह को किसी समाज और प्रकृति में अनुकूलन करने और जीवित रहने में मदद करता है। यह सांस्कृतिक दर्शन किसी व्यक्ति को अपनी सांस्कृतिक समूह की सदस्यता के आधार पर अपनी सांस्कृतिक पहचान के मूल और व्युत्पन्न तत्वों को बताती समझाती है, और उसकी क्रियाशीलता को स्पष्ट भी करती है। सभी समाजो की सांस्कृतिक पहचान परिवर्तनशील होती है, और यह स्थिर लक्षणों के पृष्ठभूमि पर निर्मित होते हुए और दिखते हुए भी बदलते ‘संचार’ और ‘अंतःक्रिया’ के माध्यम से नए आकार लेती रहती है।

‘संस्कृति का दर्शन’ किसी समाज के कला, साहित्य और अन्य सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों में प्रतिबिंबित एवं प्रतिफलित होते हैं। सामान्य साधारण लोग इसी कला, साहित्य और अन्य सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों में प्रतिबिंबित परिणाम या उत्पाद को ही संस्कृति समझ लेते है, जबकि संस्कृति इससे भिन्न, व्यापक, गूढ़ और गंभीर होती है। ये कला, साहित्य और अन्य सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों में प्रतिबिंबित परिणाम या उत्पाद संस्कृति के कुछ तत्वों को ही स्पष्ट करते हैं, और इसीलिए यह संस्कृति के सतही लक्षण माने जाने चाहिए। संस्कृति का यह दर्शन मानवीय मूल्यों के प्रति, लोगों के स्वयं के प्रति तथा विश्व के प्रति दृष्टिकोण को समझाता हैं।

चूँकि दर्शन सत्ता की और सत्ता में बदलाव की समझ देती है, इसीलिए दर्शन को सामान्य साधारण लोगों की पहुँच से दूर करने के लिए दर्शन की विषय वस्तु को ही ‘मायावी’ (आत्मा, पुनर्जन्म, ईश्वर, ब्रह्म आदि आदि) बना दिया जाता है, और दर्शन का सम्बन्ध संस्कृति से दूर कर दिया जाता है| चूँकि संस्कृति समाज को स्वचालित मोड़ में रखने का एक महत्वपूर्ण “साफ्टवेयर” है, इसलिए ही यह ‘संस्कृति का दर्शन’ मानव विकास और कल्याण में क्रान्तिकारी एवं स्थायी परिवर्तन ला सकती है, या लाती है| चूँकि संस्कृति मानवीय प्रथाओं और विश्वासों को नियमित एवं संचालित करती है, इसलिए यह सांस्कृतिक दर्शन सार्वभौमिक महत्व का हो जाता है| मानवता के भावी इतिहास में महान रूपान्तरण करने के लिए ‘संस्कृति का दर्शन’ ही सक्षम एवं समर्थ है, व्यवहारिक है, और इतिहास सिद्ध है| इसीलिए ही यह सांस्कृतिक दर्शन ही मानवता के भावी इतिहास में महान रूपान्तरण करने की क्रियाविधि बताता समझाता है|

आप किसी भी समाज या राष्ट्र के राजनीतिक संरचना, व्यवस्था एवं ढांचे को, यानि कि आप किसी राजनीतिक प्रणालियों और कानूनी ढांचे को समझना चाहते हैं, तो ‘संस्कृति का दर्शन’ ही उस राजनीति प्रणालियों के दर्शन के आकार के ऐतिहासिक उद्विकास को सुलझाता है, समझाता है| यही सांस्कृतिक दर्शन मानवीय विचारों, मूल्यों, विश्वासों, आदतों एवं कार्य प्रणालियों के ऐतिहासिक उद्विकास को भी सुलझाता है| यह सांस्कृतिक अवधारणाओं और विश्वासों के ऐतिहासिक विकास के झूठी दावों की सत्यता की जांच करता है। ‘संस्कृति का दर्शन’ ही संस्कृति सीखने, सिखाने और बदलने के लिए सांस्कृतिक मान्यताओं के बारे में आलोचनात्मक सोच को बढ़ावा देता है| इसके साथ ही, सांस्कृतिक दर्शन ही आपसी सांस्कृतिक समझ और संवाद को प्रोत्साहित करता है, मानवता के एकीकरण को बढ़ावा भी देता है, और सभी मानव को एक धरातल पर लाता है|

आइए, ‘संस्कृति के दर्शन’ की समझ के साथ सभी मानवता में भाईचारा स्थापित किया जाय; समता, स्वतंत्रता एवं बंधुत्व के साथ वैश्विक न्याय स्थापित किया जाय, और मानवता का नव निर्माण किया जाय|

बुधवार, 21 मई 2025

‘सत्ता वर्ग’ का नाश कैसे हो?

सवाल यह है कि ‘सत्ता वर्ग’ का नाश क्यों हो? यदि सत्ता वर्ग का नाश आवश्यक या अनिवार्य ही हो, तो यह सवाल है कि ‘सत्ता वर्ग’ का नाश कैसे हो सकता है? यहाँ यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि ‘सत्ता’ ही सभ्यता का आधार है, और किसी भी सभ्यता के लिए ‘सत्ता’ का होना आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य है| किसी भी सभ्यता में सत्ता को संप्रभुता हो, या नहीं हो, परन्तु सत्ता का तो होना अनिवार्य ही है| आप भारत का ही उदाहरण देख लें| भारत एक प्राचीनतम सत्ता का उदाहरण है| सत्ता मुखिया का हो, या राजा का हो, या किसी गणतंत्र का हो, या औपनिवेशिक साम्राज्य का हो, ‘सत्ता’ शासन की व्यवस्था के रूप में अवश्य ही मौजूद रहती है| ‘सत्ता’ नहीं, तो व्यवस्था नहीं, तो फिर जब व्यवस्था भी नहीं रहेगी, तो वहां के लोग ‘सभ्य’ कैसे होंगे? यानि वहां सभ्यता ही नहीं होगी|

स्पष्ट है कि सत्ता का नाश किसी भी सभ्य समाज में नहीं किया जा सकता है, तब तो ‘सत्ता वर्ग’ में सिर्फ “वर्ग” का ही नाश संभव है, व्यावहारिक है| किसी भीं ‘सत्ता’ के ‘वर्ग’ के नाश की आवश्यकता तब होगी, जब ‘सत्ता वर्ग’ का वह ‘वर्ग’ शोषक हो| यदि ‘सत्ता’ के साथ कोई “वर्ग” मौजूद है, तो वह ‘वर्ग’ अवश्य ही शोषक होगा, अन्यथा उस ‘वर्ग’ की आवश्यकता ही नहीं है| यदि किसी समाज या संस्कृति में कोई ‘वर्ग’ आर्थिक आधार पर निर्मित है, तो आर्थिक आधार के स्वयं गतिशील होने के कारण किसी स्थायी ‘वर्ग’ की उत्पत्ति एवं उद्विकास हो ही नहीं सकता| लेकिन यदि कोई ‘वर्ग’ जन्म के वंश या कूल के आधार पर निर्मित है, तो योग्यता’ या ‘कौशल’ को अनिवार्य तत्व के रूप में ‘वर्ग’ में मौजूद रहना अनिवार्य या आवश्यक नहीं रह जाता है| तब सत्ता वर्ग में कुछ योग्य एवं कुशल लोगों के कन्धों पर ‘वर्ग’ के नाम पर अयोग्य एवं अकुशल लोग भी सवार हो जाते हैं, और तब सत्ता अपनी सम्पूर्णता में अकुशल और अयोग्य हो जाता है|

किसी भी सत्ता के लिए उच्चतर, भिन्न एवं विशिष्ट चेतनता की आवश्यकता होती है, यानि उच्चतर, भिन्न एवं विशिष्ट बौद्धिकता यानि समझ की आवश्यकता होती है| लेकिन कुछ उच्चतर, भिन्न एवं विशिष्ट चेतनता के कन्धों पर सवार “परजीवी” (Parasite) यदि मात्र किसी वर्ग के नाम के आधार पर सत्ता समूह में शामिल हैं, तो उस शासन, व्यवस्था, एवं विकास का विकलांग होना या ‘राजहित’ में विनाश होना अनिवार्य है| ध्यान रहे कि 'सत्ता' का 'वर्ग' अपने को उच्चतर, भिन्न एवं विशिष्ट चेतनता का दावा करता हुआ होता है। 

ऐसी स्थिति में ‘सत्ता वर्ग’ अपनी पूर्ण दक्षता, योग्यता, कुशलता, समर्पण एवं निष्ठा उस राज्य की सत्ता यानि व्यवस्था को नहीं दे पाता है| इसका खामियाजा राज्य, जनता, शासन, व्यवस्था एवं विकास को भुगतना ही है| यह भी सत्य है कि तथाकथित संवैधानिक ढाँचे के नाम पर खानापूर्ति के लिए कुछ दूसरे वर्ग के सदस्यों को शामिल दिखा दिया जाता है| ऐसे सदस्य मात्र मुखौटा होते हैं, और यदि ये सदस्य वास्तविक बौद्धिक होते हैं, तो किन्ही भी आधार पर बाहर कर दिया जाता है| ऐसा करना ‘सत्ता वर्ग’ की वैश्विक प्रकृति और प्रवृति होती है| यह ‘सत्ता’ की नहीं, बल्कि ‘सत्ता पर हावी वर्ग’ की विशेषता होती है|

तब तो ‘उस वर्ग’ का नाश अवश्य ही होना चाहिए| जब भी कोई वर्ग है, तो उसका सदैव ही कोई विशेष एवं भिन्न हित होगा ही, जो सदैव ही राज्य, जनता, शासन, व्यवस्था एवं विकास से भिन्न होगा, विशिष्ट होगा, और इसीलिए राज्य, जनता, शासन, व्यवस्था एवं विकास के हितों के विरुद्ध ही होगा| कोई भी स्थायी वर्ग सिर्फ और सिर्फ जन्म के वंश या कुल के सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थापित ‘वर्ग’ निर्धारण से होगा| चूँकि विश्व के सभी जीवित मानव होमो सेपियंस सेपियंस ही हैं, और ये सभी कोई एक लाख वर्ष पूर्व एक ही परिवार समूह से उत्पन्न हुआ है, इसीलिए इनमे भिन्नता सतही होती हैं, और ये सभी भिन्नताएं भौगोलिक परिवेश के अनुकूलन के परिणामस्वरूप ही हुआ है| इनकी मौलिक जीनीय संरचना समान होती है, और इसीलिए कोई भी मानव किसी भी दूसरे विपरीत लिंगी मानव से प्रजनन कर सन्तति उत्पन्न कर सकता है, अर्थात इनका जीनोटाइप (Genotype) संरचना समान होता है, लेकिन फिनोटाइप (Phenotype) संरचना भिन्न होता है, जो भौगोलिक परिवेश के अनुकूलन के परिणाम हैं| ध्यान रहे कि आजकल जेनेटिक आधार पर जो भी भिन्नता के परिणाम बताये या दिखाए जा रहे हैं, वे सभी प्रायोजित होते हैं, और इसीलिए ये सभी फर्जीवाड़ा का खेल है| स्पष्ट है कि वर्गीकरण का यह आधार भी गतिशील है, जो बदलते भौगोलिक परिवेश के अनुरूप है| लेकिन ये वर्ग इन्ही आधारों पर खड़ा है|

जब ‘वर्ग विभिन्नता’ का कोई वैज्ञानिक एवं तार्किक आधार होता ही नहीं है, तब ‘वर्ग विभिन्नता’ को कुछ या सभी आधार मिथकों पर, यानि कहानियों पर स्थापित कर दिया जाता है| जब ‘वर्ग विभिन्नता’ का कोई ऐतिहासिक पुरातत्वीय आधार, या समकालीन कोई साहित्यिक एवं तार्किक आधार नहीं मिल पाता है, तो उसे जेनेटिक आधार की ‘वैशाखी’ देने की प्रयास किया जाता है| फिर इन “मिथकों यानि कहानियों” को पुरातन, सनातन एवं विरासत के नाम पर संरक्षित एवं सुरक्षित कर दिया जाता है और इन्हें ‘पवित्रता’, ‘गौरवता’, एवं ‘अनुकरणीयता’ का खोल चढ़ा दिया जाता है| इन ‘वर्गों’ की उत्पत्ति एवं उद्विकास की कहानी भी ‘दैवीय’ या अतार्किक आधारों से समर्थित बनाया जाता है|

जब इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या, यानि वैज्ञानिक भौतिकवाद’ पर आधारित व्याख्या किया जाता है, तब सभी झूठी कहानियाँ ऐतिहासिक नहीं रह जाती| आदमी का सफ़र चालीस लाख वर्ष पूर्व पेड़ पर रहने वाले वानर (Ape) से शुरू होता है, और आजतक की कहानी में सम्पूर्णता होता है| इस उदविकासीय यात्रा में सभी वर्गों की उत्पत्ति एवं उद्विकास को तार्किक रूप में आ जाना चाहिए| आज से दस हजार वर्ष पूर्व तक मानव पाषण युग में था और पत्थरों पर ही निर्भर था| उस समय तक आदमी हिसंक पशुओं से, प्राकृतिक विपरीत परिस्थितियों से, और अपनी जैवकीय अनिवार्यताओं को सुलझाने में परेशान रहा| इसीलिए उस समय तक कोई व्यवस्थित एवं संगठित सभ्यता और संस्कृति का उदय ही नहीं हुआ था| किसी भी वर्ग की उत्पत्ति एवं उद्विकास की व्याख्या को इसी के मद्देनजर जाँचा जाय, तो उनकी पौराणिकता, उनकी सनातनता, उनकी उत्पत्ति की कहानियाँ और तथाकथित गौरवमयी गाथा, सभी ध्वस्त हो जाता है|इसी आधार पर यह स्पष्ट है कि सभी तथाकथित वर्ग पांच सौ सालों के अंदर स्थापित है, उसके पहले नहीं। और इसके ही साथ ‘सत्ता वर्ग’ के “वर्ग” की प्रमाणिकता नष्ट हो जाती है| यही सत्य है, और बाकि सब कहानियाँ हैं|

यही एकमात्र उपाय है, जिससे किसी भी “सत्ता वर्ग” का नाश हो सकता है, और “वर्ग-विहीन सत्ता” का आगमन हो सकता है| यह है ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ की शक्ति|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

मंगलवार, 20 मई 2025

आदमी और समाज कैसे विकसित हो?

मानव प्रजाति के सामने एक अहम् सवाल होता है कि आदमी आगे कैसे बढे, या समाज कैसे बदले, यानि आदमी और समाज कैसे विकसित और समृद्ध हो? यहाँ यह भी महत्वपूर्ण होता है कि आगे बढ़ने से क्या तात्पर्य हो सकता है? आदमी या समाज को आगे बढ़ने या बदलने की दिशा में क्या करना चाहिए? एक आदमी कहने से मानव के कौन कौन से किस्म यानि विभेद इसमें शामिल हो सकते हैं? इस तरह यह एक विशद् विमर्श होगा कि एक आदमी क्या क्या करे, जिससे उसका ‘आगे बढ़ना’ सुनिश्चित कहा जाय?

आदमी से मेरा तात्पर्य वैज्ञानिक शब्दावली के ‘होमो सेपियंस सेपियंस’ से हैं, जिसमे सभी ‘स्त्री’, ‘पुरुष’, ‘थर्ड जेंडर’ (प्राकृतिक रूप से उभयलिंगी, यानि दोनों लिंग के लक्षण) एवं ‘ट्रांसजेंडर’ (जिसने चिकित्सा द्वारा अपना लिंग परिवर्तन करा लिया है), यानि सभी चारों लिंग, सभी रंग, प्रजाति, जाति, कास्ट (इसमें क्षैतिज विभाजन तो होता है, लेकिन उर्घ्वाकार विभाजन नहीं होता है, जबकि जाति में दोनों विभाजन एकसाथ होता है) के लोग शामिल हो जाते हैं| तो मैंने यहाँ आदमी में सभी जीवित यानि लगभग आठ अरब, यानि कुल समेकित आबादी को शामिल कर लिया है|

सवाल यह है कि एक आदमी कैसे और किस दिशा में आगे बढे? आदमी तो जैवकीय रूप में एक साधारण पशु है, स्तनपायी पशु| तो एक आदमी में ऐसा क्या है, जो एक आदमी को एक साधारण स्तनपायी पशु से भिन्न, उच्चतर एवं विशिष्ट बनाता है? स्पष्ट है कि ‘चेतना’ का विकास ही इसे जीवित रखता है, और ‘चेतना’ का विशिष्ट एवं उच्चतर विकास ही इसे एक सामान्य पशु से अलग एवं विशिष्ट बनाता है| मतलब यह हुआ कि ‘’विकसित चेतना का ‘और संवर्धन” (Improvement) करना’ ही एक आदमी का ‘जीवन उद्देश्य’ (Purpose of Life) हुआ| ‘सकारात्मक एवं रचनात्मक दिशा’ में ‘विकास करना’ ही “संवर्धन” कहलाता है| तो एक आदमी के ‘चेतना का संवर्धन’ किस दिशा में किया जाय?

महान भारतीय अर्थशास्त्री एवं नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने एक अवधारणा दिया और उस पर एक पुस्तक भी लिखी, जिसका नाम – ‘Development as Freedom दिया| इसी अवधारणा के लिए उन्हें 1998 में अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार दिया गया| इसी अवधारणा को ही ‘सक्षमता उपागम’ (Capability Approach) भी कहते हैं, अर्थात किसी आदमी को इस तरह सक्षम बना देना, ताकि वह स्वतंत्र जीवन जी सके| ध्यान रहे कि ‘आय’ में वृद्धि करना ‘विकास’ की अवधारणा से बाहर हो गया है| अर्थात स्वतन्त्रता पाना ही विकास है| यही वास्तविक विकास है, इसी का संवर्धन करना ही विकास है, और UNDP ने भी इसे ही विकास का समुचित एवं पर्याप्त अवधारणा माना है|

तो फिर सवाल यह उठता है कि एक आदमी क्या करे, या हमलोग क्या करे, कि एक आदमी, या पूरा समाज ही ‘सक्षमता उपागम’ से इस तरह आगे बढे कि वह स्वतंत्र जीवन जी सके? इस तरह एक आदमी की स्वतन्त्रता, या मुक्ति प्राप्त होना ही वास्तविक विकास है, जीवन लक्ष्य की वास्तविक प्राप्ति है, जो समस्त मानव को मुक्ति का मार्ग दिखा सके| तो आप फिर यह पूछ सकते हैं कि ‘मानव- मुक्ति, या स्वतंत्रता’ से मेरा क्या तात्पर्य होगा? मैं यहाँ आपको स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इतनी पवित्र अवधारणा का ‘आध्यात्मिकता के बाजार’ में क्या क्या दुरूपयोग किया जा रहा है, मैं इस पर कुछ नहीं कहना चाहता, और आप स्वयं ही इस पर सम्यक निर्णय कर ले सकते हैं| ‘मानव- मुक्ति, या स्वतंत्रता’ से यह तात्पर्य है कि कोई भी आदमी अपने  व्यक्तित्व का विकास, यानि संवर्धन इस तरह करे, ताकि समस्त मानवता की चेतना का, भविष्य (भावी पीढ़ी) के मद्देनजर सकारात्मक एवं रचनात्मक संवर्धन किया जा सके| ‘मुक्ति’ (Liberty) शब्द किसी पूर्व से स्थापित बंधन से स्वतंत्र होना है, जबकि ‘स्वतंत्रता’ (Freedom) शब्द किसी की ‘मुक्ति’ के बाद आता है| आपने भी ध्यान दिया होगा कि भारतीय संविधान के ‘उद्देशिका’ (Preamble) में “Liberty” शब्द का उपयोग है, जबकि संविधान के भाग तीन (मूल अधिकार) में “Freedom” (स्वतंत्रता) शब्द का उपयोग है|  

आपने भी पढ़ा होगा कि ‘जनवादी चीनी गणतंत्र’ (Peoples Republic of China), यानि कम्युनिस्ट चीन ने ‘बंदूक की नली’ से तो सत्ता प्राप्त किया था, लेकिन उसने तुरंत ही “महान सांस्कृतिक क्रान्ति” (Great Cultural Revolution) का बिगुल फूंक दिया| यह 16 मई 1966 से 06 अक्तूबर 1976 तक, यानि एक दशक से ज्यादा लम्बी अवधि के लिए चला, जो ‘पुराने विचारों’, ‘पुरानी संस्कृति’, ‘पुराने रीति रिवाज, एवं ‘पुरानी आदतों’ को बदलने के लिया था, और उसने बदल दिया| इसके ही आधार पर भारत से पिछड़ा हुआ एक राष्ट्र अपने को ऐसे उभार सका कि आज यह विश्व का तथाकथित महाशक्तिशाली राष्ट्र – संयुक्त राष्ट्र अमेरिका (USA) से भी हर मामलों में आगे निकलता जा रहा है| इस तरह यह ‘विश्व की व्यवस्था’ (World Order) को ही बदल रहा है, जिस पर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अमेरिका का दबदबा रहा|

हालाँकि ‘पुराने विचार, ‘पुरानी संस्कृति’, ‘पुराने रीति रिवाज, एवं ‘पुरानी आदतें’, यानि ये सभी चारों तत्व एक ही साथ ‘संस्कृति’ (Culture) ही कहलाती हैं| ‘संस्कृति’ और कुछ नहीं है, यह सिर्फ व्यक्ति एवं समाज को ‘स्वचालित मोड’ (Automated Mode) में संचालित, नियंत्रित, नियमित एवं निर्देशित करने वाला एक ‘साफ्टवेयर’ मात्र है| अकसर लोग चित्र कला, शिल्प व् स्थापत्य, गीत व् संगीत, नाट्य कला, आदि को ही ‘संस्कृति’ समझ लेते हैं, जबकि यह सब ‘संस्कृति’ नहीं है, ये सब ‘संस्कृति की अभिव्यक्ति’ (Expression of Culture) होती है|

स्पष्ट है कि यदि आज हम अपेक्षित रूप से पिछड़े हुए हैं, तो इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि हमारी संस्कृति, यानी पुराने विचारों’, ‘पुरानी संस्कृति’, ‘पुराने रीति रिवाज, एवं ‘पुरानी आदतों’ को बदल देने की अनिवार्यता है| हमारी संस्कृति ही हमारी जीवन दृष्टि है, हमारी सामाजिक दृष्टि है, और यही हमारी विश्व दृष्टि भी है| इसी को हम ‘जीवन दर्शन’, ‘सामाजिक दर्शन’ एवं ‘विश्व दर्शन’ कह सकते हैं| ‘दर्शन’ और कुछ नहीं है, यह सिर्फ व्यक्तिगत जीवन, सामाजिक जीवन एवं विश्व जीवन को सम्यक एवं सम्पूर्णता में देखने, समझने एवं व्यवहार करने की ‘दृष्टि’ है, यानि ‘दृष्टिकोण’ है| इसी को हम ‘संस्कृति’ कहते हैं| वैसे सामान्य एवं साधारण आदमी को इस ‘दर्शन’ से दूर रहने के लिए ‘दर्शन’ को मायावी दुनिया से जोड़ कर दिखाया एवं समझाया जाता है| दरअसल ‘दर्शन’ आपको ‘सत्ता’ तो नहीं दिलाता है, लेकिन ‘सत्ता’ की समझ अवश्य दिलाता है, यानि ‘सत्ता’ पर काबिज होने की समझ बनाता है| इसीलिए ‘यथास्थितिवादी’ लोग दर्शन को ‘गूढ़, गंभीर, और कठिनतर विषय’ के रूप में प्रस्तुत करते है, ताकि सामान्य एवं साधारण आदमी इस दृष्टिकोण से दूर रहे|

किसी भी ‘दर्शन’ यानि ‘संस्कृति’ का निर्माण वहाँ के लोगों की “ऐतिहासिक समझ” (Perception of History) से होती है| किसी भी इतिहास की वास्तविक समझ ‘इतिहास के भौतिकवादी’ दृष्टिकोण से स्पष्ट होती है, इसीलिए सत्ता सदैव “इतिहास के भौतिकवादी दृष्टिकोण” से डरती है, और इसी कारण वह सदैव ही ‘इतिहास के भाववादी दृष्टिकोण’ को ही स्थापित करती रहती है| यह सब तथाकथित पुरातन, सनातन, एवं विरासत के नाम पर चलाया जाता है, जबकि “इतिहास का भौतिकवादी दृष्टिकोण”, इस तथाकथित पुरातन, सनातन, एवं विरासत की अवधारणा को ही उलट देता है|

अत: यदि आपको मानव होने के नाते अपनी “मुक्ति” चाहिए, तो आपको अपने जीवन दर्शन को बदलना होगा, यानि अपनी संस्कृति को वैज्ञानिक बनाते हुए बदलना होगा, यानि आपको “इतिहास के भौतिकवादी दृष्टिकोण” को अपनाना होगा| तब आपका सब कुछ बदल जायगा, यानि आपके ‘वर्तमान’ और ‘भविष्य’ के ही साथ आपका ‘प्राचीन’ भी बदल जायगा| चूँकि मैंने यह सब गंभीरता से लिखा है, इसीलिए आपसे अनुरोध है कि मेरी उपरोक्त बातों को गंभीरता से समझने का प्रयास किया जाए| इससे न केवल आपका व्यक्तिगत कल्याण होगा, बल्कि समस्त मानवता का कल्याण होगा। 

(आप लेखक के अन्य आलेख निम्न लिंक पर देख सकते हैं  niranjan2020.blogspot.com

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

सोमवार, 19 मई 2025

बहुसंख्यक कभी भी शासक नहीं होते

मानव इतिहास में यह एक तथ्य है, और इसीलिए यह अकाट्य सत्य है कि बहुसंख्यक कभी भी शासक नहीं होते, अपितु शासक सदैव अल्पसंख्यक ही रहते हैं, यानि अल्प संख्या में ही रहते हैं| चूँकि शासक बहुत चतुर होता है, अर्थात चेतना के उच्चतम स्तर के होते हैं, इसीलिए शासक अदृश्य अवस्था में भी होते हैं| अधिकांश लोग अपनी साधारण आँखों से ही देख सकते हैं, इसलिए उन्हें ‘कठपुतली शासक’ भी ‘वास्तविक शासक’ की ही तरह दिखते रहते हैं, जबकि उस ‘कठपुतली’ का सञ्चालन सूत्र कहीं और होता है, या हो सकता है| आधुनिक जटिल अर्थव्यवस्था वाले समाज में तो ‘वास्तविक शासक’ और उसकी राष्ट्रयिता की पहचान कर पाना बहुत कठिन होता है, लेकिन ‘वास्तविक शासक’ सदैव ही अल्प संख्या में ही होंगे, चाहे आप उन्हें अपनी सुविधा से जैसे भी वर्गीकृत करें| यानि उन्हें किसी भी वर्ग में रखें| लेकिन वे अल्प संख्या में क्यों होते है?

कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि कोई अपनी संख्या या शक्ति बल के आधार पर ‘शासक’ हो सकता है, तो वे स्पष्टतया भ्रम में होते हैं| जंगलों में हिरण या भैसें कभी भी संख्या बल के आधार पर शासक नहीं हुए हैं| शासक सदैव ही चेतनता के सर्वोच्च स्तर के अवस्था के लोग होते हैं, यानि उनकी चिंतन का स्तर सर्वोच्च, उत्कृष्ट, विशिष्ट और अद्वितीय होता है| इस अवस्था में ‘आलोचनात्मक चिंतन’ (Critical Thinking) एवं ‘आउट आफ बाक्स चिंतन’ (Out of Box Thinking) वाले लोग ही होते हैं| इसीलिए ‘राजनीति’ शासन की वह कला होती है, जिसकी ‘नीतियों’ (Policies) का ‘राज’ (Secracy) कोई नहीं जान, समझ पाता हो, यानि नीतियाँ राजपूर्ण होती है| 

सामान्यत: लोग (अर्थ) व्यवस्था के प्रारंभिक तीन स्तर – प्राथमिक, द्वितीयक, एवं तृतीयक प्रक्षेत्र (Sector) को जानते, समझते और अमल में लाते हैं| ये सामान्य लोग कभी कभी ‘चतुर्थ सेक्टर’ (Quaternary Sector) को तो जानते होते हैं, लेकिन ‘पंचम सेक्टर’ (Quinary Sector) को तो जानते ही नहीं होते हैं, और ‘शासक’ बनने का दिवास्वप्न ही देखते देखते  सदियों गुजार देते हैं| अर्थव्यवस्था के ‘चतुर्थ सेक्टर’ में ‘ज्ञान का सृजन’ होता है, और ‘पंचम सेक्टर’ में शासन, संस्कृति, वैचारिकी सहित अन्य नीतियों का निर्माण किया जाता है| जब किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र के दृष्टि में ये चौथा और पांचवाँ सेक्टर का विचार ही नहीं होता है, तो वे शासक बनने के योग्य कैसे हो सकते हैं| वैसे कोई भी किसी अन्य को या स्वयं को भ्रम में रखकर आनन्दित होना चाहता है, तो यह स्वतन्त्रता सभी को प्राप्त है|

मतलब किसी को भी शासक बनना हो, तो उसका एक ही और एकमात्र शर्त है कि वह अपनी चेतनता को सर्वोच्च स्तर की अवस्था तक विकसित करे, उन्नत करे, समृद्ध करे, यानि उनके चिंतन का स्तर सर्वोच्च, उत्कृष्ट, विशिष्ट और अद्वितीय अवश्य ही होना चाहिए| इसके आलावा अन्य कोई दूसरा रास्ता महज एक राजनीति है, बहलावा है, छलावा है, और दूसरों को महज मूर्ख बनाना है, या हो सकता है कि वह खुद को भी मूर्ख ही बना रहा हो| अर्थात यदि किसी व्यक्ति को, समाज को, वर्ग को, संस्कृति को, और राष्ट्र को ‘वास्तविक शासक’ बनना है, तो वह अपना और तथाकथित अपने समाज, संस्कृति, वर्ग एवं राष्ट्र की चेतना को समृद्ध, विकसित करे| आधुनिक स्वतंत्र भारत के उदय के दो वर्ष बाद ही वर्तमान चीन का उदय हुआ, और आज चीन विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था एवं सबसे शक्तिशाली व्यवस्था को भी नियंत्रित करता हुआ है| इसका एक और एकमात्र कोई मूल कारण है, तो वह उसकी चेतनता का विकास करना ही है| लेकिन हमलोग गोबर में डूब जाने को ही अपनी चेतनता की समृद्धि समझते हैं|

यदि आप किसी भी व्यक्ति की चेतनता की संरचना और व्यवस्था को समझना चाहते हैं, तो आपको गंभीरता से इस पैरा को समझना होगा| चेतना के अस्तित्व के कारण ही कोई जीवित है, कोई पशु है, या पशु (पशु सिर्फ चार पैरो पर ही नहीं होता) के समतुल्य है, या कोई ‘मानव’ भी है| चेतना के स्तर के अनुसार आप मानव का, समाज का, संस्कृति का, वर्ग का और राष्ट्र का स्तरीकरण यानि वर्गीकरण कर सकते हैं| तो आप किसी की चेतनता की संरचना पर ध्यान दें| कोई भी व्यक्ति साधारणतया तीन संरचना में अस्तित्व में होता है, और वह तीन तरह की सामग्री से निर्मित रहता है| पहला स्तर मुख्यतया ‘पदार्थ’ (Matter) से निर्मित होता है और इसमें उसका ‘शरीर’ (Body) एवं ‘मस्तिष्क’ (Brain) आता है| दूसरा उच्चतर स्तर ‘ऊर्जा’ (Energy) की एक विशिष्ट विन्यास की संरचना होता है, और इसमें उसका ‘मन’ (Mind) और उसका ‘आत्म’ (Spirit) आता है| तीसरा एवं सर्वोच्च स्तर 'बल - क्षेत्र' यानि ‘क्वांटम फील्ड’ ('Quantam Field' - A 'force field', that produce 'particle' n 'energy') (कृपया क्वांटम फील्ड सिद्धांत का अवलोकन किया जा सकता है) की संरचना होती है, और इसे ‘अनन्त प्रज्ञा’ (Infinite Intelligence) कहा जाता है| किसी का ‘मस्तिष्क’ (Brain) उसके शरीर एवं ‘मन’ (Mind) तथा ‘आत्म’ (Spirit) के बीच ‘मोडयुलेटर’ (Modulator) का कार्य करता है, जो उसकी भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों में समन्वय करता हुआ ‘अभिव्यक्त’ होता है| किसी का ‘मन’ (Mind) उसके ‘विचारों’ (Thoughts) का उत्पादन, नियमन, सञ्चालन आदि करता है, और किसी का ‘आत्म’ (Spirit) उसकी ‘भावनाओं’ (Emotions) का उत्पादन, नियमन, सञ्चालन आदि करता है| किसी का ‘आत्म’ उसके ‘मन’ एवं ‘अनन्त प्रज्ञा’ को सम्बन्धित करता है| ‘अनन्त प्रज्ञा’ ही ‘नवाचार’ (Innovation) एवं ‘अंतर्ज्ञान’ यानि ‘आभास’ (Intuition) देता है| इसी संकल्पना के आधार पर नोबल पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डेनियल कुहनमन ने Thinking Fast and Slow लिखा|

अत: जिसके पास सिर्फ शरीर एवं मस्तिष्क की ही चेतना होता है, उसका चिंतन स्तर निम्नतर होता है, यानि उनके सोचने, समझने एवं परिणामस्वरुप उनकी भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों की अभिव्यक्ति करने का स्तर निम्नतर होता है| ऐसे लोग सदैव ही ‘शासित’ होते हैं, यानि ‘चेतनता का संवर्धन करना’ ही ‘शोषित’ होने से मुक्ति का साधन हो सकता है, और अन्य उपागम (Approach) मात्र छलावा है| जिन लोगों के पास इन दोनों निम्नतर स्तर के अतिरिक्त ‘मन’ एवं ‘आत्म’ स्तर की चेतना होता है, यानि इसके ‘सामान्य ज्ञानेन्द्रियों’ के स्तर के चेतना के अतिरिक्त ‘मानसिक चिंतन’ होता है, वे लोग प्रथम निम्नतर स्तर के लोग से बेहतर होते हैं| ऐसे द्वितीय स्तर के लोग शासक के उपकरण होते हैं, यानि नौकरशाही के स्तम्भ या औजार या साधन होते हैं, हो सकते हैं, लेकिन शासक नहीं होते हैं| शासक वर्ग में, यानि चेतनता के सर्वोच्च वर्ग के लोग इन दोनों निम्नतर स्तर के अतिरिक्त अपनी पहुँच ‘अनन्त प्रज्ञा’ तक रखते हैं| ऐसे लोग अपनी ‘आत्म’ (यह Spirit है, और इसे आत्मा से भिन्न समझा जाय) को ‘अधि’ (यानि ऊपर, अर्थात अनन्त प्रज्ञा) से जोड़ लेते हैं, और इन्हें ही “आध्यात्मिक” (Spiritual) कहते हैं, वैसे मैं ‘बाजारू’ आध्यात्मिकता की बात नहीं कर रहा हूँ| ऐसे ही लोग इस धरती पर के सर्वश्र्ष्ट चेतनशील व्यक्ति होते हैं| स्पष्टतया ऐसे लोग ही शासक होते हैं|

वैसे तो अधिकतर लोग अपनी सामान्य चेतना, यानि अपनी सामान्य ज्ञानेन्द्रियों के आधार पर ‘शासक’ एवं ‘शासित’ समूह को अपनी सुविधा के अनुसार ‘रंग’, ‘प्रजाति’, ‘जाति’, ‘कास्ट’, ‘’संस्कृति’, ‘सम्प्रदाय’ आदि के आधार पर ऐसे वर्गीकृत करते हैं, ताकि अपने को ‘शोषक’ या ‘शासक’ वर्ग में रखकर या ‘शोषित’ या ‘शासित’ वर्ग में रखकर अपने को आनन्दित समझें, या उत्पीडित समझें, वह पूर्णतया सवतंत्र है|  

इसीलिए बहुसंख्यक कभी भी शासक नहीं होते हैं, और अल्पसंख्यक ही सदैव शासक होते हैं, क्योंकि चेतनता की उत्कृष्टता बहुत ही कम संख्या में लोग विकसित कर पाते हैं| आप भी इस पर गहनता से विचार करें|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

शुक्रवार, 16 मई 2025

अकसर वास्तविकताएँ होती नहीं है, बना दी जाती है

“वास्तविकता” (Reality) सदैव ‘वास्तविक’ (Real) नहीं होती है, अकसर काल्पनिक को ही वास्तविक बना दिया जाता है| ‘वास्तविक’ उसे कहते हैं, जो अपने नाम, स्वरुप, संरचना, स्वभाव, प्रकृति के अनुसार अपना प्रभाव या परिणाम उत्पन्न करता है| और यदि यही या ऐसा ही परिणाम कोई काल्पनिक भी उत्पन्न कर देता है, तो वह ‘वास्तविक’ नहीं होते हुए भी ‘वास्तविकता’ के ही समकक्ष हो जाता है, यानि इस मामले में वह काल्पनिक ही ‘वास्तविकता’ हो जाता है| अब इसे थोडा स्थिरता से और विस्तार से समझते हैं|’पहले भी और आज भी यह ‘काल्पनिकता’ ‘वास्तविकता’ की परिणाम दिलाता आ रहा है, चाहे यह राजनीति हो या आस्था हो, या जीवन दृष्टि के अन्य पक्ष|

आपने भी इसी तरह के कई वक्तव्य सुने होंगे, जैसे “संसाधन’ (Resource) होते नहीं है, बना दिए जाते हैं”| या, इसी तरह, “स्त्रियाँ होती नहीं है, बना दिया जाता है”| या, आदमी डरपोक (Timid) होता नहीं है, बना दिया जाता है| या, आदमी बेवकूफ (Silly) होता नहीं, बना दिया जाता है| या, घटनाएँ घटित नहीं होती है, लेकिन घटित होना स्थापित करा दिया जाता है| या, विकास वैसा होता नहीं है, लेकिन इसे स्थापित करा दिया जाता है| और इनमे वास्तविक्ताएँ नहीं भी होती हो, लेकिन परिणाम या प्रभाव पा लिए जाते हैं| और ऐसा खेल अज्ञानता के संसार में खूब चलता रहता है, या आप कहें तो ऐसा खेल शताब्दियों तक भी आसानी से चलता रहता है, या चलाया जाता रहा है, या आज भी बखूबी चल रहा है|

यह अर्थशास्त्र में स्थापित है कि संसाधन’ होते नहीं है, बना दिए जाते हैं”| जैसे कोयला एक पत्थर है, जिसे आदिम युग से ही उर्जा के स्रोत,  यानि संसाधन के रूप में उपयोग किया जा रहा है| तकनीक बदल कर यूरेनियम का उपयोग उर्जा के स्रोत के रूप में किया जाने लगा| लेकिन इन सभी उदाहरणों में तकनीक बदल कर, यानि प्रक्रिया बदल कर, यानि वास्तविकताओं को ही बदल कर प्रभाव पैदा कर लिया जाता है| इस तरह यह इस लेख के शीर्षक के अनुरूप सही नहीं हुआ, क्योंकि इसमें काल्पनिकताओ को स्थान नहीं दिया गया है|

लेकिन “स्त्रियाँ होती नहीं है, बना दिया जाता है” के मामले में एक परीक्षण किया जा सकता है| ऐसा प्रसिद्ध फ़्रांसिसी दार्शनिक सिमोन द बौआर कहती हैं| इनके अनुसार आदमी में यौन के आधार पर पुरुषों एवं स्त्रियों में ‘यौनिक विभेद’ (Sexual Discrimination) तो किया जा सकता है, जो एक दूसरे की पूरकता (Complementry) के रूप व्यक्त होता है, लेकिन पुरुषों एवं स्त्रियों में तो ‘लैंगिक विभेद’ (Gender Discrimination) समाज द्वारा स्थापित कर दिया जाता है| यह ‘लैंगिक विभेद’ सर्वथा अनुचित माना जाता है, क्योंकि यह काल्पनिकताओं पर आधारित नकारात्मकता होता है| यहाँ इन दोनों की पूरकता की ओर ध्यान नहीं देकर ‘विभेदता’ को ही वास्तविकता का आधार बना दिया जाता है| ‘लैंगिक विभेद’ में सामाजिक काल्पनिक मान्यताओं को स्त्रियों पर थोपा जाता है और इस काल्पनिक मान्यताओं का प्रभाव एवं परिणाम वास्तविक, लेकिन नकारात्मक एवं विध्वंसात्मक होता है| इस मामले में वास्तविकताएँ होती नहीं है, बना दी जाती है, और यह सही साबित भी हो जाती है|

इसी तरह, आदमी डरपोक (Timid) होता नहीं है, बना दिया जाता है| या, आदमी बेवकूफ (Silly) होता नहीं, बना दिया जाता है| जब आदमी डर जाता है, तब वह बहुत मुलायम (Soft) हो जाता है, और कोई भी उसे जानवर बना ले, या देवता बना दे, यह सब बनाने वाले की चतुराई पर निर्भर करता है| ‘भालू आ जायगा’ सुनकर तो बच्चा भी जल्दी सो जाता है, लेकिन ‘ऐसा नहीं करने पर नरक मिलेगा, या अगला जनम कुत्ता में होगा’ कह कर बुद्धिजीवियों को ठग भी लिया जाता है| वास्तविकता हो या नहीं हो, किसी को ‘डरा’ कर और अपने को ‘हीरो’ बना कर लोगों को अपने प्रभाव में ले आना बहुत साधारण कलाबाजी माना जाता है| आजकल ‘कृत्रिम बुद्धिमत्ता’ के जमाने में सब कुछ एक ही कमरे में बैठ कर काल्पनिकताओं को वास्तविक प्रभाव पैदा करने वाला बना दिया जाता है| इसी तरह जब कोई भी, तथाकथित डिग्रीधारी, या धनधारी, या पदधारी, को बेवकूफ बनाना हो, तो जैसे किसी को डरपोक बनाया जाता है, वैसे ही इन तथाकथित बुद्धिजीवियों को भी बेवकूफ बना दिया जाता है| कुछ संस्कृतियों में डिग्रीधारी, या धनधारी, या पदधारी होने के लिए आपको ‘आलोचनात्मक चिंतन’ (Critical Thinking) की आवश्यकता नहीं होती है, और आप सिर्फ अपने ‘सामाजिक पूँजी’ (Social Capital) के आधार पर ही बहुत कुछ पा ले सकते हैं| कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों से तो मात्र प्रतिक्रिया लेकर ही उनके समय, संसाधन, ऊर्जा एवं वैचारिकी को नकारात्मक दिशा में उपयोग कर उन्हें बर्बाद किया जाता है, या किया जा सकता है| इन दोनों अवस्थाओं में वास्तविकताएँ होती ही नहीं है, बना दी जाती है|

कुछ घटनाएँ इतिहास के कालों में घटित ही नहीं हुए, लेकिन उसे घटित हुआ माना जाता है, यानि उसे ऐतिहासिक तथ्य मान लिया जाता है और इतिहास में स्थापित कर दिया जाता है| ऐसा करना तथाकथित डिग्रीधारी, या धनधारी, या पदधारी के समय में बहुत सरल होता है, और यह बहुत ही साधारण बात होती है| कोई किसी भी घटना को ऐतिहासिक बताने के लिए उसे ‘रटन्त विद्या’ का सहारा देता है, या ज्यादा समझदार लोगों को ‘जीनीय शोध’ को आधार बता कर ही काल्पनिकता को वास्तविकता में बदल देने में सफल हो जाता है| साधारण बातें सामान्य जन को समझ में नहीं आती है, और इसी तरह तथाकथित डिग्रीधारी, या धनधारी, या पदधारी को भी ‘जीनीय शोध’ के नाम पर कुछ समझ में नहीं आता है| इन ‘जीनीय अध्ययनों’ के नाम पर एजेंडा का समर्थन करता हुआ कुछ भी प्रस्तुत कर दिया जाता है, और विपरीत जाते हुए साक्ष्यों को चर्चा में ही नहीं लाया जाता है| ऐसे नाटकों के लिए किसी भी पुरातात्विक साक्ष्यों की प्रमाणिकता की आवश्यकता ही नहीं होती है| और काल्पनिकताओं को वास्तविक बना दिया जाता है|

इसी तरह, कुछ व्यवस्था विकास का सही अर्थ समझती नहीं है, या तो खूब समझती है, लेकिन विकास का ढिंढोरा मीडिया पर नियंत्रण कर बुलंद करती रहती है, जैसे ये विकास के जादूगर ही हों| इन्हें विकास (Development) एवं वृद्धि (Growth) में अंतर समझ में नहीं आता, शायद इसीलिए सीमेंट के खपत में उछाल (वृद्धि) को ही विकास समझ लेता है और लोगों को ऐसा ही समझा देता है| प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन लोगों की ‘क्षमता’ (Capability approacb) में विस्तार को ही ‘वास्तविक विकास’ मानते है, जबकि सरकारे लोगों के आय में वृद्धि के लिए विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत धन को ही बाँट (लुटा) कर उनकी आय बढा देती हैं और विकास की वाहवाही लूट लेती है| यह भी काल्पनिकताओं को वास्तविकता में दिखाने का एक घटिया प्रयास होता है| इन वास्तविकताओं का प्रभाव चुनाव में तो दिख सकता है, लेकिन वास्तविक जीवन यथावत ही रहता है|

स्पष्ट है कि “अकसर वास्तविकताएँ होती  नहीं है, बना दी जाती है”, पूर्णतया सत्य है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

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