शुक्रवार, 30 मई 2025

हम विमर्श क्यों नहीं करना चाहते?

आपने भी देखा होगा कि आबादी का बहुसंख्यक हिस्सा विमर्श नहीं करता है, और शायद इसीलिए ये लोग मुख्य धारा से बाहर रहते हैं, यानि कटे हुए होते हैं, यानि समाज का पिछला हिस्सा बने होते हैं| समाज के ऐसे लोगों की बैठकों में तालियाँ खूब बजती है, लच्छेदार भाषण होते हैं, तीखी बयानबाजी होती है और दोषारोपण एक सामान्य बात होती है, लेकिन उनमे ‘विमर्श’ बैठक’नहीं होती है| वहां एक ही घिसी पिटी बात, जो सभी जानते हुए होते हैं, दुहरायी जाती है, और शोषण, उत्पीडन, अभाव का खूब रोना रोया जाता है| लेकिन उस शोषण, उत्पीडन, अभाव के निराकरण के लिए कोई भी रचनातमक एवं सकारात्मक समाधान देने वाले किसी भी योजनाबद्ध कार्यक्रम पर विचार नहीं होता है|

ऐसी ही आबादी को समाज का पिछड़ा या वंचित हिस्सा समझा जाता है|ऐसे लोग अपनी शोषण, उत्पीडन, अभाव के लिए समाज के दूसरे लोगों पर ‘दोषारोपण’ तो खूब करेंगे, लेकिन अपने हिस्से का कोई ‘दीपक’ जलाने का कोई प्रयास भी नहीं करेंगे| ऐसे लोग सिवाय शोषण, उत्पीडन, अभाव के लिए दोषारोपण करने के, अपनी या तथाकथित अपने लोगों के चेतना (बुद्धि) के विकास के लिए किसी कार्यक्रम पर विमर्श नहीं करेंगे| ध्यान रहे कि मैं किसी ‘जाति’ या ‘धर्म’ की बात नहीं कर रहा हूँ| यदि किसी आबादी की चेतनता, यानि समझ, यानि बुद्धि के स्तर के अनुसार सामाजिक वर्गीकरण किया जाय, तो कोई भी समाज को तीन भागों में स्तरीकृत कर सकता है| चूँकि चेतना का उच्चतर विकास आपसे समय, संसाधन, ऊर्जा, धन, समर्पण र आपकी वैचारिकी माँगता है, इसीलिए चेतना के उच्चतम स्तर पर बहुत ही कम लोग होते हैं और इसी कारण ऐसे लोग सम्पूर्ण आबादी का समेकित स्वरुप पिरामिड- स्वरुप  का ‘शिखर’ (Top) बन जाता है|

कोलंबिया विश्वविद्यालय में एक बार डा० आम्बेडकर अपने शोध सम्बन्धित भाषण में बता रहे थे कि अधिकतर लोग कहीं भी वही बातें सुनना पसंद करते हैं, जिसे वे पूर्व से जानते एवं मानते हुए होते हैं|अधिकतर मामलों में श्रोताओं (पाठको को भी) को उनकी पूर्व की धारणाओं के विपरीत कोई भी विचार, या कोई भी नयी संकल्पना प्राय: अजूबा लगता है, यानि अटपटा लगता है| ऐसे लोग अपनी विचारों की जड़ता” के कारण ‘जड़’ रहते हैं, और इसी को ‘पूर्वाग्रह’ कहते हैं| शायद इसीलिए हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध प्रोफ़ेसर थामस सैम्युल कुहन कहते हैं, कि किसी भी व्यवस्था, या विचार, या संकल्पना में क्रान्तिकारी बदलाव के लिए अवधारणात्मक, यानि संकल्पनात्मक संरचना या ढाँचा में नवाचार (Innovation) लाना, यानि उसे नए दृष्टिकोण से देखना समझना अनिवार्य हो जाता है| इसके बिना बदलाव होता ही नहीं है, या बड़ी सुस्त गति से चलती रहती है|

यह भी एक तथ्य है, और इसीलिए यह सत्य भी है, कि यदि हम आजतक किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर पा रहे हैं, ती अवश्य ही उस समय की उपलब्ध सभी अवधारणाओं या संरचनाओं मे कोई भारी त्रुटि है| नित नए अनुसंधान हो रहे हैं, नयी नयी बातें एवं तथ्य समाने आ रही है, कई तकनीक बदल गए है, वैश्विक व्यवस्था एवं संरचना बदल गये है, कई उपागम (Approach) की विधियाँ बदल गयी है, और साधारणतया लोग महापुरुषों के नाम पर दशकों एवं सदियों पुरानी विचारों और अवधारणाओं से ही चिपके हुए हैं| इनके विरोधी भी इन्ही महापुरुषों के नाम पर उनके विचारों एवं उनके दर्शन को मरोड़ देते हैं, जिस ‘मरोड़’ को ही समझने के लिए उन्हें’ विमर्श’ करना चाहिए| लेकिन ये विमर्श करना ही नहीं चाहते हैं| लेकिन क्यों? यह आलेख इसी विषय पर है|

जिस समाज या संगठन का नेतृत्व समाज का ‘पका’ (जिसमे कोई बदलाव संभव नहीं) हुआ लोग दे रहा है, वे अपने को उस विषय का सम्पूर्ण ज्ञानी मानता है| वैसे नेतृत्व की समाज से एक ही मांग रहती है कि उसे उसका तथाकथित समाज उनके नेतृत्व में अपना सब कुछ, यानि अपना  समय, संसाधन, ऊर्जा, धन एवं वैचारिकी उनको ही समर्पित कर दे, और तब वह नेतृत्व क्रान्तिकारी परिवर्तन कर देगा| ध्यान रहे कि ‘विचार परिवर्तन’ के बिना ‘व्यक्ति परिवर्तन’ से ‘व्यवस्था में परिवर्तन’ हो जाना एक भ्रम है| ऐसे लोगों से तो उनकी ;नेतागिरी’ तो चमक सकती है, लेकिन सामाजिक व्यवस्था या संरचना में कोई परिवर्तन नहीं होता है| उनकी बातों में जो भी ‘भावनातमक’ हुआ, वह अपना और अपने परिवार को बर्बाद कर देता है| ऐसे नेतृत्व को किसी ‘विमर्श’ की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि वे ‘पके’ हुए होते हैं, यानि उनके दिमाग का ‘प्याला’ तथाकथित ज्ञान’ से भरा पडा होता है, और उसमे ‘और ज्ञान’ डालने से वह ज्ञान झलक कर बर्बाद हो सकता है| ऐसे ‘पके’ हुए लोग विमर्श से बचते हैं, ताकि उनकी नेतागिरी खतरे में नहीं पद जाय|

यह भी एक मनोविज्ञान है कि एक सामान्य साधारण आदमी एक सामान्य साधारण बात से संतुष्ट नहीं होना चाहता, बल्कि वह एक विशिष्ट ज्ञान से संतुष्ट होना चाहता है| यह भी एक तथ्य है कि एक सामान्य साधारण बात ही किसी भी सत्य की तर्कसंगतता स्थापित कर सकता है, और विशिष्ट बात एक ‘सत्य’ को छिपा कर ‘मिथ्या’ को ही सत्य साबित कर देता है| आप किसी को भी किसी साधारण बातों से बहुत आसानी से समझा और संतुष्ट करा सकते हैं| प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्सटीन भी कहते हैं, कि यदि कोई आदमी किसी भी दस वर्षीय सामान्य बच्चा को कोई बात या सिद्धांत समझाना चाहता और वह बच्चा उसे समझ नहीं पा रहा है, तो यह स्पष्ट है उस समझाने वाले को ही वह बात या सिद्धांत की स्पष्ट समझ नहीं है| इसी कारण ऐसी ही ‘विशिष्ट ज्ञान’ को कुछ लोग ‘दैवीय’ कारण भी कहते हैं| इसीलिए सामान्य ज्ञान का सामान्य उपयोग कारना नेतृत्व को असहज लगता है| और इसीलिए ऐसे लोग ‘विमर्श’ नहीं करते हैं, ‘विमर्श’ से बचना चाहते हैं|

वैसे प्रकृति का यह नियम है कि सभी वस्तु समय और ऊर्जा बचाना चाहता है, और शायद इसीलिए सभी आकाशीय पिंड गोलाकार होते हैं| चूँकि सभी नेता समय और ऊर्जा बचाना चाहते हैं, और इसीलिए ऐसे नेता समय और ऊर्जा बचाने के नाम पर घिसी पिटी लकीरों पर ही चलते रहते है,| उन्हें इससे कोई वास्ता नहीं होता, कि नए शोधों एवं अनुसंधानों से कई पुरानी स्थापित एवं सत्यापित अवधारणाएँ एवं मान्यताएँ अब ध्वस्त हो चुकी है, नित नए उभरते एवं सुधरते तकनीकों ने सोचने, विचारने, समझने एवं प्रसारित करने के कई आयाम विश्व पटल पर उपलब्ध करा चुके हैं, समाज की संख्यात्मक एवं बौद्धिक संरचना एवं ढाँचा बदल गया है, और तेजी से हो रहे वैश्वीकरण की आवश्यकताओं ने शक्ति संतुलन एवं प्रभावीकारण को उलट दिया है| ऐसी स्थिति में पुराने विचारों,, पुरानी अवधारणाओं, पुरानी मान्यताओं, और पुराने तौर तरीकों को बदल देने की आवश्यकता है| और इसी के लिए “विमर्श” की अनिवार्यता है| और कोई भी अन्य भाषणबजी इसका विकल्प नहीं हो सकता है|  

बुद्ध का ‘अनित्यवाद’ भी कहता है कि सब कुछ समय के साथ बदलता रहता है| इसीलिए बदलते हुए समय के अनुकूलन में समाज, स्थितियाँ, विधियाँ, अवधारणायें, और विचार भी बदलने चाहिए| जो कल प्रासंगिक था, हो सकता है कि वह आज संशोधन एवं परिमार्जन चाहता है| और यह विमर्श से ही संभव है| ध्यान रहे कि मैं ‘विमर्श’ की बात कर रहा हूँ, किसी बहस की बात नहीं कर रहा|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

1 टिप्पणी:

  1. बहुत सटीक और सरल भाषा में विमर्श की आवश्यकता और उपादेयता की प्रासंगिकता और महत्व को अपने बातया है, धन्यवाद सर।

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