यदि कोई व्यवस्था बदलना चाहता है, या कोई सदियों के लिए स्थायी नव परिवर्तन
करना चाहता है, या कोई सहस्त्राब्दियों की राजनीति करना चाहता है, तो उसे अवश्य ही
‘संस्कृति के दर्शन’ को समझना और जानना चाहिए| इस ‘सांस्कृतिक
दर्शन’ के बिना तो कोई पांच साल भी सत्ता में बना नहीं रहता है, और यदि कोई सत्ता
में बना भी रहता है, तो वह व्यवस्था में कोई स्थायी रूप से बदलाव लाने की समझ नहीं
रखता एवं व्यवस्था को बदल पाने में पूरी तरह नाकाम ही रहता है| इसीलिए व्यक्ति बदलने से व्यवस्था नहीं बदलती है| बहुत से
शासकों को लगता है कि वे सीमेंट की खपत बढ़ा कर, यानि ठेकेदारी बढ़ा कर व्यवस्था को
बदल दे रहे हैं या बदल देंगे, तो उन्हें ‘संस्कृति के
दर्शन’ की समझ भी नहीं है, और इसीलिए वे ‘विकास’ एवं ‘बदलाव’ के भ्रम में जी रहे
होते हैं|
चूँकि
संस्कृति व्यवस्था का, समाज का, राष्ट्र का, राजनीति
का, जीवन दर्शन एवं विश्व दर्शन का ‘साफ्टवेयर’ है, इसीलिए यह संस्कृति व्यवस्था को, समाज को, राष्ट्र को, और
राजनीति को ‘स्व- चालित मोड” (Automated Mode) में रखता है|
मतलब तब व्यवस्था या सत्ता को ज्यादा कुछ नहीं करना होता है, और लोग अपने जीवन से
संतुष्ट रहते है, और अपने पिछले जन्म को दोष देकर अगले जन्म का इन्तजार करते होते
हैं| यह सब ‘संस्कृति का खेल’ होता है, और इस खेल को समझने एवं नियंत्रित करने के
लिए ‘संस्कृति के दर्शन’ को जानना समझना अनिवार्य हो जाता है|
‘संस्कृति का दर्शन’ भी ‘दर्शन’ (Philosophy) की एक शाखा है, जो संस्कृति
की प्रकृति (Nature),
अर्थ (Meaning),
क्रियाविधि (Mechanisn)
और मूल्य (Value)
की खोज करती है। यह दर्शन संस्कृति को सम्यक् तरीके से और पूर्णता में देखने, समझने और
जानने के लिए एक समुचित विधि देता है,
कुछ उपकरण देता है,
और एक वैज्ञानिक नजरिया देता है। यह दर्शन यह भी समझाती है कि यह किसी
सांस्कृतिक पहचान को कैसे आकार देते हैं और इसमें मानव की सृजनात्मकता, तर्कसंगतता
और सामूहिक अनुभव की क्या भूमिका होती है? यह
दर्शन संस्कृति के प्रतीकात्मक, संरचनात्मक, संगठनात्मक और व्यवहारिक पहलुओं पर गहराई से
विचार करता है, ताकि मानवता के वर्तमान और भविष्य को सुधारा
और सम्हाला जा सके। इससे सत्य,
सौंदर्य और दक्षता के बारे में भावनाओं,
विचारों, और
व्यवहारों को समझा जाता है। इन भावनाओं,
विचारों, और
व्यवहारों की अभिव्यक्ति के प्रतिरुप, संगठन और संरचना ही किसी सामाजिक सदस्यों को
सामाजिक रूप से विरासत में मिलता है और उसके जीवन के तरीकों को आकार देता है।
‘संस्कृति का दर्शन’ संस्कृति की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए संस्कृति के
स्वरुप को स्पष्ट करता है कि किसी भी समाज की संस्कृति का उद्गम (Origin) एवं उद्विकास (Evolution) उस समाज के "इतिहास के अवबोध" (Perception of History) से होता है, जो उसके साझा विश्वास, मूल्य (Value), प्रतिमान (Norm), मानदंड (Standard), प्रतीक, भाषा आदि में व्यक्त होता रहता हैं। चूँकि किसी समाज के ‘स्वयं का इतिहास बोध’ ही ‘संस्कृति’ का
निर्माण करता है, इसीलिए चतुर लोग अपनी स्वार्थ हित की कहानियों को ही
इतिहास बता देते हैं, और उन नव रचित कहानियों को प्राचीनतम, सनातन और ऐतिहासिक भी बता
दिया जाता है| तब ‘प्राचीनतम संस्कृति’ की जड़ें गहरी एवं गंभीर मान ली जाती है,
जबकि वह तथाकथित संस्कृति सतही एवं छिछली ही होती है| इसी संस्कृति को नियमित,
नियंत्रित एवं संचालित करने के लिए इतिहास को बदलने की आवश्यकता हो जाती है| इस
दर्शन से कोई भी ‘संस्कृति के खेल’ को
बखूबी समझ सकता है|
यह दर्शन यह
भी स्पष्ट करता है कि संस्कृति के इन तत्वों को एक समूह में एकीकृत स्वरूप में
सीखने और साझा करने की क्रियाविधि कैसे काम करता है? स्पष्ट है कि संस्कृति एक सीखा हुआ व्यवहार होता है, जिससे एक व्यक्ति
या समूह को किसी समाज और प्रकृति में अनुकूलन करने और जीवित रहने में मदद करता है।
यह सांस्कृतिक दर्शन किसी व्यक्ति को अपनी सांस्कृतिक समूह की सदस्यता के आधार पर
अपनी सांस्कृतिक पहचान के मूल और व्युत्पन्न तत्वों को बताती समझाती है, और उसकी
क्रियाशीलता को स्पष्ट भी करती है। सभी समाजो की
सांस्कृतिक पहचान परिवर्तनशील होती है, और यह स्थिर लक्षणों के पृष्ठभूमि पर निर्मित होते हुए और दिखते हुए भी बदलते ‘संचार’
और ‘अंतःक्रिया’ के माध्यम से नए आकार लेती रहती है।
‘संस्कृति का दर्शन’ किसी समाज के कला, साहित्य और अन्य सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों में प्रतिबिंबित एवं प्रतिफलित होते
हैं। सामान्य साधारण लोग इसी
कला, साहित्य और अन्य सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों
में प्रतिबिंबित परिणाम या उत्पाद को ही संस्कृति समझ लेते है, जबकि संस्कृति इससे भिन्न, व्यापक, गूढ़ और गंभीर होती है। ये
कला, साहित्य
और अन्य सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों में प्रतिबिंबित परिणाम या उत्पाद संस्कृति के
कुछ तत्वों को ही स्पष्ट करते हैं,
और इसीलिए यह संस्कृति के सतही लक्षण माने जाने चाहिए। संस्कृति का यह
दर्शन मानवीय मूल्यों के प्रति,
लोगों के स्वयं के प्रति तथा विश्व के प्रति दृष्टिकोण को
समझाता हैं।
चूँकि दर्शन सत्ता की और सत्ता में बदलाव की समझ देती है, इसीलिए दर्शन को सामान्य साधारण लोगों की
पहुँच से दूर करने के लिए दर्शन की विषय वस्तु को ही ‘मायावी’ (आत्मा, पुनर्जन्म,
ईश्वर, ब्रह्म आदि आदि) बना दिया जाता है, और दर्शन का सम्बन्ध संस्कृति से दूर कर दिया जाता है| चूँकि
संस्कृति समाज को स्वचालित मोड़ में रखने का एक महत्वपूर्ण “साफ्टवेयर” है, इसलिए
ही यह ‘संस्कृति का दर्शन’ मानव विकास और कल्याण में क्रान्तिकारी एवं स्थायी
परिवर्तन ला सकती है, या लाती है| चूँकि संस्कृति मानवीय प्रथाओं और विश्वासों
को नियमित एवं संचालित करती है, इसलिए यह सांस्कृतिक दर्शन सार्वभौमिक महत्व का हो
जाता है| मानवता के भावी इतिहास में महान
रूपान्तरण करने के लिए ‘संस्कृति का दर्शन’ ही सक्षम एवं समर्थ है, व्यवहारिक है,
और इतिहास सिद्ध है| इसीलिए ही यह सांस्कृतिक दर्शन ही मानवता के भावी
इतिहास में महान रूपान्तरण करने की क्रियाविधि बताता समझाता है|
आप किसी भी समाज या राष्ट्र के राजनीतिक संरचना, व्यवस्था एवं ढांचे को, यानि
कि आप किसी राजनीतिक प्रणालियों और कानूनी ढांचे को समझना चाहते हैं, तो ‘संस्कृति
का दर्शन’ ही उस राजनीति प्रणालियों के दर्शन के आकार के ऐतिहासिक उद्विकास को
सुलझाता है, समझाता है| यही सांस्कृतिक दर्शन मानवीय विचारों, मूल्यों, विश्वासों,
आदतों एवं कार्य प्रणालियों के ऐतिहासिक उद्विकास को भी सुलझाता है| यह सांस्कृतिक
अवधारणाओं और विश्वासों के ऐतिहासिक विकास के झूठी दावों की सत्यता की जांच करता
है। ‘संस्कृति का दर्शन’ ही संस्कृति सीखने, सिखाने और बदलने के लिए सांस्कृतिक
मान्यताओं के बारे में आलोचनात्मक सोच को बढ़ावा देता है| इसके साथ ही, सांस्कृतिक दर्शन ही आपसी सांस्कृतिक समझ और संवाद को
प्रोत्साहित करता है, मानवता के एकीकरण को बढ़ावा भी देता है, और सभी मानव को एक
धरातल पर लाता है|
आइए, ‘संस्कृति के दर्शन’ की समझ के साथ सभी मानवता में भाईचारा स्थापित किया
जाय; समता, स्वतंत्रता एवं बंधुत्व के साथ वैश्विक न्याय स्थापित किया जाय, और
मानवता का नव निर्माण किया जाय|
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