सवाल यह है कि ‘सत्ता वर्ग’ का नाश क्यों हो?
यदि सत्ता वर्ग का नाश आवश्यक या अनिवार्य ही हो, तो यह सवाल है कि ‘सत्ता वर्ग’
का नाश कैसे हो सकता है? यहाँ यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि ‘सत्ता’ ही सभ्यता का
आधार है, और किसी भी सभ्यता के लिए ‘सत्ता’ का होना आवश्यक ही नहीं, अपितु
अनिवार्य है| किसी भी सभ्यता में सत्ता को संप्रभुता हो, या नहीं हो, परन्तु सत्ता
का तो होना अनिवार्य ही है| आप भारत का ही उदाहरण देख लें| भारत एक प्राचीनतम
सत्ता का उदाहरण है| सत्ता मुखिया का हो, या राजा का हो, या किसी गणतंत्र का हो,
या औपनिवेशिक साम्राज्य का हो, ‘सत्ता’ शासन की व्यवस्था के रूप में अवश्य ही
मौजूद रहती है| ‘सत्ता’ नहीं, तो व्यवस्था नहीं, तो फिर जब व्यवस्था भी नहीं
रहेगी, तो वहां के लोग ‘सभ्य’ कैसे होंगे? यानि वहां सभ्यता ही नहीं होगी|
स्पष्ट है कि सत्ता का नाश किसी भी सभ्य समाज
में नहीं किया जा सकता है, तब तो ‘सत्ता वर्ग’ में सिर्फ “वर्ग” का ही नाश संभव
है, व्यावहारिक है| किसी भीं ‘सत्ता’ के ‘वर्ग’ के नाश की आवश्यकता तब होगी, जब ‘सत्ता
वर्ग’ का वह ‘वर्ग’ शोषक हो| यदि ‘सत्ता’ के साथ कोई “वर्ग” मौजूद है, तो वह ‘वर्ग’
अवश्य ही शोषक होगा, अन्यथा उस ‘वर्ग’ की आवश्यकता ही नहीं है| यदि किसी समाज या
संस्कृति में कोई ‘वर्ग’ आर्थिक आधार पर निर्मित है, तो आर्थिक आधार के स्वयं
गतिशील होने के कारण किसी स्थायी ‘वर्ग’ की उत्पत्ति एवं उद्विकास हो ही नहीं
सकता| लेकिन यदि कोई ‘वर्ग’ जन्म के वंश या कूल के आधार पर निर्मित है, तो योग्यता’
या ‘कौशल’ को अनिवार्य तत्व के रूप में ‘वर्ग’ में मौजूद रहना अनिवार्य या आवश्यक नहीं
रह जाता है| तब सत्ता वर्ग में कुछ योग्य एवं कुशल लोगों के कन्धों पर ‘वर्ग’ के
नाम पर अयोग्य एवं अकुशल लोग भी सवार हो जाते हैं, और तब सत्ता अपनी सम्पूर्णता
में अकुशल और अयोग्य हो जाता है|
किसी भी सत्ता के लिए उच्चतर, भिन्न एवं विशिष्ट चेतनता की आवश्यकता होती है, यानि उच्चतर, भिन्न एवं विशिष्ट बौद्धिकता यानि समझ की आवश्यकता होती है| लेकिन कुछ उच्चतर, भिन्न एवं विशिष्ट चेतनता के कन्धों पर सवार “परजीवी” (Parasite) यदि मात्र किसी वर्ग के नाम के आधार पर सत्ता समूह में शामिल हैं, तो उस शासन, व्यवस्था, एवं विकास का विकलांग होना या ‘राजहित’ में विनाश होना अनिवार्य है| ध्यान रहे कि 'सत्ता' का 'वर्ग' अपने को उच्चतर, भिन्न एवं विशिष्ट चेतनता का दावा करता हुआ होता है।
ऐसी स्थिति में ‘सत्ता वर्ग’ अपनी पूर्ण दक्षता,
योग्यता, कुशलता, समर्पण एवं निष्ठा उस राज्य की सत्ता यानि व्यवस्था को नहीं दे
पाता है| इसका खामियाजा राज्य, जनता, शासन, व्यवस्था एवं विकास को भुगतना ही है|
यह भी सत्य है कि तथाकथित संवैधानिक ढाँचे के नाम पर खानापूर्ति के लिए कुछ दूसरे
वर्ग के सदस्यों को शामिल दिखा दिया जाता है| ऐसे सदस्य मात्र मुखौटा होते हैं, और
यदि ये सदस्य वास्तविक बौद्धिक होते हैं, तो किन्ही भी आधार पर बाहर कर दिया जाता
है| ऐसा करना ‘सत्ता वर्ग’ की वैश्विक प्रकृति और प्रवृति होती है| यह ‘सत्ता’ की नहीं,
बल्कि ‘सत्ता पर हावी वर्ग’ की विशेषता होती है|
तब तो ‘उस वर्ग’ का नाश अवश्य ही होना चाहिए|
जब भी कोई वर्ग है, तो उसका सदैव ही कोई विशेष एवं भिन्न हित होगा ही, जो सदैव ही राज्य,
जनता, शासन, व्यवस्था एवं विकास से भिन्न होगा, विशिष्ट होगा, और इसीलिए राज्य,
जनता, शासन, व्यवस्था एवं विकास के हितों के विरुद्ध ही होगा| कोई भी स्थायी वर्ग
सिर्फ और सिर्फ जन्म के वंश या कुल के सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थापित ‘वर्ग’ निर्धारण
से होगा| चूँकि विश्व के सभी जीवित मानव होमो सेपियंस सेपियंस ही हैं, और ये सभी
कोई एक लाख वर्ष पूर्व एक ही परिवार समूह से उत्पन्न हुआ है, इसीलिए इनमे भिन्नता
सतही होती हैं, और ये सभी भिन्नताएं भौगोलिक परिवेश के अनुकूलन के परिणामस्वरूप ही हुआ
है| इनकी मौलिक जीनीय संरचना समान होती है, और इसीलिए कोई भी मानव किसी भी दूसरे विपरीत
लिंगी मानव से प्रजनन कर सन्तति उत्पन्न कर सकता है, अर्थात इनका जीनोटाइप (Genotype)
संरचना समान होता है, लेकिन फिनोटाइप (Phenotype) संरचना भिन्न होता है, जो भौगोलिक
परिवेश के अनुकूलन के परिणाम हैं| ध्यान रहे कि आजकल जेनेटिक आधार पर जो भी भिन्नता के परिणाम
बताये या दिखाए जा रहे हैं, वे सभी प्रायोजित होते हैं, और इसीलिए ये सभी फर्जीवाड़ा
का खेल है| स्पष्ट है कि वर्गीकरण का यह आधार भी गतिशील है, जो बदलते भौगोलिक
परिवेश के अनुरूप है| लेकिन ये वर्ग इन्ही आधारों पर खड़ा है|
जब ‘वर्ग विभिन्नता’ का कोई वैज्ञानिक एवं तार्किक
आधार होता ही नहीं है, तब ‘वर्ग विभिन्नता’ को कुछ या सभी आधार मिथकों पर, यानि
कहानियों पर स्थापित कर दिया जाता है| जब ‘वर्ग विभिन्नता’ का कोई ऐतिहासिक
पुरातत्वीय आधार, या समकालीन कोई साहित्यिक एवं तार्किक आधार नहीं मिल पाता है, तो
उसे जेनेटिक आधार की ‘वैशाखी’ देने की प्रयास किया जाता है| फिर इन “मिथकों यानि
कहानियों” को पुरातन, सनातन एवं विरासत के नाम पर संरक्षित एवं सुरक्षित कर दिया
जाता है और इन्हें ‘पवित्रता’, ‘गौरवता’, एवं ‘अनुकरणीयता’ का खोल चढ़ा दिया जाता
है| इन ‘वर्गों’ की उत्पत्ति एवं उद्विकास की कहानी भी ‘दैवीय’ या अतार्किक आधारों
से समर्थित बनाया जाता है|
जब इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या, यानि वैज्ञानिक
भौतिकवाद’ पर आधारित व्याख्या किया जाता है, तब सभी झूठी कहानियाँ ऐतिहासिक नहीं
रह जाती| आदमी का सफ़र चालीस लाख वर्ष पूर्व पेड़ पर रहने वाले वानर (Ape) से शुरू
होता है, और आजतक की कहानी में सम्पूर्णता होता है| इस उदविकासीय यात्रा में सभी
वर्गों की उत्पत्ति एवं उद्विकास को तार्किक रूप में आ जाना चाहिए| आज से दस हजार
वर्ष पूर्व तक मानव पाषण युग में था और पत्थरों पर ही निर्भर था| उस समय तक आदमी
हिसंक पशुओं से, प्राकृतिक विपरीत परिस्थितियों से, और अपनी जैवकीय अनिवार्यताओं
को सुलझाने में परेशान रहा| इसीलिए उस समय तक कोई व्यवस्थित एवं संगठित सभ्यता और
संस्कृति का उदय ही नहीं हुआ था| किसी भी वर्ग की उत्पत्ति एवं उद्विकास की
व्याख्या को इसी के मद्देनजर जाँचा जाय, तो उनकी पौराणिकता, उनकी सनातनता, उनकी
उत्पत्ति की कहानियाँ और तथाकथित गौरवमयी गाथा, सभी ध्वस्त हो जाता है|इसी आधार पर यह स्पष्ट है कि सभी तथाकथित वर्ग पांच सौ सालों के अंदर स्थापित है, उसके पहले नहीं। और इसके ही
साथ ‘सत्ता वर्ग’ के “वर्ग” की प्रमाणिकता नष्ट हो जाती है| यही सत्य है, और बाकि
सब कहानियाँ हैं|
यही एकमात्र उपाय है, जिससे किसी भी “सत्ता
वर्ग” का नाश हो सकता है, और “वर्ग-विहीन सत्ता” का आगमन हो सकता है| यह है ‘वैज्ञानिक
भौतिकवाद’ की शक्ति|
आचार्य
प्रवर निरंजन जी
अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति
संवर्धन संस्थान|
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