मानव प्रजाति के सामने एक
अहम् सवाल होता है कि आदमी आगे कैसे बढे, या समाज कैसे बदले, यानि आदमी और समाज कैसे विकसित और समृद्ध हो? यहाँ यह भी महत्वपूर्ण होता है कि आगे बढ़ने से
क्या तात्पर्य हो सकता है? आदमी या समाज को आगे बढ़ने या बदलने की दिशा में क्या करना चाहिए? एक आदमी
कहने से मानव के कौन कौन से किस्म यानि विभेद इसमें शामिल हो सकते हैं? इस तरह यह
एक विशद् विमर्श होगा कि एक आदमी क्या क्या करे, जिससे उसका ‘आगे बढ़ना’ सुनिश्चित
कहा जाय?
आदमी से मेरा तात्पर्य वैज्ञानिक शब्दावली के ‘होमो
सेपियंस सेपियंस’ से हैं, जिसमे सभी ‘स्त्री’, ‘पुरुष’, ‘थर्ड जेंडर’ (प्राकृतिक
रूप से उभयलिंगी, यानि दोनों लिंग के लक्षण) एवं ‘ट्रांसजेंडर’ (जिसने चिकित्सा
द्वारा अपना लिंग परिवर्तन करा लिया है), यानि सभी चारों लिंग, सभी रंग,
प्रजाति, जाति,
कास्ट (इसमें क्षैतिज विभाजन तो होता है, लेकिन उर्घ्वाकार विभाजन नहीं होता है,
जबकि जाति में दोनों विभाजन एकसाथ होता है) के लोग शामिल हो जाते हैं| तो मैंने यहाँ आदमी
में सभी जीवित यानि लगभग आठ अरब, यानि कुल समेकित आबादी को शामिल कर लिया है|
सवाल यह है कि एक आदमी कैसे और किस दिशा में आगे
बढे? आदमी तो जैवकीय रूप में एक साधारण पशु है, स्तनपायी पशु| तो एक आदमी में
ऐसा क्या है, जो एक आदमी को एक साधारण स्तनपायी पशु से भिन्न, उच्चतर एवं विशिष्ट
बनाता है? स्पष्ट है कि ‘चेतना’
का विकास ही इसे जीवित रखता है, और ‘चेतना’ का विशिष्ट एवं उच्चतर विकास ही इसे एक
सामान्य पशु से अलग एवं विशिष्ट बनाता है| मतलब यह हुआ कि ‘’विकसित चेतना का ‘और संवर्धन” (Improvement)
करना’ ही एक आदमी का ‘जीवन उद्देश्य’ (Purpose of Life) हुआ| ‘सकारात्मक एवं रचनात्मक
दिशा’ में ‘विकास करना’ ही “संवर्धन” कहलाता है| तो एक आदमी के ‘चेतना का संवर्धन’
किस दिशा में किया जाय?
महान भारतीय अर्थशास्त्री एवं नोबल पुरस्कार
विजेता अमर्त्य सेन ने एक अवधारणा दिया और उस पर एक पुस्तक भी लिखी, जिसका
नाम – ‘Development
as Freedom’ दिया| इसी अवधारणा के लिए
उन्हें 1998 में अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार दिया गया| इसी अवधारणा को ही ‘सक्षमता उपागम’ (Capability
Approach) भी कहते हैं, अर्थात किसी
आदमी को इस तरह सक्षम बना देना, ताकि वह स्वतंत्र जीवन जी सके| ध्यान रहे कि ‘आय’
में वृद्धि करना ‘विकास’ की अवधारणा से बाहर हो गया है| अर्थात स्वतन्त्रता
पाना ही विकास है| यही वास्तविक विकास है, इसी का संवर्धन करना ही विकास है, और UNDP ने भी इसे ही विकास का
समुचित एवं पर्याप्त अवधारणा माना है|
तो फिर सवाल यह उठता है कि एक आदमी क्या करे,
या हमलोग क्या करे, कि एक आदमी, या पूरा समाज ही ‘सक्षमता उपागम’ से इस तरह आगे बढे
कि वह स्वतंत्र जीवन जी सके? इस तरह एक आदमी की स्वतन्त्रता, या मुक्ति प्राप्त होना ही वास्तविक
विकास है, जीवन लक्ष्य की वास्तविक प्राप्ति है, जो समस्त मानव को मुक्ति का मार्ग दिखा सके|
तो आप फिर यह पूछ सकते हैं कि ‘मानव- मुक्ति, या स्वतंत्रता’ से मेरा क्या
तात्पर्य होगा? मैं यहाँ आपको स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इतनी पवित्र अवधारणा का
‘आध्यात्मिकता के बाजार’ में क्या क्या दुरूपयोग किया जा रहा है, मैं इस पर
कुछ नहीं कहना चाहता, और आप स्वयं ही इस पर सम्यक निर्णय कर ले सकते हैं| ‘मानव-
मुक्ति, या स्वतंत्रता’ से यह तात्पर्य है कि कोई भी आदमी अपने व्यक्तित्व का विकास, यानि संवर्धन इस तरह करे,
ताकि समस्त मानवता की चेतना का, भविष्य (भावी पीढ़ी) के मद्देनजर सकारात्मक एवं
रचनात्मक संवर्धन किया जा सके| ‘मुक्ति’ (Liberty) शब्द किसी पूर्व से
स्थापित बंधन से स्वतंत्र होना है, जबकि ‘स्वतंत्रता’ (Freedom) शब्द किसी
की ‘मुक्ति’ के बाद आता है| आपने भी ध्यान दिया होगा कि भारतीय संविधान के ‘उद्देशिका’
(Preamble) में “Liberty” शब्द का उपयोग है, जबकि संविधान
के भाग तीन (मूल
अधिकार) में “Freedom”
(स्वतंत्रता) शब्द
का उपयोग है|
आपने भी पढ़ा होगा कि ‘जनवादी चीनी गणतंत्र’ (Peoples
Republic of China), यानि कम्युनिस्ट चीन ने ‘बंदूक
की नली’ से तो सत्ता प्राप्त किया था, लेकिन उसने तुरंत ही “महान सांस्कृतिक क्रान्ति” (Great Cultural
Revolution) का
बिगुल फूंक दिया| यह 16 मई 1966 से 06 अक्तूबर 1976 तक, यानि एक दशक से ज्यादा लम्बी
अवधि के लिए चला, जो ‘पुराने विचारों’, ‘पुरानी संस्कृति’, ‘पुराने रीति रिवाज,
एवं ‘पुरानी आदतों’ को बदलने के लिया था, और उसने बदल दिया| इसके ही आधार पर
भारत से पिछड़ा हुआ एक राष्ट्र अपने को ऐसे उभार सका कि आज यह विश्व का तथाकथित
महाशक्तिशाली राष्ट्र – संयुक्त राष्ट्र अमेरिका (USA) से भी हर मामलों में आगे
निकलता जा रहा है| इस तरह यह ‘विश्व की व्यवस्था’ (World Order) को ही बदल
रहा है, जिस पर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अमेरिका का दबदबा रहा|
हालाँकि ‘पुराने विचार, ‘पुरानी संस्कृति’, ‘पुराने
रीति रिवाज, एवं ‘पुरानी आदतें’, यानि ये सभी चारों तत्व एक ही साथ ‘संस्कृति’ (Culture) ही कहलाती हैं| ‘संस्कृति’ और कुछ नहीं है,
यह सिर्फ व्यक्ति एवं समाज को ‘स्वचालित मोड’ (Automated Mode) में संचालित,
नियंत्रित, नियमित एवं निर्देशित करने वाला एक ‘साफ्टवेयर’ मात्र है| अकसर लोग चित्र कला, शिल्प
व् स्थापत्य, गीत व् संगीत, नाट्य कला, आदि को ही ‘संस्कृति’ समझ लेते हैं, जबकि
यह सब ‘संस्कृति’ नहीं है, ये सब ‘संस्कृति की अभिव्यक्ति’ (Expression of Culture) होती है|
स्पष्ट है कि यदि आज हम अपेक्षित रूप से पिछड़े
हुए हैं, तो इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि हमारी संस्कृति, यानी पुराने विचारों’, ‘पुरानी
संस्कृति’, ‘पुराने रीति रिवाज, एवं ‘पुरानी आदतों’ को बदल देने की अनिवार्यता है|
हमारी
संस्कृति ही हमारी जीवन दृष्टि है, हमारी सामाजिक दृष्टि है, और यही हमारी विश्व
दृष्टि भी है|
इसी को हम ‘जीवन दर्शन’, ‘सामाजिक दर्शन’ एवं ‘विश्व दर्शन’ कह सकते हैं| ‘दर्शन’ और कुछ नहीं है,
यह सिर्फ व्यक्तिगत जीवन, सामाजिक जीवन एवं विश्व जीवन को सम्यक एवं सम्पूर्णता
में देखने, समझने एवं व्यवहार करने की ‘दृष्टि’ है, यानि ‘दृष्टिकोण’ है| इसी को हम ‘संस्कृति’ कहते हैं| वैसे सामान्य एवं साधारण
आदमी को इस ‘दर्शन’ से दूर रहने के लिए ‘दर्शन’ को मायावी दुनिया से जोड़ कर दिखाया
एवं समझाया जाता है| दरअसल ‘दर्शन’
आपको ‘सत्ता’ तो नहीं दिलाता है, लेकिन ‘सत्ता’ की समझ अवश्य दिलाता है, यानि ‘सत्ता’
पर काबिज होने की समझ बनाता है| इसीलिए ‘यथास्थितिवादी’ लोग
दर्शन को ‘गूढ़, गंभीर, और कठिनतर विषय’ के रूप में प्रस्तुत करते है, ताकि सामान्य
एवं साधारण आदमी इस दृष्टिकोण से दूर रहे|
किसी भी ‘दर्शन’ यानि ‘संस्कृति’
का निर्माण वहाँ के लोगों की “ऐतिहासिक समझ” (Perception of History) से होती है| किसी भी इतिहास की वास्तविक समझ ‘इतिहास के
भौतिकवादी’ दृष्टिकोण से स्पष्ट होती है, इसीलिए सत्ता सदैव “इतिहास के भौतिकवादी
दृष्टिकोण” से डरती है, और इसी कारण वह सदैव ही ‘इतिहास के भाववादी दृष्टिकोण’ को
ही स्थापित करती रहती है| यह
सब तथाकथित पुरातन, सनातन, एवं विरासत के नाम पर चलाया जाता है, जबकि “इतिहास का भौतिकवादी दृष्टिकोण”, इस तथाकथित पुरातन, सनातन, एवं विरासत की अवधारणा को ही उलट देता है|
अत: यदि आपको मानव होने के नाते अपनी “मुक्ति” चाहिए, तो आपको अपने जीवन दर्शन को बदलना होगा, यानि अपनी संस्कृति को वैज्ञानिक बनाते हुए बदलना होगा, यानि आपको “इतिहास के भौतिकवादी दृष्टिकोण” को अपनाना होगा| तब आपका सब कुछ बदल जायगा, यानि आपके ‘वर्तमान’ और ‘भविष्य’ के ही साथ आपका ‘प्राचीन’ भी बदल जायगा| चूँकि मैंने यह सब गंभीरता से लिखा है, इसीलिए आपसे अनुरोध है कि मेरी उपरोक्त बातों को गंभीरता से समझने का प्रयास किया जाए| इससे न केवल आपका व्यक्तिगत कल्याण होगा, बल्कि समस्त मानवता का कल्याण होगा।
(आप लेखक के अन्य आलेख निम्न लिंक पर देख सकते हैं niranjan2020.blogspot.com)
आचार्य
प्रवर निरंजन जी
अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति
संवर्धन संस्थान|
अन्तरात्मा की गहराइयों से निकला एक अद्भुत कल्याणकारी विचार।
जवाब देंहटाएंआचार्य जी को बहुत बहुत साधुवाद।
विकसित चेतना का संवर्धन, आध्यात्मिकता की बाजार, इतिहास की दर्शन, इत्यादि का आपने बड़ी अच्छी तरह से समझाया है।
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धन के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद देता हूँ।