शुक्रवार, 16 मई 2025

अकसर वास्तविकताएँ होती नहीं है, बना दी जाती है

“वास्तविकता” (Reality) सदैव ‘वास्तविक’ (Real) नहीं होती है, अकसर काल्पनिक को ही वास्तविक बना दिया जाता है| ‘वास्तविक’ उसे कहते हैं, जो अपने नाम, स्वरुप, संरचना, स्वभाव, प्रकृति के अनुसार अपना प्रभाव या परिणाम उत्पन्न करता है| और यदि यही या ऐसा ही परिणाम कोई काल्पनिक भी उत्पन्न कर देता है, तो वह ‘वास्तविक’ नहीं होते हुए भी ‘वास्तविकता’ के ही समकक्ष हो जाता है, यानि इस मामले में वह काल्पनिक ही ‘वास्तविकता’ हो जाता है| अब इसे थोडा स्थिरता से और विस्तार से समझते हैं|’पहले भी और आज भी यह ‘काल्पनिकता’ ‘वास्तविकता’ की परिणाम दिलाता आ रहा है, चाहे यह राजनीति हो या आस्था हो, या जीवन दृष्टि के अन्य पक्ष|

आपने भी इसी तरह के कई वक्तव्य सुने होंगे, जैसे “संसाधन’ (Resource) होते नहीं है, बना दिए जाते हैं”| या, इसी तरह, “स्त्रियाँ होती नहीं है, बना दिया जाता है”| या, आदमी डरपोक (Timid) होता नहीं है, बना दिया जाता है| या, आदमी बेवकूफ (Silly) होता नहीं, बना दिया जाता है| या, घटनाएँ घटित नहीं होती है, लेकिन घटित होना स्थापित करा दिया जाता है| या, विकास वैसा होता नहीं है, लेकिन इसे स्थापित करा दिया जाता है| और इनमे वास्तविक्ताएँ नहीं भी होती हो, लेकिन परिणाम या प्रभाव पा लिए जाते हैं| और ऐसा खेल अज्ञानता के संसार में खूब चलता रहता है, या आप कहें तो ऐसा खेल शताब्दियों तक भी आसानी से चलता रहता है, या चलाया जाता रहा है, या आज भी बखूबी चल रहा है|

यह अर्थशास्त्र में स्थापित है कि संसाधन’ होते नहीं है, बना दिए जाते हैं”| जैसे कोयला एक पत्थर है, जिसे आदिम युग से ही उर्जा के स्रोत,  यानि संसाधन के रूप में उपयोग किया जा रहा है| तकनीक बदल कर यूरेनियम का उपयोग उर्जा के स्रोत के रूप में किया जाने लगा| लेकिन इन सभी उदाहरणों में तकनीक बदल कर, यानि प्रक्रिया बदल कर, यानि वास्तविकताओं को ही बदल कर प्रभाव पैदा कर लिया जाता है| इस तरह यह इस लेख के शीर्षक के अनुरूप सही नहीं हुआ, क्योंकि इसमें काल्पनिकताओ को स्थान नहीं दिया गया है|

लेकिन “स्त्रियाँ होती नहीं है, बना दिया जाता है” के मामले में एक परीक्षण किया जा सकता है| ऐसा प्रसिद्ध फ़्रांसिसी दार्शनिक सिमोन द बौआर कहती हैं| इनके अनुसार आदमी में यौन के आधार पर पुरुषों एवं स्त्रियों में ‘यौनिक विभेद’ (Sexual Discrimination) तो किया जा सकता है, जो एक दूसरे की पूरकता (Complementry) के रूप व्यक्त होता है, लेकिन पुरुषों एवं स्त्रियों में तो ‘लैंगिक विभेद’ (Gender Discrimination) समाज द्वारा स्थापित कर दिया जाता है| यह ‘लैंगिक विभेद’ सर्वथा अनुचित माना जाता है, क्योंकि यह काल्पनिकताओं पर आधारित नकारात्मकता होता है| यहाँ इन दोनों की पूरकता की ओर ध्यान नहीं देकर ‘विभेदता’ को ही वास्तविकता का आधार बना दिया जाता है| ‘लैंगिक विभेद’ में सामाजिक काल्पनिक मान्यताओं को स्त्रियों पर थोपा जाता है और इस काल्पनिक मान्यताओं का प्रभाव एवं परिणाम वास्तविक, लेकिन नकारात्मक एवं विध्वंसात्मक होता है| इस मामले में वास्तविकताएँ होती नहीं है, बना दी जाती है, और यह सही साबित भी हो जाती है|

इसी तरह, आदमी डरपोक (Timid) होता नहीं है, बना दिया जाता है| या, आदमी बेवकूफ (Silly) होता नहीं, बना दिया जाता है| जब आदमी डर जाता है, तब वह बहुत मुलायम (Soft) हो जाता है, और कोई भी उसे जानवर बना ले, या देवता बना दे, यह सब बनाने वाले की चतुराई पर निर्भर करता है| ‘भालू आ जायगा’ सुनकर तो बच्चा भी जल्दी सो जाता है, लेकिन ‘ऐसा नहीं करने पर नरक मिलेगा, या अगला जनम कुत्ता में होगा’ कह कर बुद्धिजीवियों को ठग भी लिया जाता है| वास्तविकता हो या नहीं हो, किसी को ‘डरा’ कर और अपने को ‘हीरो’ बना कर लोगों को अपने प्रभाव में ले आना बहुत साधारण कलाबाजी माना जाता है| आजकल ‘कृत्रिम बुद्धिमत्ता’ के जमाने में सब कुछ एक ही कमरे में बैठ कर काल्पनिकताओं को वास्तविक प्रभाव पैदा करने वाला बना दिया जाता है| इसी तरह जब कोई भी, तथाकथित डिग्रीधारी, या धनधारी, या पदधारी, को बेवकूफ बनाना हो, तो जैसे किसी को डरपोक बनाया जाता है, वैसे ही इन तथाकथित बुद्धिजीवियों को भी बेवकूफ बना दिया जाता है| कुछ संस्कृतियों में डिग्रीधारी, या धनधारी, या पदधारी होने के लिए आपको ‘आलोचनात्मक चिंतन’ (Critical Thinking) की आवश्यकता नहीं होती है, और आप सिर्फ अपने ‘सामाजिक पूँजी’ (Social Capital) के आधार पर ही बहुत कुछ पा ले सकते हैं| कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों से तो मात्र प्रतिक्रिया लेकर ही उनके समय, संसाधन, ऊर्जा एवं वैचारिकी को नकारात्मक दिशा में उपयोग कर उन्हें बर्बाद किया जाता है, या किया जा सकता है| इन दोनों अवस्थाओं में वास्तविकताएँ होती ही नहीं है, बना दी जाती है|

कुछ घटनाएँ इतिहास के कालों में घटित ही नहीं हुए, लेकिन उसे घटित हुआ माना जाता है, यानि उसे ऐतिहासिक तथ्य मान लिया जाता है और इतिहास में स्थापित कर दिया जाता है| ऐसा करना तथाकथित डिग्रीधारी, या धनधारी, या पदधारी के समय में बहुत सरल होता है, और यह बहुत ही साधारण बात होती है| कोई किसी भी घटना को ऐतिहासिक बताने के लिए उसे ‘रटन्त विद्या’ का सहारा देता है, या ज्यादा समझदार लोगों को ‘जीनीय शोध’ को आधार बता कर ही काल्पनिकता को वास्तविकता में बदल देने में सफल हो जाता है| साधारण बातें सामान्य जन को समझ में नहीं आती है, और इसी तरह तथाकथित डिग्रीधारी, या धनधारी, या पदधारी को भी ‘जीनीय शोध’ के नाम पर कुछ समझ में नहीं आता है| इन ‘जीनीय अध्ययनों’ के नाम पर एजेंडा का समर्थन करता हुआ कुछ भी प्रस्तुत कर दिया जाता है, और विपरीत जाते हुए साक्ष्यों को चर्चा में ही नहीं लाया जाता है| ऐसे नाटकों के लिए किसी भी पुरातात्विक साक्ष्यों की प्रमाणिकता की आवश्यकता ही नहीं होती है| और काल्पनिकताओं को वास्तविक बना दिया जाता है|

इसी तरह, कुछ व्यवस्था विकास का सही अर्थ समझती नहीं है, या तो खूब समझती है, लेकिन विकास का ढिंढोरा मीडिया पर नियंत्रण कर बुलंद करती रहती है, जैसे ये विकास के जादूगर ही हों| इन्हें विकास (Development) एवं वृद्धि (Growth) में अंतर समझ में नहीं आता, शायद इसीलिए सीमेंट के खपत में उछाल (वृद्धि) को ही विकास समझ लेता है और लोगों को ऐसा ही समझा देता है| प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन लोगों की ‘क्षमता’ (Capability approacb) में विस्तार को ही ‘वास्तविक विकास’ मानते है, जबकि सरकारे लोगों के आय में वृद्धि के लिए विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत धन को ही बाँट (लुटा) कर उनकी आय बढा देती हैं और विकास की वाहवाही लूट लेती है| यह भी काल्पनिकताओं को वास्तविकता में दिखाने का एक घटिया प्रयास होता है| इन वास्तविकताओं का प्रभाव चुनाव में तो दिख सकता है, लेकिन वास्तविक जीवन यथावत ही रहता है|

स्पष्ट है कि “अकसर वास्तविकताएँ होती  नहीं है, बना दी जाती है”, पूर्णतया सत्य है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

The Mistakes in the Upbringing of Children

Upbringing is the way parents guide and treat their children to help them understand the changing world and eventually lead it. It is the p...