शनिवार, 10 मई 2025

क्या इतिहास भी विज्ञान है?

इतिहास का अध्ययन समाज को, राष्ट्र को, मानवता को और भविष्य को सम्हालने, सजाने, संवारने एवं सुनियोजित संवर्धन के लिए अनिवार्य हो जाता है| इतिहास की समझ एवं अवधारणा ही हमारी संस्कृति को गढ़ती (to give the shape) रहती है| और यह संस्कृति ही समाज को, राष्ट्र को, मानवता को और भविष्य को सम्हालने, सजाने, संवारने एवं सुनियोजित संवर्धन के लिए एक ‘साफ्टवेयर’ के रूप में अदृश्य मोड़ में कार्य करते हुए नियमित, निर्देशित, नियंत्रित एवं संचालित करती रहती है| यह हमें, यानि हमारी भावनाओं को, विचारों को, व्यवहारों को तथा कर्मो को ‘स्वचालित मोड़’ (Autopilot Mode) में रखती है| इस तरह ‘इतिहास’ अध्ययन हमारे वर्तमान जीवन एवं हमारे भविष्य के समस्यायों को सुलझाने के लिए अनिवार्य हो जाता है| इसीलिए ‘शासन का दर्शन’  इतिहास की समझ के पथ से आगे जाता है|

तो इतिहास क्या ‘कला’ का विषय है, या ‘मानविकी’ का विषय है, या ‘शुद्ध विज्ञान’ का विषय है? मतलब इतिहास का अध्ययन किस रूप में करना समुचित और उपयुक्त है? ‘कला (Arts)’ विषयों में ‘दृश्य कला (Visual Arts)’, ‘गीत एवं संगीत’, ‘नाट्य एवं नृत्य’, ‘साहित्य’ और ‘सिनेमा’ आदि शामिल किया जाता है, जबकि ‘मानविकी’ (Humanities) के विषयों में ‘इतिहास’ ‘दर्शन’, ‘भाषा’, एवं ‘सांस्कृतिक तथा सामाजिक अध्ययन’ आदि शामिल किए जाते हैं| इस तरह ‘कला’ भावनाओं की अभिव्यक्ति हुई, और ‘मानविकी’ विचारों का मंथन, यानि विमर्श का विषय हुआ| लेकिन विज्ञान ‘प्राकृतिक नियमों’ को जानने एवं समझने की विधा हैं, जिसे ‘निरपेक्ष अवलोकन’ (Empirical Observation), ‘परिकल्पना निर्माण’ (Hypothesis Formation), ‘परीक्षण’ (Experimentation), ‘विश्लेषण’ (Analysis) एवं ‘निष्कर्षण’ (Conclusion) के द्वारा सम्पादित किया जाता है| यह विज्ञान किसी भी विषय का ‘व्यवस्थित’ (Systematic), ‘संगठित’ (Organised) एवं ‘विवेक’ (Rational) पूर्ण ज्ञान है| अर्थात किसी ज्ञान में इन तीनों में से कोई भी एक तत्व का अभाव हो जाता है, तो वह विज्ञान नहीं है| स्पष्ट है कि विज्ञान प्राकृतिक नियमों को जानने समझने का एक ‘विषय’ भी है, और यह विज्ञान उससे भी ज्यादा अध्ययन का एक विधा (Methodology) है, एक ‘अध्ययन विधि या तरीका’ (Way to Study) है, एक ‘नजरिया’ (Attitude) है, एक दृष्टिकोण (Perspective) भी है|

‘कला’ हो, या ‘मानविकी’ हो, या ‘विज्ञान’ हो, ये तीनों ही अध्ययन क्षेत्र मानव की अभिव्यक्ति के रूप में प्रकट (प्रत्यक्ष) होता है, जिसे मानवीय भावनाओं, विचारों, व्यवहारों एवं कर्मो के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है| ‘इतिहास’ को ‘बीते’ हुए काल की मानवीय भावनाओं, विचारों, व्यवहारों एवं कर्मो का व्यवस्थित, ‘संगठित’ एवं ‘विवेकपूर्ण’ ज्ञान माना जाता है, जो मानव को ‘और बुद्धिमान’ बनाता है| इस रूप में भी. इतिहास एक विज्ञान है| चूँकि विज्ञान अध्ययन का उपागम (Approach) है, और इतिहास का आधुनिक अध्ययन ऐसा ही वैज्ञानिक है, इसीलिए ‘इतिहास’ एक विज्ञान है|

लेकिन समय की धारा में, यानि ऐतिहासिक काल खंड में ‘इतिहास’ सदैव ही ‘विज्ञान’ नहीं रहा है| पहले ‘इतिहास’ अपने अध्ययन उपागम में, अपने अध्ययन विधि में और अपने तकनीक- उपयोग  में विज्ञान नहीं था, बल्कि एक कला या मानविकी का ही विषय रहा है| यह दौर सत्रहवीं एवं अठारहवीं सदी तक चलता रहा| यूरोपीय पुनर्जागरण के साथ ही ‘प्राकृतिक नियमों’ की खोज, परीक्षण, अन्वेषण, सत्यापन में ‘कार्य – कारण’ सम्बन्धों की कसौटी पर कसा जाने लगा, और इस क्रम में कई सिद्धांत स्थापित हुए| इस उपागम से भौतिकी, रसायन, जीवविज्ञान, खगोलीयशास्त्र, गणित आदि अनेक विषयों ने काफी प्रगति किया| दरअसल ‘गणित’ तो विज्ञान को जानने समझने की एक व्यवस्थित भाषा मात्र है, जिसे अंकों, अक्षरों एवं संकेतों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है| इस वैज्ञानिक पुनर्जागरण ने पूर्व से स्थापित कई मान्यताओं, विश्वासों, धारणाओं एवं कई ‘तथाकथित पूर्व से स्थापित वैज्ञानिकता’ को ध्वस्त कर दिया, खंडित कर दिया और खारिज कर दिया| इन प्राकृतिक नियमों का उपयोग, या ऐसे ही प्राकृतिक नियमों की आवश्यकता ‘मानव सम्बन्धों’ की गतिशीलता को समझने के लिए भी आवश्यक था, लेकिन इस ओर तत्कालीन किसी भी दार्शनिकों का ध्यान नहीं गया|

कार्ल मार्क्स मानव इतिहास का वह पहला व्यक्ति हुआ, जिसे लगा कि मानवीय एवं सामाजिक सम्बन्धों गतिशीलता को जानने एवं समझने के लिए भी स्थापित नियम होने चाहिए, जो विज्ञान की तरह ही व्यवस्थित हो, संगठित हो, विवेकपूर्ण हो, तार्किक हो, जिसे सत्यापित किया जा सके, और जिसके आधार पर भविष्यवाणी भी किया जा सके, यानि पूर्वानुमान भी किया जा सके| अर्थात इतिहास के लिए स्थापित सिद्धांत (सिद्ध + अन्त) हो, यानि जो सिद्ध (Proved) भी हो और जो अंतिम (Final) भी हो| कार्ल मार्क्स ने अपने अध्ययन के बाद ‘सामाजिक सम्बन्धों की गतिशीलता’ को समझने के लिए, यानि अतीत के काल, वर्तमान काल एवं भविष्य के काल में “सामाजिक सम्बन्धों की गत्यात्मकता” (Dynamics of Social Relations) की वैज्ञानिक व्याख्या की| इस तरह मार्क्स ने इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या की और इसके सिद्धांत स्थापित किए| इसी उपागम के कारण ‘सामाजिक विज्ञान’ की वास्तविक अवधारणा  स्थापित हुए, एवं ‘सामाजिक सम्बन्धों’ के विषय के अध्ययन की दिशा बदल गयी|

चूँकि मार्क्स ने ‘सामाजिक सम्बन्धों की गत्यात्मकता’ को समझने के लिए प्राकृतिक नियमों की ही तरह, यानि भौतिकी की ही तरह प्राकृतिक नियमों, यानि सामान्य नियमों को स्थापित किया, इसीलिए इन ‘सामाजिक सम्बन्धों गतिशीलता के नियमों’ को “ऐतिहासिक भौतिकवाद” कहा| इस तरह यह ‘सामाजिक सम्बन्धों’ को समझने के लिए एक निश्चित, सर्वव्यापी, सर्वर्कालिक, सत्यापन योग्य सिद्धांत सुनिश्चित कर ‘इतिहास अध्ययन’ को ही विज्ञान की श्रेणी में ला दिया| आज इस “ऐतिहासिक भौतिकवाद” को “वैज्ञानिक भौतिकवाद” के नाम से जाना जाता है| आर्थिक साधन एवं शक्तियों के आपसी अन्तर्सम्बन्धो के आधार पर इतिहास के किसी भी काल खंड के समाज, संस्कृति, आर्थिक स्थिति, एवं सम्पूर्णता के उद्विकास एवं विकास, यानि स्थिति को जाना समझा जा सकता है|

आर्थिक साधन और शक्तियाँ सिर्फ भौतिक ऊर्जा एवं पदार्थों के उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के प्रकार तथा प्रतिरूप को ही नियमित, निर्देशित, नियंत्रित, प्रभावित एवं संचालित कर इतिहास को नियमित एवं प्रभावित करती रही है, बल्कि आर्थिक साधन और शक्तियाँ ही बौद्धिकता और विचारों के भी सृजन एवं सृजनात्मकता को भी नियमित एवं नियंत्रित करती रही है| इसी क्रियाविधि एवं अवधारणा पर आधारित “वाद” को ही ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ कहते हैं| इसके आधार पर इतिहास के किसी भी काल खंड एवं किसी भी क्षेत्र के “सामाजिक सम्बन्धों की गत्यात्मकता” को समझा जा सकता है| इतिहास भी बीते हुए काल के “सामाजिक सम्बन्धों की गत्यात्मकता” ही समझाती है, स्पष्ट करती है|

स्पष्ट है कि इतिहास की कोई भी वैज्ञानिक व्याख्या चार्ल्स डार्विन के ‘उद्विकासवाद’, सिगमण्ड फ्रायड के ‘मनोविश्लेषणवाद’, कार्ल मार्क्स का ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’, अल्बर्ट आइन्स्टीन का ‘सापेक्षवाद’, फर्डीनांड दी सौसुरे का ‘संरचनावाद’ एवं ज़ाक देरिदा का ‘विखंडनवाद’ की अवधारणाओं को अवश्य ही सहारा लेता हुआ होगा, अन्यथा उसकी व्याख्या में कुछ भी अस्पष्टता अवश्य ही रह जायगी|

कोई भी इतिहास दो तथ्यों से तैयार होता है – एक, ऐतिहासिक काल का तथ्य और दूसरा, इतिहासकार, जो इतिहास लिखता है| इतिहासकार वर्तमान काल का, यानि तत्कालीन काल का होता है, और इसीलिए वह इतिहासकार अपनी समझ, अपनी आवश्यकता, अपनी जड़ता, अपनी पृष्टभूमि आदि से नियमित एवं नियंत्रित भी होता है, और उस पर उपरोक्त सभी “वाद” भी कार्यशील होता है| ‘ऐतिहासिक तथ्य’ भी वही बोलता है, जिसे वह इतिहासकार अपनी समझ, अपनी आवश्यकता, अपनी जड़ता, अपनी पृष्टभूमि आदि के कारण बोलवाना चाहता है| यदि कोई भी इतिहास अपने प्रारंभ से आजतक ‘उदविकासीय कड़ी’ से सुसंगत नहीं है, और अपने किसी भी उत्पत्ति एवं विकास की व्याख्या के लिए “दैवीय शक्ति” का सहारा लेता है, या ऐतिहासिक तथ्यात्मक साक्ष्यों के अभाव में “रटन्त तकनीक” (Rote Learning Technique) का सहारा लेता है, तो वह अवश्य ही एक “षड़यंत्र” का हिस्सा है, और वह मात्र एक ‘मानसिक जड़ता’ (Mental Inertia) का प्रतिफल होता है|

स्पष्ट है कि आज ‘इतिहास’ एक स्थापित विज्ञान है, और इसके सहारे कोई भी वर्तमान को, या किसी अतीत की व्याख्या कर सकता है, यानि समझ सकता है, या  आगे का पूर्वानुमान भी कर सकता है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

1 टिप्पणी:

  1. परम आदरणीय आचार्य जी,
    हमेशा की तरह यह आलेख भी बहुत सुन्दर है, उपयोगी है, कल्याणकारी है ❤️👌🇮🇳🙏

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