मंगलवार, 6 मई 2025

हमारे विरोधी कमजोर क्यों नहीं हो पा रहे हैं?

मैंने समाज में एक विचित्र प्रवृति देखी है| हमारा प्रयास रहता है कि हमारा दुश्मन कमजोर हो जाय, या मिट जाय, या बर्बाद ही हो जाय, लेकिन प्रतिफल हमारी भावना के विपरीत ही दिखता है, और हमारा दुश्मन ‘और मजबूत’ होकर उभरता हुआ होता है| ऐसा क्यों होता है, और ऐसा कैसे होता है? यह बात हमें विचित्र इसलिए दिखी, क्योंकि यह हमारी पूर्व से स्थापित धारणा के विपरीत हो रहा था| गंभीर एवं गहन जाँच से पता चलता है कि हमारी यह पूर्व से स्थापित धारणा,  कि ध्यान देने से कमजोर होती है, ही अनुचित था और इसीलिए यह अनपयुक्त भी है|

हम अपने और सामाजिक जीवन में पाते हैं कि यदि हम अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देते हैं, तो हमारा स्वास्थ्य सुधरता है और मजबूत होता जाता है| यदि हम अपने शिक्षा पर पर्याप्त ध्यान देते हैं, तो हमारी शिक्षा एवं बुद्धिमत्ता भी सुधरता हुआ होता है, यानि ‘और मजबूत’ होता जाता है| यदि हम अपनी आर्थिक समृद्धि पर ध्यान देते रहते हैं, तो हमारी आर्थिक समृद्धि सुदृढ़ होती जाती है| अर्थात प्रकृति का यह स्थापित सिद्धांत हुआ कि हम जिस भी चीज पर अपना ध्यान देते रहते हैं, तो वह ‘और मजबूत एवं समृद्ध’ होकर उभरेगा| इसी सिद्धांत के अनुसार, इसी तरह, यदि हम अपने ‘दुश्मन’ पर भी ध्यान ही देते रहेंगे, तो वह दुश्मन ‘और मजबूत’ एवं ‘सशक्त’ होता जाएगा| तब तो ‘दुश्मन’ का इस अवस्था में, इस प्रक्रिया में ‘और मजबूत’ एवं ‘और सशक्त’ होकर उभरना अत्यंत स्वाभाविक है| इस तरह, इसके ‘और मजबूत’ होने की प्रक्रिया में कोई विचित्रता नहीं दिखनी चाहिए| यह तो स्वाभाविक प्राकृतिक सिद्धांत हुआ|

यदि यह एक स्थापित सिद्धांत है, तो इसकी क्रियाविधि (Mechanics) क्या है? हम जिस भी चीज पर ध्यान देते हैं, तो इसका यह अर्थ हुआ कि हम अपनी उर्जा, समय, संसाधन एवं वैचारिकी का उस ‘चीज’ पर निवेश करते हैं, लगाते हैं, देते रहते हैं| जब हम किसी भी चीज में ‘और उर्जा’ देते हैं, तो वह ‘और गतिमान’ हो जाता है, ‘उर्जावान’ हो जाता है और सक्रिय’ हो जाता है, और इस तरह यह अत्यधिक लोगों का ध्यान आकृष्ट करता है, अत्यधिक लोगों के विमर्श का केंद्र बिंदु बन जाता है| इस तरह ‘वह चीज’ उन लोगों, जो ‘उन चीजो’ के विरोधी लोग होते हैं, का जीवन- दर्शन, सामाजिक- दर्शन एवं विश्व- दर्शन का केंद्र बन जाता है, उनका जीवन उसी के इर्द गिर्द घूमने लगता है| इस तरह उसका सम्पूर्ण समर्पण ही उसी के लिए हो जाता है| इस तरह आपका ‘समय’, ‘संसाधन’ एवं ‘वैचारिकी’ का जो सदुपयोग आपके संवर्धन एवं विकास मे होना चाहिए था, वह ऐसे ही बेकार चला जाता है, या उसे ‘नकारात्मक’ ही मान लिया जाना चाहिए|

दरअसल ‘विरोध’ करना भी मात्रात्मक रूप में ‘समर्थन’ करना ही है, सिर्फ इसकी दिशा ‘विपरीत’ होती है, अर्थात ‘विरोध करना’ भी नकारात्मक समर्थन ही है| आपको जहाँ अपनी दुनिया को समृद्ध बनाने के लिए ध्यान देना चाहिए, वहीं आप दूसरों के दुनिया पर ध्यान लगाये हुए हैं, जबकि आपके पास ‘समय’ तो एक निश्चित मात्रा में ही है, और उसका सृजन भी संभव नहीं है| कोई भी ‘उर्जा’, संसाधन’ एवं वैचारिकी का सृजन कर ले सकता है, लेकिन यदि यह भी महत्वपूर्ण है, तो हमें इसका भी सदुपयोग ही करना चाहिए|

यह ध्यान रखना चाहिए कि हमें किसी मौजूद लकीर को मिटाने या हटाने के पक्ष में नहीं रहना है, बल्कि उससे बड़ी लकीर खीचना चाहिए| लेकिन यह बड़ी लकीर भी अनुचित है, क्योंकि इसका सन्दर्भ वही पुरानी लकीर होगा| इसलिए नई कृति के लिए उस पहले की लकीर को भी सन्दर्भ में नहीं लेकर नई दुनिया का ही सृजन करना चाहिए| थोडा ठहर कर सोचिए|

जब हम अपने विरोधी, चाहे वह व्यक्ति, विचार, आदर्श या भावना हो, का विरोध करने के लिए अपना उर्जा, समय, संसाधन एवं वैचारिकी लगाते हैं, तब हम उस व्यक्तित्व का, उस विचार का, उस आदर्श का, एवं उन भावनाओं का प्रचार प्रसार करते हुए होते हैं, और अन्य सामान्य सम्बन्धित लोगों के विश्व दर्शन एवं जीवन दर्शन का केंद्र बनाते हुए होते हैं| तब हम अपना जीवन उद्देश्य उसके विरोध के अनुसार निर्धारित करते हुए होते हैं| तब प्रतिक्रया देना ही हमारा जीवन आदर्श हो जाता है, जीवन उद्देश्य हो जाता है, और तब हमारी चेतनता को सिर्फ प्रतिक्रया देने की आदत सी हो जाती है| तब हमारी अपनी कोई जीवन संवर्धन योजना या आदर्श नहीं रह जाता है, जिस पर हम कोई निश्चित कार्य करना चाहेंगे| ऐसी अवस्था में हमारी भावनाओं का, हमारे विचारों का, हमारे व्यवहारों एवं कर्मों का नियामक, निर्धारक, नियंत्रक एवं संचालक वह दुश्मन ही हो जाता है, जिससे हम मुक्ति चाहते होते हैं| इस तरह हम उसके नियंत्रण में होते हैं, जिससे हम मुक्ति (Liberty) एवं स्वतन्त्रता (Freedom) चाहते होते हैं| यह बड़ी ही विचित्र दास्तान है, जिसे ठहर कर और गंभीर होकर समझने की जरुरत है|

जैसे भौतिक पदार्थ भी समय के साथ स्थिर रहने पर ‘चट्टान’ बन जाता है, उसी तरह हमारे विरोधियों की भावनाएँ, विचार, कल्पनाएँ एवं मान्यताएँ भी समय के साथ एवं अपनी स्थिरता के साथ ही हमरे जीवन की वास्तविकता बन जाती है, सच्चाई बन जाती है, भले वे भावनाएँ, विचार, कल्पनाएँ एवं मान्यताएँ आदि किसी षड़यंत्र के तहत ‘गढ़ी’ गई हो| भारत में बहुत सी सामाजिक सांस्कृतिक भावनाएँ, विचार, कल्पनाएँ एवं मान्यताएँ मात्र कल्पना आधारित है| इसकी सत्यता को जानने के लिए उसे “वैज्ञानिक भौतिकवाद” पर कसने एवं जाँचने की आवश्यकता होती है|

शायद इसीलिए महान वैज्ञानिक एवं दार्शनिक अल्बर्ट आइन्स्टीन कहते हैं कि किसी भी समस्या का समाधान चेतनता के उसी स्तर पर रह कर नहीं किया जा सकता है, जिस चेतनता के स्तर पर विरोधी का अस्तित्व वर्तमान है| इसीलिए हमें समस्या, यानि विरोधी के चेतनता के स्तर से उच्चतर स्तर पर अवश्य ही जाना चाहिए, अन्यथा हम अपने को और तथाकथित अपने लोगों से ‘खेल’ कर रहे होते हैं| ऐसे ‘खेलों’ को भारत में ‘तमाशा’ भी कहते हैं| इसीलिए आपने भी अपने समाज में ध्यान दिया होगा, कि हम जिन सामाजिक सांस्कृतिक समस्यायों से ‘मुक्ति’ या ‘स्वतन्त्रता पाना चाहते रहे हैं, और अपनी समझ के अनुसार जबरदस्त ढंग से विरोध भी करते रहे हैं, वह जबरदस्त ढंग से मजबूत होता जा रहा है, या उभरता हुआ दिख रहा है|

हमें किसी पर भी प्रतिक्रिया देने या किसी को जबाव देने के बजाय हमें अपनी नीति और योजना पर गंभीरता से आगे बढ़ना चाहिए। 

ठहरिए, थोडा स्थिर होइए| किसी भी बिंदु पर आपके ठहरने से ही आप उसकी गहराईयों में उतर सकते हैं, और उन समस्यायों की ‘जड़ों’ को देख, समझ सकते हैं| तब आपको उसका निदान, समाधान भी समझ में आने लगेगा|

 आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपका लेख हमेशा ही सांदर्भिक होता है। बहुत सुंदर ढंग से आपने चित्रण किया है। बधाई हो सर 🙏

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