बुधवार, 17 जुलाई 2024

भारतीय आवारा भीड़ की दिशा

भीड़ यदि आवारा हो, तो उसकी दिशा निश्चित ही नकारावादी और विध्वंसकारी होगी। ऐसी भीड़ चाहे भारतीय हो, या अमेरिकी हो, या पाकिस्तानी हो, आवारा भीड़ तो दिशाहीन होगी ही, और फिर ऐसी भीड़ की दिशा के बारे में क्यों पूछना? कहने का तात्पर्य यह है कि आवारा भीड़ तो उपरोक्त विशिष्टता के अलावे अपनी उपयोगिता और रचनात्मकता में बेकार भी होगी, हताशा भरी भी होगी और उस समाज, राष्ट्र, एवं मानवता को भी बर्बाद करता हुआ होगा। अर्थात एक आवारा भीड़ वर्तमान में जो कुछ भी बना हुआ होगा, उसको भी नष्ट करता हुआ होगा और भविष्य की बुनियाद को भी नष्ट करता हुआ होगा।

यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि भेड़ और भीड़ में भी एक गहरा संबंध है। शायद भेड़ की दशा को ही देख समझ कर ही भीड़ का नामकरण हुआ होगा। इन दोनों की प्रवृत्ति और प्रकृति भी एक ही समान होता है। भीड़ भी भक्त की तरह ही अंधभक्त होता है और भेड़ की ही चलती भी है। इसीलिए एक भीड़ को हांकने के लिए एक गडेरिया का स्वभाव चाहिए। अंधभक्तो की भीड़ को भी एक गडेरिया ही हांक ले जाने के लिए चाहिए होता है। 

हिटलर ने ऐसी ही आवारा भीड़ को नेतृत्व प्रदान किया था। हिटलर का अन्त तो नकारा के रूप में हुआ ही, साथ ही बिस्मार्क के एकीकृत जर्मनी को भी खण्डित हो जाना पड़ा। यदि आवारा भीड़ को हांक लिए जाने का आधार सम्प्रदाय (अधिकतर लोग इसे परम्परागत धर्म के नाम से जानते है) होता है, या जाति या प्रजाति होता है, या संस्कृति होता है, तो हांक लिए जाना बहुत आसान होता है। इन आधारों को तथाकथित बौद्धिकता के ठेकेदार राष्ट्रीयता भी कहते हैं। अर्थात इन सम्प्रदायों, जातियों, प्रजातियो एवं संस्कृतियों पर राष्ट्रीयता का मुलम्मा चढ़ा दिया जाता है। स्पष्ट शब्दों में कहा जाए, तो इसे ही राष्ट्रवाद भी कहा जाता है। आप लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहुमत के आधार पर इसे तथ्यात्मक और प्रामाणिक भी साबित कर दे सकते हैं।

वैसे मैं समझता हूं कि आप इस आवारा भीड़ को नेतृत्व देने के लिए प्रयुक्त शब्द "हांक लिए जाने" को आपत्तिजनक शब्द कह सकते हैं, क्योंकि यह पशुओं के लिए उपयुक्त शब्द है। लेकिन थोड़ा ठहरिए, वर्तमान आदमी, यानि होमो सेपियंस सेपियंस भी तो मूलतः एक स्तनपायी पशु ही तो है। पशुओं के व्यवहार के नियंत्रण का प्रमुख आधार, यानि एक मात्र आधार ' स्वत: स्फूर्त क्रिया' (Reflex Action) होता है, जबकि एक होमो सेपियंस सेपियंस इसके साथ ही 'मस्तिष्क' (दिमाग/ Brain) और मन (Mind) का भी उपयोग करता है। एक मानव अपनी इसी चिन्तन प्रक्रिया और क्षमता के कारण ही होमो सोशियस (सामाजिक मानव), होमो फेबर (निर्माता मानव), और होमो साइंटिफिक (वैज्ञानिक मानव) बन गया। कहने का तात्पर्य यह है कि मस्तिष्क और मन का उपयोग करने वाला ही मानव हुआ और रिफ्लेक्स एक्सन (Reflex Action) देने वाले पशु हुए। अर्थात पैरों की संख्या पशुओं और मानव के विभाजन का आधार नहीं हो सकता। अतः ऐसे लोगों के लिए 'हांक लिए जाने' पर आपत्तियां नहीं होनी चाहिए।

आवारा का अर्थ होता है - निरर्थक इधर-उधर घूमने वाला। यदि इसकी अवधारणा को और स्पष्ट किया जाए, तो यह सीधे, समुचित, उपयुक्त और सार्थक रास्ते से भटक जाने वाले के लिए प्रयुक्त किया जाता है। मतलब कि आप आवारा शब्द में वैसे लोगों को शामिल कर ले सकते हैं, जो अपने जिम्मेदारियों के रास्तों से भटक गए हैं, विचलित हो गए हैं, उतर गए हैं, या छोड़ दिए हैं। भारत में यदि ऐसे लोगों का विश्लेषण करेंगे, तो पाएंगे कि इनमें बहुलता, या अधिकता युवाओं की ही है। 

युवाओं को इस उम्र में अपने परिवार, समाज, राष्ट्र और मानवता को आधार देने की तैयारी करनी चाहिए, लेकिन वे इस अवस्था में आवारागर्दी कर रहे हैं। इन युवाओं में से इनके 'होश' को तो उड़ा दिया जा रहा है, और सिर्फ इनके 'जोश' का 'उपयोग' किया जा रहा है। हालांकि इसके लिए "दुरुपयोग" करना ज्यादा समुचित शब्द है, और इतिहास 'उपयोग' शब्द पर आपत्तियां दर्ज कर सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि इन युवाओं को अपने परिवार, समाज, राष्ट्र और मानवता को सशक्त करने के लिए बाजार की शक्तियों के अनुरूप अपने को आर्थिक आधार देना चाहिए, लेकिन ये राजनीति, जाति और धर्म के नाम पर आवारागर्दी कर रहे हैं।

मुझे तो भारतीय युवाओं की वर्तमान स्थितियों और गतिविधियों को देखकर कष्ट होता है। आपको भी इनकी स्थितियों को देखकर मानवीय संवेदनाओं के अनुरूप कष्ट और दर्द हो रहा होगा। युवाओं की सृजनात्मकता, रचनात्मकता, जोश, उमंग, उत्साह, समर्पण आदि की दिशा को आधारहीन भावनात्मक राष्ट्रीयताओ के नाम पर भटका कर आवारा भीड़ में तब्दील कर देने का परिणाम चिन्ताजनक है। मानवता के सफरनामा के इतिहास में यह बहुत ही बेहूदा और दागदार अध्याय के रूप में लिखा जाएगा।

भीड़ का एक अलग मनोवैज्ञानिक होता है। यह भीड़ समाज नहीं होता। आवारा भीड़ व्यवस्था में अव्यवस्था पैदा करने के अलावा बहुत कुछ गडबड करता है। युवाओं के लिए उपलब्ध शिक्षा रोजगार की गारंटी नहीं देता। स्वरोजगार के लिए सचेत प्रयास भी नहीं किया जाता है। वित्तीय समझदारी बढ़ाने के लिए भी समुचित प्रयास नहीं किया जा रहा है। युवाओं में धर्म, जाति और राजनीति का नशा चढ़ा देना कोई समाधान नहीं देता है। यह युवाओं के लिए कभी भी प्राथमिक और प्रमुख मुद्दा नहीं हो सकता है।

आज बाजार की शक्तियां ही सबसे ज्यादा प्रभावशाली, शक्तिशाली और नियंत्रणकारी साधन है, और इसीलिए विकसित समाजों में परम्परागत राष्ट्रीयताओ के परम्परागत आधार सरक रहे हैं, ध्वस्त हो गए हैं। फिर भी पिछड़ी हुई संस्कृतियों में ये जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र या अन्य परम्परागत राष्ट्रीयताओ का स्वरूप लेकर बड़ी भीड़ को बहुत ही जल्दी इकट्ठी कर लेती है, और इसमें आवारा युवाओं की हिस्सेदारी सबसे बड़ी हो जाती है। यदि आप विश्व की सभी पिछडी हुई अर्थव्यवस्थाओं का विश्लेषण करेंगे, तो आप पाएंगे कि इन देशों में जाति, प्रजाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र या अन्य स्थानीय मुद्दों को राष्ट्रीयता से जोड़ कर वे देश अपने मे उलझे हुए हैं और बरबाद हो रहें हैं। ऐसे देशों में एशियाई और अफ्रीकी देशों के अतिरिक्त सभी पुरानी संस्कृतियों के देश ज्यादातर होते हैं। 

इन आवारा भीड़ को लेकर कोई भी चतुर चालाक व्यक्ति या संगठन उन्माद और तनाव पैदा कर देता है, तो कोई इनसे विध्वंसक कार्य करा लेता है। ऐसा करने वाले जन समर्थन तो पा ले सकते हैं, लेकिन बहुत जल्द ही वे अपने ही समाज, संस्कृति, देश को बरबाद कर रहे होते हैं। इतिहास बताता है कि यही भीड़ फ़ासिस्टों की शक्ति बनती है। इस भीड़ से कोई लोकतंत्र को तोड़ देता है, कोई राष्ट्र को ही खंडित करा देता है, तो कोई मानवीय संवेदनाओं को ही नष्ट करा देता है।

भारत में ऐसी आवारा भीड़ बढ़ रही है। सारे भीड़ों की प्रवृत्ति, और सारे आवारा भीड़ों की प्रकृति वैश्विक स्तर पर एक ही होती है। सभी एक ही मानवीय मनोवैज्ञानिक संवेदनाओं के द्वारा संचालित होता है और इसीलिए सभी की प्रवृत्ति और प्रकृति एक ही होती है। लेकिन आप इसके बारे में भी सोचिए। यह एक गम्भीर समसामयिक विषय है।

आचार्य प्रवर निरंजन

 


2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही हृदयस्पर्शी आलेख। भारत देश ओर उसके युवाओं के उज्वल भविष्य के प्रति लेखक की गहरी चिन्ता उसके गहन देश प्रेम एवं मानवता के प्रति गहरे प्रेम को उजागर करती है। आचार्य प्रवर निरंजन आप धन्य हैं।

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  2. मन मस्तिष्क सार्थक लक्ष्य बनाकर उसे प्राप्त करने के लिए निरन्तर लग जाता है तो समाज और परिवार के लिए उसका योगदान अच्छे परिणाम दे सकता है। सार्थक लक्ष्य के लिए युवा अपने परिवार की अथवा स्थानीय समस्याओं को विचारपूर्वक चयन सकते है।

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