सवाल यह है कि भारत को एक
"राष्ट्र-राज्य (Nation-State)" बनना चाहिए, या एक "राज्य-राष्ट्र (State-Nation)"? भारत
के संदर्भ में यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, जो सान्दर्भिक भी
है और इसीलिए एक गम्भीर विमर्श का विषय भी है।
यह "राष्ट्र-राज्य " और
"राज्य-राष्ट्र" दो अलग-अलग राजनीतिक और सामाजिक - सांस्कृतिक
अवधारणाएं हैं। लेकिन इसे समझने से पहले हमें देश,
राज्य और राष्ट्र की अवधारणा को समझ लेना चाहिए, और इसके साथ ही इसकी बदलती गत्यात्मकता (Dynamism) की
क्रियाविधि (Mechanism) को भी समझा जाना चाहिए।
एक देश (Country) वह निश्चित भौगोलिक क्षेत्र होता है, जो अपनी आबादी की एक निश्चित सामाजिक एवं सांस्कृतिक विन्यास (बनाबट/ Matrix)
का बोध कराता है। अतः एक देश एक राज्य भी हो सकता है, और साथ ही एक राष्ट्र भी हो सकता है, यानि तीनों
स्वरूप एक साथ भी हो सकता है, या नहीं भी हो सकता है। एक राज्य (State) एक
निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में एक स्थिर आबादी का एक निश्चित सरकार होती है और वह
संप्रभु भी होता है। एक राष्ट्र (Nation) ऐतिहासिक
रूप से गठित, लोगों का एक स्थिर समुदाय है, जो एक क्षेत्र, एक आर्थिक जीवन और एक आम एवं विशिष्ट
संस्कृति में प्रकट मनोवैज्ञानिक संरचना के आधार पर बनता है।
भारत 1947 से पहले भी एक देश था और आज भी एक देश है। लेकिन
भारत 1947 से पहले एक राज्य नहीं था, क्योंकि
भारत देश में सम्प्रभुता का अभाव था, जो राज्य के लिए एक
अनिवार्य तत्व है। ज्ञातव्य है कि एक राज्य के आवश्यक तत्व में भौगोलिक क्षेत्र,
स्थिर आबादी, सरकार और सम्प्रभुता शामिल होता
है। भारत एक राष्ट्र के रूप में ब्रिटिश काल में उभरना शुरू हुआ था, और यह प्रक्रिया अभी भी चल रही है, मतलब इसके पहले
भारत एक देश तो था, लेकिन एक राज्य भी नहीं था, और एक राष्ट्र
भी नहीं था। स्पष्ट है कि उपरोक्त तीनों अवधारणाएँ अलग अलग तो हैं, परन्तु इनकी अवस्थाएँ एक दूसरे में रुपांतरित होने के लिए गतिशील भी रहती
है। यह भी स्पष्ट है कि कोई एक देश वर्तमान में एक साथ सिर्फ एक देश ही हो सकता है,
या तीनों अवस्था – देश, राज्य और राष्ट्र का
संयुक्त स्वरूप भी हो सकता है। सभी देश कालान्तर में राज्य तो बनना ही
चाहते हैं, परन्तु कोई राष्ट्र- राज्य ही बनता है, तो कोई राज्य - राष्ट्र।
इसी उपरोक्त सन्दर्भ में अहम सवाल यह है कि भारत को क्या बनना
चाहिए - "राष्ट्र-राज्य " या "राज्य-राष्ट्र"? आपने देश और
राज्य की अवधारणा को स्पष्टतया समझ लिया, क्योंकि यह दोनों ही एक तथ्यात्मक अवधारणा है।
राष्ट्र की अवधारणा को स्पष्टतया समझ लेना थोड़ा कठिनतर होता है, क्योंकि यह अवधारणा मूलतः मानवीय भावनाओं पर आधारित होता है और इसीलिए इन भावनाओं
के आधार कईं कारकों को अपने में समेटे हुए होता है। इन कारकों में सम्प्रदाय (जिसे
अधिकतर लोग धर्म समझ लेते हैं), भाषा, संस्कृति,
इतिहास बोध, क्षेत्र, आर्थिक
और राजनीतिक एकता सबसे प्रमुख है। अब हम "राष्ट्र-राज्य " और
"राज्य-राष्ट्र" को भी उदाहरण के साथ समझते हैं।
"राष्ट्र-राज्य" (Nation-State) एक राष्ट्रीय राजनीतिक इकाई है, जो एक सांस्कृतिक,
भाषा, इतिहास और जातीयता के साझा तत्वों वाले
समूह से निर्मित होता है। और इसके साथ ही, यह स्वतंत्र सम्प्रभुता
की सरकार और भौगोलिक क्षेत्र से निर्मित एक ही इकाई के रुप में एक राज्य भी होता
हैं। इसके स्पष्ट उदाहरण जापान, जर्मनी, इजरायल और फ्रांस हैं। ये सभी "राष्ट्र-राज्य"
हैं, क्योंकि वहां के लोग सांस्कृतिक, भाषाई
और ऐतिहासिक पहचान के साथ एकजुट हैं, और उनके पास अपनी
स्वतंत्र सरकार है। इसकी मुख्य विशेषताओं में एकल राष्ट्रीय पहचान और एकल सरकार
होती है।
जबकि एक "राज्य-राष्ट्र" (State-Nation)
की अवधारणा उपरोक्त से अलग हो जाता है। यह एक ऐसा राज्य है, जिसमें कई राष्ट्र या सांस्कृतिक समूह एक साथ शामिल होते हैं और वे एकसाथ
एक राज्य की रूप में कार्य करते हैं। इसके स्पष्ट उदाहरण
में भारत, संयुक्त राज्य
अमेरिका, स्विट्जरलैंड आदि 'राज्य-राष्ट्र' हैं, जहां
विभिन्न सांस्कृतिक, भाषाई और जातीय समूह एक ही राज्य के
अंतर्गत आते हैं। इसकी मुख्य विशेषताओं में विभिन्न राष्ट्रीय पहचान होते हुए भी
एकल सरकार होती है, जो अपनी विशिष्ट विविधताओं को स्वीकार
करते हुए एकता बनाए रखती है। इसकी अवधारणा राष्ट्रीयता की परिभाषा के साथ ही
गत्यात्मक रहती है।
इस प्रकार, "राष्ट्र-राज्य" में एक राष्ट्र और एक
राज्य का संयोजन होता है, यानि दोनों एक ही होता है। वहीं
"राज्य-राष्ट्र" में विभिन्न राष्ट्रों का एक राज्य में संगठित होना
शामिल होता है, और ऐसा ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के द्वारा होता हुआ
रहता है। हालांकि दोनों अवधारणा गलत नहीं है, परन्तु "राज्य -
राष्ट्र" की अवधारणा आज वर्तमान वैज्ञानिक युग में ज्यादा सफल, समुचित और व्यवहारिक माना जाता है। अपनी विशिष्ट
शर्तों के कारण “राष्ट्र - राज्य” एक छोटे भौगोलिक क्षेत्र, छोटी आबादी, और एक निश्चित
संस्कार में सीमित होते हैं| वहीं “राज्य – राष्ट्र” का भौगोलिक क्षेत्र विस्तृत होता
है, अपने में विविध आबादी को समाहित किए होती है, उसमे सांस्कृतिक विविधताएँ होती है,
और इसका मूल एवं प्राथमिक आधार ‘मानवीयता’ ही होता है| ऐसे ही राज्य वैश्विक शक्तियाँ
बनती है, या बन सकती है|
आज की बाजार की
शक्तियां, यानि आर्थिक शक्तियां, यानि
ऐतिहासिक शक्तियां "राज्य- राष्ट्र" के पक्ष में जा रही है, क्योंकि यह "मानवता" को उभार रही है और
अन्य सांस्कृतिक पहचान को उपेक्षित कर रही है। इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। यह एक गम्भीर
ऐतिहासिक प्रक्रिया है, जिस पर भारत में अभी तक विमर्श शुरू
नहीं हुआ है।
आप यदि इस "राज्य- राष्ट्र" अवधारणा के विरोधी हैं, तो
इसका अर्थ यह हुआ कि आप 'राष्ट्र- राज्य' की अवधारणा के समर्थक हैं। इसके साथ ही यह भी
स्पष्ट अर्थ निकलता है कि आप विभिन्न राष्ट्रीयताओं के सह - अस्तित्व के
विरोधी हैं। लेकिन इनमें बहुत सी राष्ट्रीयताएँ वैश्विक स्तर की हैं, सशक्त
भी है, संपन्न भी है, बौद्धिकता के स्तर में उच्चतर भी है, और बहुलता में भी है,
और इसीलिए आप इसके अस्तित्व एवं सह- अस्तित्व से इंकार नहीं कर सकते। सह -
अस्तित्व के विरोध की आपकी ऐसी भावना भारत के न्यायिक चरित्र को नुकसान भी
पहुंचाती है, और भारतीय गरिमामयी पौराणिक विरासत की छवि को भी दागदार बनाती है।
इसका यह भी स्पष्ट अर्थ निकलता है कि आप राष्ट्रियता
के नाम पर, या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर अपने देश और राज्य
को ही खंडित करना चाहते हैं। यह आपकी मान्यताओं का एक खतरनाक भावार्थ है, और इसीलिए आपको सावधान हो जाना चाहिए।
आप खुद समझदार है। अब आप समझ गए होंगे कि भारत को एक "राष्ट्र-राज्य (Nation-State)" बनना चाहिए, या एक "राज्य-राष्ट्र (State-Nation)"?
आचार्य प्रवर निरंजन
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