शनिवार, 26 मार्च 2022

इतिहास की व्याख्या का आधार

 Basis of Interpretation of History

ऐतिहासिक व्याख्या (Historical Interpretation) किसी भी ऐतिहासिक घटना, प्रक्रिया या रूपांतरण का प्रस्तुतीकरण है| इसके द्वारा हम उन ऐतिहासिक घटनाओं, प्रक्रियाओं एवं रूपांतरण का वर्णन, विश्लेषण, मूल्याङ्कन, एवं रचना (निर्माण) करते हैं| इसमें हम ऐतिहासिक घटना, प्रक्रिया या रूपांतरण को साक्ष्यों, सन्दर्भों, दृष्टिकोणों, पृष्ठभूमियों एवं परिदृश्यों में विश्लेषण कर व्यवस्थित करते हैं| इस तरह कोई भी व्याख्या किसी विशेष उद्देश्य से पूर्ण होता है, और इसीलिए इतिहास के व्याख्या में इतिहासकार के चेतनता का परावर्तन (Conscious Reflection) होता है|

स्पष्ट है कि इतिहास होना चाहिएएवं होता है”-  दो श्रेणी में विभक्त हो जाता है| यह सब इतिहासकार के उद्देश्य एवं मंशा पर आधारित होता है| कोई इतिहासकार साम्राज्यवादी हितों के अनुरूप व्याख्या करना चाहेगा, तो कोई इतिहासकार राष्ट्रवादी हितों के अनुरूप व्याख्या करना चाहेगा, तो कोई इतिहासकार सामन्ती व्यवस्था के धार्मिक स्वरुप को बनाये रखने के ध्येय से व्याख्या करेगा| इसी तरह जनवादी, मार्क्सवादी या वैज्ञानिक इतिहासकार अपने लक्ष्यों को पाना चाहेगा| परन्तु एक सम्यक व्याख्या उसे कहा जाना चाहिए, जो मानवतावादी हो, तथ्यपरक हो, तार्किक हो, विवेकशील और बुद्धि का भी विकास करता हो| यह तय है कि यह व्याख्या समरसता के साथ न्याय, समानता, स्वतंत्रता एवं बंधुत्व को स्थापित करेगा और समुचित विकास को भी स्थान देगा|

हम कोई उपस्थापन यानि प्रस्तुतीकरण को पूर्णरूपेण सही अवस्था में प्रस्तुत नहीं कर सकते, यानि आदर्श सत्य को स्थापित करता हुआ नहीं बता सकते| परंतु उस व्याख्या को उपलब्ध साक्ष्यों एवं तार्किकता के साथ वास्तविकता के निकट तो ला ही सकते हैं| इसे बौद्धिकता से पूर्ण होना चाहिए एवं सम्पूर्ण मानवता के सम्यक कल्याण के निकट भी होना चाहिए| इतिहास की व्याख्या में घटनाओं, क्रियाओं एवं विचारों को क्या’, ‘कैसे’, एवं क्योंके रूप में  वैज्ञानिक एवं विवेकपूर्ण अध्ययन एवं व्यख्यापन किया जाता है|

इतिहास की यह व्याख्या चयनित ऐतिहासिक कारको एवं इतिहास लेखन के उद्देश्य से भी निर्धारित होते हैं| इसी कारण अधिकतर ऐतिहासिक व्याख्या इतिहासकार एवं शासन की विचारधारा एवं राजनीतिक मांग के अनुरूप होती है| मेरा मानना है कि एक सम्यक यानि समुचित इतिहासकार को इतिहास की व्याख्या का उद्देश्य यह रखना चाहिए कि मानवता एवं राष्ट्र के महत्तम संभावनाओं को अभिव्यक्त करने के आवश्यक संरचानाओं के निर्माण में वह व्याख्या पृष्ठभूमि तैयार करे| अर्थात एक बोद्धिक इतिहासकार का यह प्रयास होना चाहिए कि वह उस समाज में समुचित बौद्धिकता स्थापित करने में मदद करे, ताकि उस समाज का सम्यक विकास का आधारभूत ढांचा तैयार हो सके| एक सजग एवं उत्कृष्ट इतिहासकार की यह जबावदेही होती है कि वह मानवता एवं समाज को स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, एवं प्राकृतिक न्याय की स्थापना के लिए समेकित रूप में प्ररित करे|

यदि किसी इतिहासकार का उद्देश्य ऐसा नहीं है, तो वह अपने सामाजिक, मानवता, एवं राष्ट्रीय कर्तव्यों से विमुख है| उसकी यह विमुखता किसी साजिश के कारण हो सकती है, किसी अज्ञानता के कारण हो सकती है या किसी अनुचित दबाव के कारण हो सकती हैयदि कोई इतिहासकार ऐसा नहीं कर रहा है, यानि अपने लक्ष्यों में मानवता, वृहत समाज, एवं राष्ट्र को समाहित नहीं कर रहा है, तो उसे एक बोद्धिक इतिहासकार नहीं माना जाना चाहिए| इतिहास का सर्व व्यापक प्रभाव संस्कृति के माध्यम से किसी के चिंतन तंत्र को नियंत्रित करता है|

इस तरह इतिहासकार की कई महत्वपूर्ण भूमिका निश्चित है| इसके बावजूद यदि वह अपने जातीय, अपने समूह यानि सामन्ती वर्ग के पक्ष के उद्देश्य से संचालित एवं नियंत्रित है, तो उसे भले ही तत्कालीन समाज एवं व्यवस्था माफ़ कर दे, परन्तु इतिहास उसे कभी माफ़ नहीं करेगा| वह इतिहासकार और उसके द्वारा रचित इतिहास कालक्रम के इतिहास में काले पन्नो के रूप में दर्ज होगा, जिस पर उस इतिहासकार की आगामी पीढ़ी भी अपने नाम से उसे जोड़ना पसंद नहीं करेगा| हर अगली पीढ़ी अपनी बुद्धिमता में अधिक तार्किक, अधिक समझदार, अधिक विवेकशील होता जा रहा है, और इसी कारण ऐसे इतिहासकारों की अगली पीढ़ी उसके कृत्यों से घृणा करेगी| इतिहास एवं इतिहासकारों के सम्बन्ध में इन बातों को ध्यान से दुबारा पढने की जरुरत है|

एक इतिहासकार अपने इतिहास की व्याख्या के लिए कुछ भी चयन कर सकता है| कुछ इतिहासकार मिथकों को भी यानि कल्पित कहानियों को भी इतिहास का आधार बना देते हैं| शुरू में तो सामान्य लोगों को अच्छा लगता है, परन्तु बाद में उसे इतिहास के पन्नों से भी हटाना पड़ता है| पहले भारत के इतिहास में एक अध्याय महाकाव्य युग (Epic Age) हुआ करता था, जिसे समुचित साक्ष्य के अभाव में विश्व जगत ने नकार दिया| परिणाम यह हुआ कि आज भारत के इतिहास की किताबों से उस अध्याय को ही हटाना पडा| जब ऐसे इतिहासों की अधिकता हो जाती है, तब विदेशी यह कहतें हैं कि भारतियों में इतिहास बोध ही नहीं था या है| यह सब राष्ट्रीय छवि को नुकसान पहुंचाती है|

लेकिन यदि एक इतिहासकार जब अपने इतिहास लेखन का आधार कार्य कारणआधार को बनाता है, तो उसका इतिहास वैज्ञानिकता के निकट पहुंचता है| विश्व के मान्य एवं उत्कृष्ट इतिहासकार इन्हीं पद्धति को अपनाते हैं| इसके लिए इतिहासकार को उस ऐतिहासिक काल में उसी स्थान पर जाकर उन घटनाओं एवं प्रक्रियाओं को देखने एवं समझने का अवसर मिलता है, जिस काल में एवं जिस स्थान पर वे घटनाएं एवं प्रक्रियाएं हुई थी| इसे ही मैं इतिहास का गुरुत्वीय ताल“ (Gravitational Lensing of History) कहता हूँ|

इतिहास की समुचित व्याख्या के लिए हमें प्राथमिक स्रोत को ज्यादा महत्व देना चाहिए| यदि द्वितीयक स्रोत का प्रयोग भी किया गया है, तो उसे भी प्राथमिक स्रोत से पुष्ट किया जाना चाहिए| इतिहास लेखन के प्राथमिक स्रोत में (खासकर प्राचीन काल के इतिहास लेखन में) पुरातात्विक साक्ष्य, प्रमाणिक अभिलेख एवं शिलालेख, एवं समकालीन वैश्विक अन्य साहित्य ही शामिल किए जा सकते हैं| सभी तथाकथित प्राचीन ग्रन्थ, जो स्वयं दसवी शताब्दी के बाद (कागज के आविष्कार होने एवं उस क्षेत्र में आने के बाद) रचे गए हैं और दावा प्राचीनतम का करते हैं, कभी भी इतिहास के लेखन के प्राथमिक स्रोत नहीं माने जा सकते हैं| यदि फिर भी कोई ऐसा दावा करता है, तो निश्चितया वह वृहत समाज के प्रति गंभीर बौद्धिक अपराध कर रहा है| इतिहास के द्वितीयक स्रोत उसे कहते हैं, जो प्राथमिक स्रोत पर ही निर्भर करता है| अर्थात द्वितीयक स्रोत इतिहास के प्राथमिक स्रोत से प्राप्त तथ्यों की इतिहासकार की व्याख्या से तैयार होता है| भारत में तो कई इतिहासकार या अधिकतर इतिहासकार इतिहास की व्याख्या यानि इतिहास की रचना बिना किसी प्राथमिक एवं द्वितीयक स्रोत के ही काल्पनिक ग्रंथों के आधार पर कर देते हैं| ऐसे ग्रंथों को काल्पनिक ग्रन्थ इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि इनका कोई भी प्रमाणिक पुरातात्विक आधार यानि साक्ष्य नहीं होता है|

किसी भी इतिहास की रचना के लिए प्रयुक्त किसी भी स्रोत की मौलिकता, सत्यता, एवं वास्तविकता को अवश्य ही सुनिश्चित किया जाना चाहिए| आजकल बिना किसी प्राथमिक स्रोत के ही द्वितीयक स्रोत तैयार कर लिया जाता है| और इसी के आधार पर इतिहास की लम्बी लम्बी व्याख्या कर इस तरह परोसा जाता है कि लोग इसकी सत्यता एवं वास्तविकता की खोज पर ध्यान भी नहीं देते| यदि आप सावधान एवं सजग नहीं हैं, तो आप पग पग पर भारतीय प्राचीन इतिहास में धोखा खाते रहेंगे|

एक ही प्रचलित उदहारण ऐसे मामलों को समझने के लिए पर्याप्त है| भारत में चाणक्य के ऐतिहासिकता का कोई प्राथमिक स्रोत नहीं है, सिर्फ द्वितीयक स्रोत ही उपलब्ध है| यह भी द्वितीयक स्रोत बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ का है, और उसके पूर्व का कोई द्वितीयक स्रोत ही नहीं है| चाणक्य के सम्बन्ध में कोई भी प्राथमिक साक्ष्य आज तक उपलब्ध नहीं है| फिर भी चाणक्य पर आधारित लम्बी लम्बी बातें एवं वर्णन इतिहास एवं इतिहास के साक्ष्य के रूप में व्याख्यापित है| कहने का तात्पर्य यह है कि इस काल्पनिक पात्र को रच कर बिना किसी प्राथमिक साक्ष्य के ही इसे ऐतिहासिक बना दिया गया है| प्राचीन भारत में ऐसे कई उदहारण भरे पड़े हैं, आपको सिर्फ अपनी नजरे घुमानी है|

कोई भी इतिहास व्यक्ति एवं समाजका होता है, ‘व्यक्ति एवं या समाजके लिए होता है और व्यक्ति एवं या समाज; के द्वारा ही होता है| अर्थात कोई भी इतिहास किसी काल एवं क्षेत्र के लोगों का होता है| कोई भी इतिहास वर्तमान के लोगों में समरसता एवं विकास के लिए होता है| और कोई भी इतिहास की रचना वर्तमान यानि तत्कालीन व्यक्ति एवं समाज के द्वारा ही तैयार किया जाता है|

एक व्यक्ति एवं या समाज का अस्तित्व शारीरिक भी होता है, मानसिक भी होता है, और आध्यात्मिक भी होता है| किसी भी व्यक्ति एवं या समाज का आधार शारीरिक ही होता है यानि भौतिक ही होता है| इसी भौतिकता पर उसका मानसिक एवं आध्यात्मिक अवस्था तथा प्रभा (Radiance) क्षेत्र बनाता है| इसीलिए किसी भी व्यक्ति या समाज यानि संस्कृति की व्याख्या का मूल आधार भौतिकीय ही होता है, जिसे आर्थिक शक्तियां ही प्रभावित एवं नियंत्रित करती हैं| इसी कारण किसी भी काल एवं किसी भी क्षेत्र का इतिहास आर्थिक शक्तियों के कारकों पर आधारित होता है, और इसीलिए आर्थिक शक्तियों के नियमों से व्याख्यापित यानि रचित होती है|

इसी कारण इतिहास यानि सामाजिक रूपांतरण की क्रमबद्ध गाथा की व्याख्या आर्थिक शक्तियों के तत्वों यानि उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं संचार की शक्तियों एवं उनके अंतर्संबंधों के ही आधार पर किया जाता है| इसके आधार पर सम्पूर्ण सामाजिक रूपांतरण की सही (Correct), सम्यक (Proper), समेकित (Integrated) एवं समुचित (Appropriate) व्याख्या हो जाता है| यही व्याख्या वैज्ञानिक एवं समुचित भी है|

उपरोक्त वर्णित आर्थिक शक्तियों के आधार पर वर्णित इतिहास समुचित एवं सच्चा होता है| इसी के आधार पर ऐतिहासिक नियमों को प्रतिपादित किया जा सकता है| इन स्थापित किये गए नियमों के आधार पर वर्तमान को समझा जा सकता है और भविष्य का पूर्वानुमान किया जा सकता है| ये नियम ही ऐतिहासिक घटनाओं एवं प्रक्रियाओं को निर्धारित एवं प्रभावित करते हैं| इतना ही नहीं, ये नियम ही विचारधाराओं यानि आदर्शों को बनाते हैं| इसीलिए समय एवं संदर्भ के अनुसार ये विचार एवं आदर्श भी बदलते रहते हैं| इसी कारण समय एवं सन्दर्भ में ऐतिहासिक व्याख्या भी बदलते रहते हैं|

इस व्याख्या के आधार पर इतिहास काल में संग्राहक अवस्था, पशुचारण व्यवस्था, कृषि का आगमन, नगरों एवं राज्य का उदय, सामंतकाल का उदय एवं विस्तार, वणिकवाद एवं पूंजीवाद, साम्राज्यवाद एवं साम्यवाद, वित्तीय साम्राज्यवाद एवं डाटावाद; सभी प्रकारों की सभ्यताओं और संस्कृतियों की समेकित, सम्यक एवं समुचित व्याख्या हो जाता है| संस्कृतियों की व्याख्या में सभी पक्ष यथा सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक, धार्मिक, सामरिक, कलात्मक, शैक्षणिक आदि शामिल हो जाते हैं| आप भी इतिहास की ऐसी व्याख्या से संतुष्ट हो जायेंगे

 निरंजन सिन्हा

आचार्य प्रवर निरंजन

5 टिप्‍पणियां:

  1. इतिहास के मौलिक स्वरूप की व्याख्या करता हुआ एक अति उत्कृष्ट आलेख।

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  2. सटीक इतिहास लेखन की यही अनिवार्य शर्तें हैं...

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  3. आलेख बेहद प्रभावी, तथ्यपरक, समुचित, स्तरीय एवं ज्ञानवर्धक है।आपने इतिहास की विचारधारा(Histiography)की प्रभावी और समुचित मीमांसा की है।परन्तु, आज पूरे विश्व में इतिहास की पुनर्रचना और व्याख्यान में बहुत तीव्र गति से बदलाव आ रहा है।आर्थिक असमानता बहुत ही तीव्र गति से बढ़ रही है।सभी देशों में धनिकों की आर्थिक और राजनीतिक ताकत में असीम वृद्धि हुई है।Bioinformatics तकनीक तेजी से समाज में आर्थिक और डिजीटल डिवाइड बढा रहा है।इतिहासकारों को इस पर ध्यान देना चाहिए। मानव भविष्य अनिश्चय की ओर बढ रहा है।स्वतंत्रता,समानता,विश्व वंधुतव, न्याय सरीखे उच्च मानवीय मूल्य जल्द ही अप्रासंगिक हो जायेंगे। अगले लेख का इंतजार रहेगा। VINAY KUMAR THAKUR ACST IB BHAGALPUR

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  4. निरंजन जी एक आम आदमी कैसे पता करे कि कोई ऐतिहासिक ग्रन्थ तथ्य परक है कि नहीं?

    उदाहरण के लिए राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक "वोल्गा से गंगा तक". यह पुस्तक यूरेशियाई मूल के लोगों के भारतीय उपमहाद्वीप में आकर बसने आदि पर विस्तृत प्रकाश डालती है.

    लेकिन कुछ इतिहासकार इसे इपिक के रूप में देखते हैं. प्रश्न यह है कि एक आम पाठक क्या निर्णय ले इस बारे में?

    यदि मध्यकालीन इतिहास पर नजर डालें तो बाबर जैसे आक्रमणकारी यूरेशिया से ही भारतीय उपमहाद्वीप में आये.अत: यह संभव है कि प्राचीन काल में भी इस रीजन से मानवो का भारत की प्रस्थान ओर हुआ हो. लेकिन कुछ लोग आर्यन इनवेजन थ्योरी को पूरी तरह नकारते है.

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